बुधवार, 29 अप्रैल 2020

तमाम मिथक तोड़ता है: फाग लोक के ईसुरी


तमाम मिथक तोड़ता है उपन्यास फाग लोक के ईसुरी


लॉक डाउन का ये समय तमाम लम्बित किताबों को पढ़ते हुए गुज़ार रही हूं. इसी बीच चार दिन पहले, मुझे मेरी बाल सखी, लब्ध प्रतिष्ठ कथाकार/साहित्यकार, डीएवी कॉलेज कानपुर में एसोसियेट प्रोफ़ेसर डॉ. दया दीक्षित का नया उपन्यास  फाग लोक के ईसुरी स्पीड पोस्ट से मिला. मार्च में जब यह उपन्यास लोकार्पित हुआ, तो मैने दया से पूछा, कि मुझे कैसे और कहां से मिलेगा? छूटते ही दया ने कहा कि वो भेजेगी मुझे. पूरे देश की सेवाएं ठप्प हैं, तो मुझे उम्मीद थी कि अब दो-तीन महीने बाद ही ये उपन्यास मुझे मिल पायेगा. लेकिन मेरी तमाम उम्मीदों को नाकाम करता ये उपन्यास मुझे चार दिन पहले मिला, तो मैं सुखद आश्चर्य में डूब गयी. डाकिया बाबू सुबह ग्यारह बजे के आस-पास आये थे. तब मैने उपन्यास खोल के दया की ’अपनी बात’ पढ़ डाली. अपनी बात पढ़ते-पढ़ते ही मेरी उत्सुकता जागने लगी थी. एक तो उपन्यास बुन्देली लोककवि ईसुरी पर था, दूसरे ईसुरी को लेकर इतने मिथक गढ़े गये, कि मुझे उत्सुकता थी, कि दया ने क्या लिखा होगा, उस पर उपन्यास की रचना प्रक्रिया ने ही इसे तुरन्त पढ़ने को प्रेरित किया. उस पर, उपन्यास मेरी उस दोस्त का था, जिसके साथ मेरा बचपन बीता. स्नान ध्यान के बाद, जब पुस्तक हाथ में उठाई, तब ऐसा सोच के नहीं उठाई थी, कि इसे आज ही पूरा करना है. लेकिन इसे हाथ में पकड़ा, तो थोड़ी देर बाद ही इस पुस्तक ने मुझे पकड़ लिया. अब मुझे खाना खाने का भी होश नहीं था. किताब को दस मिनट के लिये भी आंखों से हटाना भारी पड़ रहा था. मैं हमेशा कहती हूं, कि कुछ उपन्यास, कहानी संग्रह ऐसे होते हैं, जो खुद को पढ़वा ले जाते हैं. ये उपन्यास भी ऐसा ही है.

                   बुन्देलखंड के नैसर्गिक सौंदर्य का वणन करते हुए उपन्यास जैसे ही ईसुरी के पैतृक गांव ’मेंड़की’ पहुंचा, मन प्राण वहीं अटक गये..... अचानक ही कानों में ईसुरी की सुपरिचित फाग-

मोरी रजऊ से नौनों को है

डगर चलत मन मोहै

अंग अंग में कोल कोल कें ईसुर रंग भरौ है ।

गूंजने लगी..... उनके जन्म की कथा पढ़ने के लिये मन बेताव होने लगा. लेखिका दया दीक्षित ने इतनी खूबसूरती से उनके जन्म का ब्यौरा दिया है , उनके परिवार की जानकारियां दी हैं, कि मन, आंखें अपने अप भीगने लगीं...! ईसुरी के जन्म के एक साल बाद ही उनकी मां और फिर दूसरे साल में ही पिता का देहांत, नन्हे ईसुरी का अपने मामा-मामी के साथ उनके गांव लुहर गांव आना, फिर धीरे-धीरे मामी के स्वभाव में परिवर्तन होना. अब तक निस्संतान नायक दम्पत्ति अब उम्मीद से था, और यही वजह हो गयी, ईसुरी से विलगाव की. चंद स्थानों पर ईसुरी के बाल मन के स्वगत कथन, जो उस वक़्त की उनकी पीड़ा को व्यक्त करते हैं, इतने मार्मिक बन पड़े हैं, कि पाठक के आंसू कब बहने लगते हैं, पता ही नहीं चलता. मुझे बालक ईसुरी के रुदन के बीच तीन बार चश्मा उतार के आंखें पोंछनी पड़ीं. थोड़ी देर आंखें बन्द करके बैठना पड़ा....! पिता ने ईसुरी का नाम ’हरलाल’ रखा था. लेकिन उनके मामा ने उन्हें ईसुरी नाम दिया. ईसुरी के व्यक्तित्व में तमाम गुणों के साथ-साथ एक और गुण विद्यमान था, ईश्वरीय साक्षात्कार का. उनकी अनेक समस्यायें, अर्धचेतन अवस्था में प्रकट होने वाली ’माई’ ने सुलझाईं. ये दैवीय शक्ति उन्हें सपने या बेहोशी में उनकी मां के रूप में दर्शन देती थी और राह सुझाती थी.

