शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

होली के रंग, किस अपने के संग? - रंग-बिरंगी परिचर्चा

होली............इन दो अक्षरों में कितने रंग समाये हैं.......आसमान की तरफ देखो तो लाल, गुलाबी, पीला, नीला, बसंती....रंग ही रंग दिखाई देता है फागुन के महीने में, होली हो न हो. ...किसी ने फागुन कहा और रंग से बिखर जाते हैं. कहा जाता है, कि इस माह में द्वेष की जगह राग की भावना प्रबल होती है .होलिका दहन भी तो बुराइयों का दाह-संस्कार ही है. लीजिये...भाषणबाजी पर उतर आई मैं तो!
बात रंगों की हो रही थी. हमें लगा की क्यों न हम अपने ब्लॉगर बंधुओं से सच उगलावाने की कोशिश करें? तो हमने आनन्-फानन परिचर्चा कर डाली. अब कितना सच कह रहे हैं आप ये तो.....चलिए आप भी आनंद लीजिये इस परिचर्चा का.

सतीश सक्सेना:बड़ा टेढ़ा और बेतुका सवाल , और वह भी जवानी के दिनों से २०-२५ साल बाद पूछा जाये तो सीधा जवाब होगा अरे भाई हमें तो पत्नी के साथ ही होली का मज़ा आता है , मगर अन्दर से आवाज आती है ....दिल कहे रुकजा रे रुकजा यहीं पर कहीं , जो बात इस जगह है कहीं पर नहीं .....
और अगर आपके सामने विकल्प हों तो किसे चुनेंगे ? मन ठंडी सांस भर के कहता है कि काश सपना सच हो सके मगर प्रकट में अजी आप दस विकल्प भी दे देंगे तब भी पत्नी ही चुनेंगे , केशव का नाम जबरदस्ती भुला कर प्रकट में तो राम रूप ही मानेंगे अपने आपको !

तिलक राज कपूर:अब इस उम्र में पत्‍नी के अलावा किसी और का नाम भी ले लिया तो ......। खैर ये तो घर-घर की कहानी है जिसमें घर की बात नहीं एक खटारा बस की बात है जो घर-घर करती है। और बस भी ऐसी कि अपने बस में नहीं है। बस में क्‍यूँ हो, वो तो कार में घूम रही है। और किसी काम से नहीं बेकार में घूम रही है। और तो और घूम रही है या झूम रही है इसमें अंतर करना मुश्किल हो रहा है। अंतर तो हमारे जैसा सीधा-साघा प्राणी क्‍या करेगा जो किसी मंतर के अधीन हो। आप पूछते हैं किस मंतर के अधीन हो भाई। लो जी प्रश्‍न भी करते हो और उत्‍तर भी जानते हो। आप ही ने तो कहा 'किस' मंतर के अधीन हो। अब ये 'किस' का मंतर भी अजीब है। लोग कहते हैं कि कभी इमरान हाशमी की फि़ल्‍म देखो, क्‍या दमदार किस रहते हैं तो पड़ोसी का छोटू कहता है कि अंकल इमरान हाशमी कहॉं लगता है, इस मामले में जो बात पुरानी फि़ल्‍मों में होती थी वो इमरान अंकल के किस में कहॉं, हमने कहा कि ज्ञानी महाराज जी जरा विस्‍तार से समझाओ आपकी बात कुछ समझ में नहीं आई। तो बोला कि आपको इमरान अंकल के किसी किस की आवाज़ सुनाई दी, हम खड़े हैं भौंचक्‍क कि ये कोनसी नई फिलासफ़ी आ गयी किस की आवाज़ की। बच्‍चा समझदार है, हमारी कठिनाई समझ गया, बोलता है 'देखो अंकल, इमरान अंकल के किस में आवाज़ नहीं होती, जबकि पुरानी फि़ल्‍मों में किस की आवाज़ होती थी'। फिर समझ से बाहर, हम फि़र भौंचक्‍क खड़े हैं, वो फि़र हमें समझाता है 'अंकल आपने वो पराना गाना नहीं सुना 'आवाज़ ये किस की आती है'; देखा उस ज़मानें में किस की आव़ आती थी। बच्‍चा भाग गया हम फि़र भौंचक्‍के खड़े हैं।

