शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

तमाम औरतों की पीड़ा है –“जानो तो गाथा है”

जानो तो गाथा है…….. पुष्पा दी का ये उपन्यास जब हाथ में आया तो बहुत देर तक मैं इस शीर्षक को ही देखती रह गयी.. कई बार पढा. हर बार इस शीर्षक ने नया अर्थ दिया, नये भाव पैदा किये और नये सिरे से पढने को उद्वेलित किया. बहुत कम ऐसे शीर्षक होते हैं, जो बरबस पाठक को अपनी ओर खींचते हैं.  “जानो तो गाथा है” ऐसा ही करिश्माई शीर्षक है.
 “रुदादे इश्क/बेदादे शादी” की मेरे द्वारा की गयी समीक्षा पढने के बाद पुष्पा दी ने मेल किया. “ वंदना, तुम्हारी समीक्षा पढ के उम्मीद बंधी है, कि तुम निष्पक्ष समीक्षा करोगी.”  मेरे लिये ये बहुत बड़ा कॉम्प्लिमेंट था. किताब मुझे मई के पहले हफ़्ते  में ही मिल गयी थी. लेकिन इस किताब के पहले भी कुछ किताबें पहुंच चुकी थीं, जिन पर मुझे अनिवार्य रूप से लिखना था.  सो, इस किताब पर लिखना पिछड़ता गया.
मौसी….ज्ञानो…यानि ज्ञानवती पांडे. जी हां यही हैं इस उपन्यास की केन्द्रीय पात्र. ’जानो तो गाथा है’ पांडे परिवार की ऐसी गाथा है, जिसमें तीन पीढियों के दर्शन होते हैं, लेकिन मुख्यतया एक ही पीढी की जीवन शैली पाठकों तक अपने समग्र रूप में पहुंचती है. ये वो पीढी है, जिसमें ज्ञानो मौसी बड़ी हुईं, ब्याही गयीं, और फिर मौसी के अपने जीवन के तमाम रंग इस घर की चहारदीवार में बेरंग होते गये. पाठक पूरे समय लेखिका के साथ-साथ इस घर के कोने-कोने का दर्शन करते चलते हैं. घर और उसमें रहने वालों का चित्रण पुष्पा जी ने इतनी बारीक़ी से किया है, कि कई बार लगता है- यदि इनमें से कोई भी सामने आ जाये तो तुरन्त पहचान लिया जाये. बहुत जीवंत चित्रण है, पात्रों का. वैसे भी इस उपन्यास में वर्णित तमाम पात्र केवल पात्र नहीं लगते, बल्कि हमारे परिवार का हिस्सा सा बन जाते हैं.
उपन्यास की ख़ासियत है इसका स्त्री प्रधान होना. एक ही समय में कई स्त्रियों के जीवन और उनके अन्तर्मन की सूक्ष्म निरीक्षण पुष्पा जी ने किया है. ज्ञानो मौसी का व्यक्तित्व चमत्कारी है. वे परम्पावादी हैं, लेकिन रूढिवादी नहीं. तमाम वर्जनाओं का उपहास उड़ाते हुए उनके वाक्य पूरे उपन्यास में जहां-तहां बिखरे पड़े हैं. औरत के लिये बनाये गये थोथे नियमों की वे उस काल विशेष में भी भर्त्सना करती दिखाई देतीं हैं, जिस काल विशेष में औरत परम्पराओं को ले के भीरू हुआ करती थी. विपरीत परिस्थितियों ने मौसी को भीरू नहीं, बल्कि रूढि विरोधी बना दिया. घर में हर तरह की सुख सुविधाप्राप्त मौसी अन्तिम क्षण तक पति प्रेम के लिये तरसती रहीं. एक हूक ले के वे इस संसार से विदा हुईं. यानि प्रेम की कोई उम्र नहीं होती. जिसे प्रेम मिलता है, वो चिर प्रेमी बना रहता है, और जिसे नहीं मिलता, उसकी प्रेम पाने की आकांक्षा चिर युवा रहती है.
उपन्यास में केवल ज्ञानो-कथा नहीं है. ज्ञानो के समानान्तर कई अन्य महिलाओं की व्यथा भी पुष्पा जी ने बहुत खूबी से उकेरी है. एक प्रकार से इस उपन्यास को एक ऐसा उपन्यास माना जाना चाहिये , जिसमें कई पीढियों की महिलाओं की लगभग एक जैसी व्यथाएं सामने आई हैं.  यानि समय बदला है, महिलाओं की व्यथा नहीं बदली…. एक स्थान पर पुष्पा जी लिखती हैं-
खुले मैदान में बैठी ढेर सी दुखी चेहरों वाली औरतें, बिन्दी, सिन्दूर लगाये कहती हुई दिखती हैं- “ कुछ नहीं बदला….कुछ भी नहीं बदला कपड़ों के सिवा, हम वैसी की वैसी हैं.”
