मंगलवार, 5 जून 2018

केरल यात्रा: खट्टी-मीठी यादें


कोच्चि जाने की चार महीने पुरानी प्लानिंग पर उस समय पानी फिरता नज़र आया, जब हमारी ट्रेन लेट पर लेट होती गयी। लगा, कहीं कैंसिल ही न हो जाये! ख़ैर! राम-राम करते, सुबह चार बजे आने वाली ट्रेन शाम साढ़े चार बजे आई। बोगी में घुसे तो शाम को ही रात जैसा नज़ारा दिखाई दिया। हर तरफ़ सफ़ेद चादरें तनी हुईं। हमारी लोअर बर्थ पर एक बहन जी सो रहीं थीं। उन्हें जगाया तो वे अपनी मिडिल बर्थ खोल के फिर सो गयीं। ट्रेन में ऐसा भीषण सन्नाटा मैंने पहली बार देखा। अब चूंकि सब सो रहे थे तो हम अकेले गर्दन टेढ़ी करे, कब तक बैठे रहते? हम भी लेट गए। 6 बजे के आस पास कुछ हलचल हुई। दूसरी बोगी से कुछ लोग आए, और सामने, बगल, ऊपर की बर्थ वालों को जगा के बतियाने लगे। बातचीत तेलुगू में हो रही थी, सो हम उनके मुंह ताकने के सिवाय और कर भी क्या सकते थे? ये ज़रूर समझ में आया कि कोई बड़ा परिवार है जो सफ़र कर रहा। 
रात आठ बजे हमारे सिर के ऊपर तनी मिडिल बर्थ से बहन जी नीचे उतरीं। बर्थ अब भी तनी थी क्योंकि उस पर उन्होंने अपनी गृहस्थी सजा ली थी। यानी अब तीन दिन तक हमें गर्दन टेढ़ी कर, इसी छतरी की छत्रछाया में रहना था। सामने की बर्थ पर एक। भीमकाय महिला लगातार खर्राटे लेकर सो रही थीं। इतनी नींद!! हम चकित थे। ख़ैर! हमारे ऊपर वाली बहिन जी भी भारी शरीर की थीं, लेकिन थीं खूबसूरत। उतना ही सरल उनका व्यवहार भी था। ट्रेन पटना से आ रही थी तो हमें लगा ये सब हिंदी तो जानते ही होंगे। लेकिन जब हमने उनके बारे में जानना चाहा तो समझ में आया कि वे तो हिंदी का एक भी शब्द नहीं समझ पा रहे!! अंग्रेज़ी भी टूटी-फूटी। इसी टूटे-फूटेपन में ही उन्होंने बताया-"ऑल एल आई सी फ़ैमिली। 90 मेम्बर्स। विज़िट काशी, बोधगया, पटना। नेल्लोर गोइंग।" 
उनके यहां दफ़्तरी काम भी तेलुगू में ही होता है। तीन-चार बच्चे थे जो अंग्रेज़ी पढ़ते थे स्कूल में लेकिन सेकेंडरी लैंग्वेज़, सो फिर भी ठीक ठाक बात कर पा रहे थे। हमेशा सफ़र में मैं सहयात्री की बातों से बचने के लिए अपना सिर जबरन क़िताब में घुसाए रहती हूँ, इधर तरस रही थी कि कोई तो बात कर ले!! 48 घण्टों का सफ़र और ये नेल्लोरी!! या अल्लाह!! कहाँ फँस गई!! मेरी दुविधा वे भी समझ रहे थे, या शायद मेरे चेहरे से ज़ाहिर हुआ होगा, सो मुझसे इशारों में ही बात करने की कोशिश करते। गूंगे लोगों की पीड़ा समझ में आई!! 😑 कुछ भी खाने को निकालते तो मुझे पहले पूछते। दस तारीख़ की रात ग्यारह बजे नेल्लोर आने वाला था। इस रात उन्होंने ज़िद करके अपने साथ मुझे नेल्लोरी भोजन कराया। 
इन दो दिनों में लगा, कि यदि आप भाव समझ लेते हैं तो भाषा माने नहीं रखती। मेरे दोनों दिन इन सारे परिवारों और ख़ास तौर से मेरी छत्रछाया वाली बर्थ की मालकिन जिनका नाम भारती था, के स्नेह को मैं भूल नहीं पाउंगी। नेल्लोर आने पर सब उतरने लगे। मैंने भी भारती के दो बैग उठा लिए, उतरवाने के लिहाज से। सब जब उतर गए, तो हर व्यक्ति मुझसे मिलने की होड़ में था। बच्चे लिपट गए और भारती!! भारती ने तो हाथ ही नहीं छोड़ा। जब तक ट्रेन चल न पड़ी, पूरे 90 लोग हाथ हिलाते खड़े रहे। विदा प्यारे दोस्तो...कभी न कभी फिर मिलेंगे। 
नेल्लोरी साथियों के उतरते ही पूरी बोगी ख़ाली हो गयी। उधर पहले क्यूबिक में चार-पांच लोग और इधर आख़िरी क्यूबिक में छह-सात लोग! मेरी बर्थ का नम्बर 35 था, यानी बीच मंझधार का नम्बर 😊 बाएं-दाएं दोनों तरफ़ ख़ाली बर्थ मुंह चिढ़ा रही थीं। अब तक जो बोगी तरह-तरह के तेलुगू स्वरों से भरी थी, अचानक शांत हो गयी। उन सबका जाना मुझे पता नहीं क्यों इतना उदास कर रहा था। उन सबके हिलते हाथ देख के तो मुझे रोना आ रहा था 😞 