शमा:कल्पना तो अच्छी है..लेकिन मुझसे ईस्वक्त कोई पूछे तो जवाब होगा, होली खेलना क्या मै सोचभी नही सकती...! घरसे ५ मिनटों के अंतरापे बम धमाका हुआ...एक मृत लड़के की माँ( लड़का वाडिया कॉलेज में पढता था), उसे बार,बार आँखें खोलने को कहती रही थी..वो मंज़र मेरी निगाहों के आगे से जाता नही...अपने आपसे एक सवाल करती हूँ..कहीँ परदुख: शीतल तो नही होगा?
धमाके हमारे गिरेबाँ से अब और कितने दूर हैं? या और कितने अधिक पास होंगे? हम कबतक खैर मना लेंगे?
वंदनाजी, क्यों न होलिमे आप पहल करें और इंडियन एविडेंस एक्ट २५/२७ को होलिका में जला दें?मै तो इस बारेमे लिख लिख के थक गयी हूँ...! यही वो एक्ट है जो तस्करी को शरण दिए हुए है..चंद साल पहलेकी एक मज़ेदार यादगार है:
हमलोग मुंबई में एक सरकारी निवास स्थान में रह रहे थे. होली शुक्रवार के दिन थी, तो लम्बा वीक एंड था.
मेरी एक सहेली जो किसी पाठशाला की प्रधान अध्यापिका थीं, मेरे साथ कुछ समय गुज़ारने पुणे से मुंबई आ गईं. वो,मेरी बेटी, और मै एक कमरे में बैठ गप लगा रहे थे. पति बाथरूम में थे. इतनेमे दरवाज़े की घंटी बजी. होली खेल रहे अफसरान आके खड़े हो गए. दरवाज़ा हमारे अर्दली ने खोला. मै वहाँ पहुँच पाऊँ उससे पहले उस टोली ने अर्दली से पूछा '" साहब कहाँ हैं?"
अर्दली:" साहब बाथरूम में हैं".
मै दौड़ी ! मुझे पता था,कि, पतिदेव को होली से चिढ है...और उन्हें गोल्फ खेलने जाना था !
मैंने उन सबको मीठा और नमकीन पकडाते हुए कहा :" अरे इस अर्दली को कुछ पता नही... अभी पहुँचा है...इन्हें तो गोल्फ खेलने जाना था..कबके चले गए...!"
एक अफसर:" अरे कहीँ बाथरूम में तो नही छुपे?"
हमारे परम मित्र, पड़ोसी बोल पड़े:"अरे नही,नही...मुझे पता है...छुट्टी का दिन होते ही जनाब गोल्फ खेलने निकाल पड़ते हैं...चलो आगे चलते हैं..."
जैसे ही मैंने दरवाज़ा बंद किया, मै बाथरूम की और दौड़ी और खटखटा के इनसे कहा," जबतक मै ना कहूँ,बाहर मत आना..."
मज़ेकी बात यह कि, इन्हें पाखाने में बैठे बैठे पूरा अखबार पढ्नेकी आदत है...वरना constipation हो जाता है! खैर!
मै अपनी सहेली के पास लौट आयी और हम गप लगाने में मशगूल हो गए. मार्च का महीना था..मुंबई में वैसे ही पसीने वाली, चिपचिपाहट भरी गर्मी रहती है. आधे घंटे से अधिक समय बीत गया...
अचानक सामने मेरे पती महोदय आके खड़े हो गए! मैंने अपनी ही धुन में पूछा," अरे आप अभी तक गोल्फ खेलने नही गए?"
पति( घुस्से में):" क्या बात करती हो...! बाथरूम के दरवाज़ेपे खटखटा के तुमने कहा, मै कहूँ तब तक बाहर मत आना...वजह तक बतायी नही..मैंने पूरा अखबार ३-४ बार पढ़ डाला...और मुझ से पूछ रही हो, गोल्फ खेलने नही गए! हद है!"
मै इन्हें बाहर आनेसे मना तो कर आयी,लेकिन बाहर आने के लिए कहना साफ़ भूल गयी..!
कुछ देर तो डर के मारे मेरा मूह लटक गया होगा,लेकिन सहेली और बेटी कमरे में होने के कारण मैंने बदहवास होके हँसना शुरू कर दिया...बेटी और सखी दोनों ज़ोरसे हँस पड़े...पति महोदय, पसीने में लथपथ ,कपडे बदल गोल्फ के लिए निकाल पड़े!


देवेन्द्र कुमार:
बड़ा ही नेक काम कर रहीं हैं ..लेकिन सवाल जरा टेढ़ा पूछ रही हैं ! अरे..सब बाल-बच्चे वाले लोग हैं क्या मजाल कि लिख दें 'प्रेयसी' के साथ ! वैसे इस मामले में मैं सेफ हूँ पत्नी कहूँ, मित्र कहूँ या प्रेयसी ..ले दे कर बस एक ही तो है लेकिन उनका क्या होगा ...!

भगवान आपकी रक्षा करे और इरादे को सफल बनाए.

