बुधवार, 16 सितंबर 2020

अटकन-चटकन: प्रतिक्रियाएं

रामरतन अवस्थी
मेरे पापाजी इन दिनों अस्वस्थ हैं। बेहद कमज़ोर हो गए हैं। लेकिन हमेशा साहित्य सृजन करने वाले हाथ भी कभी अशक्त होते हैं? उनके हाथों का कम्पन कलम की पकड़ को कमज़ोर नहीं कर पाता। अपनी इस अस्वस्थ अवस्था में भी उन्होंने न केवल 'अटकन-चटकन' पढा, बल्कि उस पर समीक्षा भी लिखी, वो भी अपने हाथ से।  
पापाजी को उपन्यास पसन्द आया, समझिए ठीकठाक लिख गया है। ये समीक्षा मेरे लिखे पर सर्वोच्च अवार्ड सी है। आप भी देखें-

अटकन-चटकन : मेरी दृष्टि में
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सद्य: प्रकाशित उपन्यास "अटकन-चटकन" अपनी चटक - मटक के साथ मेरे सामने टेबिल पर सुशोभित है। पुस्तक का आवरण पृष्ठ इतना आकर्षक  और जीवंत है,  कि पाठक की दृष्टि कुछ पलों को ठहर सी जाती है।
आवरण पृष्ठ का शीर्षक और चित्रांकन उपन्यास की कथावस्तु का सूत्र रूप में द्योतक है, यह इस कृति की विशेषता है। 
उपन्यास का कथानक बुन्देलखण्ड क्षेत्रान्तर्गत ग्राम्य जीवन पर आधारित है। मुझे प्रसन्नता है कि लेखिका वन्दना ने प्रायः उपेक्षित बुन्देलखण्ड की सुधि लेकर साहित्यकारों और पाठकों का ध्यान इसकी ओर आकर्षित किया है। 
गाँव के एक समृद्ध किसान श्री तिवारी जी अपने बड़े परिवार सहित निवासरत हैं। उनके परिवार में दो बहुएं हैं- सुमित्रा और कुंती। उपन्यास का सम्पूर्ण कथानक इन्हीं दोनों के चरित्र के इर्द गिर्द घूमता है। कहानी की मुख्य पात्र भी यही दोनों हैं। सुमित्रा एक सुंदर पात्र है, तन से भी और मन से भी। सहज, सरल, सुशील और शालीनता उसके स्वाभाविक गुण हैं, तो  उससे उलट कुंती, छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष, और बेईमानी की साक्षात मूर्ति। वह सुमित्रा का जीवन, जीना दूभर कर देती है। हाँ उसे कुछ सबक सिखाया तो उसकी बहू जानकी ने , जिसने ' शठे शाठ्यम समाचरेत' की शैली में व्यवहार करके कुंती को सुधर जाने हेतु बाध्य किया है। कुंती के सुधार हेतु प्रमुख भूमिका सुमित्रा की ही रही है।
उपन्यास में कथानक इतना जीवंत और स्वाभाविक है कि उसके पात्र, पाठक के सामने ही अभिनय करते प्रतीत होते हैं।  कृति की भाषा शैली बोधगम्य है- कहीं भी कृत्रिमता नहीं।
अल्प समय में ही 'अटकन-चटकन' बहुत लोकप्रिय और बहुचर्चित हो गया है। सुधि पाठकों की प्रतिक्रियाएं इसका साक्षात प्रमाण हैं। लेखिका की इस सफलता के लिए उन्हें हार्दिक बधाई। 
लेखिका वन्दना की जिस बात से मैं सर्वाधिक प्रभावित हूँ वह है उपन्यास में बुंदेली भाषा का सम्यक प्रयोग। कृति का प्रायः प्रत्येक पात्र अपने संवादों में बुंदेली का यथानुरूप सही प्रयोग करता है। उपेक्षित बुंदेली को सम्मान देकर लेखिका ने बहुत ही सराहनीय कार्य किया है। बुंदेली साहित्यकारों के लिए यह अनुकरणीय कृत्य होगा। 
वन्दना अवस्थी दुबे एक स्थापित साहित्यकर हैं । उन्होंने 'अटकन-चटकन' एक सफलतम उपन्यास देकर साहित्य जगत की बड़ी सेवा की है। ईश्वर करे वे भविष्य में भी अनेक कृतियाँ देकर साहित्य जगत को उपकृत करती रहें। हमारे अमित आशीर्वाद सदैव उनके साथ हैं।
#अटकनचटकन

