रविवार, 22 जुलाई 2012

काका भी चले गये............... :(

काका भी चले गये................ :(
अगर याद करूं, तो ऐसा एकदम नहीं है कि राजेश खन्ना के जीवित रहते हुए मैने उन्हें बहुत याद किया हो, लेकिन जब वो गये, तो पिछले दो-तीन दिन बस उन्हीं को याद किया. उनके बहाने एक बार फिर बचपन के गलियारे में झांक आई :)
फ़िल्मों या फिल्मी कलाकारों में मेरी बचपन में कोई दिलचस्पी नहीं थी, शायद अधिकतर बच्चों की नहीं होती है :) लेकिन मुझे तो फ़िल्म देखने जाना भी बोझ सा लगता था, और जबरिया थोपी गयी मैं, दीदी को बोझ लगती थी :) चार-पांच साल की बच्ची को फ़िल्मों से लगाव होना भी नहीं चाहिये :) खैर हम दोनों के इस संकट को दीदी बड़ी आसानी से दूर कर देती थीं. उधर दीदी की सहेलियों के साथ मैटिनी शो देखने की तैयारी हो, इधर मुझे साथ ले जाने का मम्मी का फ़रमान जारी हो जाता :( मुझसे पूछने की ज़रूरत ही किसे थी कि मुझे जाना है या नहीं ? :( तैयार होने के बाद दीदी मुझसे कहतीं- "अगर तुम पिक्चर न जाओ, तो हम तुम्हें पांच पैसे देंगे " मुझे जैसे मुंहमांगी मुराद मिल जाती :) जाने का मन तो वैसे भी नहीं था, रिश्वत फ़्री में मिल गयी :)
फ़िल्में देखने से ज़्यादा रस मुझे दीदी के द्वारा फिल्म की स्टोरी सुनाने में आता था. मोहल्ले के तमाम बच्चों, और उनकी वे सहेलियां जो फ़िल्म देखने नहीं जा पायीं थीं, बाद में दीदी से स्टोरी सुनतीं ( पहले "स्टोरी" का मतलब केवल फ़िल्म की कहानी ही माना जाता था :) दीदी भी एक-एक सीन एक्टिंग सहित सुनातीं. जहां गाने होते, वहां बाक़ायदा गीत गाया जाता.
फ़िल्मी कलाकारों के नाम भी मैने दीदी के मुंह से ही सुने थे, और लगभग रट से गये थे. दीदी का पिक्चर जाना मेरे लिये आम बात थी. लेकिन एक दिन उन्हें अपनी सहेली से गम्भीर चर्चा करते सुना- चर्चा का मजमून ये था, कि उस वक्त जो फ़िल्म मोहन टॉकीज़ में लगी थी, उसका टिकट बढा के डेढ रुपया कर दिया गया था. पिक्चर थी- "आराधना" अब फ़िल्म देखना तो और भी जरूरी हो गया था. आखिर क्या है इसमें ऐसा, जो टिकट बढा दी गयी?? ऐसा कर रहे हैं जैसे अठन्नी की कोई