रविवार, 31 जनवरी 2010

झलकियां




गण्तंत्र दिवस के अवसर पर मेरे विद्यालय के नन्हे-मुन्ने विद्यार्थियों ने भी रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत

किये. उसी अवसर की कुछ झलकियां आपके लिये लाई हूं , देखें और कार्यक्रम में शामिल हो जायें.

खुले आकाश में लहराता तिरंगा ...... हर वक्त हमें आज़ाद होने का अहसास कराता....नमन.



अपने मेक-अप से बेखबर नन्हीं नर्तकियां....... अपने नृत्य के आरम्भ होने का इन्तज़ार करतीं छात्राएं

सजे-धजे नर्तक दल अपनी बारी के इन्तज़ार में................ ये है पंजाब का लोक-नृत्य भांगडा.


सीनियर और जूनियर छात्र नृत्य प्रस्तुत करते हुए......


विद्यालय की पूर्व छात्रा विधु ने कार्यक्रम का संचालन किया जबकि शिउली सिंहरॉय ने हारमोनियम पर संगत की.
केयर पब्लिक स्कूल परिवार.



सोमवार, 25 जनवरी 2010

सारे जहाँ से अच्छा....


गणतंत्र दिवस

आज गणतंत्र दिवस है. इधर विद्यालय में बच्चों के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की रिहर्सल चल रही थी, और उधर मेरा मन एक बार फिर बचपन की यादों को टटोल रहा था. याद आ रहे थे वे तमाम गणतंत्र दिवस- स्वतंत्रता दिवस जो हमने बचपन में जिए थे...............
कैसी उमंग होती थी हमारे मन में ! कितना जोश, कितना उत्साह.... लगता था, शहीद भगत सिंह या आज़ाद के बाद तो बस हमीं हैं देश के असली सपूत.
२६ जनवरी की तैयारी जितनी विद्यालय में चलतीं, उससे ज्यादा घर में दिखाई देतीं. कई दिन पहले से गुनगुनाये जाने वाले देशभक्ति के गीत , २६ तक आते-आते जोर-शोर से गाये जाने लगते.
आज़ादी के किस्से सुनते - सुनते लगता की काश! हम भी उस वक्त होते तो देश के लिए शहीद होते!!!
मेरे माँ-पापा दोनों ही शिक्षण कार्य से जुड़े रहे और बेहद सिद्धांतवादी माने गए , लिहाज़ा स्कूल और उससे जुड़े हर कार्य को हमें भी बड़ी ईमानदारी से निभाना पड़ता था. ये अलग बात है, की इन जिम्मेदारियों को हम भी बखूबी निभाते थे.
तो इधर २५ जनवरी आती , और उधर हमारी यूनिफ़ॉर्म तैयार होने लगती. खूब कड़क प्रेस किया जाता. प्रेस करने का काम मेरी छोटी दीदी करतीं, और मैं वहीँ खड़े हो , अपनी प्रेस हो रही शर्ट का कॉलर छू - छू के देखती की खूब कड़क हुआ या नहीं. स्कर्ट की एक-एक प्लेट सहेज के प्रेस की जाती.
इस काम से संतुष्ट होने के बाद मैं अपने जूते चमकाती. पॉलिश करने वालों की तर्ज़ पर खूब ब्रश रगडती.
पूरी यूनिफ़ॉर्म हैंगर पर लटकाती, और उसके ठीक नीचे जूते रख देती.
इस दिन सुबह चूंकि मम्मी, पापा दोनों दीदियों, मुझे सबको एक साथ स्कूल के लिए निकलना होता था , तो तैयार होने का टाइम भी एक ही होता. खासी बमचक मच जाती. उन दिनों हमारे घर में एक ही बाथरूम था, और स्कूल तो सबको नहा के ही जाना होता था , ख़ास तौर पर गणतंत्र या स्वतंत्रता दिवस के दिन . ये दिन तो सबसे पावन त्यौहार की तरह होते थे. लिहाजा इन दिवसों पर बिना नहाए कैसे चलेगा? ध्वज-वंदन कैसे होगा? सो भले ही कडाके की सर्दी में पांच बजे उठना पड़े, नहाना तो है ही. खैर फटाफट नहा के हम यूनिफ़ॉर्म में सज धज के ठीक साढे छह बजे स्कूल के लिए निकल जाते.
हमारे शहर के मुख्य चौराहे से स्कूल की "प्रभात-फेरी" शुरू होती थी. जो मेरे समकालीन हैं , वे इस प्रभात-फेरी को समझ रहे होंगे. यहाँ से आरम्भ होने वाली इस प्रभात-फेरी में , क्रमशः शहर के सभी स्कूल जुड़ते जाते. विद्यार्थी अपने-अपने स्कूल का बैनर लिए नारे लगाते आगे बढ़ते जाते. लगभग पूरे शहर का चक्कर लगाने के बाद सब अपने-अपने स्कूल पहुँच जाते., जहाँ बाद में सांस्कृतिक कायर्क्रम संपन्न होते.

