शनिवार, 19 मार्च 2011

बेवकूफ़ियां, जो यादगार बन गयीं... (२)

लीजिये, आज मिलिये ब्लॉग-जगत के कुछ और महारथियों से और पढिये उनकी बेवकूफ़ियां, उन्हीं की क़लम से- ( समीर जी की एक शानदार कविता भी मेरे अधिकार क्षेत्र में है अब, सो यथासमय पोस्ट करूंगी)


सहानुभूति बन गई बेवकूफ़ी......समीरलाल


ट्रेपूरी भर चुकी थी, लेकिन सीट मिल गई. शायद अगले स्टेशन से पकड़ते तो खड़े खड़े ही जाना पड़
ता एक घंटे ऑफिस तक.अगले स्टेशन पर ट्रेन रुकी तो बहुत से लोग और चढ़े. अब ट्रेन में भी कुच्च्मकुच्चा हो गई. ऐसे में शिष्टाचारवश लोग किसी बुजुर्ग या गर्भवति महिला या छोटे च्चों के साथ आई महिला के लिए जगह खाली कर देते हैं और खुद खड़े हो जाते हैं. मेरे बाजू में भी एक महिला आ कर खड़ी हुई. देखा तो गर्भवति महिला थी अतः मैं अपनी सीट से खड़ा होकर उनसे आग्रह करने लग कि आप बैठ जाईये.स महिला ने मुझसे कहा कि नहीं, मैं ठीक हूँ. आप बैठिये.मैने पुनः निवेदन किया कि आप गर्भवति हैं, आपको इतनी दूर खड़े खड़े यात्रा नहीं करना चाहिये, आप बैठ जाईये. देर तक खड़े रहना स्वास्थय और आने वाले बेबी के लिए ठीक नहीं है. उसने चौंकते हुए मुझे देखा और बोली- मैं..गर्भवति...यू मस्ट बी किडिंग (आप जरुर मजाक कर रहे होंगे) और वो मुँह बनाकर डिब्बे के दूसरी तरफ चली गई. मैं झेंपा सा अपने आस पड़ोस वालों को देखने लगा. सभी मुस्करा रहे थे. मैने तो बस उसका पेट देख अंदाजा लगाया था. काश, मैं मो
टी महिला और गर्भवति महिला का स्पष्ट भेद जानता होता. मगर अब हो भी क्या सकता था-बेवकूफी तो कर ही बैठे थे. सो अपना सा मुँह लिए वापस बैठ गए सर झुकाये और राम-राम करते रहे, कि जल्दी जल्दी मेरा स्टेशन आये और मैं उतरकर गुम हो जाऊँ भीड़ में.आज भी जबयह वाकिया याद आता है तो अपनी बेवकूफी पर एक बार फिर शरम आ जाती है.चलते चलते-
कभी न रहा शर्मिंदा मैं, नमालूम वाणियों की सूफियों से
मगर मैं बच नहीं पाया, गुजर कर अपनी बेवकूफियों से...
बेवकूफ़ियां याद न दिलायें- अनूप शुक्ल
न्दनाजी आपका बेवकूफ़ियों को सिर्फ़ होली के मौके पर याद करना जंगल में स्वच्छंद विचरते जानवरों को घेरघार कर बाड़े में बंद करने जैसा है। इस सतत प्रक्रिया को केवल होली के मौके तक सीमित करके आप बेवकूफ़ों के पर करतने जैसा काम कर रही हैं। अब आपने कोई
बेवकूफ़ी याद करने के लिये कहा है। जबकि हमें लगता है कि बेवकूफ़ियां करके भूल जानी चाहिये ताकि उनको फ़िर से किया जा सके। याद रखने से बेवकूफ़ियां दोहराने में हिचक होती है।
जैसा कि हम बता चुके हैं यात्राओं में बेवकूफ़ियां चंद्रमा की कलाओं की तरह खिलती है तो हमारी कई बेवकूफ़ियां यात्राओं के दौरान हुई हैं। कई हैं लेकिन उनको याद करने में खतरा यही है कि याद आ जायेंगी तो दुबारा उनको दोहराने में मन हिचकेगा लेकिन आपके आदेश को टालना भी सही नहीं है अत: कुछ बेवकूफ़ियों को याद करने का खतरा मोल ले रहे हैं। एक बार हम दिल्ली हवाई अड्डे पर समय पर पहुंच गये। टिकट के हिसाब से जहाज उड़ने में कुछ घंटे बाकी थी। सो हम मारे स्मार्टनेस के जस्ट इन टाइम चेक इन करने का मंसूबा धरे हवाई अड्डे पर चाय-काफ़ी पीते रहे, हवाई अड्डे से ब्लागिंग करते रहे। जब टिकट के अनुसार समय हुआ तो हम खरामा-खरामा टिकट लेकर चेक इन के लिये पहुंचे तो पता चला कि जहाज तो दो घंटे पहले रवाना हो चुका था। फ़िर तो हमने अपनी स्मार्टनेट को किनारे धकेलकर चेहरे पर बेवकूफ़ी और दीनता धारण की और तू दयालु दीनि हौं तू दानि हौं भिखारी वाली मुद्रा में संबंधित अधिकारी से अनुरोध किया कि अगर मैं पूना नहीं पहुंचा तो न जाने क्या-क्या हो जायेगा। उस भले मानुष ने भी काम भर की दया करके हमें अगले हवाई जहाजसे पूना तो नहीं लेकिन मुंबई तक तो पहुंचा ही दिया। यह मासूम