मंगलवार, 17 मई 2011

ठंडा मीठा बरियफ़.......

कल उमेश जी का ऑफ़िस से लौटते समय विधु के पास फोन आया-
"बेटू, कौन सी आइसक्रीम लानी है?"
" ऑरेंज बार"
"बस?"
"हां बस"
उमेश जी घर आये तो उनके हाथ में ऑरेंज बार का बड़ा सा डिब्बा था. आम महिलाओं की तरह मैने भी तुरन्त विपरीत प्रतिक्रिया ज़ाहिर कर
दी-
"अरे!!! इतनी सारी??"
"तो क्या हुआ? केवल साठ रुपये की ही तो हैं." उमेश जी मेरी चिन्ता भांप
गये थे, सो कीमत बता दी . आइसक्रीम खिलाने की ज़िम्मेदारी उमेश जी की है, इसलिये मुझे किसी भी तरह की आइसक्रीम की कीमत नहीं मालूम. जानने की कोशिश भी नहीं की . लेकिन आज हिसाब लगाया- साठ रुपये की बारह, मतलब पांच रुपये की एक!!! वाह! क्या बात है!! मुझे लगा एक मात्र यही आइसक्रीम है जो इतने कम दामों पर मिलती है.
आइसक्रीम से होते हुए फिर मेरा बचपन मेरे इर्द-गिर्द झांकने लगा.....
मुझे ठीक-ठीक याद
नहीं, लेकिन तब मैं बहुत छोटी थी और तीन पहिये वाली साइकिल चलाती थी. उस समय साइकिल पर बड़ा सा लकड़ी का बॉक्स बांधे, उसमें लाल-गुलाबी रंग के आइसक्रीम बार भरे आइस्क्रीम वाला आता था. दोपहर हुई नहीं, कि उसकी आवाज़ मोहल्ले में गूंजने लगती-
"ठंडा मीठा बरियफ़... मलाई वाला बरियफ़...(बरियफ़=बर्फ)"
हर घर की खिड़कियों के खुलने की आहट मिलने लगती. बच्चे चोरी-छिपे बाहर निकलते, अपनी पसंद की बरफ खरीदते, और दबे पाँव अन्दर. मुझे भी बहुत अच्छी लगती थी ये रंगीन बर्फ, कीमत भी केवल पांच पैसे. पंद्रह पैसे में मलाई वाली बरफ आती थी, जिसमें केवल ऊपर की तरफ थोड़ी सी मलाई लगी होती थी. एक और आइसक्रीम वाला आता था, जो कुल्फी बेचता था. ये भी जब पत्ते पर रख के कुल्फी काटता तो सब्र करना मुश्किल हो जाता . लगता, कितनी देर लगा रहा है, यहाँ लार टपकी जा रही...
स्कूल में जब हम थोड़ी बड़ी क्लास में आ गए, तो खर्चे के लिए रोज़ पच्चीस पैसे मिलने लगे. पच्चीस पैसे का मतलब समझ रहे हैं न आप? उस वक्त इतने पैसों में मैं बरफ, मूंगफली, बेर, गटागट, तिल-पापडी सब खरीद लेती थी. कई बार तो पैसे बच भी जाते थे . किसी दिन यदि पचास पैसे मिल गए, तब तो समझो राजा हो गए. समझ में ही नहीं आता था कि कहाँ खर्च करें इतना पैसा?
हाँ तो बात बरफ की हो रही थी...विषयांतर बहुत करती हूँ मैं, है न?
मेरी मम्मी को हम बहनों का बरफ खाना बिलकुल पसंद नहीं था. कुल्फी खाने पर आपत्ति नहीं थी उन्हें लेकिन उस बक्से वाले से बरफ लेकर खाना..... बरफ खाते हुए फंसती मैं ही थी. दीदियाँ तो फटाफट खा के ख़त्म कर देतीं थीं, मैं देर तक उस गुलाबी बरफ को चूस-चूस के सफ़ेद निकालने के चक्कर में धर ली जाती . मेरी मम्मी के समझाने
के तरीके बड़े अनोखे थे. एक दिन जब मैं चुपचाप बरफ खा रही थी, मम्मी ने देख लिया. कुछ बोलीं नहीं बस अन्दर गईं, थोडा सा नमक हाथ में लाईं और बोलीं-
" बेटा अपनी बरफ देना तो , देखो हम दिखाएँ कि इसके अन्दर कितने कीड़े होते हैं"
मैंने चुपचाप बरफ मम्मी को पकड़ा दी. उन्होंने बरफ ली, और उस पर नमक डाल दिया. थोड़ी ही देर में नमक ने बर्फ में तमाम छेद बना दिए. मुसकुरात हुए मम्मी ने मुझे देखा. मेरे मंह का पूरा जायका बिगड़ चुका था. लग रहा था जैसे तमाम कीड़े मेरे मुंह में बिलबिला रहे हैं...बड़ी देर तक कुल्ला करती रही.
उस दिन से लेकर आज तक मैंने फिर चूसने वाली बार टाइप आइसक्रीम नहीं खाई .
अब खाने की इच्छा भी नहीं होती. अभी देख रही हूँ, विधु बड़े स्वाद ले ले के ऑरेंज बार खा रही है..... नमक डाल दूँ क्या?