सोमवार, 28 मई 2018

कुछ दिन तो गुज़ारिये पर्यटन में.....!


मनुष्य स्वभाव से ही घुमक्कड है. आदिमानव भोजन और अपने शिकार की खोज में एक जगह से दूसरी जगह घूमता था. लेकिन इस घूमने ने उसका ऐसा मन मोहा, कि खेती करने की समझ आने के बाद भी उसे एक जगह ठिकाना बना के रहना रास न आया. घूमता ही रहा, इस जंगल से उस जंगल. पुराने राजे-महाराजे देखिये. राज-काज से समय निकाल के महीने-महीने भर को शिकार पर चले जाते थे. ये शिकार क्या था? शुद्ध घुमक्कड़ी ही न? साधु संत निकल जाते थे देशाटन पर. एक गांव से दूसरे गांव, एक पर्वत से दूसरे पर्वत. ये भी घुमक्कड़ी का ही एक रूप है. बुज़ुर्गवार तीर्थाटन पर जाते रहे हैं पुराने समय से. ये तीर्थाटन भी वृद्धावस्था की घुमक्कड़ी ही है. तो समय और देशकाल के अनुसार नाम चाहे जो ले लें हम, है ये विशुद्ध घुमक्कड़ी. घुमक्कड़ी यानी परिष्कृत भाषा में पर्यटन.
पर्यटन के प्रति आकर्षण , मनुष्य का एक ऐसा गुण है जिसे जन्मजात कहा जा सकता है. तमाम अन्य गुणों की तरह ये गुण भी अलग-अलग लोगों में कम या ज़्यादा हो सकता है. लेकिन होता सब में है. पर्यटन असल में केवल घुमक्कड़ी नहीं है. असल में पर्यटन भी भिन्न-भिन्न उद्देश्यों के चलते किया जाता है. कोई पढ़ाई-लिखाई के चक्कर में किसी दूसरे शहर या दूसरे देश जाता है, तो कोई काम के सिलसिले में तो कोई केवल घूमने के उद्देश्य से ही जाता है. लेकिन इन सभी परिस्थियों में नई जगह को जानने, वहां की खास और महत्वपूर्ण जगहों को देखने की इच्छा कोई रोक सकता है क्या? यही इच्छा अपने काम के साथ-साथ उसे पर्यटन का सुख दे जाता है.
जब हम किसी नई जगह पर घूमने जाते हैं, तो ये केवल घूमना नहीं होता, बल्कि उस शहर या देश की संस्कृति को आत्मसात करने का वक्त होता है. वहां की संस्कृति से साक्षात्कार ही हमें रोमांच से भर देता है. किसी दूसरे देश की संस्कृति तो स्वाभाविक तौर पर अलग और नई होती है, लेकिन ये नयापन हमारे देश में भी कम नहीं. जितने प्रांत, उतनी ही भिन्न संस्कृति, आचार-व्यवहार, खान-पान, वेशभूषा, सोने जागने के तरीके, सब भिन्न. हर दो सौ किलोमीटर पर बदली हुई संस्कृति दिखाई देती है. केवल मध्यप्रदेश को ही लें. बुंदेलखंड, बघेलखंड, मालवा, चम्बल इन चारों हिस्सों की संस्कृति में भिन्नता है. कुछ त्यौहार जो बुन्देलखंड में मनाये जाते हैं, वे बाकी तीन में नहीं, तो कुछ रिवाज़ जो मालवा में हैं, बाकी जगहों पर नहीं. ये सब हम कैसे जानेंगे? केवल पढ़ के ये सब नहीं जाना जा सकता. इस भिन्नता के दर्शन तब होंगे, जब हम इन जगहों पर घूमने निकलेंगे. किसी जगह को पढ़ के जानने, और घूम के जानने में उतना ही फ़र्क है, जितना खाना बनाने और व्यंजन विधियों को पढ़ने में है.
