रविवार, 30 नवंबर 2014

कैसे मोक्ष हो यहां....


कई सालों  से अम्मा का मन था कि हम दोनों “गया” जायें और पापा का पिंडदान करके आयें. हर साल प्रोग्राम बनता, और फिर किसी न किसी कारण से टल जाता. इस बार मैने  एक दिन बस यूं ही रेल्वे की साइट खोली और गया के रिज़र्वेशन देखने शुरु किये. सारी ट्रेनें  फुल थीं. इलाहाबाद होके देखा तो मिल गया रिज़र्वेशन. आने-जाने दोनों का. रात में बैठ के बोध गया के होटल सर्च किये, और एक बढिया होटल में कमरा भी बुक हो गया.नियत समय पर हम सतना से इलाहाबाद पहुंच गये. आने वाली ट्रेन भी एक दम सही समय पर आ रही थी, उसका अनाउंसमेंट सुनते ही हम प्लेटफ़ॉर्म नम्बर  छह की ओर लपके.
हमारे लपकते-झपकते ट्रेन भी आ गयी लम्बे-लम्बे डग भरती. भारतीय रेल की असली तस्वीर देखनी है तो स्लीपर क्लास में सफ़र जरूर करें. आनन फानन में हमें  आरक्षण मिला था स्लीपर क्लास में . किसी प्रकार अपने डिब्बे में चढे . बर्थ पर पहुंच के देखा, कोई और महानुभाव गहरी नींद में सो रहे हैं वहां. बड़ी मुश्किल  से  जागे भाईसाब.   जागने के बाद उतरने को तैयार नहीं बर्थ से. खैर तमाम समझाइश, डांट-डपट के बाद उतरे. हमने चैन की सांस ली कि अब सुबह तक यात्रा भली प्रकार होगी. लेकिन कहां?  बर्थ पर अभी पैर सीधे किये ही थे कि अगला स्टेशन आ गया और यहां से भीड़ का जो रेला चढा, उसे शायद हमारी बोगी ही पसन्द आ रही थी. किसी के भी पास रिज़र्व टिकट नहीं, लेकिन सब के सब सपरिवार  तमाम तरह के सामान सहित डब्बे में ऐसे अट गये जैसे ये बोगी तो उन्हें विरासत में मिली थी L
खैर, हम ऊपर वाली बर्थ पर थे सो सुरक्षित थे.       
पूरी ट्रेन के किसी भी टॉयलेट में लाइट और पानी न था. मैं चार बोगी इधर और चार बोगी उधर तक घूम आई. लेकिन हर बोगी के टॉयलेट से बिजली नदारद. पानी भी. क्षमता से तीन गुना ज़्यादा सवारियां और टॉयलेट के ये हाल… समझ रहे हैं न??  L  खैर जैसे-तैसे सुबह हुई, साढे छह की जगह सात बजे गया स्टेशन आया. हम ऐसे उतर के भागे जैसे किसी ने गले से पट्टा खोल दिया हो. होटल फोन किया कि हमारा चैक इन दस बजे है जबकि हमारी ट्रेन ने अभी ही पहुंचा दिया है तो होटल के मैनेजर ने सहृदयता दिखाई और कहा कि वो हमारा रूम अभी ही तैयार करवा देगा हम होटल पहुंच जायें J
 होटल पहुंच के नहाया-धोया और तत्काल ही हम वापस गया के पिंडदान स्थल की ओर रवाना हो गये. पिंडदान..यानि  पूर्वजों की  मुक्ति प्रक्रिया…. लेकिन इस जगह पर  पहुंच के लगा हम अपने पूर्वजों को किस गन्दगी में ढकेलने आये हैं??
सुना था कि यहां के पंडे बहुत परेशान करते हैं. पीछे पड़ जाते हैं. लेकिन हमें ऐसा कोई अनुभव नहीं हुआ. पंडे मिले, लेकिन पीछे कोई नहीं पड़ा. पिंड दान स्थल पर ही बंगाली समाज के एक युवा पंडा महाशय हमें मिले और हमने उनसे ही पूजा करवाने का मन बनाया. उन्होंने भी पूजा के लिये तयशुदा रकम ही ली, अनावश्यक कुछ भी नहीं. तो कम से कम पंडों के लिये जो भयानय टाइप धारणा हमारे मन में बनी थी, खत्म हुई.
