शनिवार, 5 सितंबर 2020

अटकन चटकन : प्रतिक्रियाएं


रश्मि रविजा:
Rashmi Ravija..... ये वो नाम है जिसके साथ लड़ना, झगड़ना, बहस, सलाह मशविरा, दुख-दर्द, खुशी-ग़म सब बंटते हैं..... कुछ बुरा लगता है तो सामने से बोल देते हैं हम दोनों ही, लेकिन हमारा रिश्ता अपनी जगह मजबूती से खड़ा रहता है। अटकन चटकन के लिए जो रश्मि ने लिखा, ये केवल वही लिख सकती थी। बहुत प्यार रश्मि
 ❤️
सम्भवतः सबसे पहले वंदना अवस्थी दुबे  का उपन्यास 'अटकन चटकन' मैंने ही बुक किया था . समय से मिल भी गया . पर मैंने खुद के सामने ही एक शर्त रख दी. मुझे एक लेखनकार्य पूरा करना था . मैंने स्वार्थी बनकर शर्त रखी कि पहले काम खत्म  करो फिर किताब पढने के लिए मिलेगी. तो शुक्रिया वंदना के इस उपन्यास का जिसने मुझ आलसी से वह कार्य पूर्ण करवा लिया. :) काम खत्म करते ही किताब उठा ली. उपन्यास इतना रोचक है कि एक सिटिंग में ही पढ़ भी ली. वंदना को बहुत बधाई 

अटकन चटकन 
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सबसे पहले  किताब के शीर्षक का जिक्र .वंदना ने पहले कुछ और शीर्षक रखा था, मैंने पूछा भी था कि इसे बदलोगी ? क्यूंकि मुझे वह शीर्षक बहुत नहीं भाया था , शायद अजनबी शब्द की वजह से . जब पता चला चाचा जी ने यह 'अटकन-चटकन' शीर्षक चुना तो बहुत ख़ुशी हुई. (हमलोग अंकल वाले जमाने के नहीं, हमारे मुंह पर चाचा जी सम्बोधन ही आता है. :) )
'अटकन-चटकन' सुनते ही एक खुशनुमा सा अहसास होता है. खिलखिलाते, शरारत करते,चुलबुले से  बच्चों की छवि आँखों के सम्मुख तैर जाती है. उपन्यास का विषय वस्तु भी कुछ ऐसा ही है. दो हथेलियों सी बहनें ,जो अटकन-चटकन करती रहती हैं, पर कभी अलग नहीं होती. 

किताब की शुरुआत बहुत ही रोचक ढंग से होती है . लेखिका का पाठकों से सीधा संवाद होता है. ऐसा नहीं लगता कि कोई किताब पढ़ रहे हैं बल्कि यूँ महसूस होता है, सामने बैठी लेखिका के मुख से कहानी सुन रहें हों.

अक्सर किसी भी कथा की नायिका साहसी, अपने शर्तों पर जीने वाली, बहुत सशक्त महिला होती है या फिर दबी, सहमी, जमाने के जुल्म सहती पीड़ित महिला . पर इनसे इतर भी तो हमारे समाज में महिलायें हैं जो जलती-कुढती-कुचक्र रचती-प्रपंच करती रहती हैं. उनका जिक्र जरूर होता है पर उन्हें मुख्य पात्र के तौर पर कम ही चुना जाता है. इस उपन्यास के केंद्र बिंदु में एक ऐसी ही महिला है जिन्हें हम सबने कभी न कभी अपने आस-पास जरूर देखा है. यह भी देखा है कि एक ही माता-पिता की संतान कितनी अलग अलग प्रवृत्ति की हो सकती है. एक कुटिलता से भरी तो दूसरी सकारात्मकता की प्रतिमूर्ति . 

पुस्तक पढ़ते जाने कितनी ही बहनें नजरों के सामने से गुजर गईं जो उपन्यास की तरह एक्सट्रीम भले ना गईं हों  पर एक ने बेपनाह प्यार बरसाया, दुश्वारियों से बचाया  और दूसरी ने सिर्फ अपना मतलब साधा. मतलब निकल जाने पर आँखें फेर लीं...अगली बार जरूरत पड़ने पर फिर पास आ गईं और पहली ने गले से लगा लिया :) 