गणतंत्र दिवस
कमोबेश यही तरीका आज भी विद्यालयों में अपनाया जा रहा है, लेकिन त्यौहार मनाये जाने की मूल भावना नदारद सी लगती है. प्रभात-फेरी जैसी चीज़ मुझे तो लम्बे समय से, या कहूं की जबसे मेरा शहर छूटा तब से दिखाई नहीं दी. शायद ये परंपरा ख़त्म कर दी गई है. निजी विद्यालयों और अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों के चलन के बाद बहुत सी विद्यालयीन प्रथाएं समाप्तप्राय हैं. बच्चों के दिलों से देशप्रेम का जज्बा नदारद है. शायद उन्हें कुछ ज्यादा ही आज़ाद हिंदुस्तान मिल गया............हमारे बचपन में तो फिर भी बहुत सी देशप्रेम की कथाएं सुनाई जाती थीं, लेकिन आज बच्चे केवल उन्हीं शहीदों को जानते हैं, जिन पर फिल्में बन चुकीं हैं . अधिकाँश बच्चे आज़ादी के आन्दोलनों या उससे जुड़े शहीदों के बारे में, इतिहास में एक पाठ के रूप में ही पढ़ते हैं. शहादत की कहानियां सुनाने वाला कोई नहीं रहा. हमारे समय में माँ, नानी या दादी से कहानियां सुनने का चलन था, जिनमें हमें देश से जुडी अनेक कहानियां मिल जातीं थीं. लेकिन आज? आज आज न वे कहानी सुनाने वाले रहे न सुनने वाले. जहाँ एक ओर बच्चे टीवी या कम्प्यूटर में व्यस्त हो गए हैं, तो वहीँ दादी-नानियाँ भी टीवी के धारावाहिकों में व्यस्त हैं. अब यदि कोई बच्चा कहानी सुनाने को कहता भी है, तो बड़े उसे -" बहुत कहानियां आती थीं बेटा, लेकिन अब सब भूल गए" कह के टरका देते हैं.
समझ में ही नहीं आता की गलती बच्चों की है या बड़ों की? कोई भी भावना तब तक घर नहीं कर सकती, जब तक की उसका सम्प्रेषण सही तरीके से न किया गया हो. हमारे अभिभावक न केवल खुद देश के प्रति समर्पित रहे बल्कि हम में भी बचपन से ही देश प्रेम की भावना जागृत की. लेकिन क्या आज की इस नई पीढ़ी में हम देश-प्रेम का वास्तविक जज़्बा देख पा रहे हैं? अगर नहीं तो दोष किसका है? आज के जिस हिंदुस्तान को बच्चे देख रहे हैं उसे वे कैसे प्यार करें? गले तक भ्रष्टाचार में डूबा.....रोज़ व्यभिचार की तमाम खबरें.....हम खुद ही अपने देश को धिक्कारते नहीं रहते क्या? वो भी बच्चों के ही सामने? " क्या देश है ये" " विदेशों में देखो......" जैसे वाक्य या तुलनाएं हम अक्सर ही नहीं किया करते क्या? तब बच्चे भी बिना ये जाने की ऐसे वाक्य हम देश की चिंता में बोल रहे हैं, दोहराते हैं, और देशप्रेम तिरोहित होता जाता है.
खैर............आज ज़रुरत है नई पीढ़ी में नए सिरे से देश प्रेम और देश चिंता के बीज बोने की, ताकि आने वाली नई पौध आजीवन स्वतन्त्र और सम्मानित रह सके.
जय हिंद.
गणतंत्र दिवस की अनेकानेक शुभकामनाएं.