पूजा के लिये पंडे जी हमें एक मंदिर में ले गये. पूजा भी विधिवत करायी. आगे की पूजा के लिये विष्णु पद मन्दिर जाना था. यहां  चारों तरफ़ गन्दगी के ढेर. जगह-जगह पिंडदान के बाद बची हुई पत्तलों के ढेर, बड़े-बड़े टोकरों में भरे हुए जौ के आटे के पिंडॆ जो गीले होने के कारण जानलेवा संड़ाध मार रहे थे. लेकिन अफ़सोस कि पितृ मोक्ष की पूजा के बाद पिंडदान के लिये हम भी पत्तल में ढेर सारे पिंडे ले के विष्णु पद मन्दिर की ओर चल दिये. हज़ारों की भीड़ में धक्के खाते , फिसलन से कई बार  बचते-बचाते हम विष्णु पद के मुख्य स्थल पर पहुंचे. यहां एक बड़ा सा कुंड था, जिसमें पानी भरा था और सभी लोग पत्तलों में लाये गये पिंडे यहां विसर्जित कर रहे थे, जिन्हें वहां बैठे पंडे निकाल-निकाल के टोकरों में भरते जा रहे थे. टोकरों से आटा मिश्रित पानी पूरे फ़र्श को भिगो रहा था. अब फिसलन का राज समझ में आया. हम  पूरा मन मनाये थे कि यहां केवल अपने पित्रों को याद करते हुए विसर्जन करेंगे, लेकिन पता चला कि हमारा पूरा ध्यान तो खुद को फिसलने से बचाने पर लगा है!!
बाहर लाइन से रखे, सड़ांध मारते जो टोकरे हमने देखे थे, वे यहीं से भर-भर के बाहर भेजे जा रहे थे. आटे का ऐसा दुरुपयोग!! क्या हमारे पितृ भी इससे खुश होते होंगे? कितना अच्छा होता अगर इस आटे से तत्काल रोटियां सेंक के जानवरों को खिलाने की व्यवस्था होती! और अगर जानवर इस आटे को नहीं खाते हों, तो बेहतर हो कि एक बड़ी सी भट्टी हो, जिसमें विसर्जन के बाद तत्काल पिंडों की आहुति दे दी जाये. पिंड जल जायेंगे तो न सड़ांध फ़ैलेगी न ही पिंडों का अपमान होगा तमाम पैरों के नीचे…
अब बारी थी फल्गु नदी में नारियल के विसर्जन की. पंडे ने बताया कि उसकी ड्यूटी अब यहां खत्म हुई सो नारियल ले के आप शमशान के बगल से जायें, वहीं नदी है. हम उसके बताये रास्ते पे चल दिये. शमशान तो मिला लेकिन नदी न दिखी. थोड़ा और आगे बढे तो सिवाय गन्दगी के कुछ नज़र न आया. दूर-दूर तक मल-मूत्र, रंग बिरंगी  पॉलिथिन, प्लेट, कप गिलास जैसा प्लास्टिक कचरा और  जानलेवा बदबू….. थोड़ा और आगे बढने पर  उथले नाले जैसा कुछ दिखा. हम समझ गये कि यही नदी है क्योंकि यहां कुछ और लोग भी नारियल लिये दिखाई दिये. उस अथाह गन्दगी के बीच कुछ परिवार खाना पकाते भी दिखे!! खैर उमेश जी ने यहां नारियल विसर्जित किया जिसे तत्काल एक लड़का ले के भाग गया…
यहां से वापस लौटते हुए लगा जैसे कितने खाली हो गये हैं…. पित्रों को मोक्ष दिलाने का भाव ले के घर से चले थे सो इस अन्तिम क्रिया के बाद लगा जैसे हमने अपने पित्रों को दूर कर दिया हमेशा के लिये… भाव तो तक़लीफ़ का भी था कि हमने इस जगह पर उन्हें मोक्ष दिलाया या गन्दगी में ढकेल दिया?
कुछ भी हो, हिन्दु आस्था और अन्तिम  कर्मकाण्ड का एकमात्र स्थल है गया. यह कभी खत्म न होने वाली परम्परा है, सो बिहार सरकार और भारत सरकार दोनों को चाहिये कि यहां बेहतर व्यवस्थाएं उपलब्ध करायी जायें. कुम्भ मेले की तरह ही यहां भी रुकने के इंतज़ाम होने चाहिये. सभी लोग होटलों में रुकने वाले नहीं होते वे लूटमार का शिकार होते हुए पितृ ऋण से उऋण होते हैं.  और इससे भी अधिक इंतज़ाम उन्हें पिण्डों के दहन का  करना चाहिये ताकि पिंड के रूप में धरती पर मोक्ष के लिये बुलाये गये पित्रों की आत्मा यहीं सड़ने-गलने और पैरों के नीचे आने को विवश न हो.
  

