शनिवार, 31 मार्च 2012

कमलाप्रसाद स्मृति समारोह- झलकियां

गत २५ मार्च २०१२ को डॉ. कमलाप्रसाद की पुण्यतिथि के अवसर पर सतना में स्मृति-समारोह आयोजित किया गया. आप भी शामिल हों, इन चित्रमय झलकियों के साथ.... तस्वीरों में क्रमश: डॉ. अजय तिवारी, महेश कटारे, डॉ. काशीनाथ सिंह, कमलाप्रसाद जी की बेटियां और पत्नी श्रीमती रामकली पांडे, दिव्या जैन, डॉ. शबाना शबनम, प्रदीप चौबे, नरेन्द्र सक्सेना, दिनेश कुशवाह, कथाकार अनुज, और हरीश धवन.

मुख्य अतिथियों के इन्तज़ार में कुर्सियां

उद्घाटन सत्र में सम्बोधित करते डॉ. अजय तिवारी दूसरे सत्र में मंचासीन प्रसिद्ध कथाकार महेश कटारे और डॉ. काशीनाथ सिंह. दूसरा सत्र संस्मरण-सत्र था. ज़ाहिर है, कई बार सबकी आंखें नम हुई होंगीं. पहले सत्र की लम्बाई नियत अवधि से कुछ ज़्यादा ही हो गयी थी , सो दूसरे सत्र की समयावधि में कटौती करनी पड़ी. पहले सत्र का विषय था- प्रगतिशीलता की अवधारणा. स्मृति समारोह में इस विषय की उपयोगिता मुझे समझ में नहीं आई.














कार्यक्रम में कमलाप्रसाद जी का पूरा परिवार सुबह से रात तक उपस्थित रहा. चिन्ता आंटी की थी, जो इस उमर में भी पूरे समय कुर्सी पर बैठी रहीं, और जिनके मन की व्यथा हम सब समझ रहे थे.












तीसरे सत्र में काव्यगोष्ठी के ठीक पहले मेरे रंगमंच के साथी हरीश धवन की एकल नाट्य-प्रस्तुति थी. ऊपर उसी नाटिका का दृश्य. हरीश धवन की नाटिका का दृश्य-संयोजन किया उनकी पत्नी डॉ. दिव्या जैन धवन ने, जो खुद भी रंगमंच की बहुत बेहतरीन कलाकार हैं. एक अन्य चित्र में दिव्या, शबाना जी और मैं दिखाई दे रहे हैं. शबाना जी रोहतक से आयी थीं. वे रोहतक विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी की प्राध्यापक हैं और बहुत सुन्दर कविताएं लिखती हैं. एक चित्र में काशीनाथ जी के साथ मैं हूं, और दूसरे में श्रीमती डॉ. कमलाप्रसाद यानि आंटी के साथ मैं हूं. नीचे कवि नरेन्द्र सक्सेना और कथाकार अनुज दिखाई दे रहे हैं जो बनारस और ग्वालियर से आये थे. डॉ. नामवर सिंह और डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी अस्वस्थता की वजह से कार्यक्रम में शिरकत नहीं कर सके.

शुक्रवार, 16 मार्च 2012

इस्मत की क़लम से.........

