सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

छुट्टी, व्रत और फलाहार...

कई दिनों से इन दो दिनों की छुट्टियों का इंतज़ार कर रही थी. इंतज़ार की ख़ास वजह थी, हमारी बहुत कुछ लिखने की प्लानिंग . पता नहीं क्या-क्या सोचा था.... एकाध कहानी का प्लॉट दिमाग में चक्कर काट-काट के अब दीवारों पर सिर पटकने लगा था. सोचा था कि ये प्लॉट दम तोड़े, उससे पहले ही कहानी लिख लेनी है आखिर प्लॉट को बेमौत मारने का इल्ज़ाम सिर पर क्यों लेना? वैसे भी हम अहिंसक प्राणी हैं मच्छर भी तब तक नहीं मारते जब तक कि वो मेरा खून न चूसने लगे जब मच्छर खुद ही "आ बैल मुझे मार" की कहावत सुनाने लगता है, तब हम भी उसे "ओखली में सिर देना" का मतलब समझा देते हैं. खैर, तो एक कहानी का प्लॉट, दो-चार दूसरी पोस्टों के विषय, कुछ रचनाओं के आमन्त्रण, जिन्हें निर्धारित तिथि तक भेज देना चाहिए, सब मिल-जुल के मेरे दिमाग को खेल का मैदान बनाए हुए थे. हमने भी सबको दादागिरी वाले लहजे में धमकाया था, कि आने दो, दो दिन की छुट्टियां, तुम सबका हिसाब निपटाया जाएगा हुंह...
लेकिन आज छुट्टी का दूसरा दिन भी ख़त्म होने को है और हम कुछ नहीं कर पाए
लिखने के इंतज़ार में अटके तमाम विषय जब अगूंठा दिखाते हुए चिढाने लगे तो हमें भी गुस्सा आ गया बर्दाश्त की एक हद होती है आखिर.....
भला हो का.. शाम को मिल गयी, और हमारी व्रत के नियमों पर कुछ चर्चा हुई. उसने कहा- इन नियमों पर कुछ लिखना चाहिए, हमने भी सोचा लिख डालते हैं इसी बहाने.....
वैसे पिछले साल इसी दिन, यानि शिवरात्रि पर ही हमने एक दाढ़ का व्रत.... पोस्ट लिखी थी. ये याद आते ही नयी पोस्ट लिखने का मसाला दिमाग से नदारद हो गया वैसे शायद मैं व्रतों के नियमों पर कुछ लिखने वाली थी...... कि व्रत में क्या खाया जाए, क्या नहीं.....चलिए छोडिये... सबको पता है कि व्रतों के कितने ऊटपटांग नियम बने हैं.... सेंधा नमक खा

सकते हैं, साधारण नमक नहीं, आलू खा सकते हैं, टमाटर नहीं... जो अनाज में आते हैं, उन्हें न खाने की बात समझ में आती है, लेकिन जो सभी फल और सब्जियों में आते हैं उन्हें क्यों अलग-अलग कर दिया ??

वैसे भी मुझे तो लगता है कि यदि व्रत है, तो फिर शरीर की मशीनों को पूरी तरह आराम देना चाहिए. केवल फल खाए जाएँ और दूध पिया जाए. कहते फलाहार हैं, और खाते पता नहीं क्या-क्या हैं!!!!!!

व्रत बनाए गए थे हमारे शरीर के पाचन अंगों को आराम देने के लिए, लेकिन हमने इन्हें भोजन-उत्सव में

बदल दिया

एक दिन पहले ही ,व्रत के फलाहार में बनाए जाने वाले व्यंजनों की लिस्ट तैयार होने लगती है. सुबह से ही सबको नहा-धो के फल-दूध ले लेने की हिदायतें दी जाने लगतीं हैं, जैसे रोज़ उठते ही खाने पर टूट पड़ते हों. फिलहाल हम भी काफ़ी कुछ खा चुके हैं .....
शाम की क्लास के बच्चे आ चुके हैं, और अम्मा कह रही हैं कि "आज छुट्टी कर देनी थी न, व्रत में कैसे पढाओगी????"

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

स्मृतियों में रूस : जैसा मैने पाया....


