रविवार, 18 अप्रैल 2010

....गांव की कुछ यादें

आज अजय कुमार झा जी की पोस्ट पढ़ रही थी, पढ़ते-पढ़ते अपना गाँव बहुत-बहुत याद आने लगा.

हमारा गाँव इसलिए क्योंकि वहां हमारे दादा-परदादा रहे. पुश्तैनी मकान, ज़मीन सब वहीं है. ये अलग बात है, कि हमें गाँव में रहने का मौका केवल छुट्टियों में मिलता था, वो भी तब तक जब तक हमारे ताऊ जी( श्री मोतीलाल अवस्थी) जीवित थे.

गाँव की याद मुझे तब से है, जब मैं पांच या छह साल की रही होउंगी. जब मैं दस साल की थी, तब मेरे ताऊ जी का निधन हो गया, और उसके बाद गाँव छूट गया.

उत्तर-प्रदेश के ललितपुर जिले में है मेरा पुश्तैनी गाँव- "गुढ़ा" अब ये गाँव , गाँव जैसा नहीं रहा लेकिन जिस समय मैंने देखा, उस समय एकदम किस्से-कहानियों जैसा सुन्दर गाँव था...... गाँव में मेरे दादा बहुत रसूख वाले थे. सो वही पुश्तैनी दबदबा ताऊ जी का भी क़ायम था. हालाँकि वे थे भी बहुत विशाल ह्रदय, परोपकारी. बहुत प्यार करने वाले. तो बड़ों के रसूख के चलते हम बच्चे भी सिर कुछ ज्यादा ही ऊंचा उठा के चलते थे.

गाँव में हमारा घर हवेलीनुमा है. इस घर के अन्दर चार आँगन और एक बड़ा सा बगीचा है. पूरा घर दोमंजिला और कहीं-कहीं तीनमंजिला है. घर के बाहर मुख्यद्वार के दोनों तरफ दो बड़े-बड़े चबूतरे, और एक शिवमंदिर. पीतल की नक्काशी वाले भारी दरवाज़े, जिन्हें खोलना हमारी ताकत के बाहर की बात थी. कमरों में झरोखे सरीखी ऐसी खिड़कियाँ , जिनमें एक आदमी के लायक बिस्तर बिछाने की गुंजाइश थी.

धीरे-धीरे इस घर के सारे लड़के नौकरी और पढाई के चक्कर में बाहर चले गए. वहां रह गए हमारे ताऊ जी और कुछ अन्य बुजुर्गजन. उस ज़माने में सगे और चचेरे जैसा भेद नहीं किया जाता था, सो हमें मालूम था, कि मेरे पापा ग्यारह भाई और एक बहन हैं. यानि मेरे दस चाचा और एक बुआ!!!!! अनन्य सुंदरी बुआ.

पूरे साल ताऊ जी अकेले गाँव में रहते, लेकिन गर्मी की छुट्टियां होते ही सबके गाँव पहुँचने सम्बन्धी , उनका फरमान जारी हो जाता. और क्या मजाल कि कोई एक भाई भी न पहुँचने की हिमाकत करे. अब सोचिये, दस चाचा, दस चाचियाँ मेरे मम्मी पापा और उन सबके ३३ बच्चे!!!!! कैसी बमचक मचती होगी? भला हो उस बड़े घर का, वर्ना कहाँ टिकते सारे लोग?

गरमी की दोपहर हम बच्चों के लिए वरदान की तरह होती थी. बड़े दीदी-भैया लोग हम छोटों के कर्णधार थे. दिन में उधर बड़े लोग सोये, इधर बच्चा पार्टी दबे पाँव घर से बाहर. कोई न कोई बैलगाड़ी खेत की तरफ जा ही रही होती , तो सारे बच्चे उस गाडी में लद जाते. बेचारा गाड़ीवान डरता-घबराता बार-बार बच्चों को न जाने के लिए मनाता आखिरकार खेतों तक ले ही जाता. और खेत............ कोई आम के पेड़ पर चढ़ के आम तोड़ रहा है, तो कोई बोरिंग के मोटे पाइप से झर - झर गिरते पानी में नहाने ही लगता . धूप और लू से बेखबर..... खेत पर काम करने वाले सारे मजदूर परेशान कि यदि दद्दा (ताऊ जी) को पता चल गया कि हम खेत पर गए थे, तो उनकी खैर नहीं. शाम को बड़े लोग जागें, उसके पहले ही सारे बच्चे घर में व्यवस्थित हो जाते.
शाम को ताऊ जी साए बच्चों को घेरे में बिठा के गीत गवाते-
हे भगवान्, हे भगवान्
हमको दो ऐसा वरदान
विद्या और कला हम सीखें,
करें जगत में कार्य महान.