रानी विशाल:
वैसे तो वंदनाजी परदेस में यहाँ अपने वतन से दूर, अपने दोस्तों रिश्तेदारों से दूर होली के दिन मन दुखी तो हो जाता है क्योकि होली तो मिलाने मिलाने का ही त्यौहार है!

पर जब आपने किसी का चुनाव करने को कहा है तो झूट नहीं बोलेंगे ....वो बताने में थोड़ी लाज तो आती है मगर सबके साथ भी बिन पियुजी होली का रंग तो फीका ही लगेगा ! अब तो आलम ए इश्क ये है कि
डारे मो पे रंग पियाजी
मोहे प्रीत को रंग बहकाए
की आयो फागनियों
की आयोजी फागनियो़

सच्चे शब्दों में होली खेलने का सबसे ज्यादा मज़ा तो उन्ही के साथ है ! सभी को होली कि शुभकामनाए!!

डा.मनोज मिश्र:"होली के रंग-मित्रों के संग....."
मैं तो होली अपनें मित्रों के साथ ही खेलना चाहूँगा.जो होली मैंने हास्टल में मित्रों के साथ खेली वह अब तक जीवन की सर्वश्रेष्ठ होली थी . वह आनंद न तो पत्नी के साथ है और न तो प्रेयसी के साथ . इलाहाबाद में हमारे छात्रावास के सभी लोग जिनकी संख्या करीब १५० के आस-पास हुआ करती थी ,छात्रावास के आस-पास ही नहीं अपितु समूह में ढोल -मजीरे केसाथ पूरे कटरा-दरभंगा कालोनी तक होली खेलनें चले जाते थे. भंग की तरंग में समूह गान फाग-कबीर-जोगीरा सर्रर्रर का ऐसा उल्लास जो कि न भूतो न भविष्यति.काश एक बार फिर वैसा हो पाता. ...

राज भाटिया:

अरे हम तो अपनी पत्नी को ही चुनेगे, क्योकि वोही हमारी प्रेयसी भी है ओर मित्र भी, यानि सब कुछ, फ़िर किसी ओर को चुनना पडेगा तो अपने बच्चो को चुनेगे, ओर फ़िर .... आप सब को

दिगम्बर नासवा:
सच पूछो तो पत्नी को चुनुँगा .... अब आप पूछेंगी की पत्नी को क्यों ... तो वो इसलिए कि मेरी पत्नी मेरी पत्नी के अलावा प्रेयसी और मित्र दोनों ही है ..... हाँ पत्नी के अलावा कोई प्रेयसी बन गयी ( इन ७-८ दिनों में ) तो उसको भी जरूर चुनुँगा .... होली दरअसल मेरा सबसे प्रिय त्यौहार है और आज के दिन सब कुछ दिल खोल कर, सब कुछ भूल कर करना चाहिए और करने देना चाहिए ...

विवेक रस्तोगी:होली के रंग अपनी पत्नी के संग, क्योंकि उनको रंग लगाने का आनंद ही कुछ ओर है, हम अपना प्यार रंगों में भिगोकर, पिचकारी से उनको प्यार से सारोबार कर सकते हैं। रंगो में बहुत ताकत होती है विषम परिस्थितियों को भी ठीक कर देती है।

गौतम राजऋषि शुक्रिया वंदना जी,पहले तो होली की आप को अग्रीम खूब-खूब रंगभरी शुभकामनायें। ग्यारह साल अभी सेना में हो जाने के बाद और उससे पहले के चार साल प्रशिक्षण में...तो विगत पंद्रह सालों से होली वर्दी वालों के संग ही मन रही है। तो अब कहीं और किसी के साथ होली मनाने की कामना भी नहीं पनपती...अपने जवानों के साथ होली मनाने में, उनके संग नाचने-गाने का लुत्फ़ अवर्णनीय। एक पर्व जो रैंक्स के तमाम भेद-भाव को मिटा देता है, मैं शायद कभी मिस करना नहीं चाहूंगा।

अविनाश वाचस्पति:प्रिय वन्‍दना जी, प्रसन्‍न रहें।आपके द्वारा ब्‍लॉग पर होली के अवसर पर किया जाने वाला आयोजन इन्‍द्रधनुषीय रंग बिखेरे, इन्‍हीं रंगीन पर संगीन नहीं, रंगकामनाओं के साथ मैं अपने विचार दे रहा हूं। जहां तक होली के रंगों का संबंध है तो पत्‍नी के संग तो जीवन भर की विविधरंगी होली तो रोजाना ही खेली जाती है। उसमें प्‍यार के, मनुहार के, शिकवों के, शिकायतों के अनेक पर नेक रंग घुले मिले होते हैं।