" स्मृतियों में रूस" मेरे हाथ में है. असल में ये मेरे हाथ में तो 18 जनवरी को ही आ गयी थी, लेकिन यदि मैं समय से समीक्षा कर देती
तो हमेशा व्यस्तता का रोना रोने वाली मेरी इमेका क्या होता? टूट न जाती? इस पुस्तक की अब तक कई समीक्षाएं आ चुकी हैं. एकबारगी लगा कि अब मैं क्या समीक्षा करुँ? दिग्गज लोग कर चुके, लेकिन शिखा से मैंने मीक्षा करने का वादा किया था, सो उसे ही पूरा कर रही हूँ. तो अब चर्चा पुस्तक की. कुल 80 पृष्ठ की पुस्तक " स्मृतियों में रूस" हाथ में लेते हुए सबसे पहले ठीक वैसा ही अहसास हुआ, जैसा समीरलाल जी की " देख लूं तो चलूँ" को लेते हुए हुआ था. बहुत अपना सा. ऐसा अहसास, जो अखबार में रहते हुए तमाम किताबों की समीक्षा करते हुए नहीं हुआ. मुझे शिखा कि इस किताब का इंतज़ार इसके प्रकाशन कि घोषणा के साथ से ही था. वजह? शिखा के ये संस्मरण मुझे उसके द्वारा लिखी तमाम रचनाओं में श्रेष्ठ लगते हैं. और मेरा रूस-प्रेम भी, जो शायद शिखा के संस्मरणों में जीवंत हो उठा.
पुस्तक का आरम्भ "अपनी बात" से है. शिखा जिस समय रूस में थीं, वो समय अविभाजित रूस का था. उस रूस का, जब वहां भारत को बहुत ही आदर और स्नेह के साथ याद किया जाता था.पुस्तक के आरम्भ में ही सभी के प्रति आभार भी व्यक्त किया गया है, जैसा कि चलन है. पुस्तक शुरू होती है अपने प्रथम चरण-"दोपहर और नई सुबह" से . बहुत आत्मीय और स्वाभाविक चित्रण है यहाँ शिखा के पारिवारिक माहौल का. पुस्तक धीरे-धीरे आगे बढ़ती है और पूरे बारह चरणों में पाठकों को रूस की सैर कराती है. एक अनजान- अपरिचित देश में सोलह वर्ष की अकेली भारतीय लड़की!
शिखा ने अविभाजित और विभाजित रूस, दोनों की तस्वीर देखी है इसीलिये इनका चित्रण भी बखूबी किया है. रूसियों के शौक, उनका रहन-सहन, खान-पान उनकी पारिवारिक संरचना और स्थितियां, हिन्दुस्तानियों के साथ उनका व्यवहार, आदि का बहुत सजीव चित्रण किया है शिखा ने, लिहाजा इस किताब से हमें रूस को और करीब से जानने का मौका मिलता है.हिंदुस्तान में रुसी साहित्य का अपना अलग महत्त्व रहा है,लेव तोल्स्तोय, फ्योदोर दोस्तोव्स्की, अन्तोन चेखोव, गोर्की, और भी तमाम रूसी साहित्यकार हिन्दुस्तानियों के दिलों पर राज करते रहे हैं. लेकिन इन लोगों के द्वारा वर्णित रूस और किसी हिन्दुस्तानी के द्वारा वर्णित रूस में एक बुनियादी फ़र्क मिलेगा. कोई भी रूसी लेखक वहां की जीवन शैली का वर्णन अलग से नहीं करेगा, लेकिन हिन्दुस्तानी उनकी जीवन शैली को अलग से चिन्हित करेगा, ताकि हम सब उस जीवन शैली को आत्मसात कर सकें. "स्मृतियों में रूस" ने भी यही काम किया है.
"दोपहर और नई सुबह" से शुरू की गयी शिखा की यात्रा ' चाय दे दे माँ, वो कौन थी, टर्निंग प्वाइंट, स्टेशन की बेंच से..., टूटते देश में बनता भविष्य, कुछ मस्ती कुछ तफरीह, मॉस्को हर दिल के करीब , रूस और समोवार, हिंद से दूर हिंदी, कीवास्काया रूस का प्राचीनतम नगर, तोल्स्तोय, गोर्की, और यह नन्हा दिमाग, आदि पड़ावों से होते हुए स्वर्ण अक्षर और सुनहरे अनुभव पर ख़त्म हुई.
पुस्तक के मध्य टुकड़ों में रूस की यादगार तस्वीरें संगृहीत की गयीं हैं, लेकिन मुझे लगता है कि तस्वीरों का पुस्तक के अंत में पूरा परिशिष्ट बनाया जाना चाहिए था. ये तस्वीरें यदि रंगीन होतीं, तो क्या कहने! श्वेत-श्याम होने के कारण बहुत सी तस्वीरें प्रिंटिंग के समय धुंधली हो गयीं हैं. जिन्होंने इन तस्वीरों को शिखा के ब्लॉग पर देखा है, उन्हें ये कमी अखरेगी. एक बात और जिसने मेरा ध्यान तो आकर्षित किया ही, अन्य पाठकों का भी किया होगा, कि पुस्तक-परंपरा के अनुसार शिखा ने इस पुस्तक को किसी को समर्पित नहीं किया है. यकीनन ये केवल लेखक का अधिकार है, लेकिन आम पाठक पठन-पाठन की परंपरा को निभाता ही है. पुस्तक का आवरण पृष्ठ बहुत शानदार है.
कुल मिला के पुस्तक न केवल पठनीय है, बल्कि संग्रहणीय भी है. हम सब ब्लॉग-जगत के साथियों के बुक-शेल्फ में तो इसे होना ही चाहिए.
पुस्तक -- स्मृतियों में रूस
लेखिका - शिखा वार्ष्णेय
प्रकाशक - डायमंड पब्लिकेशन
मूल्य -- 300 /रूपये
यहाँ संपर्क करके किताब प्राप्त की जा सकती है --
Diamond Pocket Books (Pvt.) Ltd.
X-30, Okhla Industrial Area, Phase-II,
New Delhi-110020 , India
Ph. +91-11- 40716600, 41712100, 41712200
Fax.+91-11-41611866
Cell: +91-9810008004
Email: nk@dpb.in,

