शुक्रवार, 16 मार्च 2012

इस्मत की क़लम से.........

भारत के कई हिस्सों में बेटी के विवाह के समय एक कुप्रथा प्रचलित है, वर-पक्ष के प्रत्येक सदस्य के वधु के पिता द्वारा चरण-स्पर्श. मैं बुन्देलखंड की हूं और वहां ये प्रथा चलन में है. जब भी ऐसा दृश्य देखती हूं मन अवसाद-ग्रस्त हो जाता है. पिछले दिनों मेरी परम मित्र इस्मत ज़ैदी भी एक शादी में गयीं और इस रस्म से दो-चार हुईं. पढिये उनकी व्यथा, उन्हीं की क़लम से-
कब जागेंगे युवा?????
सारे मौसमों की तरह शादियों का भी एक मौसम होता है और उन दिनों घरों में निमंत्रण पत्रों की बहार सी आ जाती है , हमारे यहाँ भी ऐसा ही होता है ,पिछले कुछ दिनों में शादियों के कई निमंत्रण आए लेकिन सब से आवश्यक निमंत्रण था सौम्या का था,बहुत प्यारी सी बिटिया
जिस से हमारी मुलाक़ात ६-७ वर्ष पूर्व हुई थी पहली ही मुलाक़ात में उस ने हमें प्रभावित किया लेकिन कुछ व्यस्तताओं के कारण हमारी मुलाक़ात फ़ोन तक ही सीमित हो कर रह गई थीं I उस दिन उस की शादी का कार्ड मिला तो एक ख़ुशी का एहसास हुआ कि बिटिया इतनी बड़ी हो गई I
ख़ैर शादी के कई दिन पूर्व ही पतिदेव द्वारा मुझे समय पर तैयार रहने का आदेश दे दिया गया था और मैंने भी आज्ञा का पालन बड़ी तत्परता से किया तथा निश्चित समय पर हम विवाह स्थल पर पहुँच गए I थोड़ी देर पश्चात जयमाल की रस्म संपन्न हुई और दुल्हन अपने दूल्हा के साथ वहीं मंच पर वर-वधु के लिये लगी
कुर्सियों पर विराजमान हो गई I मन अत्यंत प्रसन्न था कि बिटिया को उस का जीवन साथी मिल गया ,दुल्हन की सुंदरता को निहारते -निहारते मेरी दृष्टि जिस दृश्य पर अटक कर रह गई उस ने मुझे अवसादग्रस्त और क्षुब्ध कर दिया ,लड़की के पिता अपने दामाद के पैर धुला रहे थे ,इतना ही नहीं वह वृद्ध सज्जन सभी बारातियों के पैर छू रहे थे , बिना छोटे -बड़े का अंतर किये हुए और उसके बाद लगातार उन के समक्ष हाथ जोड़ कर खड़े रहे .उन के चेहरे पर फैली निरीहता ने मुझे झिंझोड़ कर रख दिया ,,,, माना कि उन्होंने आदर-सत्कार ,आवभगत ,आतिथ्य आदि को ध्यान में रखकर पैर छुए होंगे तो क्या उस समय ये दूल्हे और बारातियों का कर्तव्य नहीं था कि वे उन्हें पैर छूने से रोकते और ससम्मान गले लगा लेते ? यदि यहाँ पर दामाद और उस के घर वाले अतिथि थे तो उन के घर पर वधु के घर वाले भी तो अतिथि ही होंगे ,तो क्या उस समय लड़के के पिता अपने समधी का पैर छुएंगे ?? नहीं न ,तो फिर एक लड़की का पिता इतना निरीह क्यों हो जाए ??
मैं सोचने लगी कि जिस दृश्य को देखकर मुझे इतनी पीड़ा हो रही है उसे देखकर दुल्हन और उस की माँ पर क्या बीत रही होगी ?हाथ जोड़े , मस्तक झुकाए हुए वो पिता एक अपराधी की तरह क्यों खड़ा रहे जबकि अपने जीवन की अमूल्य निधि वह दूल्हे और उस के परिवार को सौंप रहा है ,वह अपने घर का उजाला उन के घर में रौशनी फैलाने के लिये भेज रहा है ?
मन में अंतर्द्वंद सा चल रहा था कि हमारा समाज तो अब बदल रहा है ,जहाँ लड़कियाँ सारे काम कर रही हैं यहाँ तक कि माता-पिता को मुखाग्नि देने तक का अधिकार भी उन्हें प्राप्त है तो वहाँ ये सब आख़िर कब तक चलेगा ?
मुझे मालूम है कि ये विषय नया नहीं है लेकिन मेरी व्यथा ने मुझे लिखने के लिये विवश कर दिया ,,,,इस कुप्रथा का अंत करने के लिये किसी राजा राम मोहन रॉय का इंतेज़ार करने के स्थान पर हमारे युवाओं को आगे आना होगा I जब वे अपने पिता समान श्वसुर को भी वही आदर-सम्मान देंगे जो अपने पिता को देते हैं तो इस समस्या का समाधान स्वयं ही निकल आएगा .ये बात पूरे युवा वर्ग के लिये कही गई है चाहे वो लड़का हो या लड़की,,,,और जिस दिन युवा वर्ग ने ये झंडा अपने हाथों में उठा लिया उस दिन इस कुप्रथा का अंत निश्चित है I