रविवार, 17 अगस्त 2014

जै सियाराम जिया......

बहुत दिन से लिखना चाह रही थी उन पर...
शायद जून से ही, जब से मिली तब से ही....
छोटा क़द, गोल-मटोल शरीर, गोरा रंग, चमकदार चेहरा, बड़ी-बड़ी मुस्कुराती आंखें,  माथे पर गोल बड़ी सी सिन्दूरी बिंदी, गले में एक रुद्राक्ष की  और एक स्फ़टिक की माला. सीधे पल्ले की साड़ी. उम्र यही कोई पचपन या छप्पन साल. लेकिन मानती खुद को बड़ा-बुज़ुर्ग हैं. ये है उनकी धज.
उनके आने से पहले उनकी आवाज़ सुनाई देने लगती-
" जै सियाराम भौजी.... बैठीं हौ? बैठौ-बैठो. "
"जै राम जी की बेटा.. खूब पढो, खूब बढो...."
हम जान जाते कि पाठक चाची आ गयीं. कुछ मिनटों में ही वे दरवाज़े पर दिखाई देतीं.
"जिया, जै सियाराम. कैसी तबियत है आज? मौं तौ कुल्ल चमक रऔ..."
जवाब का इन्तज़ार किये बिना ही नल की तरफ़ बढ़ जातीं और हाथ-पैर धो के भीतर आतीं.
" चलौ बताऔ बेटा का बननै  है. अच्छा चलो रान्दो. हम देख लैहें. काय जिया, जे लौकी काय हां सूख रई? ऐई हां काट लंय का? हम तौ काटै लै रय. और कछू खानै होय, सो वौ सोई बता दियो बेटा हरौ. "
मम्मी शायद कोई और सब्जी बताने वाली थीं, लेकिन लौकी के बारे में उनका फ़ैसला सुन के चुप हो गयीं. तक़लीफ़ में भी मुस्कुरा दीं .
" काय बेटा हरौ, बताऔ नैंयां तुम औरन ने. फिर कैहो का बना दऔ चाची ने. अच्छा रान्दो. हम बना लैहैं तुम औरन की पसन्द कौ  कछू."
खुद सवाल करतीं और खुद ही उसका हल भी खोज लेतीं. हम बस हां में  सिर हिलाते रह जाते.
रसोई में मैं श्री के लिये दूध लेने पहुंची, प्रेमा बर्तन रखने और पाठक चाची तो पहलेई से आटा गूंध रही थीं, तो प्रेमा ने कहा-
" चौका ( किचन) में जगह कम सी है. है नई जिज्जी? "
" काय? कितै कम है? को कै रऔ ? इत्ती बिलात जांगा पड़ी है, तुमै नईं दिखात का? काय की कमी? सबरौ काम हो रऔ  न? खाना बन रऔ न? फिर काय की कमी?  ऐन है खूब बड़ौ है. वौ नैयां छोटो. "
बगल में खड़ी मैं सोचने लगी... यही फ़र्क़ है दो लोगों की सोच का..एक ही जगह के बारे में. एक को कम जगह दिख रही, एक को जगह ही जगह दिखाई दे रही!!
साढे नौ बजे खाना बन के तैयार हो गया.
मम्मी ने कहा- खाना खा के जाना आप
उन्होंने कहा- " अरे आंहां जिया. आज न खैहैं . अबै भागवत सुनवे जाने है. उतै नींद न आहै फिर?  खाना कौ का है, काल खा लैहैं, परौं खा लैहैं..  तुम चिन्ता जिन करौ जिया. चलो जै सिया राम...."
उस दिन दोपहर का खाना बनाने के बाद थोड़ा समय था उनके पास. बैठ गयीं हम सबके बीच. मैने पूछा-