कीमत ही न हो?? खैर दीदी लोग फ़िल्म देखने गयीं, और लौटी तो जैसे अपने आप में नहीं थीं. केवल और केवल फ़िल्म के हीरो की चर्चा.... हां मुझे बीच में बता दिया गया कि फ़िल्म में हीरोइन का नाम वंदना था. हांलांकि ये बताने की ज़रूरत नहीं थी, लेकिन शायद फ़िल्म में हमारे परिवार के सदस्य का नाम था, ये गौरव की बात थी, सो बताया गया :p . उसी समय मैने जाना कि फ़िल्म के जिस हीरो की चर्चा खत्म ही नहीं हो रही उसका नाम ’राजेश खन्ना’ है.
बाद में मैने देखा कि राजेश खन्ना की कोई भी फ़िल्म दीदी लोगों से नहीं छूट रही. अखबारों और माधुरी या धर्मयुग के फ़िल्मी पन्ने से राजेश खन्ना की तस्वीरें काटी जा रही हैं. ’चिंगारी कोई भड़के... तो सावन उसे बुझाये..’ गीत गाते हुए राजेश खन्ना कितने सुन्दर लग रहे थे बताया जा रहा है..... ’चल-चल-चल मेरे हाथी...." बिनाका गीतमाला की आखिरी पायदान पर....बिनाका सरताज़ गीत कितनी दूर तक सुनाई दे रहा है, ये जानने के लिये मुझे दौड़ाया जा रहा है....मैं दौड़ रही हूं, आखिर दीदी ने कोई काम बताया है, कितना गर्वित महसूस कर रही हूं :)
दीदी ने कहा सबसे अच्छा हीरो- राजेश खन्ना
मैने मान लिया कि इससे अच्छा कोई और हो ही नहीं सकता. अगली बार अपनी किसी दोस्त से कहती पायी गयी- सबसे अच्छा हीरो-राजेश खन्ना :) वो समय बड़ों को कॉपी करने का समय था ताकि हम भी बड़े दिख सकें :) जो दीदी ने कह दिया, ब्रह्म-वाक्य हो गया :)
तो वो राजेश खन्ना, जिन्हें देखे बिना मैं कहती थी- सबसे अच्छा हीरो- ’राजेश खन्ना’ अब चले गये हैं.... अपने तमाम चाहने वालों को उदास करके... विनम्र श्रद्धान्जलि.
बचपन में और भाई-बहनों को घर में छोड़, बाज़ार या पिक्चर ले जाया जाना कितना वीआईपी अहसास देता है न? मेरे एक कंजूस चाचा हमें कहीं नहीं ले जाते थे. फ़िल्म लगी थी ’ जय संतोषी मां’ चाचा देखने जा रहे थे, मुझसे पूछा बस ऐसे ही और मैं तैयार. टॉकीज़ में चाचा ने टिकट ली, हमने फ़िल्म देखी...बहुत खुश हो मैं घर लौटी . सबको चहकते हुए बताया-
" घनश्याम चाचा सबसे अच्छे हैं, एकदम आगे बिठा के पिक्चर दिखाई........... :) :) :)

