बुधवार, 20 दिसंबर 2017
ज़मीन से जुड़ी कहानियों का संग्रह है- बातों वाली गली
मंगलवार, 12 दिसंबर 2017
बातों वाली गली- मेरी नज़र से
ये लीजिये ! इस ‘बातों वाली गली’ में एक बार जो घुस जाए उसका निकलना क्या आसान होता है ! इसकी उसकी न जाने किस-किस की, यहाँ की वहाँ की न जाने कहाँ-कहाँ की, इधर की उधर की न जाने किधर-किधर की बस बातें ही बातें ! और इतनी सारी बातों में हमारा तो मन ऐसा रमा कि किसी और बात की फिर सुध बुध ही नहीं रही ! आप समझ तो गए ना मैं किस ‘बातों वाली गली’ की बात कर रही हूँ ! जी यह है हमारी हरदिल अजीज़ बहुत प्यारी ब्लॉगर वन्दना अवस्थी दुबे जी की किताब ‘बातों वाली गली’ जिसमें उनकी चुनिन्दा एक से बढ़ कर एक २० कहानियाँ संगृहीत हैं ! सारी कहानियाँ एकदम चुस्त दुरुस्त ! मन पर गहरा प्रभाव छोड़तीं और चेतना को झकझोर कर बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करतीं !
गुरुवार, 30 नवंबर 2017
च्यूइंग गम सा चबा रही हूं कहानियों को : उषाकिरण
मंगलवार, 21 नवंबर 2017
निष्ठा की कलम से-बातों वाली गली
वंदना दी की किताब सोमेश के मार्फ़त मिली। जब से किताब के बारे में मालूम चला था, तब से ही पढ़ने के लिए उत्साहित थी। और मिली उसके कुछ दिन बाद ही पूरी किताब पढ़ ली थी। पर उस पर यहाँ लिखना कुछ व्यस्तताओं की वजह से इतनी देर से हो पायेगा, यह मुझे भी न मालूम था। सो अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने में देरी के लिए वंदना दी से क्षमाप्रार्थी हूँ।
कुछ कहानियां होती हैं जो आपके दिल को छू जातीं हैं यह किताब कुछ ऐसी ही सुंदर कहानियों का संग्रह है। सफ़दर हाशमी की पंक्तियाँ "किताबें करतीं हैं बातें" इस पुस्तक पर एकदम सटीक बैठती है। आखिर शीर्षक भी है "बातों वाली गली"। सच यह किताब पढ़ते हुए हम भूल जाते हैं कि किताब पढ़ रहे हैं बल्कि किताब खोलते ही आस पास के लोग हमसे बतियाने आ जाते हैं। लेखिका के अनुभव संसार से गुजरते हुए सारे पात्र धीरे धीरे हमारे सामने खुलते जाते हैं। हर पात्र हमें अपरिचित न लगते हुए एकदम जाना पहचाना लगता है। एक जुड़ाव सा हो जाता है पात्रों से। हर कहानी पठनीय है एकदम जिंदगी से जुडी हुई।
संग्रह की कहानियां जिंदगी के छोटे छोटे विमर्श को केंद्र में लाती हैं जो कई बार अनदेखे अनछुए रह जाते हैं। शीर्षक कहानी 'बातों वाली गली' उन स्त्रियों की मानसिकता पर कटाक्ष है जिन्हें दूसरों के घर में झाँकने और उनके बारे में अनर्गल प्रलाप में बड़ा रस मिलता है। कहानी 'बड़ी हो गईं हैं ममता जी' में सास बहू के रिश्ते का सटीक चित्रण है। सास का बहू पर इतना दबदबा रहा है कि सास के चले जाने पर भी उसे अपने बहुपने से मुक्ति असहज लगती है। उसे अब भी 'दुलहिन' पुकारे जाने की ही आदत हो गयी है। वहीं 'रमणीक भाई नहीं रहे' स्वाबलंबन का पाठ पढ़ाती कहानी है जिसमें एक पिता इतना कर्मठ है कि उसके बेटे बुढापे तक भी उसके ही आसरे व्यापार चला रहे हैं और उनके जाने के बाद परिवार तनाव में हैं कि व्यापार कैसे चलेगा।