...

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

वसंतपंचमी पर विशेष-



वैसे तो महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" का जन्म 21 फरवरी को 1896 में पश्चिमी बंगाल के मेदिनीपुर जिले के महिषादल नामक देशी राज्य में हुआ था, लेकिन उस दिन वसंतपंचमी थी. माँ सरस्वती ने प्रकृति का कैसा अनुपम उपहार दिया साहित्य-जगत को. वसंत पंचमी के अवसर पर निराला जी की एक प्रसिद्ध रचना के साथ हाज़िर हुई हूँ-

रविवार, 10 जनवरी 2010

होई है सोई, जो राम रचि राखा..

मैं शेफ़ाली के साथ
छुट्टियाँ बाद में आती हैं , उनके इस्तेमाल का प्लान पहले बनने लगता है. कुछ ऐसा ही इस बार भी क्रिसमस की छुट्टियों के पहले हुआ.

शैली ने हैदराबाद बुलाया था, तो मंजू दीदी और वर्षा ने इंदौर. तारा आंटी इलाहाबाद बुला रही थीं तो राजा और शिवेंद्र मुंबई. शमा दीदी ने पुणे आने का आत्मीय आग्रह किया तो हमने भी पुणे जाने का मन बना लिया. रिज़र्वेशन करवाने के पहले सोचा इस्मत को भी खबर कर दें. क्योंकि जब पुणे जा ही रहें हैं तो वहीँ से गोवा भी हो आयेंगे, ताकि इस्मत की सात साल पुरानी शिकायत दूर हो सके. लेकिन ये क्या? हमने जैसे ही इस्मत को बताया, उसने पूरा कार्यक्रम ही रद्द कर दिया. बोली- चौबीस दिसंबर को हम मोहर्रम के सिलसिले में जौनपुर जा रहे हैं. इस बीच तुम्हें इस तरफ की यात्रा करने की कोई ज़रुरत नहीं है. खबरदार जो तुम मेरी ग़ैरमौजूदगी में इस तरफ आईं. तुम गर्मियों की छुट्टियों में यहाँ आ रही हो.

लो भैया!! यहाँ तो पूरा कार्यक्रम भी बता दिया गया है, आने का.

हम अभी ऊहापोह में ही थे, की कानपुर से बब्बी . मेरी छोटी बहन का फोन आया कि सत्ताईस दिसम्बर को उसका एक ऑपरेशन किया जाना है. हमने कहा- निश्चिन्त रहो, हम आ रहे हैं ( जैसे हम कोई सिद्धहस्त डॉक्टर हों).
और जहाँ सोचा भी न था, जहाँ का कोई न्यौता भी न था, वहां का रिज़र्वेशन हो गया.

कानपुर यात्रा के पहले एक ओर मन में बहन के स्वास्थ्य को लेकर चिंता थी, तो दूसरी ओर अनूप जी से मुलाकात का उत्साह. अपने कानपुर आने के बारे में अनूप जी को बताया, तो मालूम हुआ कि वे सपरिवार राजस्थान-यात्रा पर जा रहे हैं :(. लेकिन अनूप जी ने विश्वास जताया था कि मुलाकात होगी ही.

कानपुर पहुंचे, और बहन का सफल ऑपरेशन भी हो गया. अब चिंतामुक्त थी. आठ दिन कब बीत गए पता ही नहीं चला. कानपुर अमर-उजाला में मेरे देशबंधु के सहयोगी और मित्र संजय शर्मा भी हैं. हमने कानपुर में होने कि बात बताई तो अड़ गए कि जब तक उनके घर नहीं जाउंगी, तब तक वे बात भी न करेंगे ( कितनी खुशकिस्मत हूँ, कितने स्नेही दोस्त मिलें हैं.)

