रविवार, 10 अप्रैल 2011

डॉ. कमलाप्रसाद: ऐसे कैसे चले गये आप?

25 मार्च 2011
सुबह आठ बजे दिल्ली से राजीव शुक्ल जी का फोन आया. आता ही रहता है, हम लोगों के हाल-चाल लेने के लिये, सो सहज भाव से फोन उठाया, और प्रसन्नचित्त ’ हैलो’ भेजा. उधर से राजीव जी ने कहा-
"वन्दना, एक बुरी खबर है, कमला जी नहीं रहे"
मोबाइल हाथ से छूटते-छूटते बचा.
" मैं अभी एम्स से ही आ रहा हूँ. सुबह छह बजे उन्होंने अन्तिम सांस ली."
अन्तिम सांस??? कमला जी अन्तिम सांस भी ले सकते थे क्या??
" उनका पार्थिव शरीर आज दिन भर अजय-भवन में दर्शनार्थ रखा जायेगा. शाम को विशेष विमान द्वारा भोपाल ले जाया जायेगा. सुबह भोपाल में ही अन्त्येष्टि होगी."
पार्थिव शरीर??? अन्त्येष्टि???
सारे शब्द गड्ड-मड्ड हो रहे थे.... दिमाग़ ने जैसे काम करना ही बन्द कर दिया. हां, कान अपना काम कर रहे थे, राजीव जी का एक-एक शब्द स्पष्ट सुनाई दे रहा था, लेकिन दिमाग़ में आते ही एक-दूसरे से उलझ रहे थे... हर शब्द के साथ कमला जी का चेहरा उभरता...
" मैंने कई जगह फोन कर दिये हैं, लेकिन तब भी लगता है बहुत लोग छूट गये हैं. रीवा-सतना में जो भी लोग हैं, उनको खबर दे दो. कोई भी काम बाद में करना, पहले ये खबर सब तक पहुंचाओ."
कमला जी की मृत्यु का समाचार मुझे देना होगा???
देना तो होगा ही.....
सबसे पहले हरीश धवन को फोन लगाया. मैं कुछ कहूं, उससे पहले ही हरीश ने मुझे रोक दिया.
"न, कुछ मत कहिए, खबर हो गई है."
" तब वहां, रीवा में सबको खबर देने की ज़िम्मेदारी तुम्हारी है हरीश"
सतना के कुछ लोगों को फोन किया, लेकिन हर बार लगा," कमला जी नहीं रहे", ये कहना कितना मुश्किल हो रहा है मेरे लिये... नहीं कर पाउंगी ये काम. फिर से हरीश को फोन किया, और कहा कि तुम्हीं बताओ सबको.
याद आ रहे थे कमला जी... डॉ. कमलाप्रसाद.
28 अप्रैल 1986......
तब मैं आकाशवाणी छतरपुर में युववाणी कम्पेयर थी. अप्रैल में ही छतरपुर से प्रकाशित पत्रिका’ मामुलिया" में मेरी कहानी प्रकाशित हुई, उसके ठीक बाद पत्रिका के सम्पादक श्री नर्मदाप्रसाद गुप्त का फोन आया-" मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से चित्रकूट में दस दिवसीय कहानी रचना शिविर आयोजित किया जा रहा है, क्या आप इस शिविर में भाग लेना चाहेंगीं? ज़िले से दो कहानीकारों के नाम भेजे जाने हैं’ मैने अपनी अनुमति भेज दी.
उस समय राजीव कुमार शुक्ल जी युववाणी के कार्यक्रम अधिकारी थे, और प्रलेस-इप्टा में मेरे मित्र. मैने जब उन्हें शिविर के बारे में बताया तो बोले -" ज़रूर जाओ, वहां डॉ. कमलाप्रसाद से मुलाक़ात होगी, तुम्हें अच्छा लगेगा उनसे मिल के."
निर्धारित समय पर चित्रकूट पहुंची. प्रदेश भर के 80 युवा कहानीकार मौजूद थे. म.प्र. पर्यटन विभाग के होटल "यात्रिक" के सभागार में सब एकत्रित हुए, जहां यह शिविर आयोजित होने वाला था.
एक लम्बी-चौड़ी कद-काठी, सौम्य- सुदर्शन व्यक्तित्व ने सम्बोधित करना शुरु किया. स्पष्ट स्वर, साफ़ उच्चारण, और सम्मोहक शैली. आवाज़ बहुत बुलंद नहीं, लेकिन प्रभावी, अपना असर छोड़
ने वाली.
यही थे डॉ.कमलाप्रसाद.