एक माँ जो अपने को उम्रदराज स्वीकार करने को तैयार नहीं पर घर में हो रही शादी व बच्चों की लायी एक साड़ी उसे उसकी उम्र का अहसास करा जाती है। यह बात खूबसूरती से बयां की है कहानी 'दस्तक के बाद' में।
'अहसास' कहानी है संयुक्त परिवार में अपने प्रति हो रहे भेदभाव को महसूस कर उसके खिलाफ आवाज उठाने की।
साधुओं के ढोंग-ढकोसले की पोल खोलती, और अंधविश्वासों पर प्रहार करती एक बेहतरीन कहानी है 'शिव बोल मेरी रसना घड़ी घड़ी'।
इनके अतिरिक्त विरुद्ध, करत करत अभ्यास के, प्रिया की डायरी,अहसास, नीरा जाग गयी है स्त्री विमर्श के विभिन्न पहलुओं को छूती हुई कहानियां हैं।
यह किताब एक ऐसी किताब है जिसे आप शुरू करेंगे तो एक बार में ही पूरी पढ़े बिना नहीं रुकेंगे। अपने आप ही कहानी दर कहानी आपको अपने में डुबोती जायेगी। कहानियों की भाषा एकदम सहज सुगम्य, खूबसूरत आंचलिक शब्दों से गुंथी हुई है। इसलिए हम एक सांस में ही पूरी किताब पढ़ जाते हैं। यह किताब आप अपने हर दोस्त को तोहफे में दे सकते हैं। क्योंकि सभी अपने जीवन के किसी न किसी पहलू से इन कहानियों को जुड़ा पाएंगे।
सहज सरल भाषा शिल्प में गुथी इन सुंदर कहानियों के लिए वंदना दी बधाई की पात्र हैं। उनकी अगली किताब का इंतजार रहेगा।
शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2017
किस्सों वाली गली है ये - गंगाशरण सिंह
"नहीं चाहिए आदि को कुछ" एक बच्चे के मनोविज्ञान पर केंद्रित अच्छी कहानी है। गरीब घर का आदि अपनी धनवान दोस्त के सुख सुविधाओं से लैस जीवन को देखकर प्रायः दोनों घरों की तुलना करता रहता है। एक दिन किसी दुर्घटना के कारण उसका पूरा दिन अपने उसी दोस्त के घर बीतता है। अपने घर जैसा स्वच्छन्द वातावरण न पाकर वहाँ के अनुशासित माहौल में शाम होते होते वो ऊब जाता है।
इसी तरह की एक और रोचक कहानी "प्रिया की डायरी" जिसमें प्रिया का पति उसे हमेशा ताना मारता रहता है कि आखिर क्या काम करती है वो दिन भर। पूरे दिन घर को सँभालने में व्यस्त वह गृहिणी एक दिन सबसे पहले अपने लिए नौकरी ढूँढती है और फिर घर के नियमों का नया प्रारूप पति के सामने रख देती है जिनके हिस्से में इतने काम आ जाते हैं कि पहले दिन ही उनकी ट्रेन पटरी से उतर जाती है और बच्चे स्कूल ही नहीं जा पाते हैं ।
"बड़ी हो गयीं हैं ममता जी" एक मार्मिक कहानी है जिसमें घर की इकलौती बहू लम्बी उम्र तक अपनी सास द्वारा हमेशा आवाज या आदेश दिए जाने से कभी कभी झुँझला उठती है। एक दिन रात को खाना खाकर सास सोयीं तो सोती ही रह गयीं। उनके न रहने पर बहू निश्चिन्त अनुभव करती है या नहीं ये आपको कहानी पढ़कर ही मालूम हो सकेगा।
संग्रह के आख़िर में तीन लंबी कहानियाँ हैं जिनकी विषय वस्तु का निर्वाह बड़ी कुशलता और विस्तार से हो सका है।
"डेरा उखड़ने से पहले" एक ऐसे परिवार की कहानी है जहाँ पिता फक्कड़ और निश्चिन्त टाइप के हैं। लड़कियों के विवाह की फ़िक्र न तो पिता को हैं , न स्वार्थी भाइयों को। और सब तो ठिकाने लग जाते हैं पर सरकारी नौकरी कर रही सबसे छोटी आभा के सामने शेष रह जाता है एक अनिश्चित एकाकी जीवन और हमेशा कोई न कोई फायदा उठाते परिवार के लोग। और फिर.....
