शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

इस्मत से "शेफ़ा" तक का सफ़र....

रोज़ की तरह उस दिन भी मैंने अपने पेज का काम निपटाया और फिर रविवारीय पृष्ठ की सामग्री देखने लगी. दो-तीन आलेख एडिटिंग के लिए निकाले ही थे, कि हमारे मुख्य सम्पादक, श्री श्याम सुन्दर शर्मा
जी आये, उनके साथ एक गौरांग, सुदर्शना, गंभीर सी दिखने वाली लड़की भी भीतर आई. शर्मा जी बोले-
" वंदना, ये इस्मत हैं,
, अच्छा लिखतीं हैं, इनके आलेख देख लो."
इस्मत की तरफ मैंने एक औपचारिक मुस्कान फेंकी, बदले में उसने भी हलकी सी मुस्कराहट बिखेरी. उस दिन ही हम लगभग आधे घंटे साथ रहे, और मुझे लगा, कि ये तो मेरी दोस्त है!

और फिर चल पड़ा सिलसिला हमारी मुलाकातों का, बातों का, सामयिक चिंतन का..
तब इस्मत गद्य-लेखिका थी, और सामयिक, सामजिक आलेख लिखती थी. 'देशबंधु' में उनके प्रकाशन का अधिकार मेरे पास था. बस, जम गई जोड़ी.

जल्दी ही हमारी दोस्ती पारिवारिक दोस्ती में बदल गई. ज़हूर भाई, उमेश जी, इस्मत, मैं, हम सब जब इकट्ठे होते तो देर रात तक गर्मागर्म राजनैतिक बहसें छिड़ी रहतीं. हमारी इस बहस में स्थान के अनुसार कभी अम्मा, तो कभी आपी और अम्मी साथ होतीं.

१९९० में होने वाली ये मुलाक़ात, १९९५ तक दाँत काटी दोस्ती में तब्दील हो चुकी थी. १९९५ में, मेरी बिटिया विधु के जन्म के पूर्व, तबियत खराब हो जाने के कारण मुझे एडमिट कर लिया गया, और तब इस्मत, जो कि शहर से दूर , केबिल फैक्ट्री की कॉलोनी में रहती थी, दोनों वक्त समय से खाना लेकर नर्सिंग होम में हाज़िर हो जाती थी. वो भी बड़े जतन से बनाया गया खाना. मना करने पर मानती नहीं थी, उल्टा ज़ोरदार डांट लगा देती थी. विधु के जन्म के बाद स्थितियां कुछ ऐसी बनी, कि मुझे ४८ बॉटल ब्लड चढ़ाया गया, जिसमें से आधे से ज्यादा का इंतजाम ज़हूर भाई ने किया था! अब इस बारे में और नहीं लिखूंगी, वर्ना हो सकता है कि इस्मत इस पूरे हिस्से को पोस्ट में से हटा देने की जिद पर ही अड़ जाए. मैं चाहती हूँ कि उससे कहूं, कि उसने मेरी जान बचाई है, लेकिन वो कहने ही नहीं देती. खैर छोड़ देती हूँ.

2000-2001 में ज़हूर भाई का स्थानान्तरण गोवा हो गया, खबर सुनने के बाद मुझे कैसा लगा बता नहीं पाउंगी. और इस्मत सतना से गोवा पहुँच गईं. भौगोलिक दूरी बढ़ गई.
तीन साल पहले इस्मत ने मुझे अपनी ग़ज़ल सुनाई( फोन पर) मैं चकित, जो लड़की अभी तक कविता लिखती ही नहीं थी, ग़ज़ल कहने लगी? वो भी इतनी सुन्दर, और संतुलित? साल भर हमारा ग़ज़ल सुनाने और सुनने का सिलसिला चला. फिर मैंने अपना ब्लॉग बनाया, और तभी से इस्मत को उकसाती रही ब्लॉग बनाने के लिए. जब भी उसकी ग़ज़ल सुनती, सोचती, काश ये रचनाएँ अन्य सुधिजन भी पढ़ पाते! जब भी मैं इस्मत से ब्लॉग बनाने के लिए कहती, उसके पास सौ बहाने होते. डेस्कटॉप खराब है, लैपटॉप श्रीमान जी ले जाते हैं. मुझे कम्प्यूटर और नेट
के बारे में बहुत कुछ नहीं आता, वगैरह-वगैरह
खैर लगातार पीछे पड़े रहने का नतीजा ये हुआ, कि झल्ला के उसने अपना ब्लॉग बना डाला :)
और दुनिया, जहान, वतन, समाज के तमाम हालात को लेकर इस्मत की खूबसूरत गौर-ओ-फ़िक्र का पैकर
"शेफ़ा" उपनाम के साथ हम सबके रूबरू आने लगा.

आज नौ अक्टूबर को उनके ब्लॉग ने सफलतापूर्वक एक वर्ष पूरा किया है, मेरी अनंत शुभकामनाएं अपनी इस इकलौती दोस्त के लिए, हमारी दोस्ती, और उसके ब्लॉग का सफ़र इसी तरह नित नई ऊंचाइयों को छुए.
तख़य्युलात की परवाज़ कौन रोक सका
परिंद जब ये उड़ा फिर कहीं रुका ही नहीं