हिन्दुस्तान तो वैसे भी भिन्न संस्कृतियों, भिन्न भाषाओं का देश है. कभी-कभी अचरज होता है, कि एक ही भूभाग पर कैसे इतनी भिन्नताएं एक साथ हैं? बहुत से लोग हैं, जो देश के ही तमाम प्रांतों को जानने-समझने के लिये छुट्टियों में केवल घूमने का ही प्रोग्राम बनाते हैं, और निकल पड़ते हैं. घूमने के ऐसी प्रेमियों को बहुत ज्ञान होता है. भाषाई ज्ञान के साथ-साथ इन्हें भौगोलिक और सांस्कृतिक ज्ञान भी खूब होता है. तो पर्यटन केवल घूमने का नहीं बल्कि ज्ञानार्जन का भी ज़रिया है.
पर्यटन हमारे लिये घूमने का, तो देश के लिये राजस्व का बेहतरीन ज़रिया है. पुरानी इमारतों, विशेष स्थानों को सुरक्षित रखने, संरक्षित करने, या उसके आस-पास मनोरम स्थल विकसित होने का कारण भी एकमात्र मानव पर्यटन है. लोगों की आवाजाही को देखते हुए, उस स्थान विशेष को विकसित किया जाता है. तो पर्यटन के चलते हमारा इतिहास भी सुरक्षा पा जाता है.
सन 1966 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 1967 को अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटन वर्ष घोषित किया था. इसी वर्ष अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पाया गया कि विकासशील देशों में भारत एकमात्र देश है, जहां पर्यटन की बहुत अधिक सम्भावना है. यहां के ऐतिहासिक स्थलों को विकसित किया जाये, तो ये पर्यटन स्थल बन सकते हैं. वैसे भी विदेशी पर्यटकों के लिये भारत में आअकर्षण के लिये बहुत कुछ है. यहां की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक इमारतें ही इतनी हैं, कि एक विदेशी पर्यटक, जब साल भर का वीज़ा ले के हिन्दुस्तान आता है, तब यहां के सारे ऐतिहासिक स्थल देख पाता है. त्यौहारों के इस देश में मेलों की भी अद्भुत परम्परा रही है. और विदेशी, हमारे इन हिन्दुस्तानी मेलों के दीवाने हैं,. मौसम और त्यौहार विशेष पर लगने वाले कुछ प्रमुख मेलों में जैसे कुम्भ, माघ, या बिहार का पशु मेले में उनके आयोजित होने के समय पर अतिरिक्त पर्यटक जुटते हैं. भारतीय संस्कृति की भिन्नता ही उन्हें इस देश के पर्यटन के लिये उकसाती है. बनारस की अपनी अलग शान है. यहां के घाट, यहां की परम्पराएं और यहां का मोक्षगान, विदेशियों को यहीं बस जाने के लिये प्रेरित करता है.
भारत सरकार ने भी पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये बहुत सी योजनाएं बनाई हैं, सरकार द्वारा हमेशा नई-नई योजनाएं बनाई जाती रहती हैं, क्योंकि हमारा घूमना, देश के राजस्व को बढ़ाता है, जो भविष्य में हमारे ही काम आता है. तो देर किस बात की कुछ दिन तो गुज़ारिये पर्यटन में....!  
( नई दुनिया में प्रकाशित आलेख)

बुधवार, 23 मई 2018


हथेली से बादल को छूने के अरमां...!


क्या हार में, क्या जीत में,
किंचित नहीं भयभीत मैं,
संघर्ष पथ पर जो मिले,
यह भी सही, वह भी सही
रसोई में जगह थोड़ी कम है चाची. दो फुट लम्बाई और होती, तब सही होता. चाय के प्यालों को सिंक के दूसरी ओर सरकाती, प्रेमाबाई ने ज़रा खिन्न अवाज़ में कहा. प्रेमाबाई की बात मन स्वीकार करने ही वाला था कि परात में आटा निकालतीं पाठक चाची का स्वर मेरे कानों में पड़ा-
अरे! कहां कम है? खूब जगह है. तुम्हारा काम रुक रहा क्या? हमारा काम रुक रहा? सारे काम हो रहे न? घर में पंद्रह लोग हैं अभी और इसी रसोई से सबका खाना बन पा रहा न? फिर काहे की कमी? कुछ कम नहीं है. खूब है. जगह ही जगह है...
