रविवार, 14 जून 2009

दूरदर्शन के दिन

तब दूरदर्शन के शुरूआती दिन थे। कुछ बड़े शहरों में ही टी.वी.टॉवर थे, लेकिन दूरदर्शन की ललक सब के मन में.... तब बहुत कम घर थे जहाँ टेलिविज़न था। हमारे घर भी तभी टैक्सला का बड़ा श्वेत-श्याम टीवी आया। कुछ दिखने के नाम पर केवल झिलमिलाहट और बीच-बीच में कभी अस्पष्ट तो कभी स्पष्ट चित्र दिखाई दे जाता। इस चित्र को भी देखने के लिए छत पर हवाई जहाज सरीखा एंटीना लगाना पड़ता।
हमारे घर जब टीवी आया तब मैं छोटी ही थी। हाथ ठेले पर रखा टीवी जब हमारे घर आया तो उसका किसी मेहमान की तरह स्वागत हुआ। स्वागत करने हम बच्चा पार्टी पहले ही गेट पर खड़े थे। जैसे ही ठेला आया, मैंने सबसे पहले मोहल्ले के अन्य घरों पर एक विहंगम दृष्टि डाली ये देखने के लिए की लोगों ने हमारे घर टीवी आते देखा या नहीं?

उस वक्त जिन घरों में टीवी था वे कुछ विशिष्ट हो गए थे।
हाँतो छत पर बड़ा सा एंटीना लगना पड़ता, और यदि फिर भी तस्वीर न दिखाई पड़े तो एक आदमी को ऊपर चढ़ कर एंटीना घुमाना भी पड़ता था। ऐसा में ऊपर चढा व्यक्ति बार बार पूछ्ता 'आया?' और नीचे बताने के लिए तैनात व्यक्ति बताता की अभी नहीं, और थोड़ा घुमाओ, या बस-बस अब आने लगा। दूरदर्शन की सभाएँ आकाशवाणी की तरह तय थीं, सो सभा आरम्भ होने के पाँच मिनट पहले से ही टीवी खोल दिया जाता। पहले स्क्रीन पर खड़ी धारियां दिखाई देती रहती, फिर दूरदर्शन का मोनो सिग्नेचर ट्यून के साथ घूमता हुआ प्रकट होता। कितना रोमांचक था ये।
सिलसिलेवार कार्यक्रम, गिनती के सीरियल,वो भी पूरे बारह एपिसोड में ख़त्म हो जाने वाले।
मुशायरा, कवि सम्मलेन , बेहतरीन टेलीफिल्म्स ,चित्रहार , पत्रों का कार्यक्रम सुरभि, समाचार, खेती-किसानी क्या नहीं था! फिर शुरू हुआ पहला सोप ऑपेरा हमलोग कोई भूल सकता है क्या? उसके बाद तो एक से बढ़ कर एक सीरियल दूरदर्शन ने दिए। वो बुनियाद हो या प्रथम-प्रतिश्रुति, मालगुडी डेज़ हो या ये जो है ज़िन्दगी, रामायण हो या महाभारत......कितने नाम!!! आज इतने चैनल्स हैं जो दिन-रात केवल सीरियल ही दिखा रहे हैं लेकिन कर पाये रामायण-महाभारत या हम लोग जैसा कमाल? भारत एक खोज या चाणक्य जैसा धारावाहिक दिखने का माद्दा है इनमें? फूहड़ और बेसिर पैर की कहानियों के अलावा और कुछ भी नहीं है अब। ऐसी कहानियाँ जो वास्तविकता से कोसों दूर होती हैं। ऐसा एक भी चैनल आज नहीं है, जो अपने किसी भी धारावाहिक के ज़रिये कर्फ्यू जैसा सनाका खींच सके। याद है न रामायण और महाभारत के प्रसारण का समय? जिन घरों में टीवी नहीं था वे पड़ोसियों के यहाँ जाकर ये धारावाहिक देखते थे। रविवार के दिन हमें भी ड्राइंगरूम में अतिरिक्त व्यवस्था करनी होती थी। उस पर भी दर्शकों की संख्या इतनी अधिक होती थी, की हम लोगों को ही बैठने की जगह नहीं मिलती थी।

आज चैनलों की इतनी भीड़ है, की टीवी देखने की इच्छा ही ख़त्म हो गई। आधुनिकता के नाम पर फूहड़ता परोसते धारावाहिक...........ऐसे में दूरदर्शन की बहुत याद आती है।

गुरुवार, 11 जून 2009

राज कर रही है तीन बेटों की माँ?

कल अपने कुछ मेहमानों को छोड़ने स्टेशन गई थी। तभी वहाँ मैंने देखा की एक जर्जर बुढ़िया किसी प्रकार अपने पैर घसीटती संकोच सहित भीख मांग रही है। हालाँकि इसमें नया कुछ भी नहीं है। सैकड़ों बुजुर्ग महिलायें इस प्रकार भीख मांग रहीं हैं। लेकिन मेरे लिए नई बात ये थी की ये वही बूढी अम्मा थी जिसने कई सालों तक हमें हमारे ऑफिस में चाय पिलाई थी।
जाति से कुलीन ब्राह्मणी इस अम्मा के तीन बेटे हैं। तीनों अच्छा-भला कमा रहे हैं। थोडी बहुत ज़मीन भी है। बूढी अम्मा के पति की मृत्यु बहुत पहले हो गई थी , सो अम्मा ने ही अपनी चाय की दूकान के ज़रिये अपने पाँच बच्चों का भरण-पोषण किया। उन्हें पढाया-लिखाया भी। बड़ा लड़का सरकारी नौकरी में है, बीच वाला किसी फैक्टरी में है और तीसरा प्रैस में काम करता है। अम्मा तीसरे के पास ही रहती थी, क्योंकि दो बड़े पहले ही उसे निष्कासित कर चुके थे। लेकिन अब इस तीसरे ने भी उसे घर से निकाल दिया था। जबकि अम्मा घर का पूरा काम करती थी । उम्र अधिक हो जाने के कारण दुकान ज़रूर नहीं चला पाती थी। घर का काम भी अब उतनी फुर्ती से नहीं कर पाती थी। लिहाज़ा उसे घर में रखने योग्य नहीं समझा गया.