रविवार, 8 जुलाई 2012

मैं कब का जा चुका हूँ सदाएं मुझे न दो .....

१३ जून २०१२
१४ जून २०१२ को मेरी भांजी की शादी थी. ये शादी सतना से हुई, सो तमाम ज़िम्मेदारियां मेरे और उमेश जी के कंधों पर थीं ( उमेश जी के कंधे तो काफ़ी मजबूत हैं, लेकिन मेरे....? ) ख़ैर, शादी बड़ी धूम-धाम और बिना किसी व्यवधान के सम्पन्न हुई. १३ जून को हमारे यहां संगीत-सभा थी. आम तौर पर शादियों में महिला-संगीत का रिवाज़ है, लेकिन हमारे यहां यह संगीत-सभा की तरह होती है जिसमें महिला, पुरुष या बच्चों को वर्गीकृत नहीं किया जाता बल्कि सभी लोग इसमें भाग लेते हैं लिहाजा माहौल बहुत खुशनुमा हो जाता है.
शादी के लिये अपने सभी मेहमानों के रुकने का इंतज़ाम सदगुरु रिज़ॉर्ट में किया गया था, जो शहर से १० कि.मी. दूर था. काम, मेहमान और भागदौड़ के चलते देश-दुनिया की खबरों से लगभग दूर ही थी. संगीत वाले दिन बच्चों-बड़ों के नाच-गाने के बाद साढे दस बजे जब ग़ज़ल- संध्या (संध्या..??? ) आरम्भ हुई तो हमारे मामा जी ने सूचना देते हुए अनाउंसमेंट किया-
" आज ग़ज़ल सम्राट मेंहदी हसन साहब नहीं रहे, तो ये शाम उन्हीं के नाम...."
मैं स्तब्ध!
बहुत छोटी थी, तब से लेकर आज तक केवल एक ही गायक मेरा पसंदीदा था, और वो थे मेंहदी हसन साहब. लम्बे समय से बीमार चल रहे मेंहदी साहब के बारे में कभी भी ऐसी खबर आ सकती है, ये अंदाज़ा तो मुझे भी था, लेकिन सच मानिये, उनकी बीमारी की खबर जब भी पढती थी, मैं मन ही मन उनके कभी न जाने की दुआएं करने लगती थी. बहुत मन था उनसे मिलने का लेकिन नहीं मिल सकी .
सोचा था कि इस बार अगर वे इलाज़ के सिलसिले में हिन्दुस्तान आये, तो मैं उनसे मिलने ज़रूर जाउंगी, लेकिन वे आये ही नहीं.
मेंहदी साहब को मैने तब से जाना, जब मैं छह साल की रही होउंगी. मेरी बड़ी
दीदी रेडियो की ऐसी दीवानी कि खाना बनाते, खाते, सफ़ाई करते, यहां तक कि पढते हुए भी रेडियो सुनती रहतीं. दुनियां भर के स्टेशन उन्हें मालूम थे. रात को जब उर्दू सर्विस का फ़रमाइशी कार्यक्रम खत्म होता तो रेडियो पाकिस्तान शुरु हो जाता. उद्घोषक की दानेदार आवाज़ कानों में पड़ती-
" हम रेडियो पाकिस्तान/मुल्तान/करांची से बोल रहे हैं ..... पेशेखिदमत है फ़िल्मी
नग़मों का फ़रमायशी कार्यक्रम.. ग़ुलदस्ता....
"...अब जिस खूबसूरत नग़में को हम पेश कर रहे हैं उसे आवाज़ दी है मेंहदी हसन ने..."
बस. तभी से मेंहदी हसन साहब का नाम मेरी ज़ुबान पर और आवाज़ कानों में घर कर गयी. उस वक़्त वे पाकिस्तानी फ़िल्मों के लिये गाया करते थे. " देख तू दिल कि जां से उठता है, ये धुआं सा कहां से उठता है..."
" रफ़्ता-रफ़्ता वो मेरे हस्ती के सामां हो गये....." और "प्यार भरे दो शर्मीले नैन....." लगभग रोज़ ही रेडियो पर आते थे. पाकिस्तानी ग़ायको में मुझे बस तीन चार नाम ही सुनाई देते थे जिनमें से याद
केवल दो रह गये - मेंहदी हसन, और नाहिद अख्तर.
छह साल की उम्र में जो दीवानगी मेंहदी साहब की आवाज़ के लिये मेरे दिल में थी वही आज भी है. मेरे कानों को कोई और जंचता ही नहीं.
सोचती थी कि मेंहदी साहब के निधन की खबर का दिन कितना भारी गुज़रेगा ..............
लेकिन उनके जाने के दिन हमारे यहां उत्सव का माहौल था ...... फिर भी मन में ये तसल्ली थी, कि हम उस महान गायक को उसके ही लायक, सुरसिक्त , सच्ची श्रद्धान्जलि दे रहे है.
लम्बे समय से बीमार मेंहदी साहब को जाना तो था ही १२ साल से तक़लीफ़ झेल रहे हसन साहब को भी शायद तक़लीफ़ों से मुक्ति मिली. लेकिन कितना अटपटा लगता है ये सुनना कि दो साल से उस गायक की आवाज़ बन्द थी, जिसने कभी काम के दौरान भी अपने सुर बन्द नहीं किये.....?
१३ जून की रात हमने भी उन्हें श्रद्धान्जलि स्वरूप अपने घर की संगीत-निशा समर्पित की.
उनके निधन की खबर के बाद ऐसा एक दिन भी नहीं था, जब मैने उन्हें याद न किया हो, आज उनकी याद को यहां बांटने का मौका मिल ही गया. इस महान गायक को विनम्र श्रद्धान्जलि.
( नीचे तस्वीर में मेरी छोटी दीदी अर्चना और मेरा भाई धनन्जय, ये दोनों शास्त्रीय और सुगम संगीत के बहुत अच्छे गायक है.)