भारत के कई हिस्सों में बेटी के विवाह के समय एक कुप्रथा प्रचलित है, वर-पक्ष के प्रत्येक सदस्य के वधु के पिता द्वारा चरण-स्पर्श. मैं बुन्देलखंड की हूं और वहां ये प्रथा चलन में है. जब भी ऐसा दृश्य देखती हूं मन अवसाद-ग्रस्त हो जाता है. पिछले दिनों मेरी परम मित्र इस्मत ज़ैदी भी एक शादी में गयीं और इस रस्म से दो-चार हुईं. पढिये उनकी व्यथा, उन्हीं की क़लम से-
कब जागेंगे युवा?????
सारे मौसमों की तरह शादियों का भी एक मौसम होता है और उन दिनों घरों में निमंत्रण पत्रों की बहार सी आ जाती है , हमारे यहाँ भी ऐसा ही होता है ,पिछले कुछ दिनों में शादियों के कई निमंत्रण आए लेकिन सब से आवश्यक निमंत्रण था सौम्या का था,बहुत प्यारी सी बिटिया
जिस से हमारी मुलाक़ात ६-७ वर्ष पूर्व हुई थी पहली ही मुलाक़ात में उस ने हमें प्रभावित किया लेकिन कुछ व्यस्तताओं के कारण हमारी मुलाक़ात फ़ोन तक ही सीमित हो कर रह गई थीं I उस दिन उस की शादी का कार्ड मिला तो एक ख़ुशी का एहसास हुआ कि बिटिया इतनी बड़ी हो गई I
ख़ैर शादी के कई दिन पूर्व ही पतिदेव द्वारा मुझे समय पर तैयार रहने का आदेश दे दिया गया था और मैंने भी आज्ञा का पालन बड़ी तत्परता से किया तथा निश्चित समय पर हम विवाह स्थल पर पहुँच गए I थोड़ी देर पश्चात जयमाल की रस्म संपन्न हुई और दुल्हन अपने दूल्हा के साथ वहीं मंच पर वर-वधु के लिये लगी
कुर्सियों पर विराजमान हो गई I मन अत्यंत प्रसन्न था कि बिटिया को उस का जीवन साथी मिल गया ,दुल्हन की सुंदरता को निहारते -निहारते मेरी दृष्टि जिस दृश्य पर अटक कर रह गई उस ने मुझे अवसादग्रस्त और क्षुब्ध कर दिया ,लड़की के पिता अपने दामाद के पैर धुला रहे थे ,इतना ही नहीं वह वृद्ध सज्जन सभी बारातियों के पैर छू रहे थे , बिना छोटे -बड़े का अंतर किये हुए और उसके बाद लगातार उन के समक्ष हाथ जोड़ कर खड़े रहे .उन के चेहरे पर फैली निरीहता ने मुझे झिंझोड़ कर रख दिया ,,,, माना कि उन्होंने आदर-सत्कार ,आवभगत ,आतिथ्य आदि को ध्यान में रखकर पैर छुए होंगे तो क्या उस समय ये दूल्हे और बारातियों का कर्तव्य नहीं था कि वे उन्हें पैर छूने से रोकते और ससम्मान गले लगा लेते ? यदि यहाँ पर दामाद और उस के घर वाले अतिथि थे तो उन के घर पर वधु के घर वाले भी तो अतिथि ही होंगे ,तो क्या उस समय लड़के के पिता अपने समधी का पैर छुएंगे ?? नहीं न ,तो फिर एक लड़की का पिता इतना निरीह क्यों हो जाए ??
मैं सोचने लगी कि जिस दृश्य को देखकर मुझे इतनी पीड़ा हो रही है उसे देखकर दुल्हन और उस की माँ पर क्या बीत रही होगी ?हाथ जोड़े , मस्तक झुकाए हुए वो पिता एक अपराधी की तरह क्यों खड़ा रहे जबकि अपने जीवन की अमूल्य निधि वह दूल्हे और उस के परिवार को सौंप रहा है ,वह अपने घर का उजाला उन के घर में रौशनी फैलाने के लिये भेज रहा है ?
मन में अंतर्द्वंद सा चल रहा था कि हमारा समाज तो अब बदल रहा है ,जहाँ लड़कियाँ सारे काम कर रही हैं यहाँ तक कि माता-पिता को मुखाग्नि देने तक का अधिकार भी उन्हें प्राप्त है तो वहाँ ये सब आख़िर कब तक चलेगा ?
मुझे मालूम है कि ये विषय नया नहीं है लेकिन मेरी व्यथा ने मुझे लिखने के लिये विवश कर दिया ,,,,इस कुप्रथा का अंत करने के लिये किसी राजा राम मोहन रॉय का इंतेज़ार करने के स्थान पर हमारे युवाओं को आगे आना होगा I जब वे अपने पिता समान श्वसुर को भी वही आदर-सम्मान देंगे जो अपने पिता को देते हैं तो इस समस्या का समाधान स्वयं ही निकल आएगा .ये बात पूरे युवा वर्ग के लिये कही गई है चाहे वो लड़का हो या लड़की,,,,और जिस दिन युवा वर्ग ने ये झंडा अपने हाथों में उठा लिया उस दिन इस कुप्रथा का अंत निश्चित है I

शुक्रवार, 9 मार्च 2012

मंहगाई की मार: कैसे मनायें त्यौहार???