पकाने की लिए तैयार आम जब घर में लाये जाते , तो देखने लायक माहौल होता. गाड़ियाँ भर-भर के आम....... नीचे वाला एक लम्बा सा कमरा , जो खासतौर से आम के लिए ही था, बढ़िया से तैयार किया जाता. नीचे पत्ते बिछाए जाते, आम पूरे कमरे में भर दिए जाते और उन्हें बढ़िया से पत्तों से ढँक दिया जाता. आम के शौक़ीन मेरे दादा ने आम की कई किस्में अपने बगीचे में लगवाईं थीं.

उधर आम कमरे में भरे जाते, इधर हम बच्चे उनके पकने का इंतज़ार करने लगते. रोज़ कमरे के दरवाज़े पर लटकते ताले को देखते.....पकते हुए आमों की खुशबू लेते. और जब आम पक जाते तब तो क्या कहने....रोज़ आम की दावत होती.
तरह- तरह के खेल खेले जाते, जिनमें बड़े भी शामिल होते. रात को छत पर सबके बिस्तर लगते, और ताऊ जी कहानियाँ सुनाते........ सात बहन चंपा, सोनजुही, और भी पता नहीं कितनी कहानियां...................

गाँव अब पहले से गाँव नहीं हैं. हमारे गाँव की ही तस्वीर बदल गई है. वहां सड़कें, बिजली, अस्पताल, स्कूल, इंटर कॉलेज, बसें, बाज़ार सबकुछ है. खेत सिमट गए हैं. बस्तियां बढ़ गईं हैं. कमोवेश यही तस्वीर अधिकांश गाँवों की है अब.

ये अलग बात है कि अभी भी बहुत से गाँव , जो जिला मुख्यालय से दूर हैं, मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं. उनका विकास होना ही चाहिए, लेकिन मेरा स्वार्थी मन तो देखिये, बीस साल पहले गाँव गई थी, और वहां शहरी संस्कृति का प्रवेश देख खुश नहीं हो सकी थी, मेरी आँखें उसी पुराने गाँव को ढूंढ रहीं थीं, जहां दूर तक फैले खेत, हरियाली , पेड़ों की घनी छाँव, और उन लोगों को , जो दूर से पहचान के दौड़े चले आते थे, ये कहते हुए कि "अरे नन्हें दद्दा ( मेरे पापा) आ गए....... "

69 टिप्‍पणियां:

  1. आप का यह संस्मरण हमें भी अपनी नानी के घर ले गया. बहुत बढ़िया लगा. सच कहा..अब गाँव में वो बात नहीं रही.

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  2. waah vandana ji...
    aapne to hume bhi apne gaanv ki yaad dila di...
    bahut hi sundar prastuti...

    http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/

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  3. मै भी भटक गई उन्ही गली- कूचों मे ....आभार ।

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  4. बहुत सुन्दर
    गाँव तो हमें भी याद आने लगी. डेढ़ वर्ष जो हो गये गाँव गये हुए. जाने का प्रबन्ध करता हूँ फिर मैं भी अपने गाँ का हाल बताता हूँ.

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  5. वाह..वाह..!
    आपने हमारे मन में भी गाँव की यादें ताजा कर दीं!

    इस पोस्ट का तो कल के चर्चामंच के लिए चयन कर लिया है!

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  6. वंदना इतने भावपूर्ण तरीक़े से कैसे लिखती हो ,
    बहुत सुंदर!
    लगा कि अपने गांव के घर में आंगन में बैठ कर आम का मज़ा ले रहे हैं ,जहां बाल्टियों में भिगाए गए आम जी भर कर खाए जाते थे
    मेरे मन में तो इतने परिवर्तन के बाद भी गांव की वही छवि है.
    धन्यवाद ,ग्राम दर्शन के लिए

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  7. आपनें,मन से ,डूब के लिखा है..बहुत अच्छा लगा यह.