उपन्यास में एक संयुक्त परिवार के भीतर की झलकियाँ भी मिलती रहती हैं.  स्त्रियाँ मिलकर पूरा परिवार सम्भालती थीं. पर स्त्री-पुरुष में भेदभाव बना  रहता था .स्त्रियां गाय की सेवा करतीं, दूध उबालतीं-मक्खन निकलतीं-घी बनातीं पर दूध का एक गलास,मक्खन की एक डली भी उन्हें नसीब नहीं होती। दूध-घी-मक्खन के सेवन पर पुरुष का एकाधिकार रहता।
  फिर धीरे धीरे कैसे संयुक्त परिवार टूटते गए. लोग नौकरी के सिलसिले में शहरों में बसने लगे और गाँव की हवेली सूनी पड़ी रही. 
इस किताब में शिक्षा का  महत्व बहुत पुख्ता तरीके से स्थापित हुआ है. स्त्रियों की  शिक्षा कैसे उन्हें आत्मनिर्भर बनाती है, व्यर्थ के उधेडबुनों से दूर रखती है  और अपने पंख पसारने  के मौके देती है....यह सत्य पुरजोर रूप से उद्घाटित हुआ है. 

उपन्यास के पात्र बहुत जाने-पहचाने से लगते हैं, उम्र के किसी न किसी पडाव पर उनसे मुलाक़ात जरूर हुई होती है. जीवन से जुड़ी छोटी छोटी घटनाएँ, कहानी को बहुत रोचकता से आगे बढाती हैं. पात्रों  के बुन्देलखंडी भाषा में संवाद कथानक को  सहजता प्रदान करते हैं. आंचलिक भाषाओं में मैं अब तक भोजपुरी,मैथिलि, मगही, बज्झिका ही जानती थी . अटकन-चटकन के सौजन्य से अब लगता है काफी कुछ बुन्देलखंडी भी समझने लगी हूँ. 
    अब हमाय जो समझ में आओ हमने लिख दओ :) 
 

वंदना को इस उपन्यास की बहुत बधाई . वे इसी तरह समाज से अलग-अलग पात्र उठाकर उनपर उपन्यास रचती रहें....ढेरों शुभकामनाएं !!
#अटकनचटकन
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शिखा वार्ष्णेय :
विपरीत समय में यदि कोई सहारा बनती हैं तो वे हैं किताबें। हमेशा साथ। तो पिछले दिनों कई किताबें पढ़ डालीं। कुछ पहले की पेंडिंग थीं, कुछ एकदम नई। सबके बारे में बताएंगे एक एक करके। 

इसी दौरान एकदम ताज़ा ताज़ा आया वंदना अवस्थी दुबे का पहला उपन्यास। सहेली की किताब थी, बिना देर किए पढ़ डाली। 
"अटकन चटकन" दो विपरीत स्वभाव की बहनों की कहानी। ग्रामीण परिवेश, समस्याएं, दुविधाएं और फिर एक की साजिशों की दूसरी की उससे लड़ते रहने की कहानी। किसी प्राइम टाइम घरेलू सीरियल सा ताना बाना। बुंदेली का जबरदस्त तड़का मोहता है। बांध कर रखने वाली शैली। वह भी तब जबकि वह पहला उपन्यास हो।
हालांकि कथ्य मेरी पसंद का नहीं परंतु अपने अनूठे भाषा और शिल्प के कारण खुद को पूरा पढ़ा ले गई किताब। 
इसे अवश्य ही किसी टी वी सीरियल के निर्माता को भेजा जाना चाहिए। एक हिट सीरियल की गारेंटी।
 एक पठनीय उपन्यास के लिए लेखिका को बहुत बहुत बधाई।
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रामस्वरूप नायक
अटकन चटकन की आज की समीक्षा विशुद्ध पाठक की समीक्षा है। एक साहित्यिक समझ और रुचि वाला पाठक जब पुस्तक पर लिखता है तो ये लिखा जाना अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है, लेखक के लिए। श्री Ram Swaroop Nayak जी भी एक ऐसे ही साहित्यिक अभिरुचि सम्पन्न पाठक हैं। जो पेशे से अभियंता हैं लेकिन पढ़ने के बेहद शौक़ीन। आइये देखें क्या लिखते हैं आप-
अटकन-चटकन
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मैं सिर्फ एक पाठक की तरह साहित्य पढ़ने में रूचि रखता हूँ |  पेशे से अभियंता हूँ | 
किसी के लेखन पर टिप्पड़ी देना मेरे लिए अत्यंत दुरूह  कार्य है | फिर भी प्रयास करने में क्या बुराई है | 
उपन्यास का शीर्षक "अटकन-चटकन" ही पढ़ने हेतु कौतुहल पैदा करता है |  लेखिका की लेखन शैली व उपन्यास की पृष्ठभूमि अत्यंत आकर्षक बन पड़ी है |  स्थानीय बोली बुंदेली की झलक मोहित करती है | पूरे कथानक को कब कहाँ प्रस्तुत करना है , लेखिका इसमें पूर्णता: सफल रही हैं | पात्रों की रचना समाज में व्याप्त धारणाओं से मेल खाती है | उपन्यास रोचक है पर एक साथ पढ़ा जाना मुश्किल है |  कई जगह पढ़ते-२  अश्रु भी बह निकलते हैं , और उपन्यास पढ़ने के लिए अपने आप को पुनः तैयार  करना पड़ता है | मर्मस्पर्शी प्रस्तुति लेखिका की सफलता ही है जो पाठक की आँखों में महसूस हो सके | 