किस्सा यहां विस्तार से वर्णित है। अपनी यह हसीन बेवकूफ़ी बयान करने के बाद लगा कि कुछ बेवकूफ़ियां कई पीढियों तक सफ़र करती हैं। खुशबुओं की तरह फ़ैलती हैं। अभी इसी हफ़्ते मेरा बड़ा बालक अपने कुछ साथियों के साथ एक स्कूली प्रोजेक्ट के सिलसिले में अमेरिका के टेक्सास में डलास गया था। साल भर दिन-रात एक करके बालकों ने एक हसीन सा हवाई जहाज बनाया था। उसे एयरो कम्पटीशन में ले जाने के लिये बुक कराया था। वहां पहुंचकर बालकगण मस्ती करने लगे यह सोचते हुये कि मालवाहक कम्पनी अपने आप उस जहाज को गंतव्य तक पहुंचायेगी। लेकिन वहां कस्टम वालों की सतर्कता का उनकी बेवकूफ़ियों से मुकाबला हो गया। कस्टम वालों ने जहाज के माडल को संवेदनशील मानकर लटका दिया और उसे छोड़ने के लिये तब राजी हुये जब कम्पटीशन तक पहुंचने की उसकी आशायें समाप्त हो चुकी थीं। इतना सतर्क अमेरिकन कस्टम वाले हमेशा रहे होते तो शायद ट्विन टावर पर न मोमबत्तियां जलतीं और न ही उनकी फ़ौज इराक में फ़ंसी होती। पहले तो हमने मौका पाकर बालक को ढेर सारी एक्सपायरी डेट वाली नसीहती झिड़कियां देने की बेवकूफ़ी शुरु की। फ़िर अचानक सहज बुद्धि का तूफ़ान आ गया और बापप्रेम की पिता प्रेम की वर्षा होने लगी। यह जानकर बड़ा सुकून मिला कि बालक अपने पिता की बेवकूफ़ी की परम्परा को आगे बढ़ा रहा है। हमने उसे कहा मस्त रहो और वही आपसे भी कह रहे हैं। बुरा न लगे इस लिये बुरा न मानो होली है भी कह दे रहे हैं।
कितना बड़ा पागल??- सतीश सक्सेना
मेरी तारीफ़ करने लायक बात पूंछ्तीं तो अच्छा लगता ...खैर आपका आदेश टाला नहीं जा सकता !यादगार बेवकूफी ...
कोई १९७६ की बरेली में, कुंवर पुर मोहल्ले में, ह
दो सहपाठियों ने ,एक कमरा किराये पर ले रखा था ! एक दिन क्लास से बापस लौटते समय घर के सामने बने हुए कुएं पर भीड़ देखी जो की रस्सी में बाल्टी डाल क
, बंद अंधे कुंएं में गिरे
एक पिल्ले को बाहर निकालने की कोशिश कर रहे थे !
बेचारा पिल्ले के चिल्लाने की आवाज सुनकर मैंने लोगों से
कहा
कि आप
में से
कोई नीचे क्यों नहीं उतर
जाता ??तो जवाब मिला कि कह किसे रहे
हो तुम्ही
उतर जाओ ! बस ताव में आते ही , मैंने अपनी किताबें उसे दे जूते उतार , रस्सी पकड़ कुंए में उतरने लगा ! फिसलन भरी दीवार पर, पैर का सहारा लेते, नीचे शीघ्र ही पंहुच गया था म
गर पिल्ले को उठाकर बाल्टी में डालते डालते कुछ खतरा सा महसूस हुआ ! बंद सड़े हुए पानी और उसमें से उठती हुई गैस , ने मेरा दम घोंटना शुरू कर दिया था
!
खतरे का अहसास होते ही शरीर में जान बचाने के लिए अतिरिक्त ताकत आ गयी थी और ऊपर चढ़ना शुरू कर दिया मगर पैर रखते ही फिसलन भरी काई से, पैर फिसल जा रहा था ! घबरा कर लोगों को चीख कर, ऊपर
खींचने के लिए आवाज लगायी !इसके बाद मुझे नहीं मालूम कि मैं कैसे ऊपर पंहुचा था ...
जब होश आया था तो घर में मकान मालकिन अम्मा मु
झ पर पानी छिडकते हुए गालियाँ दे रही थी
कि उन्हें
मालूम
नहीं था कि मैं इतना बड़ा पागल हूं......
पे
स्ट
ना
म शे
विं
ग क्रीम- कुश
दो
साल पहले की बात है-
सुबह से होली खेलने का सिलसिला शुरू हो गया. दोपहर को जब घर आया, उस समय तक रंग की कई परतें मेरे चेहरे पर चढ़ चुकीं थीं. आँखों में भी रंग की जलन महसूस हो रही थी, और दांतों में रंग का कडवापन, सो घर आते ही बाथरूम में घुस गया और सोचा पहले ब्रश कर लूं . अधमुंदी आँखों से ही पेस्ट उठाया,ब्रश पे लगाया और ज़ोर-ज़ोर से रगड़ने लगा ताकि दांत चमकने लगें. लेकिन ये क्या? पेस्ट का स्वाद कुछ बदला-बदला सा लगा, मुंह से भी ढेर-ढेर झाग बुलबुले बन निकलने लगा......तुरंत कुल्ला करने के लिए पानी मुंह में भरा तो झाग और बढ़ गया, तब समझ में आया कि जल्दबाजी में पेस्ट की जगह शेविंग क्रीम ब्रश पे लगा बैठे थे :)