आप भी सोचते होंगे कि मैं भी न......बस्स्स....अब क्या कहें. अब होली के दूसरे दिन परिचर्चा ले के हाज़िर हो रही हूँ? लेकिन इसमें मेरी गलती एकदम नही है . असल में होली के दो दिन पहले से मेरा नेट होली की छुट्टी पर चला गया हम कुछ न कर सके आज मौका मिला, तो हाज़िर हूँ परिचर्चा ले के. स्कूल में परीक्षाओं के चलते मैं एक तो पहले ही सबको सूचित करने में लेट हो गयी थी, उस पर कोई मजेदार सा विषय भी नहीं सूझ रहा था. मुसीबत में दोस्त ही काम आते हैं . आप सब तो जानते हैं कि मेरी मित्रमंडली में कितने ज्ञानी मित्र हैं . उन्होंने विषय सुझाया, बल्कि विषय सुझाते हुए धिक्कारा भी, कि क्या हर समय मज़ाक सूझता है तुम्हें? पूरा देश गरीबी की चपेट में है, और तुम्हें ठिठोली सूझ रही? इस बार कोई गंभीर विषय चुनो. बल्कि महंगाई की मार पर ही विचार आमंत्रित करो. ऐसी गंभीर फटकार सुन के इधर हमारी हंसी गायब हुई,उधर नेट चलता बना. खैर अपनी ब्लॉगर साथियों के पास मेल किया. समय बहुत कम था लेकिन अधिकांश ने सहयोग किया, जो आपके सामने परिचर्चा के रूप में है. दो-तीन लोगों के ऊपर दादगिरि भी दिखानी पड़ी, क्योंकि जानती थी, कि मेरे ये मित्र मेरी दादागिरि की लाज रख लेंगे :) है न शिखा? शेफाली? ज्योति?????
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दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ- रश्मिप्रभा................

बात निकली तो .... बहुत जोर से रोना आया . क्या चर्चा , क्या परिचर्चा ! पर्व

त्योहार का मज़ा तभी था , जब बच्चे थे ... अब तो डर लगता है पर्व त्यौहार के
करीब आने पर ... मन कहता है , ये जो थोड़े से हैं पैसे , खर्च तुम पर करूँ कैसे
!
" बहुत मुश्किल है - सब्जी के भाव आसमान पर ,
गैस सिलिंडर महंगा , तेल महंगा , चावल दाल आटे के भाव चैन से सोने नहीं