प्रेमाबाई की बात से अचानक ही बोझिल हुआ मन, खट से खिल गया. लगा एक नितांत अनपढ़ महिला की सोच कितनी सकारात्मक है! कितनी खूबसूरती से उसने उस छोटी सी जगह को बड़ा बना दिया! ज़ाहिर है- दोष उस जगह के छोटे होने में नहीं, बल्कि हमारी सोच में है. किसी भी चीज़ को छोटा या बड़ा हमारा नज़रिया बनाता है. असल में हमने असंतोष को अपना स्थायी भाव बना लिया है. अपने काम से असंतुष्ट, भोजन से असंतुष्ट, पहनावे से असंतुष्ट और सबसे ज़्यादा दूसरों के रवैये से असंतुष्ट. फ़लाने ने ऐसा कहा- क्यों कहा होगा? ज़रूर तंज किया होगा... वो शायद हमारी सफलता से चिढ़ता है. उसे हमारे रहन-सहन से ईर्ष्या है...आदि-आदि. ऐसी बातें सोचते हुए हम खुद कितनी नकारात्मकता से भर जाते हैं, कभी सोचा है? दूसरे ने भले ही सहज भाव से कुछ कहा हो, लेकिन उस बात के दूसरे-तीसरे मतलब निकालने की आदत सी होती जा रही हमारी. न केवल मतलब निकालने की, बल्कि नकारात्मक मतलब निकालना शगल सा हो गया है. कार्यस्थल पर यदि दो लोग आपस में बात कर रहे हों, वो भी धीमी आवाज़ में, तो पहला व्यक्ति यही सोचता है कि ज़रूर ये दोनों उसकी बुराई कर रहे होंगे. यानी उसने खुद को ही बुराई करने के लायक़ समझ लिया! कभी ये भी किसी ने सोचा, कि अगले व्यक्ति उसकी तारीफ़ कर रहे होंगे? बुराई करने की बात सोच के उसने अपने दिमाग़ को उथल-पुथल के हवाले कर दिया. यदि वहीं तारीफ़ की बात सोची होती तो कितना सुकून होता उस दिमाग़ में! आम ज़िन्दगी में भी हमने अपने ही लोगों के प्रति ऐसी सोच बना ली है कि हर व्यक्ति खुद के ख़िलाफ़ नज़र आने लगा है.
आम ज़िन्दगी से असंतुष्ट व्यक्ति हर बात से असंतुष्ट होता है. उसे जितना मिला, उससे संतुष्ट होने की जगह उसे हमेशा शिक़ायत बनी रहती है कि कम मिला. या उसका भाग्य ही खराब है. जबकि ग़ौर तो उसे अपनी कोशिशों पर करना चाहिये था. अकर्मण्य व्यक्ति कोशिश की जगह भाग्य को दोषी मानने लगते हैं. जबकि भाग्य का निर्माण तो हमारा कर्म करता है. ऐसे व्यक्ति अपने घर में भी गज़ब नकारात्मक ऊर्जा का संचार करते हैं. नतीजतन, पत्नी, बच्चे सब सहमे-सहमे से रहते हैं. उन्हें भी अपना भाग्य ही खराब लगने लगता है. वहीं चंद लोग ऐसे भी हैं, जो अपनी कमज़ोर आर्थिक स्थिति के बाद भी खुश-संतुष्ट दिखाई देते हैं. जैसे हमारी पाठक चाची. कहने को वे हमारे घर में खाना बनाती हैं, लेकिन मन से वे बहुत धनी हैं. सुविचारों की एक ऐसी पोटली उनके पास है, जो उन्हें और उनसे जुड़े लोगों को निराश नहीं होने देती. ज़िन्दगी में आई हर मुश्क़िल का सकारात्मक पहलू उनके पास मौजूद है. इस बढ़ती उमर में भी काम करना उनके लिये अफ़सोस का नहीं बल्कि स्वाबलम्बन का वायस है.