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  8. आपका संस्मरण पढ़कर मुझे भी कुछ याद आ गया .....
    अच्छी पोस्ट

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  9. वाह..... आपकी बचपन की यादों ने तो मन मोह लिया ......!!

    उधर आम कमरे में भरे जाते, इधर हम बच्चे उनके पकने का इंतज़ार करने लगते. रोज़ कमरे के दरवाज़े पर लटकते ताले को देखते.....पकते हुए आमों की खुशबू लेते.

    अहा.....क्या दिन रहे होंगे .....आम और पनियल के पेड़ों पर तो हम भी चढ़ा करते थे .....और एक चीज ...जमीं के अन्दर एक तरह का कंद होता है कुछ कुछ मूली सा ....उसे भी निकाल कर खाते थे .....!!

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  10. बड़ी खूबसूरती से यादो को संजोया है...वो धूप में बगीचे में धमाचौकड़ी ..वो छत पर किस्से सुनने का दौर....आमों की तीव्र सुगंध से गमकता कमरा ...ये पोस्ट पढ़ कहीं...बहुत पीछे चले गए हम..मैंने भी बहुत सारी छुट्टियां गुजारी हैं गाँव में..सारी स्मृति ताज़ी हो आई...शुक्रिया याद दिलाने का..

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  11. वाह !!!!!!!!!बड़ा ही मनोहारी लगा ये संस्मरण. हमें भी गाँव तो नहीं पर अतीत की सैर पर जरुर ले गया वाकई मजा आ गया

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  12. गाँव की यादों से जोड़ कर लिखी गयी आपकी पोस्ट बहुत ही बेहतरीन है.......! ऐसा लगा की यह पोस्ट सिर्फ आपके गाँव -घर की ही कहानी नहीं है....हम सब की यही कहानी है....आपकी पोस्ट के सहारे हम भी अपने गाँव की यादों में खो गए..

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  13. प्रेरक संस्मरण। मुझे भी प्रेरित कर गया कुछ अपने गांव के बारे में लिखने को।

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  14. गाँव की यादों से जोड़ कर लिखी गयी आपकी पोस्ट बहुत ही बेहतरीन है.......! ऐसा लगा की यह पोस्ट सिर्फ आपके गाँव -घर की ही कहानी नहीं है....हम सब की यही कहानी है....आपकी पोस्ट के सहारे हम भी अपने गाँव की यादों में खो गए..

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  15. गाँव की यादों से जोड़ कर लिखी गयी आपकी पोस्ट बहुत ही बेहतरीन है.......! ऐसा लगा की यह पोस्ट सिर्फ आपके गाँव -घर की ही कहानी नहीं है....हम सब की यही कहानी है....आपकी पोस्ट के सहारे हम भी अपने गाँव की यादों में खो गए..

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  16. इस महानगरीय नामक राक्षस ने सब कुछ लील लिया है ... पुरानी बातें, गाँव, आपसी प्यार सब कुछ थोड़े दिनों में किताबी बातें बन कर रह जायंगी .... आपका संस्मरण बहुत कुछ याद कराता है की हमने क्या क्या खो दिया है इस दौड़ में ....

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  17. आप का यह लेख भी मुझे मेरे गांव मै खींच कर ले गया, वो गांव आज भी है बस हम मै से अब वहां कोई नही रहता, बहुत सुंदर चित्र खिचा आप ने अपने गांव का, धन्यवाद

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  18. अब तो गावों की तस्वीर बदल गयी है...
    परन्तु मूलभूत सुविधाओं से वंचित है अब भी.

    संस्मरण, पुराने दिनों में लौटा ले जाता है.
    व आम के बाग़ और मटर के खेतों में मीठी मटर खाना...दादी के हाथों का बना ताज़ा मठ्ठा!:).....

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  19. आपकी यह रचना हमे गांव की याद दिला दी ! खास कर ननिहाल की याद ! बहुत दिन हो गए मैं वहां नहीं जा पाया हूँ ! अंतिम बार गया था जब नानाजी गुजार गए थे ! अब नानी की उम्र हो चली है ! बहुत जी करता है कि एकबार जाऊं और फिर उन्ही गलियों में घूम आऊं !