इस उम्र में अब कहां प्रेयसी ? मैं आपको बतलाऊं इंटरनेट पर ब्‍लॉग ही मेरी प्रेयसी बल्कि प्रेमिकाएं हैं जितने ब्‍लॉग उतनी प्रेमिकाएं या जितनी पोस्‍टें वे सभी मेरी प्रेमिकाएं ही हैं। फिर उन पर आने वाली टिप्‍पणियों को क्‍या कहूंगा, अगर आप इस बारे में जानना चाहेंगी तभी बतलाऊंगा और इस बारे में विचार भी तभी करूंगा।

जहां तक रही मित्रों की बात, तो इस बार प्रयास है कि दिल्‍ली में ब्‍लॉगरों से रंग लगवाया जाये और लगाया जाये जिससे ब्‍लॉगिंग का अद्भुत रंग तन से अधिक मानस पर अपने भव्‍यतम रूप में निखर कर महके।

वैसे एक सच और बतला रहा हूं, वैसे भी मैं सच के अतिरिक्‍त भी सदा सच ही बोलता हूं। इसी सच में मेरे व्‍यंग्‍य खौलते रहते हैं। यह खौलना एक प्रकार से सच्‍चाईयों का खुलना ही है। इसी खौलने, खुलने के फेर में शब्‍दों के नये नये अर्थ भी खुलते हैं और नये नये संदर्भ भी बन कर सामने आते हैं। इसे भी मैं लेखकों की शब्‍दों के साथ एक नये प्रकार की होली ही मानता हूं और मुझे विश्‍वास है कि इस नजरिये से देखने पर सब इस बात का समर्थन ही करेंगे।

शब्‍दों के साथ खेली जा रही इस होली को किसी मौसम विशेष का इंतजार नहीं रहता और जब इसे पाठक पढ़ते हैं तो वे भी शब्‍दों के अनूठे रंग में तरबतर हो जाते हैं और शब्‍दों की इस होली का भरपूर लुत्‍फ उठाते हैं। अपनी यादों में ऐसा बसा लेते हैं कि पाठक के मन मानस को तरंगित कर रंजन प्रदान करते हैं।

इसलिए वंदना जी आपने एक को चुनने के लिए कहा और मैंने किसी को छोड़ा ही नहीं अपितु शब्‍दों को भी होली में जोड़ लिया है। जब हमें बढ़ना है तो सभी को साथ लेकर बढ़ें, चाहे होली खेलने के लिए ही क्‍यों न बढ़ना हो, किसी को छोड़ने के बजाय सभी को साथ लेकर चलने में जो आनंद है, वो स्‍वयं में होलीयत्‍व आनंद ही है। इस प्रकार के सभी आनंद सामूहिकता में ही पराकाष्‍ठा को प्राप्‍त होते हैं। अब अगर सिर्फ ब्‍लॉगर पोस्‍टें ही लिखते और उन पर टिप्‍पणियों की सुविधा न रही होती तो फिर अखबार की, टी वी की, रेडियो की दुनिया और ब्‍लॉगिंग के संसार में क्‍या अंतर होता और इसी लेखक पाठक के तुरंत और सीधे संवाद ने इस नये माध्‍यम को अभूतपूर्व ख्‍याति दी है और आप देखना जल्‍दी ही यह माध्‍यम जल्‍दी ही अन्‍य सभी माध्‍यमों को दरकिनार कर शिखरत्‍व को प्राप्‍त होगा।

इसी कड़ी में मैं यह भी बतलाना चाहूंगा कि जबलपुर के श्री गिरीश कुमार बिल्‍लौरे इस बार पॉडकास्‍ट के जरिए होली पर हंगामा कर रहे हैं और इसमें नये और पुराने सभी ब्‍लॉगरों के अनुभवों को उनकी ही आवाज में बांट रहे हैं। इसी प्रकार आपका यह आयोजन भी अनूठा है। आप इस परिचर्चा में जिनके भी विचार सम्मिलित कर रही हैं उनके ई मेल पते और ब्‍लॉगों के लिंक भी देंगी तो इस परिचर्चा को पढ़कर आनंद लेने वाले पाठक सीधे संवाद भी कर सकेंगे।

आपको होली के इस ब्‍लॉगीय परिचर्चा के आयोजन के लिए मन से वंदन है वंदना जी। यही वंदन चंदन बन महक रहा है।
सस्‍नेह।
अविनाश वाचस्‍पति

उम्मेद सिंह साधक:मान लिया है आपने, नर हैं सारे ब्लागर
यह होली की भूल है, अथवा है कोई ब्लण्डर?
यह तो है कोई ब्लण्डर, नारी का भी मन है
वह किसके संग खेलेगी, सवाल प्रचण्ड है.
यह साधक सबको ही अपना मान रहा है.
सारे ब्लागर से खेले, यह मान रहा है.
काजल कुमार: "होली के रंग-किसके संग?"