"शिव बोल मेरी रसना घड़ी घड़ी" धर्मभीरु जनता की भावनाओं का फायदा उठाने वाले ठगों की अनोखी दास्तान है। हमारे समाज का एक काफी बड़ा तबका ऐसा है जो धर्म के नाम पर कहीं लुट सकता है और जरूरत पड़ने पर उन्माद की सीमा भी पार कर सकता है। ऐसा ही एक वर्ग वह भी है जो हर बात में उत्सुक हो ताक झाँक करने को जीवन का आनन्द मानता है। इसी स्वभाव के चलते एक दिन वहाँ के आस्थावान लोग उस उजड़ी हवेली के बेरोजगार मनचलों को साधू मान लेते हैं और फिर उन लफंगों के हाथों लुटने का दौर शुरू हो जाता है।
"बड़ी बाई साहब" नए और पुराने मूल्यों में निरंतर पैदा होते अंतराल और एक सशक्त महिला के सामजिक और पारिवारिक वर्चस्व की मानसिकता को बखूबी बयान करती है।
वंदना जी को इस कहानी संग्रह के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ। उनकी किस्सागोई हर कहानी के साथ बेहतर होती गयी है। उम्मीद करते हैं कि अगला संग्रह बहुत जल्द हमारे सामने होगा।
शनिवार, 14 अक्तूबर 2017
सहेजना रिश्तों का....
शिशिर ने बताया की रोड के किनारे ये सामान शुक्रवार तक रखा रहता है। इस बीच यदि किसी व्यक्ति को इस सामान में से कुछ चाहिए तो वो उठा के ले जा सकता है। बाकी सामान को शनिवार को आने वाली म्युनिस्पल की गाड़ी डंप कर ले जाती है। टूटे-फूटे सामन की तरह बेरहमी से उठाते हैं और गाड़ी में पटकते जाते हैं। मेरा दिमाग तो चकरा गया। मुझे गोते खाता देख शिशिर ने बड़े प्यार से समझाया, "भाभी वे ऐसा केवल इसलिए करते हैं क्योंकि उनका मानना है की यदि नए मॉडल का टीवी आ गया है तो पुरानेटीवी को रखने से क्या फायदा? केवल जगह ही घेरेगा न वह....फिर भले ही टीवी एक साल पुराना ही क्यों न हो। हर दिन इलेक्ट्रोनिक में नया कुछ होता रहता है। नई तकनीक को आत्मसात करना ही वहां की संस्कृति है।
हमारे यहाँ जैसे नहीं की बीसों साल पुराना कबाड़ भी गले से लगाए बैठे हैं। इसलिए वहां देखिये, कुछ भी पुराना नहीं।कहीं कबाड़ नहीं। आते समय हम ख़ुद अपना सामान रोड के किनारे रख के आए हैं......."
अमरीकियों का सामान के प्रति निर्मोह मेरे लालच का कारण बन रहा था....सोच रही थी की काश मैं अमेरिका में होती तो पता नहीं कितना सामान समेट लेती.....