44 टिप्‍पणियां:

  1. पहले दिन से ही इन कुप्रथाओं के कारण उस मासूम बच्ची के दिल पर क्या असर पड़ा होगा ???
    और इन्हें शर्म नहीं आती ...

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया सतीश जी इस रचना को पढ़ने और उस बच्ची के मन को समझने के लिये

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  2. बहुत दुखद है ..ऐसी ही कितनी कुप्रथाएं का कन्या पक्ष को सामना करना होता है... अपने अपने रिवाज के हिसाब से .. कब यह सब कुप्रथाएं खतम होंगी..

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    1. धन्यवाद नूतन जी ,सच कहा आप ने कि हर जाति हर समाज में ऐसी कुप्रथाएं अभी भी उपस्थित हैं

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  3. मुझे समझ में नहीं आ रहा क्या कहूँ.जैसा इस्मत ने महसूस किया मैं भी कितने ही मौकों पर कर चुकी हूँ.पर वहाँ बेचारी दुल्हन कर्तव्य विमुड सी अपमानित सी कड़ी रह जाती है. पर लड़के वालों पर कोई असर नहीं होता.जाने कब बदलेगी मानसिकता ,बदलेगी भी या नहीं ..दुखद है बेहद दुखद.

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    1. बस शिखा इसी दुख से समाज को उबारना है और मुझे तो लगता है कि आज की युवा पीढ़ी ही इसे ख़त्म कर सकती है

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  4. हाँ वंदना हम लोग तो ऐसे अवसरों से रोज ही दो चार होते हें और कभी कभी तो लड़की के पिता अपनी पगड़ी तक उतार कर वर के पिता के पैरों पर रख देते हें और वे किसी शहंशाह की तरह से आकडे खड़े होते हें. इसके लिए जब तक हम जाति प्रथा की बेड़ियों को तोड़ने वाले और बेटियों के अस्तित्व को बेटों के समकक्ष समजने के निर्णय नहीं लेंगे इसी तरह से अपमानित होते रहेंगे.

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  5. बहुत अफ़सोस होता है ऐसी रिवाजें देखकर । युवा पीढ़ी को पहल करनी चाहिए बदलने के लिए ।

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  6. लड़की के पिता द्वारा दुल्हे के पैर धोकर उनका स्वागत करना तो हमारे प्रदेश में आम है....करीब-करीब हर शादी में यह रस्म निभाई जाती है.....लड़कों को ही इसका प्रतिकार करना चाहिए....और ऐसी रस्म से मना कर देना चाहिए. ..पता नहीं उन्हें शर्म भी नहीं आती...एक बड़े बुजुर्ग से अपना पैर धुलवाते .

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    1. हाँ रश्मि मुझे भी ये बात नहीं समझ में आती कि अपने बुज़ुर्गों से पैर धुलवाना ये लोग बर्दाश्त क्यों करते हैं ..
      और ये केवल एक प्रदेश नहीं पूरे देश की बात है
      .....फिर भी नई पीढ़ी से मुझे बहुत आशाएं हैं

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  7. जागना तो होगा ही ... कुप्रथाओं से मन व्यथित होता है . सशक्त प्रश्न उठाया है

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  8. मेरी इस पीड़ा को अपने हृदय और ब्लॉग में स्थान देने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद
    और आप सभी लोगों का भी धन्यवाद जो इन कुप्रथाओं के विरोध में मेरे साथ हैं

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  9. इस कुप्रथा का अंत करने के लिये किसी राजा राम मोहन रॉय का इंतेज़ार करने के स्थान पर हमारे युवाओं को आगे आना होगा I जब वे अपने पिता समान श्वसुर को भी वही आदर-सम्मान देंगे जो अपने पिता को देते हैं तो इस समस्या का समाधान स्वयं ही निकल आएगा .
    बहुत सही !!