मामा ने १३ वर्षीय ईसुरी का विवाह सीगौन नामक गांव की कन्या श्यामबाई के साथ तय कर दिया था. जो बाद में उनके अपने ददिहाल लौटने के पश्चात सम्पन्न हुआ. ईसुरी किस तरह अपनी ब्याहता श्यामबाई दोस्त, सखा, साथी थे, बहुत प्यारा वर्णन लेखिका ने किया है. आपसी सम्वाद मन को बांधे रहते हैं. काम के सिलसिले में ईसुरी का उनकी ससुराल जाना, वहां साधुओं की टोली का आना, और उन्हीं के सवाल पर जवाब के रूप में पहली बार काव्य पंक्तियां नि:सृत हुईं-

कां लौ सोचौं, कां लों जानों

मैं आपड़ा अज्ञानी

तुमई बता दो, का कै रएते

ईसुर तुम हौ ज्ञानी

इसके बाद ईसुरी के लेखन का सफ़र जो शुरु हुआ, वो रुका नहीं. उनका मित्र धीरे पंडा उनका सबसे सगा साथी साबित हुआ. ईसुरी की लगभग सभी रचनाओं को कलमबन्द करने का श्रेय उन्हीं को है. बाद में काम के ही सिलसिले में ईसुरी धौर्रा आ गये और फिर उनका अधिकान्श समय धौर्रा में ही बीता. उनकी लेखनी का स्वर्णिम दौर इसी धौर्रा गांव में फला-फूला. बुन्देलखंड में एक समय फड़बाज़ी की प्रथा खूब प्रचलित थी. ग्राम्य जीवन अपने मनोरंजन का साधन इन्हीं फड़ों को मानता था. फड़ भी एक से बढ़कर एक कवियों के ठिकाने थे. फड़बाज़ी के इसी चस्के में ईसुरी की चौकड़ियां, ईसुरी की फागें, सब लिखी गयीं. नौगांव छावनी में पदस्थ, अंग्रेज़ों के मुसाहिब जंगजीत सिंह का पात्र भी बखूबी उभर के आया है. जंगजीत सिंह इस उपन्यास और ईसुरी के जीवन के एक बेहद अहम किरदार हैं. सम्भवत: उन्हीं के आरोपों के चलते ईसुरी अपने जीवन्काल, और जीवनोपरांत भी तमाम विवादों में घिरे रहे. असल में ईसुरी की पत्नी श्यामबाई का घर का नाम था ’राजाबेटी’. ईसुरी ने जितनी भी फागें लिखीं, उन सब में ’रजऊ’ का उल्लेख है. ये रजऊ ईसुरी की पत्नी श्यामबाई ही हैं. ईसुरी का अपनी पत्नी के प्रति अगाध प्रेम था, उनके बिना वे निष्प्राण से हो जाते थे. तो उनका नाम, ईसुरी की रचनाओं में आना स्वाभाविक है. लेकिन चूंकि मुसाहिब जंगजीत सिंह की बेटी का नाम ’रज्जूराजा’ था. ईसुरी की चौकड़ियां हों या फागें, रजऊ के बिना पूरी ही न होती थीं. तो कुटिल जनमानस ने अनुमान लगाना शुरु कर दिया, कि ये रजऊ रज्जूराजा ही हैं. जंगजीत सिंह ने एक बार ईसुरी को बुला के ताक़ीद भी किया, लेकिन ईसुरी ने जब उन्हें असलियत बताई तो वे थोड़ा मुतमईन हुए. लेकिन कान भरने वाले कहीं ज़्यादा होशियार निकले.इस पूरे मामले में ईसुरी को कितना अपमान झेलना पड़ा, बेहद मार्मिक और सजीव चित्रण किया है लेखिका ने.