अम्मा की मैं हमेशा मदद करती रहती हूँ। वे भी मुझे अपनी बेटी की तरह प्यार करती हैं। मैंने हमेशा कहा है, की वे मेरे पास आके रह सकती हैं। यदि नहीं तो कम से कम यहाँ आकर खाना तो खा ही सकती है ,जिसे खिलाने में उनके तीनों लड़के अब असमर्थ हो गए हैं। लेकिन लड़कों का मोह उन्हें आज भी छोड़ता नहीं। तीन बेटों की माँ यदि भीख माँगने पर मजबूर हो तो बेहतर है, की ऐसे बेटे पैदा ही न हों।
सोचने को मजबूर हूँ, की तमाम बेटों के कारनामे पढ़ने-देखने के बाद भी लोग बेटों की पैदाइश ही क्यों चाहते है?

मंगलवार, 9 जून 2009

श्रद्धांजलि......

आज सुबह का अख़बार शोक संदेश बन कर आया जैसे....रंगमंच के पुरोधा हबीब तनवीर का देहांत और साथ में एक सड़क दुर्घटना में तीन दिग्गज कवियों का निधन.......स्तब्ध हूँ ईश्वर की इस इच्छा पर.....याद आरहे हैं हबीब साहब के साथ बिताये वे दिन जब हम भोपाल में आयोजित नाट्य शिविर में थे....कितनी मेहनत करते थे एक-एक पात्र पर....कितनी डांट खाते थे हम ....फिर याद आए वे दिन जब रीवा में नाट्य शिविर आयोजित हुआ। एक बार फिर वही सिलसिला...लेकिन इस बार मैं केवल सूत्रधार के रूप में थी। नाटक था चरणदास चोर। चार सफल प्रस्तुतियां हुई इसकी। कितनी ऊर्जा थी उनमें!!! खैर अब बस यादें ही शेष....मौत से बड़ा सच दूसरा नहीं।
हबीब साहब ने अपनी ज़िन्दगी अपनी तरह से जी, और अपनी बीमारी से ये संकेत भी दिया की अब वे ज़्यादा दिन हमारे बीच नहीं रहेंगे। लेकिन बेतवा महोत्सव से लौट रहे कविगण तो अनायास ही चले गए!! रात में जिन्हें हँसाते रहे, सुबह उन्हें ही रुला दिया!!
हबीब साहब, ओमप्रकाश आदित्य,लाड सिंह और नीरज पुरी को मेरी अश्रुसिक्त श्रद्धांजलि। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति और उनके परिवार को संबल दे.

सोमवार, 1 जून 2009

विद्यार्थियों के साथ मज़ाक...

यह मुद्दा है मध्य प्रदेश के शिक्षा-महाविद्यालयों का। वर्ष २००७ में बरकतुल्ला विश्वविद्यालय ने हमेशा की तरह बी.एड की प्रवेश परीक्षा ली पूरा सत्र बीता और परीक्षाओं का समय आ पहुँचा, लेकिन तभी विश्वविद्यालय ने ६३ शिक्षा-महाविद्यालयों की वैधता पर प्रश्न-चिन्ह लगाते हुए सभी महाविद्यालयों की परीक्षाएं निरस्त कर दीं और इन महाविद्यालयों के संचालक अदालत पहुँच गए वहाँ भी मामले को विचाराधीन कर दिया गया। उल्लेखनीय है, की पूर्व में विश्वविद्यालय ने ही समस्त महाविद्यालयों की सूची संलग्न कर विद्यार्थियों को कॉलेज चुनने की छूट दी थी , बाद में यही कॉलेज अमान्य घोषित कर दिए गए।
अब दो साल बाद कोर्ट ने सभी विद्यार्थियों को परीक्षा में बैठने की अनुमति दी, लेकिन दो दीं बाद ही परीक्षाओं के आगे बढ़ जाने की ख़बर प्रकाशित हुई। इन दो सालों में इन विद्यार्थियों के पता नहीं कितने मौके छूट गए। बी.एड नहीं होने के कारण निजी विद्यालयों तक में इन्हें काम नहीं मिल सका।
सवाल ये है, की अपना इतना नुक्सान करने के बाद अब ये विद्यार्थी विश्वविद्यालय द्वारा घोषित परीक्षाओं में क्यों शामिल हों? क्यों न इन सब को खामियाजे के रूप में बिना परीक्षा के ही बी.एड की डिग्री दी जाए? क्या विद्यार्थिओं के कारण परीक्षाएं टलीं? कॉलेज अमान्य घोषित किए गए इस में विद्यार्थियों का दोष है? यदि नहीं तो अब दो साल बाद वे क्यों परीक्षा दें? मैं आपकी राय चाहती हूं.