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  20. वंदना जी, गांव की याद का ऐसा वर्णन, कि अतीत आंखों के सामने ही तैरने लगा. आपको अपनी इस विशिष्ट शैली के लिये बधाई.
    गांव का ज़िक्र होते ही मुझे अपनी ये ग़ज़ल बरबस ही याद आ जाती है-
    वो ज़मीं वो आसमां वो चांद-तारे गांव में.
    देखिये जाकर कभी दिलकश नज़ारे गांव में.

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  21. बहुत अच्छा वर्णन किया है , गाँव की जिंदगी का ।
    सबके साथ ऐसा ही है । सारी ज़मीन जायदाद छोड़कर शहर में बस गए हैं । गाँव तो बस एक ख्वाब सा ही लगता है ।
    लेकिन हमारा गाँव तो दिल्ली में होते हुए भी अभी तक गाँव ही है ।

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  22. waah kya kahne ,maza aa gaya is varnan ko padhkar ,aam waale kisse to hamari jindagi se bhi jude huye hai ,hum sabhi jab bhi garmiyon me jaate gaon to khat ke neeche aam ka bichhona avashya milta aur poore ghar me uski khushboo .mamaji to bagaan me le jakar ped par baitha dete aur aam pakda kar kahte jee bhar kar khao .malda langda aur dashahari ke saath kitne kism ke aam lage hote bagan me aur unki mithi hawa man ko taro taaza kar deti thi ,sach wo nazara ab swapn sa pratit hota hai .jee cha raha hai kahti rahoon purani yado ko is manmohak post par ,pichhli kitni yaado ko kured rahi hai tumahari apni baat ,bha gayi lubha gayi .apni baat sabki baat .

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  23. suman ji ne nice aam ke liye kaha hai ya post ke liye ye clear nahi hua .shayad sabhi hi........
    shahid ji ne gazal ki do line jo kahi wo bhi umda lagi .sach haseen nazare hi hote rahe .

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  24. गर्मीं की छुट्टियों की याद मत दिलाइये , हमसे बर्दाश्‍त नहीं होता । और आप लिखती भी ऐसे हैं कि बस जैसे टाइम मशीन में डाल के अतीत में ही पहँचा दे कोई । अब कहां बच्‍चे उस तरह आम साम के नीचे जाते हैं

    उ अँग्रेजी में क्‍या कहते हैं .. बडा ही नॉस्‍टैल्‍जिक लेखन करती हैं आप

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  25. वन्दनाजी,
    आपका ग्राम्य-संस्मरण पढ़कर मैथिलीशरणजी की एक काव्य-पंक्ति अंतर में गूँज उठी--
    'अहा ! ग्र्म्य-जीवन भी क्या है !!
    इन मीठी यादों को कोई कभी भुला सकता है क्या ? आपका गाँव तो मैं भी देख आया हूँ--दो-तीन बार ! आपकी तफसील में जो दृश्य दीखता है, वह मेरी स्मृति में नहीं मिलता... ठीक कहा है आपने, पिछले २०-२५ सालों में बहुत कुछ बदल गया है; लेकिन बेचारे मन का कोई क्या करे, जो अतीत से विलग होने का हठ नहीं छोड़ता ! "ऊधो ! कहि न जाई का कहिये..."
    ह्रदय को स्पर्श करती सुन्दर प्रस्तुति !!
    सप्रीत--आ.

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  26. मेरा स्वार्थी मन तो देखिये, बीस साल पहले गाँव गई थी, और वहां शहरी संस्कृति का प्रवेश देख खुश नहीं हो सकी थी, मेरी आँखें उसी पुराने गाँव को ढूंढ रहीं थीं, जहां दूर तक फैले खेत, हरियाली , पेड़ों की घनी छाँव, और उन लोगों को , जो दूर से पहचान के दौड़े चले आते थे, ये कहते हुए कि "अरे नन्हें दद्दा ( मेरे पापा) आ गए....... "
    ..... Yahi ek dard aksar mere man mein uthta hai jab mein gaon jaatee hun ki kyon akhir shahari hawa lag gayee gaon ko!!!.......