ईसुरी की कर्मभूमि बगौरा और धौर्रा गांव रहे हैं. कुशाग्र बुद्धि के ईसुरी अपने काम काज में बहुत होशियार थे. चूंकि वे इन दो स्थानों पर सबसे लम्बे समय तक रहे तो उनकी रचना स्थली भी ये ही दो स्थान बने. पत्नी श्यामबाई की अचानक हुई मृत्यु ने उन्हें तोड़ दिया. वे बीमार हो गये तब उनकी बेटी गुरन उन्हें अपने साथ, अपनी ससुराल ले आई. उनके अन्तिम दिन बेटी के पास ही गुज़रे. एक संत की भांति उन्होंने अन्तिम सांस भी बेटी के पास ही ली, समाधि अवस्था में.

136 पृष्ठों के उपन्यास को मैने मात्र दो पृष्ठों में सहेज दिया है. जब आप इस उपन्यास को पढ़ेंगे तो जानेंगे कि मेरी इन चंद पंक्तियों के मध्य कितनी-कितनी रोचक घटनाएं बिखरी हुई हैं. उपन्यास का अधिकांश भाग विशुद्ध बुन्देली में है. होना भी चाहिये था. खड़ी बोली में हमारे बुंदेली ईसुरी को यदि व्यक्त किया जाता, तो ये उनके साथ अन्याय हो जाता. असल में, खड़ी बोली में उन की आत्मा तक पहुंचा ही नहीं जा सकता था. दया दीक्षित ने इतनी मीठी बुन्देली का इस्तेमाल किया है कि मेरे पास शब्द नहीं उनकी तारीफ़ के लिये. सम्वाद इतने सहज और बुन्देली रस से भरे हुए हैं, कि लगता ही नहीं हम पढ़ रहे हैं. सजीव पात्र जैसे बोलने लगते हैं. इतने सजीव सम्वाद बहुत कम मिलते हैं, किसी की भी लेखनी के ज़रिये. बुन्देली कहावतों, उलाहनों का खूबसूरत इस्तेमाल किया है लेखिका ने.

                 किसी भी इतिहास पुरुष पर लेखनी चलाना आसान काम नहीं है. एक तो ऐसे चरित्र पर लिखने से पहले बहुत शोध की आवश्यकता होती है. उन पर लिखे गये ग्रंथ, उनको चाहने/मानने वाले लोग और न मानने वाले लोगों से भी मेल-मुलाक़ात बहुत ज़रूरी हो जाता है. फिर चरित्र यदि ईसुरी जैसा हो, तो लिखना और भी मुश्किल. ईसुरी ने जितना नाम कमाया, उतने ही विवाद भी कमाये. लेकिन ये उपन्यास  फाग लोक के ईसुरी इन तमाम विवादों को ध्वस्त करता है. उन पर लगे इल्ज़ामों से उन्हें बरी करता है और रजऊ को केवल प्रेमिका की छवि से मुक्त करता है. रजऊ से प्रेम में जिन फागों को अनैतिक और अश्लील करार दिया था, पत्नी राजाबेटी के रूप में तब्दील होते ही ये प्रेम अलौकिक हो गया. फागें सुहानी हो गयीं. लेखिका ने तमाम मिथक तोड़े हैं, ईसुरी से जुड़े.

                 बुन्देली समझने वाले, नहीं समझने वाले हर साहित्यप्रेमी को ये उपन्यास पढ़ना ही चाहिये. अमन प्रकाशन-कानपुर से प्रकाशित ये उपन्यास भविष्य में नये प्रतिमान स्थापित करेगा, ये मेरा दावा है. हां प्रकाशक की ज़िम्मेदारी है कि वो इस अद्भुत उपन्यास के महत्व को समझते हुए इसका भरपूर प्रचार-प्रसार करे. बढ़िया छपाई के लिये और उससे भी ज़्यादा बेहतरीन प्रूफ़ रीडिंग के लिये प्रकाशक बधाई के पात्र हैं. पुस्तक का कवर पेज़ बहुत शानदार है. मेरी शिक़ायत इस उपन्यास के शीर्षक से ज़रूर है. पहली नज़र में ये शीर्षक किसी उपन्यास का शीर्षक नहीं लगता, बल्कि निबन्धात्मक/शोधपरक पुस्तक का आभास देता है. लेकिन उपन्यास इतना रोचक और भाषा इतनी कसी हुई है, कि फिर उपन्यास का शीर्षक गौण हो जाता है. लेखिका को दिल से बधाई, इस कालजयी सृजन के लिये.

उपन्यास : फाग लोक के ईसुरी

लेखिका : डॉ. दया दीक्षित

प्रकाशक : अमन प्रकाशन- कानपुर

ISBN : 978-93-89220-87-2

पृष्ठ संख्या : 136

मूल्य : 175/