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

क्या करें अनुरूप-सागरिका जैसे तमाम प्रवासी?

क्या आप नन्हे बच्चे को अपने हाथ से खाना खिलाते हैं?
क्या आप अपने पांच महीने के बच्चे को अपने साथ सुलाते हैं?
क्या आप अपने बच्चों को मनुहार करके ज्यादा खिला देते हैं?
आपके पास बच्चे का डायपरबदलने की टेबल नहीं है?
बच्चे के पास सुविधाजनक खिलौने हैं या नहीं?
क्या आप अपने बच्चे को रबर के बाथ-टब में नहीं नहलाते?
क्या आप गुस्सा होने पर बच्चे को थप्पड़ मार देते हैं?
आपने बच्चे को बाहर कैसा व्यवहार करना है, नहीं सिखाया? क्या आपका बच्चे के साथ भावनात्मक जुड़ाव है?
अगर आपका जवाब हाँ में है, और अगर आप नॉर्वे में रहते हैं, भले ही NRI की हैसियत से ही सही, तो जान लीजिये कि वो दिन दूर नहीं है, जब आपके बच्चों या बच्चे को नॉर्वे सरकार का चाइल्ड वेलफेयर महकमा आपसे छुड़ा कर ले जाएगा और फॉस्टर पैरेंट्स के हवाले कर देगा.
ऊपर जितने भी सवाल हैं, ये किसी भी भारतीय माता-पिता को हैरान-परेशान कर देने के लिए काफी हैं. हम उस देश के निवासी हैं, जहाँ पारिवारिक ,सांस्कृतिक और संस्कारों की जड़ें बहुत गहरी हैं. मेरी बिटिया को मैं , जब वह छ
टवीं कक्षा में पढ़ती थी या शायद उसके बाद भी रात का खाना अपने हाथ से खिलाती थी, क्योंकि वो सब्जियां खाने में बदमाशी कर जाती है. अभी दो साल पहले तक उसे मेरे बिना नींद नहीं आती थी. मनुहार कर कर के खिलाना तो हमारी
संस्कृति में है. बच्चे का डायपर जो भी बदलेगा, निश्चित रूप से वो बच्चे की सुविधा का सबसे पहले ख़याल करेगा. भारतीय तहजीब के मुताबिक़ सारे अच्छे संस्कार माँ-बाप बच्चों में विकसित करते हैं. भावनात्मक जुड़ाव तो हमें पालतू जानवरों से हो जाता है, तब बच्चों से क्यों नहीं होगा?