उपन्यास में, ज्ञानो मौसी, रामा नानी, अजिया, बत्तो, दिदिया, जैसे अनेक नारी पात्र हैं, जिनकी व्यथा तो उन की अपनी है, लेकिन लगती तमाम औरतों की है. रामा नानी की व्यथा देखें-
’रामा नानी ने एक बार ससुराल छोड़ दी तो वहां झांकने नहीं गईं. थूक गुटक गुटककर वे अपने मन को ही गुटकती रहीं.”
’बप्पा की तीसरी पत्नी थी अजिया. ब्याह होते ही कौमार्य और कोखमयता के बीच खड़ी रति-आतुर नव यौवना यक ब यक सात बच्चों की मां कहलाने लगी. अजिया कहतीं- "औरत की ज़िन्दगी लिये गंगा बहती है. मां बाप की गंगोत्री से निकल कर ससुराल के संगम में पीढियों को समेटे. ये बच्चे जिस मां की कोख के स्नेह से उपजे हैं, मैं उस कोख को अपना चुकी हूं. इन बच्चों की ज़िन्दगी में मेरे स्नेह जल की कभी कमी नहीं होगी.”
उपन्यास की कथा, कानपुर के कर्मकांडी कान्यकुब्ज परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है. कान्यकुब्ज ब्राह्मणों  की तमाम मर्यादाएं/वर्जनाएं खूब विस्तार से लिखी गयी हैं.
“कान्यकुब्ज ब्राह्मण वंश का इतिहास रटाना नाना की दिनचर्या में शामिल था. नाना बड़े गर्व से बताते कि हमारे परनाना रामेश्वर दत्त कठोर कर्मकान्डी ब्राह्मण थे. “
जैसे तमाम वाक्य  उस समय के ब्राह्मणवाद को पुष्ट करते हैं, जिस काल विशेष का खाका कथा में खींचा गया है.
उपन्यास अपनी रोचकता के साथ-साथ कहीं-कहीं व्यक्ति या परिवार विशेष की जानकारी देते हुए जब विस्तार पा जाता है, तो  बोझिल हो जाता है. पात्रों की अधिकता भी पाठकों को संशय में डालती है. इस उपन्यास में इतने पात्र हैं, कि सब आपस में गड्ड-मड्ड होने लगते हैं. पात्रों की अधिकता पाठक को उलझाती है. किसी अन्य पात्र की कथा के बाद मौसी का ज़िक्र आता है तो हर बार पात्रों और उनके रिश्ते को जानने के लिये आगे के पन्ने पलटने पड़ते हैं. जबकि मुझे लगता है कि पुष्पा जी चाहें, तो अपने हर नारी पात्र पर एक अलग उपन्यास लिख सकती हैं.
पुष्पा जी की लेखनी सशक्त है. वे इस उपन्यास के ज़रिये लेखन की जिस ऊंचाई को छूती हैं, उसे आज के कथाकार तमाम कोशिशों के बाद भी नहीं छू पाते.  उपन्यास का अधिकान्श भाग, अवधी/कनपुरिया आंचलिक बोली में लिखा गया है. आंचलिक भाषा हमेशा कथा को न केवल विश्वसनीय बनाती है, बल्कि उपन्यास के माध्यम से बोली को ज़िन्दा भी रखती है. अन्य स्थानों पर बोली का प्रचार-प्रसार भी किसी उपन्यास/कहानी  के माध्यम से बेहतर तरीक़े से होता है. उपन्यास न केवल  रोचक है, बल्कि स्त्रियों की ऐसी तक़्लीफ़ों को उजागर करता है जिस ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता. सब भाग्य की बात मान लेने के कारण औरत का दुख कितना निजी हो जाता है, ये इस उपन्यास में बखूबी उभर कर आया है. सन २००१ में , आधार प्रकाशन से प्रकाशित इस उपन्यास के फ़्लैप पर साहित्यविद नरेश मेहता ने विशेष टिप्पणी की है. ३०० पृष्ठ के इस उपन्यास की कीमत २५० रुपये है. उपन्यास बेहद रोचक है, इसे अवश्य पढा जाना चाहिये.