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  27. मैं अक्सर ऐसी पोस्टों पर देर से क्यों पहुंचता हूं आज तक समझ ही नहीं पाया । आपने इतने सुंदर तरीके से लिखा है कि मन को सुकून मिला इस पोस्ट को पढ कर । सब कुछ चलचित्र की तरह आंखों के सामने से घूमता चला गया और हम भी उसका हिस्सा बने हुए थे । बहुत ही रोचक शैली में लिखा गया संस्मरण ।

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  28. भई, गलती हो गई ! मेरी टिपण्णी की अंतिम पंक्ति को इस रूप में पढ़ें : "...जो अतीत से विलग न होने का हठ नहीं छोड़ता !" बीच में एक 'न' जोड़ लें प्लीज़ !
    --आ.

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  29. मुझे भी जब गाँव आता है तो बहुत नौस्टेल्जिक हो जाती हूँ. हमलोग भी बचपन में छुट्टियों में गाँव जाते थे, फिर रिटायर होने के बाद पिताजी ने वहीं शिफ़्ट कर लिया...मेरे गाँव में बिजली तो बहुत पहले आ गई थी, पर आती नहीं थी, अब भी नहीं आती शायद. मैंने पिताजी के देहांत के बाद से गाँव छोड़ दिया है, अब तो बस यादें ही हैं, पता नहीं कब जाना होगा.
    आप ललितपुर की हैं...मेरी एक दोस्त के पापा वहीं पोस्टेद हैं बैंक मैनेजर हैं. वो भी बुन्देलखण्ड की है--उरई जलौन की.

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  30. गाँव एक ऐसा शब्द है की मन वही घूमने लगता है. मैं अपने गाँव तो अधिक नहीं गयी क्योंकि बाबा ने ही नौकरी के लिए गाँव छोड़ दिया था, लेकिन ननिहाल हर गर्मियों की छुट्टी में जाना निश्चित होता था. वह दिन बस अब याद रह जाते हैं. खो जाने का मन करता है की आँखें बंद करूँ और फिर वहीं पहुँच जाऊं.

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  31. वाह वंदना जी हमें तो जैसे आपने बचपन और गावं में ही लौटा दिया ,,,,इतना जुड़ता चल गया एक एक घटना से की की सारी पुरानी यादे ताजा हो गयी
    सादर
    प्रवीण पथिक
    9971969084

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  32. aap jis tarah se shabdo ko jeevant karti he usse aapke lekh ko padhne ka aanand aur badh jaata he. lekh padhte hue main aapke ghar ko aur un sharaarti bachchon ki tasveer ekdam saamne ubhar kar aa gai thi.
    satyendra

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  33. अब मैं भी गाँव घूमने जाउंगी...
    ________________
    'पाखी की दुनिया' में इस बार माउन्ट हैरियट की सैर करना न भूलें !!

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  34. ओह हमने तो कभी गाँव देखा ही नहीं, पर दिली तमन्ना है कि गाँव देहात में जाकर रहें।

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  35. हाँ वन्‍दना जी आपके ब्‍लाग पर पहले नहीं आयी। क्‍यों नहीं आयी इसका मुझे मालूम नहीं। मैं तो ब्‍लागवाणी की हॉट सूची देखकर ही जाती हूँ या फिर मनपसन्‍द का विषय होता है तब उस पर चले जाती हूँ। लेकिन आपकी इतनी सुन्‍दर पोस्‍ट मुझसे क्‍यूं छूटी? मैं यही जानना चाहती थी कि एग्रीगेटर के अलावा भी क्‍या उपाय है। क्‍योंकि एग्रीगेटर की हॉट सूची में तो धर्म छाया हुआ है। आपका गाँव और आम दोनों ही ललचा रहे हैं। बढिया लेखन है।

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  36. सच कहा आपने गाँव अब वो गाँव नहीं रहे...सब का शहरीकरण होता जा रहा है...गाँव की वो छवि जो एक दशक पहले थी वैसी अब रही नहीं...आपकी पोस्ट से बचपन की यादें ताज़ा हो गयीं...
    नीरज

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  37. aapni jameen se judi yaado se moh kabhi nahi chhttachahe ham kahi bhi chale jaye. tabhi to hamaapne bachcho se bade thasak ke saath kahte hai ki tumne dekha hi kya hai.tab gaon ki mouj masti ki baat hi alag hati thi ab vo baat nahi rah gai hai.
    poonam

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  38. अपने बचपन की याद आ गयी वाकई ..आज कल के बच्चे इस को नहीं समझ पायेंगे और न ही वो गांव रहे ..