देते , ऊपर से मोबाइल रिचार्ज , अपना भी बच्चों का भी , टीवी रिचार्ज ,

इन्टरनेट ....समय के साथ चलते चलते नानी सारे दिन याद ही रहती है - अब

ख़ास त्योहार के दिन भी यही कहना होता है - दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ ....
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आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपैया..... ज्योति सिंह-------------------
आज अचानक वंदना का फोन आया कि ज्योति तुम्हें मेल भेजा है खोल कर जल्दी देखो
फ़ौरन कुछ लिख के भेजो. मैं तुरंत पूछ बैठी, इस बार क्या विषय चुना है? तब वंदना ने बताया, मंहगाई कि मार: कैसे मनाये त्यौहार. सुनते ही मुंह से निकल पड़ा वाह!मैं जानती थी, वंदना कुछ ख़ास ही सोच के रक्खी होगी. लेकिन इतने अच्छे विषय पर मुझे सोचने.का अवसर ही नहीं मिल सका. क्योंकि होलिका दहन के कुछ समय पहले ही मुझे चेतावनी दी गयी कि तुरंत एक घंटे में लिख कर भेजो. जिस अधिकार से कहा गया, वहां न बहानेबाजी की जगह थी न हीं इंकार करने की गुन्जाइश. क्योंकि बात भावनाओं के सम्मान की रही. और जल्दबाजी में जो समझ में आया वो लिखने लगी. शुरू कहाँ से करुँ? कुछ इसी पर अटक गई. फिर सोची, सच ही तो है इस मंहगाई के साथ क्या मनाये
कोई त्यौहार. ज़रा भी तालमेल नहीं बैठता, इनका. आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपैया जैसी स्थिति बन चुकी है. हर माध्यम वर्ग की ऐसे में किसी भी तय्हार पर अलग से खर्च करना या उसकी तैयारी में अपने बने बनाए बजट को बिगाड़ना ज़रा मुश्किल होता है. क्योंकि पहली ज़रुरत को नज़रंदाज़ करके यदि हम अपने तय्हार को धूमधाम से मन लेते हैं तो आगे उधार कई नौबत आ जाती है. इससे मानसिक तकलीफें बढ़ जाती है. त्योहार की गरिमा को बनाए रखने की भी ए
क बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है हम भारतीयों पर.इसलिए बहुत न सही छोटे स्तर पर ही हमें क़ायम रखना तो है ही इसे. इसके लिए जितनी ज़रुरत हो, और अपनी जेब एवं आय जितनी इजाज़त दे, उसी के मुताबिक़ हमें इस रौनक को बरकरार रखना है. इसलिए चुटकी भर गुलाल से करें गाल लाल, बड़ों को टीका लगा कर करें प्रणाम, और कुछ मीठा हो जाए, की रस्म को निभाएं. वैसे हर त्यौहार का आधार है प्यार जो मुफ्त में दी-ली जा सकती है. जिसकी नींव गहरी हो तो हर मंहगाई से निपटा और उत्साह को जिंदा रक्खा जा सकता है. मंहगाई की मार में भी त्यौहार के अस्तित्व को बनाए रखें, ताकि हमारी संस्कृति की पहचान बनी रहे.

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त्यौहार पैसे से नहीं प्यार से मनता है- रचना जी.
त्यौहार पैसे से नहीं
प्यार से मनता हैं
और अभी ऐसी महगाई
नहीं हैं आयी
अथाह प्यार हैं आपके
और मेरे पास भी
प्यार के अबीर और गुलाल से
रंगिये अपनी और मेरी आत्मा को


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सखी सैंयां तो खूबई कमात हैं- साधना वैद..................................

यह दुखती रग पर हाथ क्यों रख दिया वन्दना

जी ! हमें तो इन दिनों पीपली लाइव का गाना ड़ा याद आता है-
सैंयाँ तो खूब ही कमात हैं मँहगाई डायनखाये जात है
मँहगाई और मिलावट ने सभी त्यौहारों का मज़ा किरकिरा कर दिया है ! खोया इतना मंहगा है बाज़ार में कि गुजिया बनें तो कैसे और कितनी ! और इस पर भी कोई गारंटी नहीं कि खोया शुद्ध ही होगा ! अपने बचपन के दिन याद आते हैं जब मम्मी कनस्टर भर भर कर पकवान बनाती थीं और हम सभी स्वाद ले लेकर हफ़्तों उनका लुत्फ़ उठाते थे
! मँहगाई ने किचिन के बजट को पूरी तरह से अपसेट कर दिया है ! साल भर का त्यौहार है ! बच्चे भी उत्साह के साथ अपने मन पसंद के पकवानों की लिस्ट बताते जाते हैं, दादी यह भी बनाना ! दादी वह भी बनाना ! लेकिन जब सामान खरीदने बाज़ार जाते हैं तो अपने पर्स का वज़न कीमतों के सामने बड़ा हल्का लगने लगता है और मन मसोस कर रह जाते हैं ! मँहगाई की कृपा से जो पकवान पहले हफ़्तों चलते थे वे अब दिनों में सिमट गये हैं और अगर मँहगाई इसी तरह सुरसा की तरह बढ़ती रही तो कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले सालों में यह चंद घंटों का शगूफा बन कर रह जाये कि जब मेहमान होली मिलने आयें तो उसी समय गिनी चुनी थोड़ी सी गुजिया और थोड़ा सा नाश्ता बना कर उनके सामने रख दिया जाये ! और पकवान ही क्या रंग, गुलाल, अबीर सभी की कीमतें तो आसमान छू रही हैं ! लेकिन कोई बात नहीं मँहगाई कितनी भी बढ़ जाये हमारे मन के उल्लास और उत्साह से ऊँची नहीं हो सकती ! हमारी खुशियों को कम नहीं कर सकती ! तो कीमतों के जोड़ बाकी को छोड़ पूरे हर्ष और उल्लास के साथ त्यौहार मनाइये ! थाली में मंहगे रंग गुलाल हों या न हों प्रेम, प्यार और अनुराग का गुलाल जम कर सबके चेहरोंपर मलिये और मन में हिलोरें लेते प्यार और मौहब्बत के समंदर से बाल्टी भर-भर रंग निकाल कर खूब सब को सराबोर कीजिये और खूब होली खेलिये !होली की आप सभी को ढेर सारी शुभकामनायें !