"चाची,  जब शादियों का सीजन होता है, तब तो आप शादी वाले घर में भी जाती हैं, खाना बनाने, तब घर का खाना कौन बनाता है? कोई है घर में या आप ही जा के बनाती हैं?"
तपाक से बोलीं-" अरे बेटा. जे हमाय पंडित जी पैलां मिठयागिरि करत हतै. इतईं बस अड्डे पे उनकी दुकान हती. सो वे तो सब कछू बना लेत :) अबै खुदई वे रोजई रात कौ खाना बना के धरत हैं ."
 फिर भी हमारी जिज्ञासा शांत नहीं हुई. पूछा-
" घर में बहुएं हैं चाची?"
"हओ . काय नैंयां? चार मौड़ा हैं हमाय. लेकिन बेटा भगवान कौ दऔ सब कछू है हमाय पास. जे खाना तौ हम अपने हाथ-गोड़ चलत रंय, ईसैं आ बनाउत. हमने लड़कन की शादी कर-कर कैं तीनन खौं दो-दो कमरा दै दय.  कि अपनौ बनाऔ -खाऔ . समारो अपन-अपनी गिरस्ती. अब हमाय पास सोई दो कमरा बचे. सो हम दोई जनन के लाने खूब हैं. दो गैंयां हैं. खेती से दो ट्रॉली गल्ला आउत है. सो भर देत हैं कोठा में. खेती अबै बांटी नैंयां. जिये जित्तो अनाज चाने, लै जाओ भाई. भर लो बोरी अब बस छोटो पढ रऔ पालीटेक्नीक में."
चकित हो गयी उनकी समझदारी पर.
फिर छेड़ा- " कभी आपको नहीं लगता कि बहुएं आपकी सेवा करें?"
" आंहां बेटा. काय हां लगने? और हां, करती हैं वे सेवा. खूब करती हैं. अपनौ अपनौ घर संभार रही न? जेई तो सेवा आय. और का करवानै हमें? सोचो, जब हम बहू हतै, तो हमें कैसो लगत तो? वैसई तो आय इन औरन कौ हाल .सब अच्छे हैं बेटा बहुत अच्छे "
कभी उनके मुंह से कोई नकारात्मक बात निकलती ही नहीं...हर हाल में खुश. किसी चीज़ की कमी उन्हें लगती नहीं. थकान उनके पास फटकती नहीं. लालच किसी चीज़ का है नहीं. हम कहते पच्चीस रोटियां सेंकियेगा ( हम सब बहनें और बच्चे इकट्ठे होते हैं न) तो वे कहतीं- " न. पच्चीस नहीं हम तीस रोटी सेंकेगें. बच्चन कौ घर है. का जाने कब किये भूख लग आये" . रात दस बज जाते तो हम कहते, आपको अकेले जाना है चाची इत्ती दूर, चलिये हम छोड़ आयें घर तक. तो कहतीं-
 " आंहा बेटा. हमें तो जाने कितेक साल हो गये ऐसई आत-जात. हमाय संगै तो वे भगवान चलत आंगे-आंगे."
 एक दिन हमने पूछा- " चाची आप की उम्र तो ज्यादा नहीं लगती" तो उनका गोरा चेहरा  लाल गया. बोलीं- " बेटा अब हमें अपनी उमर तौ पता नैयां,लेकिन पंडित जी सैं हम पन्द्रा साल के छोटे हैं. जब हमाओ ब्याऔ भऔ तौ तो हम दस साल के हतै और पंडित जी पच्चीस साल के.औ अब पंडित जी तो सत्तर के ऊपर गिर गये... सो तुमई लगा लो हमाई उमर..."
जै सियाराम जिया....... वो चली गयीं और हम आज तक पंडित जी के सत्तर के ऊपर गिरने का मज़ा ले रहे...