हमारी गुप्तकालीन बेवकूफ़ी - अजित वडनेरकर
बेवकूफियां तो खूब की हैं और आज तक जारी हैं। मेरी ज्यादातर बेवकूफ़ियाँ शरारती सिफ़त की देन हैं क्योंकि खुद को बडा होने ही नहीं दिया है। अभी इतने बड़े नहीं हुए कि खुद से बाहर बचपन ढूंढना पड़े। हालांकि खुद की शरारतों को मैं शरारतों की श्रेणी में नहीं रखता। मेरी फितरत ही ऐसी थी कि मेरी हरकतों को शरारत समझा गया। हमारा बचपन मध्यप्रदेश के सर्वाधिक पिछड़े जिलों में एक राजगढ़ मुख्याल पर हुआ। यह जिला राजस्थान सीमा से सटा हुआ है और प्रदेश के मालवांचल का उत्तर पश्चिमी छोर कहलाता है। एक मिसाल। नवीं कक्षा में हम थे तो साइंस के विद्यार्थी मगर सोशल साइंस जैसे विषयों के तहत इतिहास भी पढ़ना पड़ता था। इतिहास हमारा प्रि
य विषय रहा है । ये अलग बात है हमारे पाठ्यक्रम में ये कभी रहा। सोशल के पीरियड में ही प्रसंगवश शिक्षक समझा रहे थे कि मौर्य वंश से पहले भारत की एकता खतरे में थी। यूनानियों ने पश्चिमी सरहद पर अपनी बस्तियां बना ली थीं। पूरे भारत में अस्थिरता थी। राजमहलों में भितरघात और षड्यंत्रों का बोलबाला था। चापलूस दरबारियों की बन आई थी और राजा अहंकारी व निरंकुश हो रहे थे। इस दौर में कोई किसी पर भरोसा नहीं करता था। लगातार सत्तापरिवर्तन हो रहा था। असुरक्षा इतनी थी कि मुख्य शासक या प्रशासक रोज अपने शयन के ठिकाने भी बदल देते थेताकि सोते में उनकी हत्या न कर दी जाए। वगैरह वगैरह….
हमने ये सब कुछ नहीं सुना। हम तो अपनी खिड़के के पास वाली जगह पर बैठ कर बाहर का नजार कर रहे ते। अलबत्ता इतना ज़रूर पता था कि मौर्यकाल के बारे में कुछ चल रहा है। बीच-बीच में चंद्रगुप्त , महापद्मनंद, चाणक्य वगैर भी नज़र आ जाते
थे मगर कुल मिलाकर गुरुजी के मुखारविंद से जो इतिहास झर रहा था, उसकी तरफ ध्यान नहीं था। अचानक तेज आवाज से हमार ध्यान भंग हुआ - वडनेरकर…
हम चेते, कहा -जी सर।
बताइये, नंद वंश के अंतिम दौर में शासक रोज़ अलग अलग कमरों में क्यों सोता था ?
हमने भी तपाक से
जवाब दिया- -क्योंकि उनकी बहुत सारी रानियां होती थी ...
इसके बाद प
ता नहीं क्या हुआ सारी क्ला जोर जोर से हंसने लगी। दो लड़कियां भी हमारे साथ पढ़ती थी, उन्होंने अपना
मा
था टेबल पर टिका दिया। लड़के टेबल पीटने लगे। शिक्षक निरीह भाव से हमें देखते रह और फिर बैठने का इशारा कर
दिया।
शाम को जब हम हमेशा कि तरह किसी किताब को पढ़ने में मशगूल थे, हमने उन्ही शिक्षक को अपने घर मे प्रवेश करते देखा। हम समझ गए कि माम
ला नंदवंश से जुड़ा हुआ ही है। हमारे माता-पिता भी शिक्षक थेसो उन्हें पता था इसीलिए वे शाम को आए थे। बहरहाल,
हमने खुद को उसी वक्त बाथरूम में बंद कर लिया। उसके बाद कई बार हमारे नाम की आवाज़ लगी हम बाहर नहीं निकले। लंबे अंतराल के बाद जब लगा कि रास्ता साफ है, हम गुनगुनाते हुए कमरे में दाखिल हुए तो देखा कि गुरुवर तब भी बैठे हुए थे और बातचीत जारी थी। बहरहाल, जैसा सोचा था , वैसा कुछ नहीं हुआ। वो आए भी और चले भी गए। बाद में हमारे माता-पिता ने बताया कि वे हमारी प्रत्युत्पन्नमति की प्रशंसा करने आए थे। हालाँकि हम आज तक इस संस्मरण को अपनी बेवकूफियों में ही याद करते हैं। होली मुबारक हो....
लो जी, फिर बेवकूफ़ बन गये- अर्कजेश
वंदना जी का मेल मिला कि होली पर परिचर्चा पोस्‍ट के लिए अपनी यादगार बेवकूफी जाहिर कीजिए। चार दिन पहले मेल कर रही हूँ और आप लोगों के लिए तो एक घंटा ही काफी है। मतलब यदि किसी ने कभी कोई बेवकूफी न की हो (यदि ऐसा कोई समझता हो) तो अभी भी उसके पास चार दिन का समय था। यह बात अलग है कि वंदना जी मानती हैं कि हमारे जैसे कुशाग्र बेवकूफ के लिए एक घंटा ही काफी
है कोई बेवकूफी कर मारने को। पहले मैंने समझा कि होली पर की गई बेवकूफियों के बारे में लिखने को कह रही हैं। बाद में पता चला कि सिर्फ होली पर ही नहीं कभी भी कैसी भी की हो तो चलेगी। एक बेवकूफी तो हमारी यही हो गई। बेवकूफियॉं इतनी ज्‍यादा हो गई हैं कि याद ही नहीं आ रहीं कि कौन सी बेवकूफी लिखें। जैसे खरब‍ पतियों को याद नहीं रहता कि उनके पास कितनी दौलत है, क्‍योंकि ऐसे लोग खुद दौलत के पर्याय बन जाते हैं। वैसा ही हमारा हाल समझिए।अब बताइए भूमिका में ही आधा पेज खा गए और अभी बात शुरु भी नहीं हुई। सभी को होली की शुभकामनाऍं। और-
कबूलते रहें अपनी बेवकूफियां, जिससे
हम भी कह सकें "बडे" बेवकूफ हैं आप