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बस मौका दे दिया, तो रो लिया-रेखा श्रीवास्तव......................................
अरे वंदना बड़ा अच्छा और विषय है और दुखती रग पर हाथ भी रख दिया है. लेकिन होली में पूरा रोना रोया जा सकता है. सच कहा जाए तो अब तो त्यौहार सिर्फ लीक पीटना भर रह गया है क्योंकि जितनी तेजी से मंहगाई बढ़ रही है हमारी आमदनी तो बढ़ नहीं रही है और फिर जरूरी जरूरतों के लिए तो हम संघर्ष करने जैसी स्थिति में है. आज की तारीख में गैस सिलेंडर की मारामारी है. कल त्यौहार और आज हमारे पास एक भी सिलेंडर ही नहीं है तो किस दम पर गुझिया और पापड़ बनाने की सोची जाय . ये एक मेरी हालात नहीं है बल्कि मेरे जैसे और भी बहुत से हें. कोई ८०० रु. में ब्लैक में खरीद कर लगा रहा है और कोई ६०० रुपयें. आज हमें इस कीमत पर भी कोई देने या दिलाने वाला नहीं मिल रहा है. ईमानदारी से मिलने वाला सिलेंडर तो एजेंसी वालों ने कह दिया कि अभी डिलीवरी ही नहीं आ रही है हम कहाँ से दें? जबकि सबको मालूम है कि ये सिलेंडर इंडियन आयल से निकल कर पहले ही ढाबों पर बेच दिए जाते हें. खोया घर में बनाया जाय तो कैसे और बाजार से लाया जाय तो मंहगाई के चलते मिलावटी खोये के अलावा कुछ मिल ही नहीं रहा है. कभी हम 2 से 3 किलो खोये की गुझिया बनाया करते थे, साथ में रवे की , तिल की और न जाने क्या क्या? सब माँ के घर में देखा था तो बना लिया करते थे . और आज सोच रहे हें कि क्यों न बाजार से छप्पन भोग से 2 किलो बनी हुई गुझिया मंगवा लें . त्यौहार में इज्जत भी रह जायेगी और इस बार बच्चे भी aane वाले नहीं है क्योंकि सब लगातार शादियों में छुट्टियाँ ले चुके हें इसलिए बस आने जाने वालों के लिए बहुत होगा . पतिदेव और जेठ जी दैबितीज के मरीज है सो खायेंगे नहीं बचे हम और जिठानी जी सो होली मिलने जायेंगे तो खा कर मन भर लेंगे. है न मजेदार आइडिया . भैया अब इस मंहगाई से इसी तरह निपटा जा सकता है और इज्जत भी बचाई जा सकती है.
कभी हम ही ३० -४० किलो आलू के चिप्स बनाया करते थे और वह भी नौकरी और बच्चों के साथ साथ लेकिन अब आलू का भाव भी आसमान छू रहा है फिर उसके तलने के लिए तेल कौन सा सस्ता हो रहा है. जो पहले हफ्तों पहले से चिप्स , कचहरी और पापड़ बनाना शुरू कर देते थे, छुट्टी के शनि और रवि दोनों दिन के लिए
पहले से प्लानिंग रहती थी. अब सब कुछ बाजार में रेडीमेड मिल रहा है चलो जाकर खरीद लायेंगे और त्यौहार की परंपरा को पूरा कर लेंगे. अभी कानपुर में बम्बईया संस्कृति नहीं आई है कि होली सिर्फ औपचारिकता के लिए मना ली जाय. यहाँ खूब धमाल होता है भंग का रंग भी जमता है लेकिन इस मंहगाई ने सब रंग फीके कर दिए . अब किसके आगे रोना रोया जाय. बस मौका दिया तो दुखड़ा रो लिया.
बुरा न मानो होली है, बस ये मन की गाँठ ही खोली है.
रंग के पिटारी बंद रखी है, हाथ में गुलाल और रोली है.
महँगी शक्कर मंहगाखोया गुझिया बनी कुछ पोली है.
भंग की गुझिया और शरबत पी कर मस्त हुरिआरों की टोली है.
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अब तो अबीर-गुलाल के टीके से काम चलाओ भाई.........:)
अब महेंगाई तो सुरसा जैसे मुँह फैलाये जा रही है जिसका ओर छोर फ़िलहाल तो दिख
हीं रहा इसकी मार दैनिक दिनचर्या वाले घरेलु वस्तुओ पर भी दिखने लगी है .चार्वाक के दर्शन "क़र्ज़ ले कर घी पीओ " के चक्कर में वैसे भी आम जनता का बटुआ सिकुड़ा ही रहता है .हम उत्सवप्रिय भारतीयों के लिए त्यौहार, दिखावे के चक्कर में बजट को चरमरा देने वाले होते है . तो बुद्धिमानी इसी में है की हम त्यौहार अपनी चादर की लम्बाई देख कर मना लें, मजबूरी का नाम .....की तर्ज़ पर -पैसे और दिखावे की जगह उसमें निहित भावना का महत्व बड़ा लें.अगर खोवा महंगा है तो घर में बनाओ . १ किलो नहीं १०० ग्राम की गुझिया बनाओ.
महंगे रंग बहाने की जरुरत नहींअबीर - गुलाल के टीके से काम चलाओ नए कपड़ों की क्या जरुरत ? पुरानो को ही काट छांट कर फैशनेबल बन जाओ और वो भी नहीं तो प्रेम से गले मिलो,अपनापन बांटो, खुशियों के, शांति के रंग बहाओ. मुझे तो एक शेर याद आ रहा है -
घर से बहुत दूर है मंदिर / मस्जिद यारो ,
चलो किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये.