अख़बार, टी.वी. और कंप्यूटर संग

सादर सस्नेह
काजल कुमार


मनु "बे-तक्ख्ल्लुस: वंदना जी..होली के रंग एकदम तनहा..ना पत्नी ना प्रेयसी...और ना ही कोई और...एक दिन ..सिर्फ और सिर्फ अपने लिए...


सत्येन्द्र तिवारी: कल फिर जोधपुर जा रहा हूँ कुछ चिडियों और हिरनों की फोटो खींचने.फिर होली जयपुर में हाथियों का त्योंहार देखते हुए मनाई जायेगी.शुभकामनाओ सहित
प्रकाश पाखी:
मैं अपनी होली अपनी कल्पनाओं में अपनी तीन प्रेमिकाओं के साथ मनाना चाहूँगा जिनसे आम हिन्दुस्तानी की भांति इक तरफ़ा प्यार किया था...पहली तो वह थी जब हम छठी में पढ़ते थे और हमारे बापू ने पजामे के कपडे को खाकी रंग में रंगवा कर हमारे लिए जीवन की पहली पेंट सिलवाई थी और तब हमारे पड़ोस में रहने वह आई थी..वह अपनी खूबसूरत पोशाक में बार्बी डाल थी,तो हमारी नई ड्रेस भी बकरे की खाल थी...बस, प्यार दीवाना होता है मस्ताना होता है...जो हमें हो गया ..हम पढ़ाई छोड़ कर इश्क करने लगे...और पहले टेस्ट में ही काफी सारे अंडे इकट्ठे हो गये ...फिर वही होता है जो होना होता है..हमारे इश्क का भूत बापू और गुरूजी की लातो थप्पड़ों और डंडो से झाडफूंक कर उतार दिया गया...हम इजहार तक नहीं कर सके और प्यार उतर गया...काश होली पर वह बार्बी हमारे साथ हो तो उससे कम से कम कह तो दूं कि ........??

दूसरी हमें कालेज में मिली जब उसने संगीत के फंक्शन में ''उई शमाशा उई ...ले जा प्यार जरा सा'' पर डांस किया था और हमारा पूरा प्यार ले गई...बदले में हमने ''जंगी राम की हवेली'' प्ले किया ,कविता पाठ भी किया ..त्याग इतना किया कि हमारी पढ़ाई एक बार फिर कमबख्त इश्क कि बलि चढ़ गई ..हम उसको इम्प्रेस करने के लिए बास्केट बाल,क्रिकेट,चेस एथेलेटिक्स के कालेज चेम्पियन बने पर उसकी रुचि पढ़ाकू लड़कों में थी (न कि लड़ाकू पठाकों में)जो हम बन न सके..हम अपनी आँखों के सामने उसको स्वार्थी कमीने किताबी कीड़ों से ठगा जाता देखते रहे ..उससे कहना चाह रहे थे कि, ''शमाशा,ये तुमसे नहीं तुम्हारे नोट्स से प्यार करते है...और तुम्हारे प्रोफ़ेसर पिता से प्रेक्टिकल में नंबर लेना चाहते है...ये तुम्हे धोखा दे रहे है.. तुम्हारा असली प्यार मैं हूँ मैं!'' पर शब्द दिल में घुट कर रह गए.आवाज दिल के गहरे तहखाने से कभी भी बाहर नहीं निकली.हाँ हम कालेज से रेस्टिकेट होकर निकल गए जब हमने बर्दाश्त नहीं हुआ और एक पढ़ाकू प्रेम चोपड़ा का (उससे प्रेम का इजहार करता देख) खोपडा खोल दिया...और इसके साथ ही हम उसके दिल से भी निकल गए हमेशा के लिए....इस होली पर वह साथ होती तो हम उसे कह डालते...शमाशा,.....!!!!!!!!!!
तीसरी हमें बी एड के दौरान मिली...वह स्टाइलिश थी,माड थी...हमने पहली बार जींस टॉप में कोई लड़की देखी थी,पर हम अपनी पुरानी गलतियों से काफी सीख चुके थे इसलिए उससे बात तो कर ली...उसके लिए तीन दोस्तों ने चंदा करके एक गिटार लिया..गिटार की क्लास भी ज्वाइन की ..पर गिटार के गुरूजी आलाप सिखाने में ज्यादा रुचि रखते थे...और आलाप से तो हमारे किये कराए पर पानी फिर सकता था..हमने रूंआसे होकर गुरूजी से विनती की ..पर गुरूजी ने कहा संगीत तो साधना है इसे साधने के लिए जीवन भी कम पड़ता है.हमारा गिटार हमारी उँगलियों से प्रेम धुन बजाने के लिए तरसता रहा...और बी एड समाप्त होने आई...हम उससे भी अपने प्रेम का इजहार न कर सके...तो सोचा उससे ही इजहार करवा लिया जाए...हमने एक ऑटो ग्राफ बुक ली और उससे अनुरोध किया कि उस पर हमारे लिए कुछ लिख कर दे...हमें पूरी रात नींद नहीं आई...दुसरे दिन उसने ऑटो ग्राफ बुक लौटाई और बाय! कहते हुए चली गयी.हमने धडके दिल से पढ़ा,उसमे लिखा था-
''नेवर बी डांटेड फ्राम फेलिअर्स,फॉर फेलिअर्स आर द स्टेपिंग स्टोंस तो द सक्सेस''
इस होली पर वह साथ होती तो उसे कहते ''स्टाइलिश, ..........????