हम हर वक्त नादानी नहीं करते- शाहिद मिर्ज़ा
वंदना जी आप भी ना :)
चलिए अपनी बात एक शेर के ज़रिये कहने की कोशिश करते हैं-
मुलाहिज़ा फ़रमाएं :) :) :)
हमारी ज़ि
न्दगी में कुछ शरारत का भी हिस्सा है
समझदारी की हम हर वक़्त नादानी नहीं करते.
अब बात चली है तो सोच रहे हैं कि बताएं....या न बताएं?
चलिए बता देते हैं.....
नहीं,
आप सबको बता देंगी :)
अरे हम भी अजीब
बेवक़ूफ़ हैं,
जो ऐसी बेवक़ूफ़ी भरी बातों में आ गए,
कि अपनी बेवक़ूफ़ी बताने चल दिए
अब आ गए हैं तो....
लीजिए बन ही गए न....
’बेवक़ूफ़’
भांग की मस्ती और रेलवे स्टेशन का हुडदंग -डॉ०
कुमारे
न्द्र सिंह सेंगर
होली आये और होली में किये हुए हुड़दंग भी याद न आयें तो समझो कि होली मनाई ही नहीं। हम लोग संयुक्त परिवार में रहते आये हैं और अपने बचपन से ही सभी पारिवारिकजनों के साथ ही होली का मजा लूटते रहे हैं। होली जलने की रात से शुरू हुआ धमाल कई-कई दिनों तक चलता रहता था। बचपन में अपने बड़ों की मदद से होली का हुड़दंग किया जाता था लेकिन स्वतन्त्र रूप से होली का हुड़दंग मचा जब हम अपनी उच्च शिक्षा के लिए ग्वालियर गये। हॉस्टल का माहौल एकदम पारिवारिकता से भरपूर था। हम सभी छात्रों के बीच किसी तरह का भेदभाव नहीं था। पहला ही साल था और हम सभी मिलकर दीपावली, दशहरा आदि अपने-अपने घरों में मनाने के पहले हॉस्टल में एकसाथ मना लिया करते थे। इसी विचार के साथ कि होली भी घर जाने के पहले हॉस्टल में मना ली जायेगी सभी कुछ न कुछ प्लानिंग करने में लगे थे। हम कुछ लोगों का एक ग्रुप इस तरह का था जो हॉस्टल की व्यवस्था मेंकुछ ज्यादा ही सक्रिय रहा करता था। इसी कारण से उन दिनों हॉस्टल की कैंटीन की जिम्मेवारी हम सदस्यों पर ही थी। होली की छुट्टियां होने के ठीक दो-तीन दिन पहले रविवार था। रविवार इस कारण से हम हॉस्टल वालों के लिए विशेष हुआ करता था कि उस दिन एक समय-दोपहर का- भोजन बना करता था, खाना बनाने वाले को रात के खाने का अवकाश दिया जाता था। रविवार को पूड़ी, सब्जी, खीर, रायता आदि बना करता था। हमसदस्यों ने सोचा कि कुछ अलग तरह से इस दिन का मजा लिया जाये। हमारी इस सोच में और तड़का इससे और लग गया जब पता चला कि हॉस्टल के बहुत से छात्र उसी रविवार को अपने-अपने घर जा रहे हैं। रविवार