वैसे तो इस मुद्दे को आप सब जानते हैं फिर भी थोडा बता ही दें-
भारतीय मूल के अनुरूप भट्टाचार्य अपनी पत्नी सागरिका और बच्चों अभिज्ञान और एश्वर्य केसाथ नॉर्वे के स्तावेंगर शहर में एक अमरीकी कंपनी में काम करते हैं. वे वहां NRI की हैसियत से रहते हैं. कुछ समय पहले स्थानीय चाइल्ड केयर सेंटर ने अभिज्ञान के व्यवहार के बारे में शिकायत की. उसके बाद लम्बा पूछताछ का दौर शुरू हुआ. पूरे परिवार की निगरानी की जाने लगी. और १२ मई २०११ को जब अभिज्ञान दो साल का था और एश्वर्य मात्र पांच माह की थी, यह महकमा बच्चों को उनकी उचित परवरिश न होने के नाम पर अपने साथ ले गया और दोनों बच्चों को दो अलग-अलग फॉस्टर होम्स में डाल दिया. कोर्ट ने कहा है कि बच्चों के माता-पिता २०२६ और २०२८ में अपने बच्चों के १८ वर्ष का हो जाने के बाद ही मिल सकेंगे. तब से अनुरूप-सागरिका लड़ रहे हैं, लेकिन कामयाबी अभी तक नहीं मिल सकी. भारत के राष्ट्रपति की अनुशंसा के बाद नॉर्वे सरकार इन बच्चों को अनुरूप के भाई को सौंपने के लिए तैयार हुई है, देखिये बच्चे कब मिलते हैं.
इस पूरे मसले में मेरी समझ में कुछ बातें एकदम नहीं आई, मसलन-
१- नॉर्वे में प्रवेश करने वाले प्रत्येक भारतीय या किसी अन्य देश से आने वाले NRI को नॉर्वे सरकार पूरी नियमावली क्यों नहीं पकडाती, जिसमें क़ानून और उन्हें पालन न करने की सजा का भी स्पष्ट उल्लेख हो?
२- यह साफ़ तौर पर बताया जाए कि बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करना है.
३- कोई नागरिक शहर या देश को नुक्सान पहुंचाने वाले क़ानून का उल्लंघन करे तो उसे सजा मिले, प्रवासियों के पारिवारिक मामलों में सरकार का दखल क्यों? फिर परिवार में भी यदि कुछ गलत हो रहा हो, तो उस पर कार्रवाई जायज़ है, लेकिन बच्चों का अपने तरीके से ख़याल रखना ही यदि अपराध बन जाए तब?
४- कोई भी देश किसी दूसरे देश के नागरिक को पारिवारिक मसलों में अपने देश के क़ानून मानने के लिए बाध्य क्यों करे? यदि मामला आपराधिक न हो तो.
हम जिसे लाड़-दुलार-प्यार की संज्ञा देते हैं, नॉर्वे में वही कानूनन अपराध है. अब भारतीय क्या करें?
ये बात मेरी समझ से परे है कि किसी भी बच्चे का पालन-पोषण उसके माता-पिता से बेहतर कोई कर सकता है. बच्चे माँ-बाप से पिटते हैं, और फिर उन्ही की गोद में जा के बैठते हैं. माता-पिता भी बच्चे को चोट पहुंचाने की हद तक नहीं पीट सकते. माँ-बाप बच्चे के साथ बुरा कर रहे होंगे, ऐसा न तो परिवार सोच सकता है, न समाज और न सरकार.
जिस देश में सरकार यह देखने लगे, कि बच्चे के साथ माता -पिता का भावनात्मक जुड़ाव तो नहीं है, उस देश की जनता अपने देश के साथ क्या जुड़ाव महसूस कर सकती है?
( कल रश्मि की पोस्ट पढने के बाद, नॉर्वे मामला फिर ज़ेहन में ताज़ा हो गया, लिहाजा आज लिख भी गया. )
सभी चित्र: गूगल से साभार

पहले पता तो चले... :) :) :)

पिछले दिनों मेरा ब्लॉग ग़ायब हो गया था

अब जब सारी पोस्ट दिखाई दे रही हैं, तो मुझे ये ही समझ में नहीं आ रहा कि मेरे ब्लॉग आप सबको दिखाई दे रहे हैं या नहीं?

पिछले दिनों मेरे सुधि पाठकों / मित्रों ने ब्लॉग न दिखाई देने सम्बन्धी मेल भी किये, जबकि मुझे ब्लॉग दिखाई दे रहे थे .

यह अपील टाइप की पोस्ट केवल ये पता लगाने के लिये है, कि ब्लॉग-पोस्ट आपको दिख रही है या नहीं?

आज कुछ लिखने का मन बनाया था,लेकिन फिर याद आया कि मेरे ब्लॉग तो अभी संकट-काल से गुज़र रहे हैं

मैं इतनी लगन से लिखूं, और वो आप तक पहुंचे ही नहीं, तो क्या फ़ायदा मेरे लिखने से?

अब जब आप सब मुझे भरोसा दिला देंगे, कि पोस्ट दिख रही है, तब मैं अपनी असली वाली पोस्ट पढवाऊं आप सबको, है कि नहीं????

(अभी भी ब्लॉग से जुड़ने वाले मेरे साथी मुझे नहीं दिखाई दे रहे ... :( :( :(