उपन्यास: जानो तो गाथा है
लेखिका: पुष्पा तिवारी
प्रकाशक: आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, एस.सी.एफ़. 267, सेक्टर-16
पंचकूला- 134113
मूल्य: 250/
ISBN: 81-7675-039-5


शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

औरत से “व्यक्तित्व” में तब्दील होने की कथा है: कांच के शामियाने

कुछ संयोग यादगार होते हैं. रश्मि की किताब को सबसे पहले बुक करने और फिर उस किताब का सबसे पहले मुझे ही मिलने का संयोग भी ऐसे यादगार संयोगों में से एक है. “कांच के शामियाने” मेरे हाथों में सबसे पहले आई, लेकिन पढी सबसे पहले मेरी सास जी ने. उसके बाद  कुछ ऐसा सिलसिला चल निकला कि चाहने के बाद भी  किताब पर अपनी टिप्पणी लिखने का मौका टलता गया. इधर निवेदिता (निवेदिता श्रीवास्तव), रंजू (रंजू भाटिया), वंदना जी(वंदना गुप्ता) और साधना जी(साधना वैद) इस पुस्तक के बारे में लिख चुकी थीं. अब तो गिल्ट के मारे मेरी डूब मरने जैसी स्थिति हो रही थी. लगा, रश्मि क्या सोचती होगी!! पहले तो बड़ा हल्ला मचाये थी,- कब छपवाओगी? क्यों नहीं छपवा रहीं? कब तक आयेगी? और जब आ गयी तो चुप्पी साध गयी. खैर… देर आयद दुरुस्त आयद की तर्ज़ पर मैने अब “कांच के शामियाने” अपने साथ रखनी शुरु की. स्कूल जाती तो किताब हाथ में होती. नतीजा ये हुआ, कि अगले दो दिनों में ही उपन्यास पढ डाला.  दोबारा पढना कहूंगी क्योंकि इस उपन्यास को हम रश्मि के ब्लॉग  पर पहले ही पढ चुके हैं. बल्कि यूं कहूं, कि इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया की  कई बार हिस्सेदार भी बनी. तो “कांच के शामियाने” से अलग सा ज्जुड़ाव होना लाज़िमी था.
“कांच के शामियाने” कहानी है एक ऐसी लड़की की, जिसने बेहद लाड़ प्यार के बाद असीमित धिक्कार पाया. यानि दोनों ही अपरिमित. उपन्यास की केन्द्र जया की व्यथा-कथा है ये. एक ऐसी व्यथा-कथा, जिसे पढते हुए कई जयाएं अनायास आंखों के सामने घूम जाती हैं. आये दिन खाना बनाते हुए जल के मरने वाली बहुओं की तस्वीरें सामने नाचने लगती हैं. कुछ ऐसी महिलाएं याद आने लगती हैं, जिनके बच्चे किशोर हो रहे हैं, तब भी पति महोदय जब तब पिटाई का शौक़ पूरा करते हैं, उन पर हाथ आजमा के.
पढते-पढते कई बार जया पर गुस्सा आता है. क्यों की उसने शादी? क्यों नहीं उसके प्रस्ताव को टके सा फेर दिया? क्यों सही उसकी मार? हाथ पकड़ के दो थप्पड़ क्यों न लगा दिये? जानते हैं, ऐसे सवाल मन में कब आते हैं? तब, जब आप पात्र के साथ पूरी तरह जुड़ जाते हैं. हाथ में पकड़े उपन्यास के साथ-साथ चलने लगते हैं और यही किसी भी कहानी या उपन्यास की सबसे बड़ी सफलता है कि पाठक उस के साथ ऐसा जुड़ाव महसूस करे कि पात्र की कमियों पर उन्हें गुस्सा आने लगे तो खूबियों पर प्यार. पढते-पढते मन सोचता है कि- “काश! मैं वहां होती तो जया के साथ कोई दुर्व्यवहार न होने देती” कितना बड़ा जुड़ाव है ये पात्र के साथ!! लेखिका कमरे में जया को बाद में ले जाती है, पाठक पहले ही दहशत में भर जाता है कि पता नहीं अब कौन सा गुल खिलायेगा राजीव…
जया के साथ पाठक का इस क़दर जुड़ाव हो जाता है कि घर में उसकी तरफ़दारी करने वालों के प्रति भी मन में प्यार उपजने लगता है. मैने तो कई बार काकी और संजीव को धन्यवाद दिया. मैं निश्चित तौर पर कह सकती हूं, कि यही भाव तमाम अन्य पाठक/पाठिकाओं के मन में भी आया होगा.
उपन्यास में जया को जिस क़दर रश्मि ने जिया है, उससे लगता ही नहीं कि ये तक़लीफ़ किसी पात्र की है.. लिखते हुए जैसे रश्मि , जया में तब्दील हो गयी… पूरी तरह से रश्मि ने जया को जिया है, ये एक-एक शब्द, हर एक घटना की सजीवता से ज़ाहिर होता है. जया की छोटी-छोटी सी चिंहुक, उसकी दहशत पाठक के भीतर भी उतारने में सफल हुई है रश्मि.