साल का आखिरी दिन और मोबाइल रूठा हुआ... न जाने क्या गड़बड़ हुई, कि कोई फोन ही नहीं लग रहा, न आ रहा न जा रहा. विधु के मोबाइल पर मेरे पतिदेव , उमेश जी ने खबर की तब समझ आया की मेरा फोन तो स्विच्ड ऑफ़ बता रहा है. ठीक करने की कोशिश या अतिरिक्त होशियारी में मैंने मोबाइल रिसेट कर दिया और ये लो!!! फोन में सेव तीन सौ नंबर डिलीट !!!!!! हाथ पैर कट गए हो जैसे...निहत्था सैनिक मैदान में........किसी को शुभकामनाएं भी न दे सकी.

एक जनवरी यानि कानपुर-प्रवास का आखिरी दिन. अनूप जी से मुलाकात अभी तक नहीं हो सकी थी. दो की सुबह साढे छह बजे हमारी ट्रेन थी. सुबह घने कोहरे के बीच हनुमान चालीसा पढ़ते हुए सुनील गाडी चलाते रहे. रास्ते में एक तेज़ रफ़्तार ऑटो निकला तो सुनील ने पूछा- " जानती हैं दीदी , ये ऑटो वाला इतना तेज़ ऑटो क्यों चला रहा है? "
मैंने इंकार में सर हिलाया तो बोले- " क्योंकि वो दूसरों को बिठाए है."
वाह!!! क्या जवाब था!!
सुनील,अनूप, विधु, वंदना,शेफ़ाली और नव्या
स्टेशन आने पर पता चला की ट्रेन तीन घंटे लेट है. इस बीच अनूप जी का फोन आया तो हमने कहा की हमारी ट्रेन आने ही वाली है. अब अगली यात्रा में मुलाकात होगी. नौ बजे पता चला की दिल्ली रूट पर ट्रेन- एक्सीडेंट हो गया है प्रयागराज का इसीलिए उस रूट की सभी ट्रेनें लेट हैं. बारह बजे पता चला की ट्रेन ग्यारह घंटे लेट है ( ये अलग बात है की बाद में सत्रह घंटे लेट हो गई). अनूप जी का फोन आया-" घर का एड्रेस बताओ हम आ रहे हैं." वाह!! हमने कहा की हम लोग नर्सिंग होम के लिए निकल चुके हैं आप भी वहीँ आ जाइए.

आधे घंटे के अन्दर अनूप जी अपने साढ़ू भाई अजय दीक्षित जी के साथ हाज़िर! अनूप जी के विश्वास की जीत हुई. अनूप जी और अजय जी जुगलबंदी ने स्तरीय हास्य की जो सृष्टि की, उसमें देर तक हम डूबते-उतराते रहे. इसी बीच अनूप जी ने बताया की शेफाली पाण्डेय भी कानपुर आई हुईं हैं. उन्हें फोन किया तो पता चला की वे नर्सिंग होम के पास स्थित मॉल रेव-मोती में हैं. हमने उन्हें वहां से उठाया और फिर वापस नर्सिंग होम. यहाँ जम के गपशप और चाय के दौर भी चले. शेफाली जी की प्यारी सी बिटिया नव्या और मेरी बिटिया विधु ने भी हम लोगों की गपशप का लुत्फ़ उठाया. अनूप जी के लाये मोतीचूर के लड्डू खाए .

महफ़िल बर्खास्त करने का मन तो नहीं था, लेकिन हमारी ट्रेन का एक बार फिर टाइम हो रहा था सो हमने सबसे विदा ली और किसी प्रकार तीन तारीख की सुबह सतना पहुँच गए.

कानपुर में अनूप जी और शेफाली से मिलना एक उपलब्धि की तरह रहा. यह संयोग ही था की हमारी ट्रेन लेट हुई और हम अनूप जी और शेफाली से मिल सके. दोनों ही हंसमुख, खुशमिजाज़. मन खुश हो गया. सुबह से जितनी तकलीफें भारतीय रेल ने दीं थीं, सब दूर हो गईं, इन दोनों ब्लॉगर बंधुओं से मिल कर. ईश्वर आगे भी ऐसी ही सफल यात्राएं करवाए.

वैसे अनूप जी ने अपने ब्लॉग पर भी इस मुलाकात का बढ़िया वर्णन किया है.