कहने को तो उपन्यास  दो बहनों के इर्द गिर्द ही घूमता है , एक सुमित्रा और दूसरी कुंती | सुमित्रा जहाँ रूपवान , प्रेम, स्नेह, धैर्य, दया, मित्रता , दुसरे की परवाह करने जैसे सद्गर्गुणो से परिपूर्ण , वहीँ  कुंती कुटिलता , चालाकी , ईर्ष्या , द्वेष , षड्यंत करना आदि दुर्गुणों के साथ रूपवती भी नहीं है | 

जो जैसा बोएगा वैसा काटेगा , यह कहावत भी चरितार्थ होती दिखाई पड़ती है , जब कुंती के पुत्र और नाती उसे वह अपनत्व और प्यार नहीं देते जिसकी उसको चाहत है | कुंती को तब भी कष्ट पहुँचता है जब उसे अपने पुत्रों के दो चेहरे दिखाई देते हैं , आभासी दुनिया में कुछ और वास्तविकता में कुछ और | 

कहते हैं न की अंत भला तो सब भला |  कुंती का सुमित्रा के प्रति श्रद्धा भाव दर्शाते हुए यह उपन्यास अपने समापन को प्राप्त करता है | 

पर मुझे लगता है, यह टिप्पड़ी अपने आप  में पूर्ण नहीं है | लेखिका के प्रति अन्याय होगा अगर मैं वह अनुभूति  व्यक्त न करूँ जो मुझे उपन्यास के पठन के दौरान  हुई | मुझे लगता ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि उपन्यास का मूल तत्त्व "प्रेम" ही है | प्रेम के कारण, दुसरे सद्गुण अपने आप प्रकट हो जाते हैं और जहाँ प्रेम नहीं होता वहीं ईर्ष्या, द्वेष, कुटिलता आदि अपने आप उभर आते हैं | कुंती और उसकी बहु के बीच टकराव भी प्रेम की अनुपस्थिति दर्शाता है, बहु इसकी स्पष्ट घोसणा  करती है कि कुंती के अंदर प्रेम है ही नहीं | 

अब दूसरी बात मन में यह उठती है कि क्या  कुंती सिर्फ अपनी कुरूपता के कारण और सुमित्रा के रूपवान होने से उससे ईर्ष्या रखती है | यह कहना उचित नहीं होगा | मेरा सोचना यही  है कि रूप से गुणों का कोई सम्बन्ध नहीं है | अतः कुंती अपने अवगुणों के लिए कुरूपता की आड़ नहीं ले सकती है | 

तीसरी बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि जब प्रेम का प्रभुत्त्व होगा तो सारे दुर्गुण अपने आप विलुप्त हो जाएंगे और जो स्तिथियाँ "प्रेम" की अनुपस्थति में नरक का दृश्य पैदा करती रहीं वह सभी स्वर्ग का आभास देने लगेंगी | 

मेरा मत तो यही है कि उपन्यास में प्रेम की श्रेष्ठता ही सिद्ध होती है | जैसे की मैं पहले भी कह चुका  हूँ, पूरे उतार चढाव के बाद उपन्यास सुखांत में समाप्त होता है | 

मैं उपन्यास की लेखिका वंदना जी को इतनी सुन्दर रचना के लिए आभार व्यक्त करता हूँ और उनके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ |  वह उत्तरोत्तर प्रगति करें एवं समाज को अपना श्रेष्ठ प्रदान करें | 

पुनः शुभकामनाओं सहित ,
राम स्वरुप नायक

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