के भोजन को खास बनाने की योजना हम दोस्तों तक रही और अन्य सभीछात्रों के साथ आम सहमति बनी कि होली इसी रविवार को खेली जायेगी, उसके बाद ही जिसको घर जाना है वो जायेगा। हम दोस्तों ने अपनी योजना के मुताबिक उस दिन खाने में खीर में खूब सारी भांग मिलवा दी। इसी बीच कुछ छात्र जो होली नहीं खेलना चाहते थे और उन्हें घर भी जाना था, सो उन्होंने खीर भी इतनी नहीं खाई थी कि नशा उनको अपने वश में करता। ऐसे लगभग पांच-छह छात्रों ने हॉस्टल की दीवार फांदकर रेलवे स्टेशन की ओर भागना शुरू किया। उनके दीवार फांदने का कारण ये था कि हम सभी रंगों से भरी बाल्टी आदि लेकर दरवाजे पर ही बैठे थे कि कोई भी बिना रंगे घर न जा पाये। इस बीच उनका भागना हुआ और हम लोगों को भनक लग गई कि कुछ लोग जो हमारी इस होली में साथ नहीं हैं वे पीछे से भाग गये। बस फिर क्या था, होली का हुड़दंग सिर पर चढ़ा हुआ था, भांग का नशा अपनी मस्ती दिखा ही रहा था, हम सभी जो जिस तरह से बैठा था वैसे ही रेलवे स्टेशन की तरफ दौड़ पड़ा। कोई नंगे पैर तो कोई एक पैर में चप्पल-एक पैर में जूता बिधाये; कोई शर्ट तो पहने है पर पैंट गायब तो कोई नंगे बदन दौड़े ही जा रहा था। और तो और क्योंकि उन्हें रंगना भी था जो बिना रंगे निकल पड़े थे तो हाथों में रंगों से भरी बाल्टी भी लिये सड़क पर दौड़ चल रही थी। आप सोचिए कि बिना होली आये, होली जैसी मस्ती को धारण किये एकसाथ लगभग 20-25 लड़के बिना किसी की परवाह किये बस सड़क पर दौड़े चले जा रहे थे। लगभग चार-पांच किमी की दौड़ लगाने के बाद स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर हुरियारों की टोली पहुंच ही गई, वे भी बरामद हो गये जिनको रंगना था। बस फिर क्या था चालू हो गई होली रेलवे स्टेशन पर ही। मस्ती का मूड, भांग का सुरूर, अपने साथियों को रंगने के बाद अपनी तरह के ही कुछ मस्ती के दीवाने यात्रियों को रंगना शुरूकिया। कुछ देर का हुल्लड़ देखने के बाद प्लेटफॉर्म पर बनी चौकी के सिपाहियों ने आकर दिखाये दो-दो हाथ तो रंगीन हाथ उनके साथ भी हो गये पर बाद में डर के मारे सभी वापस हॉस्टल लौट पड़े। आज भी कभी-कभी होली में भांग का स्वाद लेने का प्रयास किया जाता है तो हॉस्टल की होली और रेलवे स्टेशन का हुड़दंग याद आये बिना नहीं रहता है।