इस्मत जैदी:
लाल, नीले, हरे, पीले रंग होली के हमारे मन से उदासी निकाल देते हैं ,
ये पर्व हम को पढ़ाता है पाठ समता का
हर इक से मिल के गले मन को बांध लेते हैं
बस मेरे लिये ’होली’ यही है ,टीका लगवाना तथा सौहर्द्रापूर्ण वातावरण में अप्नी सखी वन्दना और अन्य लोगों से बातें करना .मुझे दूसरों को होली खेलते हुए देखना अच्छा लगता है ,जब तक कि उस्में फूहड़्पन और बद्तमीज़ी शामिल न हो ,लेकिन रंग और मैं? प्रश्न ही नहीं उठ्ता
मैं बड़ों से आशीर्वाद ले लेती हूं बस .
इस वर्ष ये पर्व मैं अपने परिवार और वन्दना के साथ मनाना चाह्ती हूं .
आप सभी को होली की शुभ कामनाएं.
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सुदाम पाणिग्रही:Whatever colors, I have got in my life, be it in the form of smile or happiness or son or daughter, all because of her. The idyllic happiness that I get in her presence is immense and ineffable. Her presence manifests different hues of life that we share and celebrate. Once in a year the festival of colors come and I would certainly like to splash colors to her and also cherish similar splashing of colors from her.


As Holi comes near, I am wishing a very happy Holi to you all. But… my lovable colors for her. Thanks

रेखा श्रीवास्तव:
हाय ! क्या विषय चुना है? होली के रंग , किसके संग!अरे जब लिखने बैठी हूँ, तो ढेर से चेहरे सामने घूमने लगे. किसको चुनूं? हंसी और मजाक के रिश्ते ही होली के दिन मस्ती करने के लिए मिलते हैं.

मेरा यह प्रयास रहता है कि खुश जो हैं वे तो ख़ुशी बाँट लेते हैं और हो भी लेते हैं किन्तु कहीं नकहीं कुछ ऐसे भी घर होते हैं, जहाँ पता नहीं क्यों ख़ामोशी घर किये रहती है और ऐसे लोगों के साथ होली कि मस्ती बांटी जाय. कि कुछ क्षण के लिए ही सही वे भी अपने गम भूल कर रंगों में डूब जाएँ.:

ये होली मेरी एक रिश्तेदार हैं , जिनके पति का अभी कुछ महीने पहले अचानक निधन हुआ है और मैं उनके घर जाकर होली तो क्या खेली जायेगी लेकिन कुछ घंटे उनके साथ उस माहौल से बाहर निकालने का प्रयास करूंगी. ताकि बच्चे और बड़े कुछ देर सबके साथ बैठ कर अपने गम को भूल जाये.



रश्मि रविजा:वंदना जी,ये क्या पूछ लिया आपने,मेरी कल्पनाओं को पर लग गए और ....जाने कहाँ कहाँ से कितने चेहरे आँखों के सामने घूम गए...ऐसा लगा जैसे मैं किसी राज सिंहासन पर विराजमान हूँ और सामने खड़े गुरुदत्त,दिलीप कुमार,संजीव कुमार,अमिताभ, आमिर, शाहरूख ,शाहिद,गावस्कर, द्रविड़ ,किताब के पन्नों से निकल..चंदर,शेखर,देव,डार्सी,हेडली सब मनुहार कर रहें हों.."मेरे संग खेलो होली...ना ना मेरे संग खेलो."