बुधवार, 30 जुलाई 2014

गुजरना ईद का..........

बहुत दिन हुए, कुछ लिखना न हो पा रहा...
आज एक पुरानी पोस्ट पढवाने का मन है. ये पोस्ट 2009 की है, सो निश्चित रूप से आप भूल चुके होंगे
 गुजरना ईद का.........

मेरा बचपन जिस स्थान पर गुज़रा वह मध्य-प्रदेश का एक छोटा लेकिन सुंदर सा क़स्बा है-नौगाँव। कस्बा आबादी के लिहाज़ से लेकिन यह स्थान पूर्व में महत्वपूर्ण छावनी रह चुकी है। आज भी यहाँ पाँच हज़ार के आस-पास आर्मी है और अपने क्लाइमेट के कारण आर्मी अफसरों की आरामगाह है। लम्बी ड्यूटी के बाद अधिकारी यहीं आराम करने आते हैं। यहाँ का मिलिट्री इंजीनियरिंग कॉलेज बहुत माना हुआ कॉलेज है। मगर मैं ये सब क्यों बता रही हूँ? मैं तो कुछ और कहने आई थी....हाँ तो मैं कह रही थी की हम जब नौगाँव पहुंचे तो हमारे यहाँ काम करने जो बाई आई उसका नाम चिंजी बाई था। बहुत हंसमुख और खूबसूरत। पाँच बच्चे थे उसके। चिंजीबाई की आदत थी की जब भी कोई त्यौहार निकल जाता तब लम्बी आह भर के कहती - " दीवाली-दीवाली-दीवाली, लो दीवाली निकल गई।" इसी तरह -" होली-होली होली लो होली निकल गई।"

पता नहीं क्यों आज जबकि ईद को निकले पाँच दिन हो गए हैं,बाई बहुत याद आ रही है। मन बार-बार ' "ईद -ईद-ईद लो ईद निकल गई" कह रहा है....कुछ उसी तरह आह भर के जैसे चिंजी बाई भरा करती थी। मेरी माँ दिल खोल कर देने वालों में हैं लेकिन हो सकता है की चिंजी बाई की हर त्यौहार पर अपेक्षाएं उससे भी ज़्यादा रहतीं हों, जिनके अधूरेपन का अहसास, उसकी उस लम्बी आह भरती निश्वास में रहता हो। क्योंकि इधर कई सालों से ईद पर ऐसा ही खाली पन मुझे घेरता है। और मन बहुत रोकने के बाद भी पीछे की ओर भाग रहा है.......

याद आ रहीं है वो तमाम ईदें, जिन पर हमने भी नए कपडे पहने थे...ईदी मिलने का इंतज़ार किया था.......मीठी सेंवई खाई थी..... और कभी सोचा भी नहीं था की ये त्यौहार मेरा नहीं है। शाम को हम पापा के साथ दबीर अली चाचा के घर सजे-धजे पूरे उत्साह के साथ जाते, सेंवई पर हाथ साफ़ करते और चाचा से ईदी ऐंठते। शम्मोबाजी से लड़ाई लड़ते और चच्ची से डांट खाते।

मेरी मम्मी जब पन्ना में बीटीआई की ट्रेनिंग कर रहीं थीं, तब वे एक मुस्लिम परिवार के यहां किरायेदार के रूप में रहीं वो परिवार भी ऐसा जिसने मेरी मां को हमेशा घर की बेटी के समान इज़्ज़त दी। इतना प्यार दिया जितना शायद मेरे सगे मामा ने भी न दिया हो। लम्बे समय तक हम जानते ही नहीं थे कि पन्ना वाले मामा जी हमारे सगे मामा नहीं हैं। चूंकि उनका नाम हमने कभी लिया नहीं और पूछने की कभी ज़रूरत समझी नहीं। वैसे भी वे हमारे मूर्ख-मासूमियत के दिन थे। किसी के नाम-काम से हमें कोई मतलब ही नहीं होता था। मां ने बताया ये तुम्हारे मामा-मामी हैं बस हमारे लिये ये सम्बोधन ही काफ़ी था।

रमज़ान के दौरान जब कभी मामी नौगांव आतीं तो मेरी मम्मी उनके लिये सहरी और इफ़्तार का बढिया इन्तज़ाम करतीं। साथ में खुद भी रोज़ा रहतीं। एक दिन मैने मामी को नमाज़ पढते देख पूछा- मामी आप मन्दिर नहीं जायेंगी? कमरे में ही पूजा कर लेंगीं? तो मेरी मामी ने बडे प्यार सेसमझाया था-’बेटा, भगवान का वास तो हर जगह है, वे तो इस कमरे में भी हैं तब मुझे मन्दिर जाने की क्या ज़रूरत है?" पता नहीं मेरे नन्हे मन पर इन शब्दों का क्या जादू हुआ कि आज भी मन्दिर जा कर या पूजा-घर में बैठ कर ही पूजा करने के प्रति मेरा लगाव हुआ ही नहीं।