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  39. Tuhaadde pid diyan yaadaan mainu vadhiyan lageen! Isto pehle filman wich hi gaanv vekhe seege!
    Vadhaiyaan!

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  40. गांव की राजनीति गर छोड़ दी जाए तो गांव, गांव ही हैं.

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  41. hindi mein naa likh paane ke liye maafi....


    pahle jab bachpan mein gaanv jaate the to sochte the ke ye hamaari delhi jaisaa kyun nahin ho jaataa....


    ab kabhi gaanv ke paas se gujarte hain to sochte hain....

    HAAY.....!!!

    ye delhi jaisaa kyun hotaa jaa rahaa hai......

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  42. किशोर भारती ने कहा…
    वंदना,
    तुम्हारा लिखा हमेशा ही मुझे अच्छा लगता रहा है. आज भी जब तुम्हारे ब्लॉग पर आया कई सुखद अनुभूतियाँ हुईं. तुम्हारे संस्मरणों में जीवन की सच्चाई है, जिसे पता नहीं क्यों आज लोग याद करने की कोशिश भी नहीं करते. बदलाव सभी मोर्चों पर हुआ है, लेकिन बदलाव की आहट-मात्र से हम अपने अतीत के उन पलों को को बिसार नहीं सकते, जिनके चलते आज हम हैं, हमारा वजूद है. मैं गाँव में, गाँव का होकर कभी रहा नहीं, लेकिन बड़े भैया की पोस्टिंग अक्सर ब्लोक में रहती थी. लिहाज़ा मैं अक्सर स्कूल की होने वाली छुट्टियों में वहां जाकर रहा करता था. वहां के गाँव की पगडंडियाँ , हरे-भरे खेत, और खासकर वहां की रातें मुझे बहुत प्रिय थीं. आकाश बिलकुल साफ और धुला हुआ नज़र आता था और उसमें भी यदि चाँद हुआ तो वो भी बिलकुल शफ्फाफ. मेरी आरम्भिक दिनों की कई कवितायेँ उन्ही क्षणों की देन हैं, हालाँकि बहुत बाद में उन्हें बचकाना मानकर मैंने नष्ट कर दिया. तुम्हारा ये संस्मरण मुझे थोड़ी देर के लिए ही सही, मुझे उन्ही दिनों में खींच ले गया.

    इधर अरसे से तुम्हारी कहानियाँ पढ़ने को नहीं मिलीं, लेकिन एक कहानी मुझे आज भी याद है, 'हवा बदहवास है'. ये पहली बार आकाशवाणी, रीवा से प्रसारित हुई थी. युवा पीढ़ी को लेकर लिखी गयी ये कहानी मुझे आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती है, जितनी तब थी.

    २४ अप्रैल २०१० १२:०६ PM

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  43. बहुत मजा आया पढ़कर ..मै कभी बचपन मै अपने गाँव नहीं गयी ..लेकिन आपका संस्मरण पढने के बाद ऐसा लगा जैसे यह मेरे घर की ही कहानी हो ...

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  44. बहुत मजा आया पढ़कर ..मै कभी बचपन मै अपने गाँव नहीं गयी ..लेकिन आपका संस्मरण पढने के बाद ऐसा लगा जैसे यह मेरे घर की ही कहानी हो ...