पर इन सबके बीच एक ऐसा चेहरा हौंट करने लगता है,जिसकी नसें हमेशा तनी होती हैं,भृकुटी हमेशा चढ़ी रहती है,वो है मेरी पड़ोसन का चेहरा.हमेशा सबके अधिकारों के प्रति सजग.कभी बिल्डिंग के सेक्रेटरी से भिड़ जाती है,कभी बच्चों से तो कभी वाचमैन से.कभी कभी कुछ महिलाओं से भी अनबन हो जाती है उनकी.ऐसा लगता है बस कमान पर चढ़ी तीर की तरह रहती है...अब छूटी की तब छूटी.बस मन है उनके ऊपर एक बाल्टी रंग डाल, गालों पर गुलाल मल दूँ और एक जोर की जादू की झप्पी देकर बोलूं..." "Chill सबकुछ ठीक है."


शाहिद मिर्ज़ा शाहिद: मुक्तक
खिल उठें दिल सभी उल्फ़त की महक से शाहिद
लेके हाथों में अबीर अम्न का टोली आए
बरसे हर सम्त फ़िज़ाओं में मुहब्बत का गुलाल
रंग खुशियों के ही बरसाए जो होली आए

वफ़ा मुहब्बत ख़ुलूस जिनमें हैं रंग सारे तेरी गली में
मेरे भी कूचे में फूल महकें तो खुशबू जाये तेरी गली में
मैं भाईचारे के गीत लिखूं तू अपनी आवाज़ से सजा दे
हों मेरे लब पर तेरी सदाएं, मेरे तराने तेरी गली में
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

समीरलाल:बड़ा ही जटिल प्रश्न पूछ लिया आपने. कितना आसान होता जबाब अगर यह ज्ञात होता कि यहाँ पर मेरा लिखा मेरी पत्नी तक किसी भी हालत में नहीं पहुँचेगा.

अब आप से क्या छुपा है? शादी सिर्फ शादी ही तो नहीं होती, कई सारे अरमानों का अंतिम संस्कार भी होता है. फिर भला कोई भी स्वहितचाही पति अपनी पत्नी का नाम छोड़ कर किसका नाम ले सकता है कि होली के रंग-किसके संग.

लेकिन जैसा कि नशे की खासियत बताई गई है कि आदमी नशे की हालत में अपनी असलियत पर उतर आता है (सभ्य भाषा में इसे कहते हैं कि अपना होश खो बैठता है और उसे अच्छे बुरे का ज्ञान नहीं रह जाता है) शायद इसीलिए कुछ नर सहानभूतिकारों ने होली के दिन भांग की ठंडाई का चलन तय किया होगा. उम्मीद रही होगी कि नशे में अपने मन का कर जाओ और बाद में जब पत्नी से पिटने की नौबत आये तो इल्जाम नशे पर धर देना. कितना आसान हो जाता है कहना कि मित्र ने ज्यादा पिला दी थी, इसलिये याद ही नहीं नशे में कैसी बहकी बहकी हरकत कर गया.

तो होली के रंग किसके संग-अजी, बिना पिये तो पत्नी के सिवाय और किसी के संग खेलने का सवाल ही नहीं है. फिर पहले गिलास के बाद हल्के सुरुर में मित्रों के संग, जरा ठुमका लगाते, ढोल बजाते और फागों गाते. फिर नाचते नाचते दूसरा गिलास अंदर जाने के बाद पुरानी प्रेमिका को तलाश कर किसी भी तरह, चाहे उसके बच्चों के बहाने ही, उसे रंग देने की कवायदत और फिर मित्रों के बीच लौट उसे रंग देने की खुशी में नाचते नाचते तीसरा गिलास और फिर भरपूर नशे की हालत में खुले आम बिना आगा पीछा देखे किसी के साथ भी होली खेलते पत्नी की सहेलियों को रंगते पत्नी द्वारा धकियाते घर लाये जाने के बाद, सारा दोष नशे को मढ़कर होली का समापन.

बस मौके की बात है कि किस समय कैसे हालात हैं वरना तो होली के रंग खेलना ही अपने आप में आनन्दायी है फिर वो पत्नी के संग हो, या प्रेमिका के या दोस्तों के या फिर कोई और.