हमारे ये दोनों परिवार सुख-दुख में हमेशा साथ रहे और आज भी साथ हैं। मामा के परिवार की एक भी शादी हमने चूकने नही दी और हमारे यहां के हर समारोह में वे सपरिवार शामिल हुए । आज भी दोनों परिवार उतने ही घनिष्ठ रिश्तों में बंधे हैं। आज रिश्तों की अहमियत ही ख़त्म होती जा रही है। हमारे पड़ोसी भी "चाचा-चाची " होते थे , आज सगे चाचा भी "अंकल" हो गए हैं। मुझे बड़ा अटपटा लगता है जब कोई भी बच्चा बताता ही की उसके अंकल की शादी है या उसे लेने अंकल आयेंगे....आदि । कई बच्चों को तो मैं समझाइश भी दे चुकी हूँ कि वे अपने चाचा को अंकल न कहा करें। लेकिन अब अपने आप को रोक लेती हूँ। किसी दिन कोई कह न दे कि 'आप कौन होती हैं हमारे संबोधनों में संशोधन करने वालीं?'

बात ईद से शुरू की थी और रिश्तों पर ख़त्म हो रही है, मन भी कहाँ-कहाँ भटकता है!

तो बात ईद की कर रही थी तो आज ईद हो या दीवाली या कोई और त्यौहार, वो पहले वाली बात रही ही नहीं। त्योहारों को लेकर उत्साह जैसे ख़त्म होता जा रहा है। रस्म अदायगी सी करने लगे हैं लोग। कोई कहे की मंहगाई के कारण ऐसा हुआ हा तो मैं यह बात सिरे से खारिज करूंगी। जितनी मंहगाई है उतनी ही तनख्वाहें भी तो हैं। पहले की कीमतें कम लगतीं हैं तो वेतन कितना होता था? तब भी लोग इतने उत्साह के साथ हर त्यौहार का इंतज़ार क्यों करते थे? आज हमारे अपने मन उत्साहित नहीं हैं। शायद माहौल का असर हम पर भी पड़ने लगा है।

रविवार, 16 मार्च 2014

बड़ी मुश्किल है भाई…....



बड़ी मुश्किल है भाई….