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  10. समाज में व्याप्त ऐसी तमाम रूढ़ियाँ अभिशाप ही है . लगभग हर इन्सान का इनसे कभी ना कभी पाला पड़ता ही है . इनके समूल विनाश में युवा वर्ग की सक्रिय भागीदारी अपेक्षित है . विचारणीय आलेख के लिए इस्मत जी का आभार

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    1. बस आशीष अपनी पीढ़ी को प्रेरित करने का ज़िम्मा अगर आप जैसे साहित्यकार ले लें तो अवश्य परिवर्तन आएंगे
      आभार के लिये आभार

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    2. इस्मत जी ये तो बहुत ज्यादा हो गया . साहित्यकार और मै?? . मै एक पाठक हूँ और बस वही पहचान है मेरी . शुक्र है साहित्यकारों की नजर नहीं पड़ी यहाँ नहीं तो उनकी भृकुटी तन गई होती .हा हा इज्जत आफजाई के लिए शुक्रिया .

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    3. तो क्या कहूँ आशीष जी कलाकार ???
      :):)
      पाठक तो हम सभी हैं

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  11. ऐसी कुप्रथाओं का अंत युवाओं को ही करना होगा और हर दूल्हा ही इसे नकारना शुरू कर दे। लेकिन वर और वरपक्ष के लोग अपनी नववधु को सारी जिन्दगी दबाये रखने के लिये ऐसी प्रथाओं को घसीटते रहते हैं, ताकि लडकियां अपने पिता को इतना झुके देखकर हमेशा झुकी रहे।

    प्रणाम स्वीकार करें

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    1. जी सोहिल जी इस के लिये लड़कियों को भी आवाज़ उठाने की ज़रूरत है परिवर्तन का झंडा लड़के और लड़कियाँ दोनों मिल कर उठाएं तभी कुछ फ़यदा होगा

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  12. ऐसी कुप्रथाओं से मन आहत होने के साथ विचलित भी होता है ... सार्थक व सटीक लेखन ..आभार ।

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  13. हमारे समाज और देश की असली प्रगति में ये कुप्रथाएं बाधा बनी हुयी हैं ... और जाने अनजाने हम हम सभी इसका साथ दे रहे हैं ... सभी को उठाना होगा इनके विरूद्ध ..

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    1. जी नासवा जी बिलकुल सही कह रहे हैं आप हम सभी को इन कोशिशों में शामिल होना पड़ेगा ,,,बहुत बहुत धन्यवाद

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  14. उत्तर
    1. कई बार देखे हैं ऐसे मंज़र ! और ऐंठता रहा हूँ अन्दर-अन्दर ! बदलेगा ये कठोर रस्मों-रिवाजों का मौसम भी ! हाँ, ठहरना होगा हमें लम्बे इंतज़ार के साथ--बेटियों के बाप का सर उठेगा, शान से एक दिन, यकीन है मुझे !
      मैं फक्र से कह सकता हूँ कि मेरे समधी साहब ने मुझे नतग्रीव नहीं होने दिया ! बदल रही है ये संकीर्ण मानसिकता भी !
      वंदना जी, आपको परोसने के लिए और इस्मत तुम्हें ये चुभता सवाल खड़ा करने के लिए बधाई !!
      सप्रीत--आ.

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    2. आनंद भैया अगर ध्यान से देखा जाए तो बेटी के पिता का सर आज भी गर्व से उठा हुआ है ,,वो कहते हैं न कि जो जितना झुक कर मिलता है वो आ’ला ज़र्फ़ होता है अब बारी बेटों के पिता के आ’ला ज़र्फ़ बनने की है
      बहुत बहुत शुक्रिया आप की आमद का भी और आशीर्वाद का भी

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  15. सचमुच बड़ा ही विचित्र रिवाज़ है ये....
    सौभाग्य से मैं दक्षिण भारतीय हूँ.....जहाँ हम बेटियां भी माता पिता के चरण स्पर्श करतीं हैं...और दामाद भी...
    मगर उत्तर भारत की ये रस्म हर दामाद को समाप्त करनी चाहिए....साहस करके स्वयं वधु के पिता भी कर सकते हैं......

    बहुत सही कहा इस्मत जी ने ..
    सांझा करने के लिए आपका आभार वंदना जी.

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  16. आधुनिक युग में
    ’लड़का-लड़की एक समान’
    के नारे को खोखला साबित करता आलेख.

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