पढते हुए शायद ही किसी के मन में आये कि- हुंह, राजीव जैसे पात्र भी होते हैं कहीं! होते हैं. तमाम राजीव समाज में बिखरे पड़े हैं. ऐसे राजीवों की वजह से ही औरतों की दुर्दशा है. खासतौर से उन औरतों की , जो जया की तरह आत्मनिर्भर नहीं हैं.  जिनमें प्रतिकार का हौसला कम और बर्दाश्त करने की क्षमता ज़्यादा है.
“रोज़ रात में मां की नसीहतें सुन सुन के उसका दिमाग़ भन्ना जाता. स्त्री जाति में जन्म क्या ले लिया, अपने जीवन पर अपना ही कोई अधिकार नहीं. हमेशा उसके फ़ैसले दूसरे ही लेंगे और उसे मन से या बेमन से मानना ही पड़ेगा. अगर मां ही साथ नहीं देगी तो वो क्या करे आखिर?”
इस स्वगत कथन में औरत का कितना बड़ा दर्द छुपा है. कुछ न कर पाने की बेबसी, अपनी ही मां के लिये परायेपन का अहसास..
उपन्यास पढते हुए बार-बार खुद से वादा करती रही- तमाम लड़कियों को नौकरी करने के बाद ही शादी करने की सलाह दूंगी, ताकि किसी को जया जैसी विवशता से दो-चार न होना पड़े.
“जब किसी का घर जलता है, तो जलते हुए घर पर प्रतिक्रिया देना सबको सहज लगता है, पर स्त्री की हिम्मत ग्राह्य नहीं होती. लोग स्त्री को अबला रूप में ही चाहते हैं. रोती-गिड़गिड़ाती औरत ताकि वे सहानुभूति जता सकें. उस पर बेचारी का लेबल लगा सकें.”
सचमुच. समाज का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी औरत को अबला के रूप में ही देखना चाहता है. तमाम कामकाजी महिलाओं को भी उनके पति और परिवार पति से कमतर ही मानना चाहते हैं.
“अब पति की बात तो माननी ही पड़ती है. आखिर उसी का खाते-पहनते हैं. कभी हाथ उठा दिया, घर से निकलने को कह दिया तो क्या. वे लोग गरम खून वाले होते हैं. पति के सामने हमेशा झुक के रहने में ही भलाई है.”
आज भी घर से विदा होती बेटी को मां-बाप, रिश्तेदार, पड़ोसी यही सीख दे के भेजते हैं कि वो ससुराल में झुक के रहे. यही झुकने का नतीजा भोगा जया ने.
उपन्यास के अन्त में जया का विद्रोह कलेजे को ठंडक दे गया. और ये सही भी है. औरत के सहते जाने का मतलब उसका कमज़ोर होना नहीं है. औरत अपने ऊपर जुल्म सह सकती है लेकिन बच्चों पर अत्याचार उसकी बर्दाश्त से बाहर का काम है और जया का विद्रोह भी बच्चों की खातिर ही सामने आया. जया की सफलता सम्पूर्ण स्त्री जाति की सफलता की द्योतक है. संदेश है औरतज़ात को, कि सीमा से ज़्यादा बर्दाश्त मत करो. बल्कि मैं तो कहूंगी कि गलत बातों को, किसी के ग़लत रवैये को कभी बर्दाश्त ही मत करो. एक शानदार उपन्यास के लिये रश्मि को बधाई. उपन्यास में कथ्य और शिल्प दोनों ही मजबूत हैं. क्षेत्रीय बोली का पुट उपन्यास को ज़्यादा सजीव और विश्वसनीय बनाता है. सम्वाद पात्रों  के अनुकूल है. कहीं –कहीं प्रूफ़ की ग़लतियां हैं, जो उपन्यास के प्रवाह के चलते क्षम्य हैं. उपन्यास पाठक को बांधे रखता है.
 हिन्दयुग्म से प्रकाशित इस उपन्यास “कांच के शामियाने”  की कीमत १४० रुपये है. पुस्तक ऑनलाइन बिक्री के लिये “इन्फ़ीबीम” और “अमेज़न” पर उपलब्ध है.

पुस्तक : कांच के शामियाने
लेखिका: रश्मि रविजा
प्रकाशक: हिन्द-युग्म
1, जिया सराय, हौज खास,
नई दिल्ली-110016
मूल्य: 140/
ISBN:978-93-84419-19-6