जैसा खायें अन्न, वैसा होबे मन की तर्ज़ पर ही हम जैसा सोचते हैं, वैसा ही हमारा व्यक्तित्व भी बन जाता है. मेरी एक परिचिता हैं, उनके पास शिक़ायतों का अम्बार है. ससुराल से शिक़ायत, मायके से शिक़ायत, पड़ोस से शिक़ायत, अपने काम से शिक़ायत.... कई बार लगता है इतनी शिक़ायतों के बीच कैसे कट रही इनकी ज़िन्दगी? उनकी शिक़ायतों का आलम ये, कि उनके बच्चे भी अपने विद्यालय, शिक्षकों और सहपाठियों की शिक़ायत करते दिखाई देने लगे हैं. इन कम उम्र बच्चों ने खूबियों की जगह कमियां खोजना सीख लिया है. हमारी ये आदतें बचपन को नकारात्मकता से भर रही हैं, इस ओर ध्यान देना बेहद ज़रूरी है. ज़रूरी है कि हम बच्चों को आधे खाली गिलास की जगह भरे गिलास का महत्व समझायें. खुश होना या दुखी होना हमारे हाथ में है. किसी एक बात पर ही हम खुश हो सकते हैं, और दुखी भी, फ़र्क़ केवल हमारे नज़रिये का होगा.
सकारात्मकता का गुण यदि सीखना है, तो एक नज़र प्रकृति पर डालनी होगी. पेड़-पौधों के बीच पहुंचते ही दिल-दिमाग़ कितने सुकून से भर जाता है न? क्यों? क्योंकि प्रकृति में कोई नकारात्मक गुण नहीं है. पेड़ों ने, पौधों ने नि:स्वार्थ भाव से केवल देना सीखा है. लेने की लालसा तो केवल इंसानी है. जहां केवल देने का भाव हो, वहां कैसी नकारात्मकता? चारों ओर सकारात्मक घेरा होता है. यही हमें सुकून देता है. लेकिन हमने कभी पौढों से कुछ सीखने की कोशिश की ही नहीं. ग्रीष्म से तपी, सूखी धरती पर पहली बारिश की बौछार पड़ते ही नन्हे-नन्हे पौधे अपनी बाहें फैला के खड़े हो जाते हैं रातोंरात. उन्हें कुचले जाने का खौफ़ नहीं होता. हम जैसा दूसरों को देते हैं, हमें ठीक वैसा ही वापस मिल जाता है. धरती में भी अगर हम अच्छा बीज बोयेंगे तो हमें एक स्वस्थ पौधा प्राप्त होगा. खराब बीज अव्वल तो पनपेगा ही नहीं, और यदि पनप भी गया तो स्वस्थ पौधे की उम्मीद, उस बीज से नहीं होनी चाहिये. बच्चे भी बीज की तरह हैं. हम उनके दिमाग़ में जैसी खुराक डालेंगे, वे वैसे ही तैयार होंगे. बचपन से ही यदि हम उन्हें प्रेम और सद्भाव के साथ-साथ संतोष का पाठ पढ़ायें, तो युवावस्था में वे इसका उलट करेंगे, ऐसी उम्मीद न के बराबर है.
हमारे हौसलों का रेग-ए-सहरा पर असर देखो,
अगर ठोकर लगा दें हम तो चश्मे फूट जाते हैं
इस्मत ज़ैदी ’शिफ़ा’ का ये शेर मुझे कई बार याद आता है. खासतौर से हौसलापरस्त युवाओं को देखकर.