नेल्लोर प्लेटफॉर्म और मेरे साथी जैसे ही दिखना बन्द हुए, मैं अपनी बर्थ पर आ गयी। अब आज़ाद थी। मिडिल बर्थ गिरा के बैठूँ, चाहे पचासों बर्थ पर उछल-कूद मचाऊँ। कोई नहीं था रोकने वाला। लेकिन मैंने मिडिल बर्थ नीचे नहीं गिराई। पता नहीं क्यों लग रहा था जैसे भारती लेटी है अभी। खिड़की के शीशे से सिर टिकाये जबरन बाहर देखती मैं अब निपट अकेली थी। तभी बुरका ओढ़े एक महिला , आगे वाले क्यूबिक से उठ के मेरे सामने वाली बर्थ पर आ गईं। उनके साथ उनका 15-16 साल का बेटा और 12 साल की बेटी थी। बिटिया भी हिज़ाब लगाए थी। आते ही शुरू हो गईं-" हाय-हाय..कैसा मुश्क़िल सफर बीता होगा बाजी आपका? मैं तो उधर बैठी आपकी ही फ़िकर कर रही थी। अकेली फंस गयीं थीं आप । मैं मुस्कुरा दी उनकी फ़िकर पर। उन नेल्लोरियों के विरुद्ध बोलने का मेरा कतई मन नहीं था। लेकिन उनकी फ़िकर देख के मुझे लगा, कौन कहता है इंसानियत ख़त्म हो गयी? आगे वाले क्यूबिक में वे साइड लोअर बर्थ पर बैठीं थीं, बेटी सहित, सो जितनी बार भी वहां से निकलना हुआ, उतनी ही बार हमारी मुस्कुराहटों का आदान प्रदान हुआ था और ये मुस्कुराहटें ही अब अजनबियत ख़त्म कर चुकी थीं। 
"जानती हैं बाजी, मेरे दो टिकट वेटिंग में ही हैं अब तक। तीन में से केवल एक कन्फ़र्म हुआ। और अल्लाह की मर्ज़ी देखिए, कि अब बर्थ ही बर्थ। मैंने सोचा आप अकेली हैं, तो यहीं आ जाये जाए ।" मैं फिर मुस्कुरा दी। बोली -"आपने बहुत अच्छा किया जो यहां आ गईं।" ये अलग बात है कि अकेलापन कभी मुझे डराता नहीं। डराती तो भीड़ भी नहीं है 😊 लोगों से बहुत पूछताछ की आदत नहीं है मेरी। फिर भी उनकी इतनी बातचीत में कुछ तो दिलचस्पी दिखानी थी न सो मैंने पूछा- "आप केरल जा रहीं? कहाँ से आ रहीं?" इतना पूछना था कि वे धाराप्रवाह शुरू हो गईं-" अरे बाजी कुछ न पूछिये। हम तीनों पटना से आ रहे हैं। ये मुआ हनीफ़, ऐसा मनमर्ज़ी का लड़का है कि क्या कहें! ट्रेन का अता-पता लगाएं बिना ले आया हमें स्टेशन। सोचिये, शाम चार बजे चलने वाली गाड़ी स्टेशन पर ही रात 10 बजे आई। फ़ातिमा के अब्बू तो बोले कि वापस आ जाओ, पर फिर हमने सोचा किसी प्रकार इस छोरी के एडमिशन का जुगाड़ जमा है, लौट गए तो क्या पता इसके अब्बू का फिर मन बदल जाये? हम लोग तिरुपति जा रहे हैं। वहां बहुत बड़ा स्कूल है हाफिज़ी की पढ़ाई का। अभी छटवीं तक इंग्लिश मीडियम में पढ़ी है पूरे सब्जेक्ट। अब यदि टेस्ट पास कर गयी तो यहीं रहेगी, हॉस्टल में। 
स्कूल का नाम उन्हें याद नहीं था और मुझे जानने की बहुत उत्सुकता भी नहीं थी। मैं तो खुश थी, कि हिज़ाब में लिपटी इस बच्ची को पढ़ाने, इतनी दूर भेज रहे इसके मां-बाप। ये अलग बात है कि हाफिज़ी की पढ़ाई का ताल्लुक़ शायद उस धार्मिक पढ़ाई से है जिसके बाद सम्भवतः वो बच्ची मदरसे में नौकरी करे। अभी फ़ातिमा की अम्मी कुछ और बतातीं, उसके पहले ही उनके बेटे का फोन घनघनाया। फोन पर ज़रा तल्ख़ बातचीत हो रही थी। फोन रखते ही बेटा बोला-"अम्मी, ठहरने का कोई इंतजाम नहीं हो पाया वहां।" अम्मी बदहवास सी कभी मुझे और कभी बेटे को देख रही थीं। बोलीं- बाजी, तिरुपति तो आने ही वाला है। वहां से हमें तुरत ही लौटने की ट्रेन मिल जाएगी क्या? अब जब अजनबी शहर में रहने का ही ठिकाना नहीं तो हम इस बच्ची को ले के कहाँ जाएंगे? पता नहीं कैसे लोग होते होंगे! इन सबकी बोली सुन के तो लगता है न कोई हमें समझेगा, न हम किसी को समझ पाएंगे। इसकी परीक्षा तो 13 मई को है और आज तो 10 तारीख ही है! या ख़ुदा! कैसा इम्तिहान है ये? बाजी अपने मोबाइल में देख के बताइये न हम लौट जाएंगे। पटना होता तो कोई डर नहीं था लेकिन यहां...!!"
