अगर याद करूं, तो ऐसा एकदम नहीं है कि राजेश खन्ना के जीवित रहते हुए मैने उन्हें बहुत याद किया हो, लेकिन जब वो गये, तो पिछले दो-तीन दिन बस उन्हीं को याद किया. उनके बहाने एक बार फिर बचपन के गलियारे में झांक आई :)
फ़िल्मों या फिल्मी कलाकारों में मेरी बचपन में कोई दिलचस्पी नहीं थी, शायद अधिकतर बच्चों की नहीं होती है :) लेकिन मुझे तो फ़िल्म देखने जाना भी बोझ सा लगता था, और जबरिया थोपी गयी मैं, दीदी को बोझ लगती थी :) चार-पांच साल की बच्ची को फ़िल्मों से लगाव होना भी नहीं चाहिये :) खैर हम दोनों के इस संकट को दीदी बड़ी आसानी से दूर कर देती थीं. उधर दीदी की सहेलियों के साथ मैटिनी शो देखने की तैयारी हो, इधर मुझे साथ ले जाने का मम्मी का फ़रमान जारी हो जाता :( मुझसे पूछने की ज़रूरत ही किसे थी कि मुझे जाना है या नहीं ? :( तैयार होने के बाद दीदी मुझसे कहतीं- "अगर तुम पिक्चर न जाओ, तो हम तुम्हें पांच पैसे देंगे " मुझे जैसे मुंहमांगी मुराद मिल जाती :) जाने का मन तो वैसे भी नहीं था, रिश्वत फ़्री में मिल गयी :)
फ़िल्में देखने से ज़्यादा रस मुझे दीदी के द्वारा फिल्म की स्टोरी सुनाने में आता था. मोहल्ले के तमाम बच्चों, और उनकी वे सहेलियां जो फ़िल्म देखने नहीं जा पायीं थीं, बाद में दीदी से स्टोरी सुनतीं ( पहले "स्टोरी" का मतलब केवल फ़िल्म की कहानी ही माना जाता था :) दीदी भी एक-एक सीन एक्टिंग सहित सुनातीं. जहां गाने होते, वहां बाक़ायदा गीत गाया जाता.
फ़िल्मी कलाकारों के नाम भी मैने दीदी के मुंह से ही सुने थे, और लगभग रट से गये थे. दीदी का पिक्चर जाना मेरे लिये आम बात थी. लेकिन एक दिन उन्हें अपनी सहेली से गम्भीर चर्चा करते सुना- चर्चा का मजमून ये था, कि उस वक्त जो फ़िल्म मोहन टॉकीज़ में लगी थी, उसका टिकट बढा के डेढ रुपया कर दिया गया था. पिक्चर थी- "आराधना" अब फ़िल्म देखना तो और भी जरूरी हो गया था. आखिर क्या है इसमें ऐसा, जो टिकट बढा दी गयी?? ऐसा कर रहे हैं जैसे अठन्नी की कोई कीमत ही न हो?? खैर दीदी लोग फ़िल्म देखने गयीं, और लौटी तो जैसे अपने आप में नहीं थीं. केवल और केवल फ़िल्म के हीरो की चर्चा.... हां मुझे बीच में बता दिया गया कि फ़िल्म में हीरोइन का नाम वंदना था. हांलांकि ये बताने की ज़रूरत नहीं थी, लेकिन शायद फ़िल्म में हमारे परिवार के सदस्य का नाम था, ये गौरव की बात थी, सो बताया गया :p . उसी समय मैने जाना कि फ़िल्म के जिस हीरो की चर्चा खत्म ही नहीं हो रही उसका नाम ’राजेश खन्ना’ है.
बाद में मैने देखा कि राजेश खन्ना की कोई भी फ़िल्म दीदी लोगों से नहीं छूट रही. अखबारों और माधुरी या धर्मयुग के फ़िल्मी पन्ने से राजेश खन्ना की तस्वीरें काटी जा रही हैं. ’चिंगारी कोई भड़के... तो सावन उसे बुझाये..’ गीत गाते हुए राजेश खन्ना कितने सुन्दर लग रहे थे बताया जा रहा है..... ’चल-चल-चल मेरे हाथी...." बिनाका गीतमाला की आखिरी पायदान पर....बिनाका सरताज़ गीत कितनी दूर तक सुनाई दे रहा है, ये जानने के लिये मुझे दौड़ाया जा रहा है....मैं दौड़ रही हूं, आखिर दीदी ने कोई काम बताया है, कितना गर्वित महसूस कर रही हूं :)
दीदी ने कहा सबसे अच्छा हीरो- राजेश खन्ना
मैने मान लिया कि इससे अच्छा कोई और हो ही नहीं सकता. अगली बार अपनी किसी दोस्त से कहती पायी गयी- सबसे अच्छा हीरो-राजेश खन्ना :) वो समय बड़ों को कॉपी करने का समय था ताकि हम भी बड़े दिख सकें :) जो दीदी ने कह दिया, ब्रह्म-वाक्य हो गया :)
तो वो राजेश खन्ना, जिन्हें देखे बिना मैं कहती थी- सबसे अच्छा हीरो- ’राजेश खन्ना’ अब चले गये हैं.... अपने तमाम चाहने वालों को उदास करके... विनम्र श्रद्धान्जलि.
बचपन में और भाई-बहनों को घर में छोड़, बाज़ार या पिक्चर ले जाया जाना कितना वीआईपी अहसास देता है न? मेरे एक कंजूस चाचा हमें कहीं नहीं ले जाते थे. फ़िल्म लगी थी ’ जय संतोषी मां’ चाचा देखने जा रहे थे, मुझसे पूछा बस ऐसे ही और मैं तैयार. टॉकीज़ में चाचा ने टिकट ली, हमने फ़िल्म देखी...बहुत खुश हो मैं घर लौटी . सबको चहकते हुए बताया-
" घनश्याम चाचा सबसे अच्छे हैं, एकदम आगे बिठा के पिक्चर दिखाई........... :) :) :)