पिछले दिनों मेरा एक विद्यार्थी किसी प्रतियोगी परीक्षा में शामिल हुआ. लौट के उसने हंसते हुए बताया कि- मैं कुल पचास प्रश्नों के ही उत्तर दे सका. गणित के लगभग सभी सवाल ग़लत हो गये. लेकिन मुझे इससे बड़ी सीख मिली, कि जिस गणित से मैं बचता रहा, उससे पीछा छुड़ाना इतना आसान नहीं है. मुझे उससे भागना नहीं है. अब मैं पहले मन लगा के गणित की ही तैयारी करूंगा मैं खुश थी. एक बच्चे ने अपनी कमज़ोरी को पहचाना. एक असफलता ने उसे नैराश्य से नहीं भरा, बल्कि अपनी कमी को दूर करने के लिये प्रेरित किया. यदि यही सकारात्मक रवैया अपनाया जाये, तो वो दिन दूर नहीं, जब सफलता आपके कदम चूमेगी. ज़िन्दगी है तो सुख-दुख, सफलता-असफलता का सिलसिला भी अवश्यम्भावी है. अपने तमाम दुखों के हल खोजना ज़्यादा बेहतर है, बजाय उस दुख को पालने-पोसने के. हमारी असफलताएं भी हमें अपने आपको जांचने का मौक़ा देतीं हैं, बशर्ते की हम परिस्थितियों को दोषी न मानने लगें. नकारात्मकता के इस जंगल में हमें आशा कि किरण को बचाना ही होगा. मन में आसमान छूने का हौसला रखना ही होगा भले ही हम इस कोशिश में कई बार गिरें क्यों न. चिड़ियों को घोंसला बनाते देखा है न? कितनी बार उनके तिनके गिरते हैं. कई बार तो पूरा घोंसला ही उजाड़ दिया जाता है, लेकिन वे तब भी अपनी कोशिशें नहीं छोड़तीं. नतीजतन, घोंसला तैयार हो ही जाता है. लेकिन इंसानी फ़ितरत में निराशा बहुतायत है. और ये खुद की कोशिश से, अपनी सोच बदलने से ही आशा में तब्दील हो सकेगी.
एक कहानी मुझे याद आती है हमेशा- एक व्यक्ति ऑटो से रेल्वे स्टेशन जा रहा था. ऑटो की रफ़्तार सामान्य थी. एक कार अचानक पार्किंग से निकल कर रोड पर आ गयी. ऑटो ड्राइवर ने ब्रेक लगाया और कार ऑटो से टकराते-टकराते बची. कार चला रहे व्यक्ति ने गुस्से में ऑटो वाले को खूब बुरा भला कहा. गालियां तक दीं, जबकि ग़लती उसी की थी. ऑटो चालक बिना कोई बहस किये, क्षमा मांग के आगे चल दिया. ऑटो में बैठे व्यक्ति ने कहा- तुमने उसे ऐसे ही क्यों जाने दिया? कितना बुरा भला कहा उसने जबकि तुम्हारी ग़लती थी ही नहीं. ऑटो वाले ने सहजता से कहा- साहब, कुछ लोग कचरे से भरे ट्रक के समान होते हैं. ये तमाम कचरा अपने दिमाग़ में भर के चलते हैं. जिन चीज़ों की जीवन में कोई जरूरत नहीं होती, उसे भी मेहनत करके जोड़ते रहते हैं जैसे क्रोध, चिंता, निराशा, घृणा. जब उनके दिमाग़ में कचरा जरूरत से ज़्यादा हो जाता है तो वे उस बोझ को हल्का करने के लिये इसे दूसरों पर फेंकने का मौक़ा खोजते हैं. इसलिये मैं ऐसे लोगों को दूर से ही मुस्कुरा के विदा कर देता हूं. अगर मैने उनका गिराया कचरा स्वीकार कर लिया तो फिर मैं भी तो कचरे का ट्रक ही बन जाउंगा न? ऐसे लोगों के कारण मैं क्यों तनाव पालूं? कितनी सच्ची बात है ये! कोई भी झगड़ा बढ़ाने से ही बढ़ता है वरना एक अकेला व्यक्ति कब तक बकझक करेगा?