वो यादगार होली- रूपचन्द्र शास्त्री ’यंक’

लगभग 37 साल पुरानी बात है। उस समय मेरी नई-नई शादी हुई थी! पहली होली

सु

रा

ल में

मनानी थी। इसलिए मैं और मेरी

श्रीमती जी होली के एक दिन पहले ही रुड़की पहुँच गए थे।

उस समय मेरी इकलौती

साली का विवाह नहीं हुआ था। उसे भी जीजाजी के साथ होली खेलने की बहुत उमंग चढ़ी थी। रात में खाना खाकर सभी

लोग एक बड़े कमरे में इकट्ठे हो गये। उस कमरे में छत पर लगे बिजली के पंखे के साथ तीन गुब्बारे लटके हुए थे

सभी लोग ढोल-मंजीरे के साथ गाना गाने में और हँसी ठिठोली में मशगूल थे। तभी मेरी सलहज साहिबा ने मुझे डांस करने के लिए राजी कर लिया और नाच-गाना होने लगा। मेरी साली तो न जाने कब से इस मौके की फिराक में थी।

जैसे ही मैं पंखे से लटके गुब्बारों के नीचे आया साली ने सेफ्टीपिन से इन गुब्बारों को फोड़ दिया और बहुत गाढ़े लाल-हरे और बैंगनी रंग से मैं सराबोर हो गया।

आज भी वो होली मुझे भुलाए नहीं भूलती!

र पुलाव या मटन पुलाव??- शिखा वार्ष्णेय

अरे वंदना जी ये

क्या

पूछ लिया :) :) ..बेबकूफी और वह भी जो याद रह जाये ..बहुत नाइंसाफी है अब भला कितनी याद रखे कोई

? और

क्यों भला ?.खैर आपने पूछ ही लिया है तो अपने बचपन की एक बेबकूफी बताते हैं .

कोई १२- १३ साल की उम्र रही होगी हम तीनो बहने, पापा मम्मी के साथ मुंबई घूमने गए थे .जिस होटल में ठहरे थे उसके नीचे ही रेस्टोरेंट था .तो पापा ने हम बहनों को भेज दिया और क
हा कि तुम
लोग नीचे जाकर खाना खा आओ और हमारे लिए एक मटर पुलाव पैक करा कर ले आना.अब हमें जिम्मेदारी सौंपी गई थी तो रोब में हम गए और मेनू देखा. क्रम से लिखा था वेज पुलाव .चिकेन पुलाव,मटर पुलाव ..जल्दबाज हम जनम से हैं. तो हमने आव देखा ना ताव दो मटर पुलाव आर्डर
कर दिए .

अब खाना आया हमने खाया और एक मटर पुलाव पैक करा कर ले गए .पापा ने पूछा कितने का आया हमने बताया कि वेज पुलाव ३५ रु ...(सही रेट याद नहीं अभी ) का था और मटर पुलाव ५५ रु का .अब पापा का माथा ठनका कि मटर पुलाव वेज पुलाव से महंगा कैसे .? उन्होंने पेकेट खोला सूंघा और कहा इसे नीचे कोई भिखारी घूम रहा होगा उसे दे आ. अब माजरा समझ आया और हम भागे सिंक की ओर उल्टियां करने .असल में हुआ यह था कि जल्द बाजी में हमने मटन को मटर पढ़ लिया था और उसके नीचे पीस पुलाव पढने तक की जहमत नहीं उठाई थी.और मटर की जगह मीट पुलाव खा कर और लेकर आ गए थे . तब हम शाकाहारी हुआ करते थे और हमारे माता पिता शुद्ध शाकाहारी.तीन दिन तक जाने कैसा कैसा लगता रहा जीभ पर भी और मन में भी .खैर अपनी इस बेबकूफी की वजह से हमारा जो धर्म भ्रष्ट हुआ वो तो अलग बात है . परन्तु इस बेबकूफी ने उस भिखारी की ईद जरुर करवा दी.

क्यों बताऊं अपनी बेवकूफ़ी?- इस्मत ज़ैदी
वंदना , तुम भी कहाँ कहाँ से ढूंढ कर विषय लाती हो ?यादगार बेवक़ूफ़ी .....
...अरे एक हो तो बताएँ न ....भरे पड़े हैं क़िस्सेकोई बेवक़ूफ़ी ऐसी जो हंसी मज़ाक़ में टल गई
कोई ऐसी जो याद कर लूं तो आज भी शर्मिन्दा हो जाती हूँ और एक - दो ऐसी भी जो मुझे बहुत दुखी कर देती हैं तो ...न हम दुखी होना चाहते हैं ,न शर्मिन्दा और जो बात टल गई सो टल गई हा हा हा
होली बहुत बहुत मुबारक़ हो आप सब को.
(इस्मत साहिबा, आप बतायें या न बतायें, आपकी तमाम बेवकूफ़ियों का लेखा-जोखा है मेरे पास,
वो तो मेरी भलमनसाहत है, जो यहां ज़िक्र नहीं कर रही.)


" रउआ हंस दीं तो भोर हो जाई
" - रश्मि रविजा
अव्व
तो म
हिलाएँ बेवकूफियाँ करती नहीं हैं...भाई-पति-बेटे की बेवकूफियाँ सुधारने में ही उनका सारा समय निकल जाता है.:) पर कभी कभी कुछ ऐसा हो जाता है कि अनजाने ही की गयी कोई हरकत...इस श्रेणी में आ जाती है.
मेरे चाचा की लड़की की शादी हुई. खानदान की पहली शादी...हम सब बड़े उत्साह में थे ...शादी की तैयारियों से लेकर शादी की रस्मे....और उस
के बाद दीदी-जीजाजी का मायके आगमन, सब भरपूर एन्जॉय कर रहे थे. दीदी मायके आई हुई थी और उसके ससुराल के गाँव से एक चचेरा देवर उस से मिलने आया. हमलोगों को तो मजाक बनाने के लिए एक नया मुर्गा मिल गया...जीजाजी की खिंचाई भी चलती रहती थी...पर थोड़े एहतियात से.....कहीं उन्हें कुछ बुरा ना लग जाए..और फिर मम्मी-चाची से डांट ना खानी पड़ जा
ए. पर ये लड़का सीधा-साधा...हमारा हमउम्र....कॉलेज में पढनेवाला था... पर एकदम पूरे बाहँ की कमीज और गले तक बंद बटन और टेढ़ी मांग का
ढ कर करीने से सँवारे बाल {शायद थोड़ा तेल भी लगा हुआ था :)} ने ही हमें इशारा दे दिया कि इसकी जम का खिंचाई की जा सकती है. और हम लोग शुरू हो गए. सारी बहनें उसे घेर कर बैठ गए. बहनों में सबसे बड़ी मैं ही थी...सो कमान मैने संभाला हुआ था. हमलोग कुछ पूछते ...वो बेचारा जबाब देता और उसका जबाब हम सबकी समवेत हंसी में गुम हो जाता. देर तक ये सिलसिला चलता रहा उसकी हर बात पर हम जोर-जोर से हँसते ..उसने निरीह सी एक मुस्कराहट चिपका रखी थी, चेहरे पर. करता भी क्या....इतनी सारी लड़कियों के बीच उसकी बोलती बंद थी. जब नाश्ता आया...और जैसे ही उसने प्लेट की तरफ हाथ बढाया...हमने टोक दिया.."अरे अरे...अकेले अकेले खायेंगे....अपनी भाभी को पूछा भी नहीं...क्या खयाल रखेंगे आप हमारी दीदी का.." वो बेचारा रुक कर दीदी से आग्रह करने लगा....दीदी कहती रही ," आप इनकी मत सुनिए ..शुरू कीजिए.." दीदी के एक टुकड़ा ले लेने पर जब दुबारा उसने प्लेट की तरफ हाथ बढाने की कोशिश की...तो हमने फिर टोक दिया....."हमसे तो पूछा ही नहीं " . बेचारा फिर झेंप कर रुक गया. पूरे आधे घंटे तक हमने उसे उन लड्डू-बर्फी-समोसों-हलवा को बस ललचाई नज़रों से ताकने ही दिया...हाथ नहीं लगाने दिया. अब शायद दीदी को भी थोड़ा बुरा लगने लगा था...एक तो नया -नया रिश्ता और उस पे शायद सोच रही होगी..कहीं इसका बदला उससे ससुराल में ना लिया जाए. वो हमें मना करती रहती. पर हम सब तो अपनी धुन में थे. आखिरकार उसने दूसरी तरफ बात मोड़ने को कहा...,"ये बहुत अच्छा गाना गाते हैं...कॉलेज के प्रोग्राम में भी गाते हैं...एक गाना सुनाइये
"...हम और खुश हो गए...अब तो हंसी उड़ाने का एक और मौका मिल गया. हमने एक दूसरे की तरफ छिपी नज़रों से देखते हुए जोश बढाया..."हाँ ..हाँ सुनाइए" एकदम से उस लड़के की भाव-भंगिमा में परिवर्तन आ गया. कंधे थोड़े सीधे हो गए..तन कर बैठ गया और गला साफ़ करते हुए बोला.."एक लोकगीत सुनाता हूँ" हम फिर से हँसे, पता नहीं ये क्या गाने वाला है...पर वो उसके
सामने हमारी आखिरी हंसी थी. एक तो उसका गला बहुत ही अच्छा था. और उसने गाना भी ऐसा चुना...हर पंक्ति में विभिन्न उपमाओं से 'हंसी' को वर्णित किया गया था. और सीधा मेरी तरफ गर्व से देखते हुए जो तरन्नुम में गाया उसने ..मुझे समझ नहीं आ रहा था...किधर देखूं. दो पंक्तियाँ तो अब भी याद हैं.
"राउया हंस दीं तो भोर हो जाई
सारी दुनिया अंजोर हो जाई"
उसका गाना ख़त्म होते ही मैं बहाने से उठ कर चली गयी...फिर वो जब तक रहा,उसके सामने नहीं आई.
अब हो जाता है..ऐसा कभी कभी...हमलोग भी तो इंसान ही हैं ना..:)