शिशिर की बातों से शर्मिंदा होते हुए मैंने भी सोचा की आने दो दीवाली , मैं भी वर्षों से जोड़ा गया कबाड़ बाहर करती हूँ।
अंततः दीवाली भी आ गई। मैंने पूरे जोशो-खरोश से सफाई मुहिम संभाली। माया को ललकारा-" निकालो सब सामान अलमारियों से। पता नहीं कितना कबाड़ भरा पड़ा है । फेंको सब।"
माया ने मेरी बिटिया के कमरे की अलमारियों का सामान निकालना शुरू किया- बहुत से छोटे- बड़े पर्स, अलग-अलग डिजाइनों के बैग, ज्योमेट्री बॉक्स , कुछ बड़े-बड़े पॉलीथिन बैग एहतियात से सहेजे हुए से.....कार्ड बोर्ड के बड़े-बड़े डिब्बे जो सुतली से बंधे हुए थे , जिन्हें निश्चित रूप से कई सालों से मैं ही बांधती आरही हूँ।
माया ने पूछा-" दीदी, आप देखेंगी या सब फ़ेंक देना है?" मन नहीं माना। देखना शुरू किया........लगा यहाँ तो यादें बंधी पड़ीं हैं..................
हर साल मैं विधु ( मेरी बेटी) के तमाम सामान ज़रूरत मंदों को दे देती हूँ। बाई के बच्चों को हर साल ढेरों कपडे,स्कूल बैग, जूते, खिलौने और भी बहुत कुछ, लेकिन तब भी कुछ सामन ऐसा है जो मैं सहेज लेती हूँ।
पहला बण्डल खोला, तो उसमें तमाम वे ड्राइंग निकलीं जो उसने स्कूल के शुरूआती दिनों मेंबनाईं थीं, आड़ी-तिरछी लकीरें जो पहली बार खींचीं थीं......फिर बाँध दिया उसे, ज्यों का त्यों......
दूसरा बण्डल......देशबंधु के दिनों में लिए गए तमाम हस्तियों के साक्षात्कारों वाली डायरियां जिनकी अब कोई उपयोगिता नहीं क्योंकि वे प्रकाशित हो चुके हैं,......तमाम इनविटेशन कार्ड्स....तानसेन समारोह, खजुराहो नृत्योत्सव, अलाउद्दीनखां समारोह.......नाट्य समारोह, आकाशवाणी कंसर्ट, और भी पता नहींक्या-क्या....तीसरा बण्डल.......विधु के किचेन सेट, टी-सेट, बार्बी के कपडे, .............
विधु ने कहा रखे रहनेदो.....रख दिए वापस.....चॉकलेट के डिब्बे, जिन्हें उनकी सुंदरता के कारण रखा गया था, सोच के की किसी काम आयेंगे, जो आज तक किसी काम न आ सके, फिर सहेज दिए मिठाई का एक डिब्बा जो इतना खूबसूरत था , कि न मुझसे तीन साल पहले जब आया थे तब फेंका गया, न आज फेंक सकी।
कुछ देने लायक सामान आज भी दिया, लेकिन जो सहेजा था वो वहीं रह गया.............विधु की अलमारी फिर ज्यों की त्यों सामान से भर गई थी। बस फ़र्क सिर्फ़ इतना था की हर सामान पर से धूल हटा दी गई थी। सब कुछ फिर चमकने लगा था.................
मन में कोई शर्मिंदगी भी नहीं थी, कबाड़ न फेंक पाने की। पता नहीं क्यों सामान सहेजते-सहेजते मुझे रिश्ते याद आने लगे.....................
हमरिश्तों को भी तो ऐसे ही सहेजते हैं.....जितना पुराना रिश्ता , उतना मजबूत। हमेशा रिश्तों पर जमी धूल भी पोंछते रहो तो चमक बनी रहती है......फिर ये रिश्ते चाहे सगे हों या पड़ोसी से.....लगा ये विदेशी क्या जाने सहेजना ...... न सामान सहेज पाते हैं न रिश्ते......
"दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं "