आज गणतंत्र दिवस है. इधर विद्यालय में बच्चों के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की रिहर्सल चल रही थी, और उधर मेरा मन एक बार फिर बचपन की यादों को टटोल रहा था. याद आ रहे थे वे तमाम गणतंत्र दिवस- स्वतंत्रता दिवस जो हमने बचपन में जिए थे............... कैसी उमंग होती थी हमारे मन में ! कितना जोश, कितना उत्साह.... लगता था, शहीद भगत सिंह या आज़ाद के बाद तो बस हमीं हैं देश के असली सपूत.
२६ जनवरी की तैयारी जितनी विद्यालय में चलतीं, उससे ज्यादा घर में दिखाई देतीं. कई दिन पहले से गुनगुनाये जाने वाले देशभक्ति के गीत , २६ तक आते-आते जोर-शोर से गाये जाने लगते.
आज़ादी के किस्से सुनते - सुनते लगता की काश! हम भी उस वक्त होते तो देश के लिए शहीद होते!!!
मेरे माँ-पापा दोनों ही शिक्षण कार्य से जुड़े रहे और बेहद सिद्धांतवादी माने गए , लिहाज़ा स्कूल और उससे जुड़े हर कार्य को हमें भी बड़ी ईमानदारी से निभाना पड़ता था. ये अलग बात है, की इन जिम्मेदारियों को हम भी बखूबी निभाते थे.
तो इधर २५ जनवरी आती , और उधर हमारी यूनिफ़ॉर्म तैयार होने लगती. खूब कड़क प्रेस किया जाता. प्रेस करने का काम मेरी छोटी दीदी करतीं, और मैं वहीँ खड़े हो , अपनी प्रेस हो रही शर्ट का कॉलर छू - छू के देखती की खूब कड़क हुआ या नहीं. स्कर्ट की एक-एक प्लेट सहेज के प्रेस की जाती.
इस काम से संतुष्ट होने के बाद मैं अपने जूते चमकाती. पॉलिश करने वालों की तर्ज़ पर खूब ब्रश रगडती.
पूरी यूनिफ़ॉर्म हैंगर पर लटकाती, और उसके ठीक नीचे जूते रख देती.
इस दिन सुबह चूंकि मम्मी, पापा दोनों दीदियों, मुझे सबको एक साथ स्कूल के लिए निकलना होता था , तो तैयार होने का टाइम भी एक ही होता. खासी बमचक मच जाती. उन दिनों हमारे घर में एक ही बाथरूम था, और स्कूल तो सबको नहा के ही जाना होता था , ख़ास तौर पर गणतंत्र या स्वतंत्रता दिवस के दिन . ये दिन तो सबसे पावन त्यौहार की तरह होते थे. लिहाजा इन दिवसों पर बिना नहाए कैसे चलेगा? ध्वज-वंदन कैसे होगा? सो भले ही कडाके की सर्दी में पांच बजे उठना पड़े, नहाना तो है ही. खैर फटाफट नहा के हम यूनिफ़ॉर्म में सज धज के ठीक साढे छह बजे स्कूल के लिए निकल जाते.
हमारे शहर के मुख्य चौराहे से स्कूल की "प्रभात-फेरी" शुरू होती थी. जो मेरे समकालीन हैं , वे इस प्रभात-फेरी को समझ रहे होंगे. यहाँ से आरम्भ होने वाली इस प्रभात-फेरी में , क्रमशः शहर के सभी स्कूल जुड़ते जाते. विद्यार्थी अपने-अपने स्कूल का बैनर लिए नारे लगाते आगे बढ़ते जाते. लगभग पूरे शहर का चक्कर लगाने के बाद सब अपने-अपने स्कूल पहुँच जाते., जहाँ बाद में सांस्कृतिक कायर्क्रम संपन्न होते.
कमोबेश यही तरीका आज भी विद्यालयों में अपनाया जा रहा है, लेकिन त्यौहार मनाये जाने की मूल भावना नदारद सी लगती है. प्रभात-फेरी जैसी चीज़ मुझे तो लम्बे समय से, या कहूं की जबसे मेरा शहर छूटा तब से दिखाई नहीं दी. शायद ये परंपरा ख़त्म कर दी गई है. निजी विद्यालयों और अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों के चलन के बाद बहुत सी विद्यालयीन प्रथाएं समाप्तप्राय हैं. बच्चों के दिलों से देशप्रेम का जज्बा नदारद है. शायद उन्हें कुछ ज्यादा ही आज़ाद हिंदुस्तान मिल गया............हमारे बचपन में तो फिर भी बहुत सी देशप्रेम की कथाएं सुनाई जाती थीं, लेकिन आज बच्चे केवल उन्हीं शहीदों को जानते हैं, जिन पर फिल्में बन चुकीं हैं . अधिकाँश बच्चे आज़ादी के आन्दोलनों या उससे जुड़े शहीदों के बारे में, इतिहास में एक पाठ के रूप में ही पढ़ते हैं. शहादत की कहानियां सुनाने वाला कोई नहीं रहा. हमारे समय में माँ, नानी या दादी से कहानियां सुनने का चलन था, जिनमें हमें देश से जुडी अनेक कहानियां मिल जातीं थीं. लेकिन आज? आज आज न वे कहानी सुनाने वाले रहे न सुनने वाले. जहाँ एक ओर बच्चे टीवी या कम्प्यूटर में व्यस्त हो गए हैं, तो वहीँ दादी-नानियाँ भी टीवी के धारावाहिकों में व्यस्त हैं. अब यदि कोई बच्चा कहानी सुनाने को कहता भी है, तो बड़े उसे -" बहुत कहानियां आती थीं बेटा, लेकिन अब सब भूल गए" कह के टरका देते हैं.समझ में ही नहीं आता की गलती बच्चों की है या बड़ों की? कोई भी भावना तब तक घर नहीं कर सकती, जब तक की उसका सम्प्रेषण सही तरीके से न किया गया हो. हमारे अभिभावक न केवल खुद देश के प्रति समर्पित रहे बल्कि हम में भी बचपन से ही देश प्रेम की भावना जागृत की. लेकिन क्या आज की इस नई पीढ़ी में हम देश-प्रेम का वास्तविक जज़्बा देख पा रहे हैं? अगर नहीं तो दोष किसका है? आज के जिस हिंदुस्तान को बच्चे देख रहे हैं उसे वे कैसे प्यार करें? गले तक भ्रष्टाचार में डूबा.....रोज़ व्यभिचार की तमाम खबरें.....हम खुद ही अपने देश को धिक्कारते नहीं रहते क्या? वो भी बच्चों के ही सामने? " क्या देश है ये" " विदेशों में देखो......" जैसे वाक्य या तुलनाएं हम अक्सर ही नहीं किया करते क्या? तब बच्चे भी बिना ये जाने की ऐसे वाक्य हम देश की चिंता में बोल रहे हैं, दोहराते हैं, और देशप्रेम तिरोहित होता जाता है.
खैर............आज ज़रुरत है नई पीढ़ी में नए सिरे से देश प्रेम और देश चिंता के बीज बोने की, ताकि आने वाली नई पौध आजीवन स्वतन्त्र और सम्मानित रह सके.
जय हिंद.
गणतंत्र दिवस की अनेकानेक शुभकामनाएं.
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