सूर्यबाला लाल
धर्मयुग के ज़माने से जो लेखिकाएं मुझे बहुत प्रिय रहीं, उनमें से एक मुख्य नाम है सूर्यबाला दीदी का। उन्होंने उपन्यास पढा, अपने हाथ से टिप्पणी लिखी, मुझे तो जैसे जन्नत मिल गयी। कथाजगत का स्थापित नाम है सूर्यबाला दीदी का उनका आशीर्वाद मिलना ही मेरे लिए बहुत बड़ी बात है। आप भी देखें- 

अटकन- चटकन
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प्रिय वन्दना,
तुम्हारे 'अटकन-चटकन' का पहला वाक्य ही "जिज्जी हमें अपने पास बुला लो" बड़ा हठीला निकला। ज़िद्दी बच्चे की तरह मुझसे पूरा उपन्यास पढ़वा ले गया। 
जी भर छकाया। नई, पुरानी कहानी और लोककथा , बोधकथा की सी शैली में रसकथा का सा समां  बांधती , बुंदेली की मिठास घोलती, जितनी विश्वसनीय, उतनी ही अविश्वसनीय , कहीं दिलचस्प तो कहीं हैरत में डाल देने वाली , अजीबोग़रीब चक्करदार गलियों से घुमाती अपने शरारतीपन में ही पूरी पुस्तक पढ़वा ले जाती है तुम्हारी कलम।
अनौपचारिक, घरेलू सी आत्मीय लोकभाषा का रचाव लिए अतिरेकी चरित्रों को भी बख़ूबी अपने हुनर से सँभाल ले जाती है। यहाँ मनोविज्ञान भी है, त्रिया चरित्र भी । स्मृतिकोषों के मोहक नेपथ्य हैं तो बतकही का आनन्द और  तृप्ति भी। और सबके ऊपर , पाठक की उँगली न छोड़ने का बालहठ !!
स्नेहाशीष
सूर्यबाला
 #अटकनचटकन
GT eng
फेसबुक पर वे GT Eng के नाम से लिखते हैं। बहुत सुलझी हुई टिप्पणियां होती हैं उनकी। लिखने पढ़ने के शौक़ीन हैं। बातों वाली गली पर भी आपकी बेहतरीन टिप्पणी आई थी, कल अटकन चटकन पर भी आ गयी। आज उनसे नाम पूछ ही लिया। तो साथियो, GT साब का नाम 'विजय' है 😊 दिल से आभारी हूँ आपकी 🙏

"अटकन चटकन "   वंदना  अवस्थी  जी  का  लिखा  उपन्यास  कल  ही  मिला. ग्रामीण  परिवेश मे  पले  बढ़े  मेरे  जैसे  लोग  इस  तरह  के  लेखन  को  एक साँस में  ही  पढ़ते  है. वंदना जी  अपने  लेखन में  जिस  तरह  बुंदेली  का  रस  निचोड़ती है  वो  ग्रामीण  परिवेश को  आपकी  आँखों के  सामने  जीवंत कर  देता  है.  मैं   पूरब, पश्चिम ,उत्तर, दक्षिण पूरे  भारत  मे  घूमा हूँ  औऱ  80-90 के  दशक  से  हर  जगह ग्रामीण  परिवेश से  रुबरु  होने  का  सौभाग्य  मुझे  मिलता  रहा  है  इसलिये  एक  बात  दावे  से  कह  सकता  हूँ  कि  बेशक  भाषायें  अलग  हो  लेकिन  ग्रामीण  परिवेश  और  परिदृश्य  लगभग  वहीं  है  सब  जगह  एक  जैसे. और इस परिदृश्य  को   एक  चल चित्र  की  तरह  आपके  सामने   प्रस्तुत  कर  देती  है  वंदना  जी . अटकन चटकन  पढ़  के  आपको  महसूस  ही  नहीं  होगा  ये  एक  उपन्यास  है. पात्रों  के  नाम  बदल के  देखने  की  भी  जरूरत  नही  होगी ,कहीं  हमारे  अपने  ही  घर  से  जुड़े  प्रकरण  मिलेंगे कहीं  किसी  जान  पहचान  वाले  के  घर  की  स्थिति  परिस्थितियों  से  साम्य ,  और  ये सब आपको  ये  सोचने  का  अवसर  ही  नहीं  देता  की  आप  कोई  उपन्यास  पढ़  रहे  है.  चमाट..., गरुड़...., मूँछों  में  मुस्कराती  कुंती....  कुल  मिला कर कमाल  का  कथा  शिल्प  है. "चौदह भाई  तीन  बहनें " ये  वाक्य संयुक्त  परिवार  के  उस  समय  को सजीव  कर  देता  है  जिसे  हमने  स्वयं  अपनी  आँखों  के  सामने टूटते   बिखरते  देखा  है.   ऐसे  परिवारो  में बड़े  आपस  में  कितना  भी  वैमनस्य  रख  ले  लेकिन  बच्चों  के  प्रति  प्रेम  निस्वार्थ  और  निश्चल  होता  था  सभी  का. उस  सारे  परिवेश  परिदृश्य से  इतनी  सजीवता  से  रूबरू  कराने  के  लिए  वंदना  जी  का  बहुत-बहुत  धन्यवाद  और  बधाई  एक  शानदार  , जानदार  और  सफल  उपन्यास  के  लिये.
विवेेेक रस्तोगी
आज वंदना अवस्थी दुबे जी का उपन्यास "अटकन चटकन" किंडल अनलिमिटेड में पढ़ने को मिल गया।

लगभग 2 घन्टों में एक ही बैठक में पूरा उपन्यास पढ़ गया व हाथों हाथ अमेजन पर रिव्यू भी डाल दिया।

पता ही नहीं था कि वंदना जी के शब्दों में इतना जबरदस्त जादू है, अब उनके लिखे और भी उपन्यास पढ़ना ही होंगे।

अमेजन पर लिखी प्रतिक्रिया -

बहुत दिनों बाद इतना बेहतरीन उपन्यास पढ़ने को मिला, जहाँ ग्रामीण परिवेश में परिवार के सदस्यों के भोलेपन व चालाकी को प्रदर्शित किया गया है। ग्रामीण भाषा तो मन मोह लेती है, कई बार तो बहुत से संवादों को बार बार पढ़कर रस लेने की चाहत होती है, बहनों के रिश्ते मायके और ससुराल में कैसे रहे, और समझदार को हमेशा ही समझदारी से काम लेना चाहिये, यह पात्रों के माध्यम से सीखने को मिलता है।

बहादुर सिंह परमार
वंदना अवस्थी दुबे के शिवना प्रकाशन से छपा  लघु उपन्यास 'अटकन चटकन' अपने आप में अनूठा है। इसकी कथा कुंती और सुमित्रा के इर्द-गिर्द घूमती है। दोनों चरित्र अपने आप में अनूठे हैं। ऐसी भी सगी बहनें हो सकती हैं? पहले तो अविश्वास सा लगता है किन्तु जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है कथा की विश्वसनीयता की दर भी बढ़ती जाती है। एक सामूहिक परिवार पर भौतिकवादी युग के प्रभाव किस प्रकार पड़ा है? इसको बहुत बारीकी से देखा है कथाकार ने। बुन्देलखण्ड के पिछले पचास सालों की सामाजिक सांस्कृतिक स्थितियों की प्रस्तुति हुई है इसमें। कथा पाठक को बांधकर रखती है। भाषा भावानुकूल व स्थानीय पात्रों के अनुसार है। यह कथा अपने आप में अद्भुत व विशेष है। मेरी ओर से आदरणीया वंदना जी को बधाई। भैया इंजीनियर आर एस नायक व शीला नायक जी को पुस्तक उपलब्ध कराने के लिए धन्यवाद।

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