नहीं भूलती डायपर की खरीददारी- ज्योति सिंह
तुम्हारा भी जवाब नहीं. ऐसे ऐसे टॉपिक चुनती हो कि बीते हुए दिन तुरंत ताज़ा हो उठाते हैं. और हंसी की पिचकारी फूट पड़ती है. एक ऐसी ही बेवकूफी मैं भी कर बैठी रही. बात कई वर्ष पहले की है, तब मेरी बेटी बहुत छोटी थी, आठ-नौ माह की. उसके लिए डायपर लेने जनरल स्टोर गई और दुकानदार से बोली एक पैकेट huggies दे दीजिये. दूकानदार ने पूछा किसके लिए? मैं सोची ये कैसा बेहूदा सवाल कर रहा है? तुरंत तेज़ आवाज़ में लगभग चिल्लाते हुए बोली- "मेरे लिए, और किसके लिए?" ये सुनते ही दुकान पर मौजूद सभी लोग मेरी तरफ देखने लगे, मेरे साथ मेरी पडोसी मित्र स्नेह भी रहीं , तुरंत बोलीं- भाभी जी, ये क्या कह रही हैं?मैंने कहा ये पूछ ही ऐसे रहे हैं. तभी दुकानदार ने कहा- भाभी जी, डायपर तो बच्चों की उम्र के हिसाब से मिलते हैं, आपको कितनी उम्र के लिए चाहिए? बस फिर क्या था? मैं अपनी बेवकूफी पर इतनी शर्मिंदा हुई, और बाकी सब ठहाका लगा के हंस पड़े. आज भी दूकानदार मुझे देख के हंस पड़ता है और मैं अपनी बेवकूफी पर.

रादेव जी, आप पहले क्यों न आये?- प्रियदर्शिनी तिवारी
मेरे द्वारा की गई बेवकूफ़ी ..हूंह,कैसी-कैसी बातें ,कैसे-कैसे टॉपिक आपके दिमाग में आते हैं .आप की तस्वीर देखकर तो ऐसा नहीं लगता कि पका दिमाग इतना खुराफ़ाती [यह शब्द मेरी मम्मी बहुत बोलती हैं ] होगा
.सच-सच कहूं तो इस टौपिक पर लिखना मेरे लिये बहुत मुश्किल है जानेंगी क्यूं ?,क्योंकि जिन्दगी भर से मैं बेवकूफ़ी ही करती आ रही हूं. और कोई भी इतनी स्टैन्डर्ड नही है.जिसे लिखकर मैं आपके पास भेज सकूं .जब मैं ग्यारहवीं का एग्जाम दे रही थी ,तब मैंने प्री-आयुर्वेद का टैस्ट दिया .पता नहीं कैसे मेरा सेलेक्शन हो गया..वह भी बिना किसी तैयारी के ,मुझे घमंड आना लाजिमी था.सोचा.जब पहली बार में मेरा सेलेक्शन हो गया तो क्यूं ना अगली बार एम बी बी एस का एग्जाम दूं सो मैंने एड्मीशन नही लिया .उस समय बाबा रामदेव जी को कोई नहीं जानता था .सो आयुर्वेद कि स्थिति
थोडी दयनीय सी थी .बैडलक ,अगले साल मैंने साईंस के विषय त्यागकर लिटरेचर के विषय अपनाये.सोचा पी एच डी करूंगी .जो अभी तक ना हो पाई .कुछ समय बाद बाबा रामदेव टी वी पर अवतरित हुए .जब से उन्होंने आयुर्वेद को घर-घर पहुंचाया है ,सच मानिये ,सोच कर ही मेरा गला भर आता है .जब भी ’"दिव्य योग "चिकित्सालय के पास से गुजरती हूं ,उसके अन्दर अपने आप को बैठा हुआ पाती
हूं .मुझे भी अब आयुर्वेद कि काफ़ी जानकारी हो गई है ,[रामदेव जी की कृपा से ] पर उससे क्या ..जो बेवकूफ़ी मैंने की है ,भुला नहीं सकती .हैप्पी होली.