शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

सूरजप्रकाश जी, किताबें और रश्मि.....

23 दिसम्बर 2011-
हम तीनों, मैं उमेश जी और विधु इन्दौर जाने के लिये तैयार....
लेकिन ट्रेन होते-होते छह घंटे लेट हो गयी
नेट पर रेलवे का रनिंग इन्फ़ॉर्मेशन चार्ट खुला था, लगातार. सोचा चलो मेल ही चैक की जाए. संयोग से रश्मि ( रविजा) ऑन लाइन मिल गयी. बातचीत हो गयी. थोड़ी देर में ही रश्मि का फोन आया, फोन पर उसने सूरजप्रकाश जी द्वारा पुस्तकें गिफ्ट किये जाने कि बात बतायी. पुस्तकें लेने जाने पर कुछ संकोच भी जताया. मैंने कहा-" दौड़ पड़ो. ऐसा मौका बार-बार नहीं आता. तुरंत लपक लो किताबें. उलाहना भी दे दिया, कि तुम्हारी जगह मैं होती तो कब की पहुँच गयी होती वहां... "

खैर , रश्मि जाना तो चाहती ही थी
रश्मि ने सूरजप्रकाश जी के ब्लॉग का लिंक भी दिया. मैंने ब्लॉग पर जा के कमेन्ट किया-
वन्दना अवस्थी दुबे 23 दिसम्बर 2011 3:13 पूर्वाह्न

मैं क्या करूं? क्या इतना लाचार तो मैने खुद को कभी नहीं पाया :( किताबें समेटने का इतना अच्छा मौका और मैं इस मौके से हज़ार किलोमीटर दूर :( :( बेचैनी सी होने लगी है पढ के. काश मुझे कुछ किताबें मिल सकतीं!!

साढे पांच बजे ट्रेन आने वाली थी, सो मैं ये कमेन्ट करने के बाद ही साइन आउट करके उठ गई. ट्रेन शाम साढे छह बजे आई. रात नौ बजे खाना-वना खाने के बाद मैंने उमेश जी से लैपटॉप माँगा मेल अकाउंट खोलते ही उछाल पडी.....
सूरज जी का मेल था. लिखा था-
वंदना (छोटी हैं मुझसे इसलिए जी नहीं)

पंक्ति है नर हो न निराश करो मन को ,इसमें नारी शामिल है। अपनी पसंद की
कुछ किताबों के नाम और पता भेज दो किताबें पहुंच जायेंगी। डाक खर्च देना
होगा। कूरियर वाले मोबाइल या लैंडलाइन नम्‍बर मांगते हैं।
आपके ब्‍लाग में झांक कर देखा। बाद में आराम से देखूंगा1


मेरी दुनिया www.surajprakash.com है
सूरज"
मुझे कितनी ख़ुशी हुई होगी, आप अंदाजा लगा सकते हैं. खैर, बाद में तीन-चार मेल और आये-गए. फोन पर मैंने बात भी की. इंदौर से लौटने के बाद २- या ३ तारीख को फेसबुक पर सूरज जी ने लिखा कि उन्होंने किताबें भेज दीं हैं, मुझे ४-५ जनवरी तक मिल जानी चाहिए. और ६ जनवरी को मुझे किताबें मिल गईं.
सूरज जी द्वारा किताबें वितरित किये जाने से पहले मैंने किसी को इस प्रकार खुद के द्वारा संकलित की गयी किताबें बाँटते- सस्नेह देते नहीं देखा
सूरज जी का कितना शुक्रियादा करुँ? पता नहीं. धन्यवाद जैसी छोटी चीज़ इतने बड़े काम के लिए दी ही नहीं जानी चाहिए. असली धन्यवाद तो होगा उनकी इस परम्परा को आगे बढ़ाना और उसका मान रखना. पूरी कोशिश करूंगी, ऐसा ही कुछ करने की. अनुगृहीत हूँ सूरज जी. कितनी तकलीफ हुई होगी उन्हें अपनी किताबों को विदा करते हुए??? लेकिन इतना दरियादिल होना ही अपने आप में उदाहरण है. अनुकरणीय कार्य तो है ही. फिलहाल किताबों को पढने की शुरुआत कर दी है. सूरज जी के आदेशानुसार पढने के बाद दूसरों को भी पढने के लिए दूँगी ही

और हज़ारों-हज़ार धन्यवाद तुम्हें रश्मि. न तुम बतातीं, न मुझे पता चलता.