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  45. शुक्रिया आपकी पोस्ट का जिसके बहाने हमें भी अपने बचपन की गलियों से गुजरने का मौका मिला जो अभी भी हमारी स्मृतियों के उजड़ते-बसते नगर के किनारे कहीं बसा है..सच कहूँ तो मेरा बचपन न तो पूरी तरह शहर का हो पाया था और न ही गाँव का ..मगर इसका फ़ायदा यह रहा कि दोनो तरफ़ की अच्छी चीजों का संग मिला..और भरे-पूरे परिवार मे बचपन की धमाचौकड़ी का जो मजा आपने लिया है वह अतुलनीय है..और आज के समय मे अलभ्य भी..इन्फ़ार्मेशन-बूम मे आज का बचपन भले ही बड़ा जागरुक और सयाना हो गया हो..मगर सच कहूँ तो इस सदी के बच्चे बैलगाड़ी की सवारी, पेड़ से तोड़े आम, बोरिंग की ठंडी धार और सात बहनों की कहानी को कहीं न कहीं मिस करेंगे!!
    ..शायद तब कुछ गांधी-डायरीज बाकी रह जायें विदा हो गये दिनों के उन लुप्तप्राय सुखों की इस सनद के लिये..
    उतम और भावुक पोस्ट..शुभकामनाएं!

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  46. बेहतरीन लेखन शैली में जो शब्दचित्र आपने खिंचा है वाकई अपने बचपन की यादें दिला दी ! शुभकामनायें वंदना जी !!

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  47. मेरी आँखें उसी पुराने गाँव को ढूंढ रहीं थीं, जहां दूर तक फैले खेत, हरियाली , पेड़ों की घनी छाँव, और उन लोगों को , जो दूर से पहचान के दौड़े चले आते थे..Apka yah sansmaran sukun deta hai..abhar !!

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  48. सुंदर संस्मरण । आम पकाने और खाने का मजा ही कुछ और है ।
    हम लोग तो अभी गांव जरूर जाते हैं गर्मियों में । अभी जाने वाला हूं । कोशिश करुंगा कि मेरा बेटा भी गांव से जुड़ा रहे ।

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  49. जैसे कोई अभिनेता उस पात्र विशेष में खुद का समावेश करके/खुद को डुबाकर उसे जीवंत बनाता है वही आपके लेखन की विशेषता है इसलिए पाठक अनायास ही उससे जुड़ता चला जाता है और लगता है जैसे उसके खुद के अनुभव को किसी ने शब्द दे दिए हैं. सिर्फ आम की बात को छोड़ दें क्योंकि हमारे यहाँ आम की फसल नहीं होती मैंने वो सब कुछ अनुभव किया है जो आपने कहा है - यादें तरोताजा करने के लिए आभार और बोलते आलेख के लिए बधाई.

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  50. मैंने आपके गाँव के बारे में सुना है !झाँसी गले की फांसी ,दतिया गले का हार! ललित पुर में तब तक रहिये ,जब तक मिले उधार !पता नही यह वही ललित पुर है ,या और ! यह आपकी जन्मस्थली नमन के योग्य है !

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  51. न गाँव में पैदा हुआ न गाँव में रहा ..लेकिन गाँव अच्छा लगता है .. वैसे तो हमारा भी पुश्तैनी गाँव है यू पी के रायबरेली में गाँव लाऊपाठक का पुरवा लेकिन अब वहाँ कोई नहीं है ।

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  52. khubsurat sansmaran..hamen bhi apne paitrik ganv ki taraf khinch le gaya...
    ***************

    'शब्द सृजन की ओर' पर 10 मई 1857 की याद में..आप भी शामिल हों.

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  53. अपना गाँव याद आ गया। बहुत ही संजीदगी से लिखा है आपने यह संस्मरण.. बधाई....

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  54. आप लिखती नहीं, जादू करती हैं. लगा जैसे सब कुछ आँखों के सामने घटित हो रहा है. पढ़ते हुए खुद भी बचपन की स्मृतियों में कब खो गया, पता ही नहीं चला.
    आप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ, फिर क्षमा चाहूँगा, फिर आप क्षमा प्रदान करेंगी ही.

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  55. संस्मरण अच्छा लगा, बचपन की यादें ताज़ा हो गयीं...
    हालाँकि कभी गाव में रहने का मौका तो नहीं मिला , पर उस ज़माने के छोटे शहरों में भी वही सुकून था .. हमें भी अपना नानका और दाद्का याद या गया ..दुःख की बात यह है की जो खूबसूरत बचपन हमने जिया है , चाह कर भी अपने बच्चों को नहीं दे सकते

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  56. आप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ, क्षमा चाहूँगा,

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  57. वाह आपकी बचपन की यादों ने तो मन मोह लिया

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  58. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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