कोई त्यौहार आया नहीं कि मेरा बचपन मुझ पर पहले हाबी होने लगता है. पता नहीं क्यों L
आज होली है तो मन फिर अपने बचपन की होलियों की तरफ़ भाग रहा. अब समझ में आ रहा कि बड़े लोग हम बच्चों को हमेशा ये क्यों कहते रहते थे, कि - अरे जब हम छोटे थे तो ऐसा होता था, वैसा होता था…… :( आज जब मैं बड़ों की श्रेणी में हूं, तो मैं भी तो वही कर रही…………. :(
लेकिन सचमुच, बहुत अच्छा लगता है गुज़रा ज़माना याद करना…… तब मैं बहुत छोटी थी लेकिन त्यौहारों पर होने वाली तैयारियों में पूरी तरह शरीक़ होना चाहती थी, और मेरी मम्मी हम बहनों को शामिल करती भी थीं. सबके हिस्से में काम बंटे होते थे. होली पर तो कुछ ज़्यादा ही तैयारियां होती थीं. बुंदेलखंड के हमारे शहर  में उस समय होली के दस दिन पहले से तैयारियां शुरु हो जाती थी. जितनी तैयारियां घर में होती उतनी ही बाहर भी होती रहतीं.
घर में दस दिन पहले गोबर के गोलाकार “बरूले” बनाने होते थे. गाय के गोबर से गोल-गोल पेड़ा बना के उसके बीच में छेद किया जाता था. ऐसे ११ या २१ बरूले बनाये जाते. दो दीपकों को जोड़ के उसके ऊपर गोबर लगा के नारियल बनाया जाता. ये सब सूखने के लिये छत के कोने में रख दिये जाते धूप में खूब कड़क हो जाने के लिये. मिट्टी का एक छोटा सा चूल्हा  हमारी चिंजीबाई ने बनाया था, जो पोर्टेबल था. कहीं भी उठा के रख लो. इस चूल्हे में होली की आग रखी जाती थी.
तो “बरूले बनाने का काम छोटी दीदी का था. मैने ज़िद की कि मुझे भी काम चाहिये, तो मम्मी ने कहा कि छोटी दी के साथ बरूले बनबाऊं… उफ़्फ़…. बरूले!!! मुझे तो गोबर छूने में बड़ी घबराहट होती थी  :(  मम्मी जानती थीं सो मेरे मज़े ले रहीं थीं. खैर मैने दीदी को इस बात के लिये मना लिया कि मैं तैयार बरूलों में लकड़ी की मदद से गोल-गोल छेद करती जाऊं  :(  अरे यार….  ये काम तो बहुत जल्दी हो गया अब क्या करूं? अन्दर गयी, तो देखा मम्मी लड्डू बना रही हैं, और बड़ी दीदी उनके साथ मदद कर रही हैं, यानि दोनों लोग लड्डू बना रही थीं. मैने भी बनवाने चाहे तो मम्मी ने बने हुए लड्डू थाली में गोलाइयों से सजाने को कह दिया L ये अलग बात है कि मुझे लड्डू कायदे से सजाने का मौका ही नहीं मिल रहा था, कारण, मम्मी खुद ही बनाये गये लड्डू सलीके से रख रही थीं. दूसरा काम करने की ज़िद की , तो मम्मी ने मठरी काटने का काम दे दिया. एक बड़ी और मोटी से मैदे की पूड़ी बेल के मुझे दे दी और कहा कि एक जैसे आकार की मठरी  काटूं. मुश्किल था ये काम, लेकिन अब जब मांगा था, तो करना भी था वो भी कायदे से. किया भी. लेकिन थोड़ी देर बाद देखा कि मम्मी ने मेरी काटी पूरी मठरी  बिगाड़ के फिर से गुंथे हुए मैदे में तब्दील कर दी थी :(
मन उदास हो गया  :( :( :(  कितने जतन से मठरी काटी थी. चाकू से हाथ बचा-बचा  के…फिर भी बिगाड़ दी गयी… बच्चों के काम की कोई कीमत ही नहीं L सोचा बाहर मोहल्ले के बड़े भैया लोगों की मदद करूं, जो होलिका लगाने की तैयारी कर रहे थे.
होलिका भी हमारे यहां एक ही दिन में नहीं लगायी जाती थी. बल्कि दस दिन पहले होली के लिये लकड़ियां जुटाने का काम शुरु हो जाता था. होलिका-दहन वाले दिन बड़े सबेरे से लड़के दहन-स्थल पर चारों तरफ़ से हरी-पीली झंडियां लगाते. होलिका भी खूब बड़ी सजायी जाती. आखिर लगभग पूरा शहर आता था यहां पूजा करने.
गोबर से बनाये गये बरूले इन दस दिनों में सूख जाते, तब उन्हें एक सुतली में पिरोया जाता.  माला बन जाती उनकी. हर घर में इस दिन तक तमाम पकवान भी बन के तैयार हो जाते. होलिका के पूजन में हर तरह का व्यंजन लोग लाते, बरूलों की माला लाते. कायदे से महिला-पुरुष सब होलिका का पूजन करते, पूरी होलिका बरूलों की मालाओं से ढंक जाती…लकड़ियां दिखनी बंद. और मुहूर्त के अनुसार होलिका-दहन होता. रात में ही लोग होली की आग में हाथ सेंकते, गेंहूं की बालियां और हरे चने के झाड़ भूनते.  सुबह पहला काम होता होली की आग ला के मिट्टी के चूल्हे में रखना. मम्मी इस चूल्हे में पहले से कंडे लगा के रखतीं. अब होलिका की आग से सुलगे इस चूल्हे पर दूध गरम किया जाता. हम बच्चों को पुराने कपड़े पहनाये जाते, और बाल्टियों में रंग घोल के रखा जाता. थाली भर भर गुलाल रखी जाती…..
और समय हो जाता होली-जुलूस निकलने का…हाथ ठेले पर रंग का बड़ा सा ड्रम और गुलाल. एक व्यक्ति ठेले पे खड़ा हो रंग उछालता, गुलाल उड़ाता और दूसरा ठेले को धकियाता इनके पीछे लोगों का हुजूम…सब रंगे-पुते. फिर जुलूस हर घर के बाहर रुकता , उस घर के पुरुष निकलते,जुलूस में शामिल हो जाते. महिलाएं मिठाई खिलातीं.
सब प्रसन्न. सब खुश. सबको त्यौहार का इंतज़ार.
अब देखती हूं, कि किसी त्यौहार का किसी को इंतज़ार ही नहीं होता. न पहले जैसी खुशी. बस एक छुट्टी मिलने की खुशी ही ज़्यादा समझ में आती है. पता नहीं ऐसा क्यों हो रहा जबकि हम सब तो वही हैं… लेकिन इतना पता है कि त्यौहारों में अब वो बात नहीं रही…
होली मुबारक़ हो आप सबको….