लोग भूल जाते हैं, कि ये ज़िन्दगी उन्हें एक बार ही मिली है, और वे इसे नरक बना रहे हैं. ज़िन्दगी बहुत खूबसूरत है. हम इसे अपनी सोच, और व्यवहार से और भी खूबसूरत बना सकते हैं. खाली पड़े मैदान में केवल घास-फूस पैदा होती है जो किसी काम की नहीं होती, जबकि खेतों में फसल के रूप में ज़िन्दगी लहलहा रही होती है. उसी तरह हमें भी अपने दिमाग़ को खाली मैदान नहीं बनाना है, यहां बोना है सकारात्मक विचारों की फसल, जो आने वाली पीढ़ियों को भी जीवनदान दे सके.
(31 दिसम्बर 2017 को अहा ज़िन्दगी पटना ( दैनिक भास्कर) में प्रकाशित आवरण कथा )
तस्वीर: गूगल सर्च से साभार

रविवार, 6 मई 2018

ग़ायब हो गये हैं ठहाके.....!


सुबह का समय. मॉर्निंग वॉक से लौटते हुए, रास्ते में ही नया बना जॉगिंग पार्क मिलता है. जब लौटती हूं, तब सामूहिक हंसी सुनायी देती हैं. हा हा हा....हा हा हा....!!! पिछले दिनों इलाहाबाद गयी थी. प्रात: भ्रमण की शौकीन मैं, कम्पनी बाग़ चली गयी. सुबह पांच बजे से यहां लगभग आधा इलाहाबाद, मॉर्निंग वॉक के इरादे से चला आता है. जिससे कई दिनों से मिलना न हुआ हो, वो भी कम्पनी बाग में मिल ही जायेगा. ढाई सौ एकड़ में फ़ैले इस कम्पनी बाग में तो कई जगह लाफ़िंग एक्सरसाइज़ चल रहे थे. अधिकांश बुज़ुर्ग ही थे जो नकली हंसी के बहाने हंस रहे थे.  और मेरा मन पुराने ठहाकों की ओर दौड़ रहा था.
एक समय था, जब लोगों का मिलना-जुलना, बैठना और बैठकों में हंसी-ठट्ठा होना बहुत आम बात थी.शहर की गलियों में, गर्मियों की हर शाम, देखने लायक़ होती थी. घरों के बाहर पानी का झिड़काव और फिर चार-छह कुर्सियों का घेरा. बीच में टेबल. धीरे-धीरे पापाजी के वे मित्र आने शुरु होते जो प्राय: रोज़ ही आते थे. देश-दुनिया की बातें, समाज की बातें, और उससे भी ज़्यादा यहां-वहां की अनर्गल बातें. ज़रा-ज़रा सी बात पर ज़ोरदार ठहाका लगता. ऐसे ठहाके हर पांच मिनट पर सुनाई देते, जिनकी गूंज अगले तीन मिनट तक बनी रहती. ये विशुद्ध हास्य के ठहाके थे. इनमें किसी का मज़ाक नहीं उड़ाया जा रहा था, किसी पर तंज नहीं कसा जा रहा था, इन ठहाकों से किसी तीसरे को दुखी नहीं किया जा रहा था. जी भर के हंसते थे लोग. इतना कि हंसते-हंसते पेट दुख जाये. इतना कि हंसते-हंसते आंसू बहने लगें......!! पूरा माहौल ही जैसे मुस्कुराने लगता था. धरती से आसमान तक, केवल हंसी का साम्राज्य हो जैसे...!