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इतना गम्भीर विषय क्यों छेड़ दिया तुमने?- इस्मत ज़ैदी ’शेफ़ा’
अरे वंदना होली के अवसर पर जहाँ हर ओर मस्ती और हुड़दंग का माहौल है तुम ने इतना गंभीर विषय छेड़ दिया ??? कोई बात
नहीं अब तुम्हारा आदेश है तो पालन तो करना ही पड़ेगा ,,अब चाहे ऐसे करें या फिर ऐसे ये सच है कि आजकल त्योहार मनाना बहुत कठिन होता जा रहा है ,हालाँकि बाज़ार ज़रूरत की सारी चीज़ों
से भरा पड़ा है लेकिन हालात कभी कभी उन तक पहुँचने की इजाज़त नहीं देते ,,कभी तो कारण बनता है खाने-पीने की चीज़ों में मिलावट और कभी मँहगाई यहाँ विषय चूँकि मँहगाई है इसलिये उस पर ही चर्चा कर ली जाए -----
हमारे देश में हर त्योहार का विशेष आकर्षण होती हैं खान पान की वस्तुएं चाहे वो ईद हो ,होली हो , दीवाली हो या कोई और पर्व,
, सो बात इसी से आरंभ की जाए हर चीज़ चाहे वो रसोई गैस हो या खाद्य सामग्री आम जन की पहुँच से बाहर होती जा रही है ,,हम परंपराओं के निर्वहन के लिये वो सब करना चाहते हैं जो होता आया है पर ये संभव ही नहीं हो पाता ,,त्योहार जो लोगों में परस्पर सद्भावना और समानता के लिये बनाए गए थे आज सब से अधिक असमानता दर्शाने का कारण बनते जा रहे हैं शायद आँशिक तौर पर मैं विषय से हट रही हूँ लेकिन क्या करूँ मुझे जो चीज़ सब से ज़्यादा परेशान करती है ,,घूम फिर कर मैं वहीं आ जाती हूँ हालाँकि इस असमानता का कारणभी मँहगाई का बढ़ना ही है दीपावली के दियों, झालरों और सजावट में अंतर ,,होली के रंगों की क़िस्मों में अंतर कहीं अस्ली गुलाल इस्तेमाल होता है टेसू के फूलों से बना तो कहीं रसायनिक पदार्थ मिले हुए गुलाल और रंग ,,,खोए में मिलावट ,,दूध में मिलावट .......असली ,शुद्ध चीज़ें हमारी पहुँच से बाहर होती जा रही हैं जब मध्य वर्ग इतना त्रस्त है तो उन के बारे में क्या कहा जाए जो शायद पानी से होली खेलने में भी असमर्थ हैं ख़ैर इस विषय पर यूँ तो लिखने के लिये बहुत कुछ है परंतु मैं इन पंक्तियों के साथ अपनी बात को विराम देती हूँ
है कौन जो इन प्रश्नों को सुने ?
है कौन जो इन के उत्तर दे ?
अब अपने ही अन्दर झांकें
और अपनी सच्चाई आंकें
होली की अनंत शुभकामनाएं
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भला हो इंटरनेट का-अनीताकुमार------------------
हर साल की तरह होली से दो दिन पहले सोसायटी की पानी की टंकी पर बैठ कर मीटींग हुई, इस बार होली का त्यौहार कैसे मनाना है। बम्बई के माचिस की डिबिया जैसे घरों में घर में घुस कर होली खेलने का तो कोई सोच भी नहीं सकता। सब नीचे कम्पाउंड में ही खेलने उतरते हैं। उस दिन सुबह नाश्ते के बाद सब घरों की किचन बंद रहती है। महिलायें होली खेलने न उतरें तो होली भी कोई होली है क्या? केटरर की भी चांदी रहती है। होली की पूर्व संध्या की मीटींग ये निश्चित करने के लिए होती है कि खाने में क्या मंगाया जाये। चार साल पहले तक बहस का एक मुद्दा और भी होता था कि कौन सा ढोलक वाला बुलाया जाये। जी हां! वो जमाने हवा हुए जब लोगों को हारमोनियम और ढोलक बजाने आते थे। वो सब हूनर तो आज की शिक्षा पद्धति की भेंट चढ़ गये। पता नहीं फ़ागुन के महीने में परिक्षायें रखने