रविवार, 21 नवंबर 2010

नन्हे मेले के मुन्ने दुकानदार..

बाल-दिवस निकले सात दिन हो गये, और मैं आज ज़िक्र ले के बैठी हूं. मैं भी न...मैं जब स्कूल में पढती थी, तब वहां हर साल बाल-दिवस पर " बाल-मेला" आयोजित किया जाता था. हम बच्चे दुकाने सजाते, सामान बेचते और पूरी कमाई शाला-विकास के खाते में जमा करवा देते :(इतने सालों बाद, मेरे इस छोटे से स्कूल में जब बच्चों के रंग भरने लगे, तो मैने यहां मेला लगाने की सोची.
बड़े बच्चों को अपनी योजना की जानकारी दी, बच्चे तो उछल पड़े. बाल दिवस रविवार को था, सो मेला हमने मंगलवार सोलह नवम्बर को लगाया. पन्द्रह तारीख को बच्चों ने दिन भर जुट के अपने स्टॉल लगाये-सजाये.

हमारे नन्हे ग्राहक तो सुबह आठ बजे से ही अपनी मम्मियों या पापाओं की अंगुली पकड़े हाज़िर हो गये :) जबकि मेले का उद्घाटन नौ बजे होना था. मेला सुबह नौ बजे से दोपहर एक बजे तक चला. खूब मज़े किये बच्चों ने, और हम बड़ों ने भी. हां, बच्चों की मेहनत की कमाई हमने शाला विकास के नाम पर जमा नहीं करवाई है:)

अब आप भी मेले का आनन्द लें,तस्वीरों के ज़रिए-
सभी बच्चों ने बढिया स्टॉल लगाये थे। तमाम तरह की चीज़ें उपलब्ध थीं. किसी ने पानी-पूरी कीदुकान लगाई तो किसी ने आलू-टिकिया सजा ली. कोई गुब्बारे बेच रहा था तो कोई बुढिया के बाल :) एक दुकान पर शानदार चाऊमीन बिक रही थी. बच्चे की मम्मी खुद साथ में जुटीं थीं, मदद के लिये. खूब बिक्री हुई उसकी
दो स्टॉल भेलपुरी के थे , यहां भी जम के खाया लोगों ने।चने के चाट वाले स्टॉल पर भी खूब बच्चे दिखे. पर सबसे ज़्यादा भीड़ बटोरने में कामयाबी मिली पानी-पूरी के विक्रेता को. लाइन लगा के लोगों ने स्वाद लिया यहां.

बच्चों के उत्साह से उत्साहित हो, हमारी आर्ट टीचर, जो खुद भी बहुत सुन्दर पर्स,बैग आदि बनाती हैं, ने भी अपना स्टॉल लगाया, और धड़ाधड़ बैग्स बेचे. दोपहर एक बजे तक चलने वाले इस नन्हे मेले में ग्राहकों की भीड़ मेला खत्म होने के बाद भी लगी रही।


बाद में दौर शुरु हुआ बच्चों की आय का विवरण लेने का. एक एक कर के मुन्ने दुकानदार आते, अपनी मेहनत की कमाई टेबल पर रखते, उसे गिना जाता, लाभ-हानि का ब्यौरा दिया जाता, और राशि सौंप दी जाती. सबसे सुन्दर स्टॉल को पुरस्कृत भी किया गया. बच्चों के माध्यम से उस दिन हमने भी खूब अपना बचपन जिया....

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

एक बेमानी सी पोस्ट....

कई दिनों से मन बनाए हूँ, कि दीवाली पर कुछ ज़रूर लिखूंगी. कम से कम एक संस्मरण का तो हक़ बनता है, छपने का , लेकिन........ धरी रह गई पूरी सोच, और लिखने की तैयारी . हमारे पेंटर बाबू ने ३१ अक्टूबर से काम शुरू किया, और तीन दिन में वे केवल बाहरी खिडकियों के पल्ले ही पेंट कर सके . कल यानि तीन नवम्बर से मेरी छुट्टियां शुरू हुईं, और मेरी रफ़्तार ने भी पेंटर बाबू से होड़ लेते हुए, दो दिन में एक कमरा साफ़ करने का रिकॉर्ड बनाया. साफ़ करने के लिए बहुत कुछ नहीं था, लेकिन तब भी मैंने पूरा समय लिया, और घर के अन्य सदस्यों को ये कहने पर मजबूर कर दिया, कि देखो बेचारी कितना काम कर रही है
. तब तक धूल से अटी, अन्दर-बाहर होती रही, जब तक अम्मा और उमेश जी ने ये नहीं कह दिया, कि जाओ अब नहा-धो लो, और आराम करो. थक गई होगी .
बाहर काम कर रहे पेंटरों के बीच बेवजह
घूमती रही, और उनके काम में नुक्स निकालती रही. चार बजे के आस-पास लगा कि अब तो कोई काम जैसा काम रहा ही नहीं, अब कैसे व्यस्त दिखाई दें? तभी बिजली के नन्हे-नन्हें बल्बों की झालरें लिए, इलैक्ट्रीशियन महोदय नमूदार हुए, और हमारी बांछें खिल गईं . व्यस्त होने का कारण मिल गया. हम यूं ही इलेक्ट्रिशियन पुष्पेन्द्र के साथ छत पर आ गए. एक घंटे तक उसे यहाँ-वहां की सलाह देते हुए, उसके काम में व्यवधान डालते रहे.

अम्मा की फोन पर तिवारी आंटी से बात हो रही थी, और वे कह रहीं थीं- " राजू ( उमेश जी) को तो टाइम ही नहीं मिलता, सारा काम तो हमारी वंदना ही करती है,वो चाहे घर का हो या बाहर का...... आज दिन भर से लगी है मजदूरों के साथ, हमारी तो बहू भी वही है और बेटा भी..... दिन भर की थकान कहाँ गायब हो गई, पता ही नहीं."
नीचे आये तो फिर याद आया कि आज तो कुछ लिखने का प्लान था..... लेकिन ये लिखना-लिखाना तो काम में शामिल नहीं है न, सो इरादा स्थगित कर दिया. लगा, शाम से नेट पर बैठ जाएंगे , तो पूरे दिन के किए हुए काम पर भी पानी फिर जाएगा .
फिर बाहर आ गये. गमलों पर जो पेंट हो रहा था, उसे देखते और बिन मांगी सलाह देते रहे. बगल की गली
में कुछ बच्चे फुटबॉल -फुटबॉल खेल रहे थे, उन्हें घुड़का, क्यों कि उनकी फुटबॉल बार बार हमारी बाउंड्री के अन्दर आ रही थी.
अब तक छह बज चुके थे, अन्दर से अम्मा कि आवाज़ आई- "वन्दना, चाय तो पी लो, फिर करना जो भी कर रही हो....." हम अन्दर की तरफ चले, भीतर से आवाज़ आ रही थी, अम्मा की फोन पर तिवारी आंटी से बात हो रही थी, और वे कह रहीं थीं-
" राजू ( उमेश जी) को तो टाइम ही नहीं मिलता, सारा काम तो हमारी वंदना ही करती है,
वो चाहे घर का हो या बाहर का...... आज दिन भर से लगी है मजदूरों के साथ, हमारी तो बहू भी वही है और बेटा भी..... "
दिन भर की थकान कहाँ गायब हो गई, पता ही नहीं.