उनका बोलना जारी था तब तक बेटे से मैंने पूछा कि माज़रा क्या है? उसने बताया कि जिन्होंने स्कूल हॉस्टल में ही हम लोगों को चार दिन रुकवाने का वादा किया था, वे खुद तिरुपति से बाहर हैं। उन्होंने कहा है कि फिलहाल किसी होटल में रुक जाए। 
अब मैंने फ़ातिमा की अम्मी को समझाना शुरू किया कि जब चार दिन का सफर करके अपनी मंज़िल तक पहुंची हैं तो अब वापसी की बात न करें। बच्ची को टेस्ट ज़रूर दिलवाएं। और फिलहाल वे 12 घण्टों के लिए रेलवे के रिटायरिंग रूम में रुक जाएं। दिन भर उनके पास होगा, तब वे स्कूल प्रबंधन से बात कर होस्टल में रुकने का इंतज़ाम करवा लें। बात उनकी समझ में आ गयी। मैंने तुरन्त नेट पर सर्च किया तो रात बारह बजे तक बुकिंग की जा सकती थी यदि रूम खाली है तो। 
अब फ़ातिमा की अम्मी फिर रुआंसी हो आयीं-" बाजी, आप तो इतनी अच्छी मददगार मिलीं हमें लेकिन ऑनलाइन बुकिंग के लिये हमारे पास कार्ड नहीं है 😞"
मेरे पास वेस्ट करने के लिए टाइम नहीं था, क्योंकि पौने बारह बज चुके थे, सो उनका फॉर्म भरते हुए ही मैंने कहा-मैं अपने कार्ड से जमा कर दूंगी, आप हमें नक़द दे देना। आनन फानन उनकी 24 घण्टे की बुकिंग कराई कुल 950 रुपये में। जो इन्हें हॉस्टल में रुकवाने की बात कह के मुकर गयीं थीं उन्हें भी फोन लगा के फटकारा कि वे वादाख़िलाफ़ी न करें, और हर हालत में कल इनके रुकने का इंतज़ाम हॉस्टल में करके मुझे सूचित करें। फ़ातिमा की अम्मी का चेहरा देख के मुझे लग रहा था कि मैं इनके ही साथ उतर जाऊं। ख़ैर... इंतज़ाम हो गया।
इस पूरी व्यवस्था में जुटी मैं,अब तक फ़ातिमा की ओर देख ही नहीं पाई थी। अब उसकी तरफ़ देखा, तो उसे एकटक अपनी तरफ़ देखते पाया, बेहद कृतज्ञ निगाहों से, जो प्यार से भरी थीं। मैंने उसकी तरफ 👍 का इशारा किया तो वो खिलखिला दी। बेहद निश्छल हंसी। फ़ातिमा की अम्मी ने अब बुरका उतार दिया था और इत्मीनान से कंघी कर रही थीं। शीशे में देखते हुए ही बुदबुदा रहीं थीं-"कौन कहता है दुनिया में अच्छे लोग नहीं हैं....हर धर्म में अच्छे बुरे लोग हैं...जिससे बुरा टकराया, उसने पूरी कौम को ही बुरा कह दिया, वो हिन्दू हो चाहे मुसलमां...! 
और मेरे दिमाग़ में उनका वही वाक्य घूम रहा था-' पटना होता तो कोई डर की बात न थी...!" अपना शहर सबको कितना निरापद लगता है। 
अगला स्टॉपेज तिरुपति ही था।