में सरकार को क्या सेडिस्टिक आनंद मिलता है। खैर ढोलक वाले का मुंह हर साल ज्यादा से ज्यादा खुलता गया और हम सब की जेबें छोटी होतीं गयीं, हार कर उसे सोसायटी का गेट दिखाना पड़ाऔर अमिताभ बच्चन का सहारा लेना पड़ा, ' रंग बरसे चुन्नर वाली…'। खैर बात हो रही थी होली पूर्व मीटींग की। सबका मानना था कि केटरर का मुंह चौड़ा होता जा रहा है और खाने का स्वाद बकबका सा। तो? अब क्या? क्या इसे सोशल लंच का भी खात्मा कर दें? ऐसा करने के लिए किसी का मन नहीं था। कुछ ग्रहणियों ने सुझाव रखा कि इस बार सब अपने अपने घर से कुछ व्यंजन बना कर लायें, इस तरह स्वाद की विविधता भी बनी रहेगी और किफ़ायती भी होगा। नौकरी पर जाने वाली महिलायें अपनी छुट्टी का खून होते देख इस प्रस्ताव से ज्यादा खुश नजर नहीं आयीं पर जब दूसरी महिलाओं ने उन्हें सहायता देने का आश्वासन दिया किया तो वो भी तैयार हो गयीं। सफ़ाई ये दी जा रही थी कि वैसे भी पिछले एक दो साल से महिलायें कम ही नीचें आ रही थीं होली खेलने के लिए। पुरूष वर्ग जहां एक तरफ़ सोच रहे थे कि ये भी कोई होली होगी वहीं इस बात से खुश थे कि एक दिन तो होटल के खाने से निजाद मिलेगी। इस समय जब मैं आप से मुखातिब हूँ सुबह के साढ़े दस बजे हैं। नीचे छ: सात बच्चे हाथों में पिचकारी लिए इधर उधर भाग रहे हैं जैसे पक्षियों का झुंड आकाश में एक साथ उड़ता है। अमिताभ, शुभा मुदगल बज रहे हैं। पुरुषों की जमात नादारत है। अभी अभी मेरी पड़ौसन आयी थी तो पता चला उसके पतिदेव होली छोड़ पूरियां तलने में उसकी मदद कर रहे हैं। शायद यही हाल दूसरे घरों का भी होगा। इक्के दुक्के मर्द फ़्री हैं तो क्या होली खे लेगें, उसी पानी की टंकी पर बैठे ( जिस बैठ कर केटरर को गेट दिखाने का निर्णय लिया गया था) बच्चों से रंग का टीका लगवा रहे हैं। आप सोचेगें मैं पोस्ट लिख रही हूँ तो मेरे पति देव क्या कर रहे हैं। अजी अभी बताया न पड़ौसन आ कर बता गयी थी कि खाने वालों की संख्या पचास से बड़ कर साठ हो गयी है, मेरे जिम्मे रायता बनाने का काम आया( उम्र का फ़ायदा॥:) ) तो उन्हें और दही लाने भेजा है कहीं कम न पड़ जाये वैसे भला हो इस इंटरनेट का, कम से कम बिना जेब देखे आप सब को होली की ढेर सारी शुभकामनायें तो दे सकती हूँ। हैप्पी होली
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कम खर्चे में ही लुत्फ़ उठाना चाहिये-शमा जी...............
शमा जी को पिछले दिनों हृदयाघात हुआ, अब वे पहले से बेहतर हो रही हैं, लेकिन इतनी भी नहीं कि लम्बा-चौड़ा लेखन कर सकें,. ये तो उनका बड़प्पन है, कि उन्होंने मेरा अनुरोध टाला नहीं, और चंद पंक्तियां लिख
भेजीं. बहुत-बहुत आभारी हूं उनकी.- वंदना अ. दुबे
सोचती हूँ,त्यौहार न होते तो जीवन कितना नीरस हो जाता! चाहे बीमारी की मार हो चाहे महंगाई की, दुनिया किसी न किसी तरह त्यौहार मनाती ही है! कुछ
त्योहारों का तो हम साल भर इंतज़ार करते हैं और उस दिशा मे बचत भी कर लेते हैं! चाहे कम ही सही लुत्फ़ ज़रूर उठाते हैं!
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नेट पर खेलो होली और खाओ भी-.शेफाली पांडे..................
ट्विटर पर खेली ,जी भर के होली
मला ऑरकुट पर, अबीर गुलाल |