ऐसा नहीं था कि हंसी केवल बड़ों तक ही सीमित थी. बच्चों के पास भी हंसी के ख़ज़ाने थे. तेनालीराम के किस्से, अकबर-बीरबल, मोटू-पतलू, लम्बू-छोटू, ढब्बू जी, और भी पता नहीं कौन-कौन से पात्र केवल बच्चों को नहीं, बड़ों को भी घेरे रहते थे अपनी हंसी के व्यूह में. ’नन्दन’ में तेनालीराम का नियमित स्तम्भ होता था. चम्पक में चीकू का तो पराग में छोटू-लम्बू का. पत्रिकाओं के सबसे पहले खोले जाने वाले स्तम्भ होते थे ये. ये वो पात्र हैं, जिनका नाम भर लेने से आज भी चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है. ये पात्र कैसा ग़ज़ब का हास्य सृजित करते थे! थोड़ा सा और बाद में बिल्लू, पिंकी, चाचा चौधरी जैसे पात्र कॉमिक्स के ज़रिये आये. अब तक तेनाली राम और अकबर-बीरबल भी कॉमिक्स के रूप में आ चुके थे. ये नन्हे-मुन्ने पात्र भी विशुद्ध हास्य ही पेश करते. साथ ही, इसमें तमाम शिक्षाप्रद बातें भी हंसी-हंसी में ही सिखा दी जातीं. तेनालीराम और बीरबल की बुद्धि का लोहा तो उनके राजा/बादशाह भी मानते थे. कमाल की बुद्धिमत्तापूर्ण बातें होती थीं, ज़बरदस्त हास्य के साथ.
पुरानी फ़िल्में यदि आप देखें, तो पायेंगे कि हर फ़िल्म में एक क~ऒमेडियन ज़रूर होता था. बिना हास्य कलाकार के फ़िल्म अधूरी सी लगती थी. इस हास्य कलाकार का काम था, अभिनेता के साथ मिल के किसी भी घटना पर हास्य का सृजन करना. दर्शक भी जी खोल के हंसते थे इन पात्रों के अभिनय पर. महमूद, मुकरी, राजेन्द्रनाथ, टुनटुन, मनोरमा जैसे कुछ बहुत अच्छे हास्य अभिनेता हैं, जिन्हें कोई भूल नहीं सकता. फ़िल्मों में इनकी उपस्थिति का उद्देश्य भी फ़िल्म को बोझिल होने से बचाना होता था. यानी, हास्य ज़िन्दगी का अहम हिस्सा था. लेकिन धीरे-धीरे हास्य का स्थान व्यंग्य ने ले लिया. अब पड़ोसी हो, रिश्तेदार हो, अपरिचित हो, परिचित हो, अधिकारी हो, मातहत हो, सरकार हो, मंत्री हो, नेता हो, सब केवल व्यंग्य के अधिकारी और व्यंग्य के पात्र हो गये हैं. आज हंसी में भी कड़वाहट सी घुल गयी है. ठीक वैसे ही जैसे हवा में कार्बन डाइऑक्साइड...... लोग हंसते कम हैं, हंसी ज़्यादा उड़ाते हैं. अब तो मुस्कुराहट भी कई अर्थ देने लगी है. पता नहीं व्यंग्य भरी मुस्कान है, या उपहास भरी!! हंसी का गुमना, यानी हमारे सबसे महत्वपूर्ण गुण का खत्म होना. हंसी का वरदान सभी जीवों में केवल इंसानों को ही प्रकृति ने दिया है. इसे बचा के रखें. न केवल बचायें, बल्कि बढ़ायें. न केवल बढ़ायें, बल्कि बढ़ाते रहने की चिन्ता भी करें, ठीक उसी तरह जैसे हम बैंक में रखे पैसे की चिन्ता करते हैं. खूब हंसे और दूसरों को हंसायें, बस हंसी न उड़ायें किसी की भी.
(नई दुनिया के लिये लिखे, और प्रकाशित बहुत सारे लेख इकट्ठे हो गये हैं, सो सोचती हूं यहां पोस्ट कर दूं, ताकि ब्लॉग पर आने-जाने का सिलसिला जमा रहे)