सभा के ठीक बाद जब सब जाने लगे, तो उनकी आवाज़ गूंजी-
" छतरपुर से यदि वंदना अवस्थी यहां आ चुकी हों, तो कृपया मंच के पास आयें."
मैं मंत्रमुग्ध सी मंच के पास पहुंची.
"तुम हो वंदना? राजीव ने तुम्हारी बहुत तारीफ़ की है. अब तुम्हें उसकी तारीफ़ और यक़ीन का मान रखना है, जाओ खुश रहो, रात में खाने पर मिलते हैं, तब बात होगी."
मतलब राजीव जी ने मेरे बारे में कमला जी को बता दिया था. लगा ज़िम्मेदारी बढ गई अब तो.
अगले दिन से शिविर तीन सत्रों में शुरु हो गया. अनेक मूर्धन्य साहित्यकार, कहानीकार शिविर में थे. शशांक,
चित्रकूट रचना शिविर में डॉ. कमलाप्रसाद जी ने मेरी डायरी में लिखा-" अनुभव को दृष्टि मिल जाये, अध्ययन से उसे व्याप्ति दे सको और कहानी के कौशल को लगातार हासिल कर पाओ, तो तुम्हारी कहानियां बेजोड़ हो सकती हैं" ये पन्ना पहले मूल्यवान था, अब अमूल्य है.
शैवाल, स्वयंप्रकाश, अब्दुल बिस्मिल्लाह, अक्षय कुमार जैन, मायाराम सुरजन, और अन्तिम दिन डॉ. नामवर सिंह भी. लगभग सभी किसी न किसी सत्र में ग़ायब रहते थे, लेकिन कमलाप्रसाद जी? लंच के बाद फिर सभागार में आ जाते, और हम नौसिखियों की समस्याएं सुलझाते. आठ समूहों में हम सब को बांट दिया गया था, और एक कहानीकार हमारा लीडर बनाया गया था. हम अपने लीडर से उतनी बात नहीं करते थे, जितना खुल के कमला जी से करते थे.
शिविर समापन के दो दिन पहले नव कथाकारों की कहानियों का पाठ होना था, और श्रेष्ठ कहानी का चयन भी.
मैं लॉबी में अपनी कहानी ले के बैठी थी. अन्त कुछ जंच नहीं रहा था. मन ही नहीं भर रहा था मेरा. तभी कमला जी आये और मेरे पास बैठ गये. बोले- " क्या बात है? कहानी लिख ली? परेशान हो?"
मैने परेशानी बताई, तो पूरी कहानी एक सांस में पढ गये, बोले अन्त में नायिका जहां अपनी चोटी लपेटने लगी है, वहां उसे खुला लहराने दो. विरोध दर्शाने दो चोटी के रूप में."
अवाक देखती रह गई मैं. बस ऐसा ही कुछ तो चाहती थी मैं! कितनी आसानी से बता गये कमला जी! अगले दिन मेरी यही कहानी" हवा उद्दंड है" शिविर में सर्वश्रेष्ठ घोषित की गई.
30 अप्रैल 1986 में होने वाली यह मुलाक़ात बाद में नियमित होने लगी, कभी प्रगतिशील लेखक मंच की बैठकों में, तो कभी इप्टा के बहाने. बाद में सतना आ गयी, लेकिन सुयोग यह कि, उस वक्त कमला जी अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा में पदस्थ थे. उनका सान्निध्य और भी अधिक मिलने लगा.
मेरा और कमला जी का 25 वर्षीय स्नेहिल रिश्ता है. इस दौरान कितना कुछ घटा, कितना कुछ सीखा....बहुत सारी घटनायें हैं, यादें हैं, यहां तो बस उनसे पहली मुलाक़ात का ज़िक्र किया है, क्योंकि कमला जी के जाने के बाद बस उनसे हुई पहली मुलाक़ात ही याद आ रही है.... उनके वो शब्द याद आ रहे हैं, जो चित्रकूट में उन्होंने मेरी डायरी में लिखे...
ये अलग बात है कि मन अभी भी ये मानने को तैयार नहीं है, कि कमला जी नहीं हैं अब.... ऐसे नहीं जा सकते आप.

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

जय हो................


अन्ना, हम तुम्हारे साथ हैं........

लिखते-लिखते-
जीते अन्ना-जीता देश......जय हो