नमकीन और गुजिया,फेसबुक पर खाई
घर आने वालों डर कर, किये एस. एम्. एस.,दी बधाई |
जिस तरह मनी थी दीवाली ,उसी तरह होली मनाई
इस दौर - ए - महंगाई में जो बच गए, उन शूरवीरों को होली की बधाई |
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मंहगाई हो या न हो, त्यौहार तो मनाते ही हैं सब- प्रियदर्शिनी.....

मंहगाई की मार चारो और है ..अमीर हो या गरीब सभी पर महगाई का प्रभाव देखा

जा सकता है ,उच्च आय वर्ग हो या मोती तनख्वाह पाने वाले कर्मचारी ..इन पर

महगाई अपना प्रभाव नही डालती ..जिस तेजी के साथमहगाई बढ़ी है .महगे

खरीददारों की भी कमी नहीं है ..हमारे शहर में भी होली के चलते गैस सिलेंडर ९००

रूपए में बिके ..वो भी बड़ी मुश्किल से मिले.....ऐसे में ये त्यौहार भी अब बला से

कम नही लगते ..निम्न आय वर्ग जो अपनी रोजीरोटी का भी जुगाड़ नही कर पता .
त्यौहार तो अब उसके लिए तनाव का कारन बन गये है ..हां माध्यम वर्ग जरूर

आज भी जोड़ - तोड़ करके त्यौहार को संक्षेप में मना ही लेता है
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