रविवार, 27 नवंबर 2011

पढियेगा बार-बार हमें, यूं न फेंकिये, हम हैं इंसान शाम का अखबार नहीं हैं.....

अभी पिछले दिनों रश्मि रविजा की पोस्ट "उम्र की सांझ का, बीहड़ अकेलापन" पढी, जिसमें उन्होंने बहुत सटीक मुद्दा उठाया है, बुज़ुर्गों के अकेलेपन का. उसी पोस्ट से प्रेरित हो कर कुछ लिखने की कोशिश कर रही हूं. हालांकि मेरी ये पोस्ट, किसी भी तरह से रश्मि की पोस्ट का खंडन नहीं करती, बस इस मसले पर मेरी राय जैसी है. मैं उन लोगों की कड़ी भर्त्सना करती हूं, जो अपने बुज़ुर्गों का खयाल नहीं रखते या जानबूझ कर उन्हें उपेक्षित करते हैं.
रश्मि ने कई ऐसे बुज़ुर्गों का ज़िक्र किया है, जो अब एकाकी जीवन जी रहे हैं, बच्चों के होते हुए भी. इनमें अधिकांश ऐसे बुज़ुर्ग हैं, जो बच्चों की उपेक्षा के शिकार हैं.
आज के इस आपा-धापी जीवन में वे बुज़ुर्ग निश्चित रूप से उपेक्षित हो जाते हैं, जो अपने बेटे-बहू पर आश्रित होते हैं, और उनके साथ ही जीवन गुज़ार रहे हैं. उपेक्षा तभी होती है, जब सब साथ हों, दूर रह के तो बस अकेलापन होता है.
असल में सबसे ज़्यादा उपेक्षित वे ही महसूस करते हैं, जिन्होंने अपने बच्चों से अपेक्षाएं लगा रखी होती हैं. ये अपेक्षाएं पूरी नहीं होने पर खुद-बखुद उपेक्षा में तब्दील हो जाती हैं .
आज ज़िंदगी का जो रूप है, उसमें बच्चों के लिये नई राहें बढीं हैं, गिने-चुने रास्ते नहीं रह गये, लिहाजा इन नये रास्तों की मंज़िलें भी दूर हो गयीं हैं. ये मंज़िलें महानगरों से होते हुए विदेशों तक पहुंच गयीं हैं. बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जितने आकर्षक पैकेज़ देतीं हैं, उतना ही निचोड़ के काम भी लेती हैं. महानगरों की ज़िन्दगी इतनी व्यस्त और खर्चीली है, कि पति-पत्नी दोनों का काम करना लाज़िमी सा हो गया है. वैसे भी लड़कियां अब बराबरी की डिग्री हासिल कर रही हैं, तो उसका इस्तेमाल भी चाहती हैं, ऐसे में घर पर कोई नहीं होता या केवल नौकर होता है. सुबह जल्दी निकलने और रात देर से लौटने के बाद दोनों ही इस स्थिति में नहीं होते कि किसी को भी समय दिया जाये. अगर मां-बाप साथ में हैं, तो उनसे भी केवल हाल-चाल ही पूछने का समय होता है उनके पास, जबकि पूरा दिन घर में गुज़ारने के बाद उनके पास तमाम बातें होती हैं. अपनी बातें पूरी तरह न बता पाने की कसक, उपेक्षा का रूप ले लेती है
बुज़ुर्ग, जो आज की कार्य-पद्धति से परिचित नहीं हैं, जिन्हें नहीं मालूम कि उनके बेटे या बहू दिन भर किन तनावों से गुज़रे हैं, उलाहना देने से नहीं चूकते कि हमने भी तो नौकरी की है लेकिन क्या मज़ाल कि मां-बाप के लिये समय न निकाला हो. ये उलाहना नये तनाव को जन्म देता है. पीढियों का ये अन्तराल, दूरियां बढाने का काम करता है .
मेरे एक परिचित बुज़ुर्ग दम्पत्ति हैं, जिनके बेटे-बहू बैंगलोर में हैं. समयाभाव उन्हें साल में एक बार ही यहां आ पाने की इजाज़त देता है . अंकल तो कम, लेकिन आंटी लगाता ये कहने से नहीं चूकतीं कि उनका बेटा तो बहुत अच्छा था, लेकिन बहू ने उसे अपना ग़ुलाम बना लिया. अब बस उसी की मानता है. एक ये थे, कि कभी इन्होंने अपने पिताजी के सामने मुझसे बात तक नहीं की, एक वो है जो हमारे सामने ही उसे ऑर्डर देती रहती है
जबकि मुझे मालूम है, कि उनकी बहू, बेटे से ज़्यादा उनका खयाल रखती है.
ये दोनों बैंगलोर गये भी, लेकिन जल्दी ही वापस आ गये. वहां की संस्कृति- खान-पान उन्हें रास नहीं आया.
एक अन्य दम्पत्ति हैं, जिनके तीन बेटे हैं, तीनों बाहर हैं, और बस दीवाली पर ही मां-बाप के पास आ पाते हैं, लेकिन ये दोनों खुश हैं. कहते भी हैं, कि हमारे बेटों की जीवन-शैली अलग है, उसमें हम खप नहीं पाते, सो यहीं अपने पुश्तैनी घर में रहते हैं
हमारे पड़ोसी की मां के निधन के बाद, उनके पिता जी बेटे के पास आ गये, और अपना समय पोते को पढाने, पूजा करने, और पढने में बिताते हैं, बेटे-बहू की ज़िन्दगी में दखल दिये बिना.
मैं खुद अपनी बात करूंगी, मेरे ससुर जी के देहावसान के बाद मेरी सास, यानि हमारी अम्मां बिना किसी एकाकीपन के हमारे साथ बहुत खुश हैं. पापा की कमी तो हम पूरी नहीं कर सकते, लेकिन हमारे द्वारा उनकी उपेक्षा हो, ऐसा कोई व्यवहार नहीं करते . उनका समय भी पूजा, भजन-कीर्तन, किताबों और टी.वी. के साथ बीतता है, जबकि हम दोनों सीधे रात में ही थोड़ी देर उनके पास बैठ पाते हैं. मेरे दोनों देवर भी बाहर ही हैं, लेकिन दोनों अम्मा को ज़िद सहित अपने पास बुलाते रहते हैं, क्योंकि इन दोनों का ही बार-बार आना सम्भव नहीं हो पाता. अम्मां की मांग हर जगह बराबर है. मज़े की बात तो ये है, कि हम बहुओं से उनका एकदम दोस्ताना है. और यही ज़रूरी भी है. जहां बुज़ुर्ग बच्चों के साथ मिल जाते हैं, वहां उपेक्षित महसूस ही नहीं करते
ऐसे लोग भी बहुतायत हैं, जो अपने बुज़ुर्गों के साथ बहुत बुरा बर्ताव करते हैं, लेकिन ऐसे भी बहुत हैं, जो अपने बुज़ुर्गों की उपस्थिति भर से भरा-भरा महसूस करते हैं.
तो मुझे तो बस यही लगता है कि जो बुज़ुर्ग यदि बच्चों की समस्याओं को समझें, उनका साथ दें, तो आखिर बच्चे तो उन्हीं के हैं, उपेक्षा क्यों करेंगे? अपनी राय थोपे बिना, पुराने समय की दुहाई दिये बिना, कोई भी तुलना किये बिना प्रसन्न मन से रह के तो देखें.
अभी समय इतना भी खराब नहीं आया है