चारों तरफ बस, रंग ही रंग हो
ठंडाई में मेवे संग भरपूर भंग हो.
आईये, मिल कर लगा लें ठुमके
होली में झूमती हर इक तरंग हो
.
-सभी को होली की अनेक मुबारकबाद-



डॉ. रूपचंद्र शास्त्री "मयंक""होली के रंग-किसके संग?"
होली के रंग तो रंग ही होते हैं। इन्हें पत्नी, प्रेयसी या मित्र की पहचान कहाँ होती है? वैसे भी होली तो गले मिलने और शत्रुओं के मित्र बनाने का पर्व होता है। ऐसे में जो भी दिखाई दिया उसी को रंग-गुलाल लगाया और गले मिल कर बधाई देने का काम कर लिया।
अब आपने मन की बात उगलवानी चाही है तो जब श्रीमती जी स्ऩान करके निकल रही हों तो पीछे से आकर दोबारा उन्हें गुलाल से सराबोर करने का आनन्द ही अलग है। 35-36 साल हो गये हैं मगर आज भी मुझे ऐसा करना बहुत अच्छा लगता है।
इस प्रकार हम होली को अलविदा करते हैं और फिर एक वर्ष होली आने का इन्तजार करते हैं।


अजय कुमार
वन्दना जी नमस्कार
सबसे पहले तो आपका आभार ,आमंत्रण देने के लिये कि "होली के रंग-किसके संग?"खेलना चाहुंगा।अब होली तो हंसी ,ठिठोली और मस्ती का त्योहार है ,तो मैं साली के साथ होली खेलना चाहुंगा ।अब इसी साल ९ फरवरी को नई नवेली सरहज का आगमन हुआ है तो उसके साथ भी --- यानी मैं दूना मजा लेना चाहता हूं ( लालची न समझें ,मेरा हक है )
सब दिनों के लिये घरवाली है ।
होली के लिये सरहज है , साली है।।
पत्नी , खुशबूदार खाना है
सलहज सलाद है ,चटनी साली है ॥
इसलिये मेरी इच्छा यही है---
रंगों की बौछार हो ,बचे न कोई अंग ।
होली का दूना मजा सरहज साली संग ॥
धन्यवाद , होली मुबारक
अजय कुमार
( गठरी ब्लाग )



रचना दीक्षित
मधुर स्मृति,
आपके मेल के जवाब में कुछ भेज रही हूँ जल्दी में लिखा है. कुछ संशोधन की आवश्यकता हो तो कर लीजियेगा. वैसे शायद मेरी पोस्ट आपके स्तर की न हो या दूसरों की मेल के साथ न बैठे तो एक सच्चे मित्र की तरह निःसंकोच अलग रख दीजियेगा. फिर कभी काम आ जायेगी. मैं कभी किसी और त्यौहार पर कोई अच्छी पोस्ट बन गई तो आपको इसके बदले में भेज दूंगी.
आभार
रचना
मेरी माँ ने जो मुझे पुकारा
तो रंगों से भर लूँ झोली
मेरी भावज जो पहले बोली
तो उस संग ही हंसी ठिठोली
मेरी बिटिया जो खिलखिलाए
तो माथे पे, सजा दूँ रंगोली
साजन, जो फूलों की कर दें बारिश
तो हो जाऊं, मैं भंग की गोली
तुम ब्लोगर जो आ जाओ
तो हवा में उड़ा दूँ रोली
ये सब कुछ, जो मिल जाये
तो समझो, मैं इन सब की ही हो ली
फिर मैं हंस हंस मनाऊं होली
रच रच रचाऊं होली.
इस बार सोचा है की इन सम्भावित लोगों में से जो मुझे पहले पुकारेगा या मिलेगा उसी के साथ मैं होली खेलूंगी.

आराधना चतुर्वेदी :वन्दना जी, मैं आपको एक लेख भेज रही हूँ.आप चाहें तो एडिट कर सकती हैं:
.वो हॉस्टल की होली...
मुझे बचपन से ही होली बहुत पसंद है.होली जलाने के लिये लकड़ियाँ इकट्ठी करने,पापड़ बनाने से लेकर रंग खेलने तक
मैं इसे खूब एन्ज्वॉय करती थी.पर मुझसे आज अगर कोई पूछे कि मैं किसके साथ रंग खेलना पसंद करूँगी, तो मैं बेशक अपनी हॉस्टल की सहेलियों का नाम लूँगी. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हॉस्टल में आकर मेरी होली और भी रंग-बिरंगी हो गयी थी यूनिवर्सिटी में होली में लम्बी छुट्टी होती थी या यूँ कहें कि सारे विद्यार्थी मिलकर छुट्टी मना लेते थे. वो दस-पन्द्रह दिन के लिये गोल हो जाते थे, तो अध्यापकों को भी छुट्टी मिल जाती थी.पर हमारे हॉस्टल में कोई भी लड़की रंग खेले बिना घर नहीं जा सकती थी, चाहे उसे पसंद हो या न हो. और जिस दिन से वास्तविक छुट्टियाँ शुरू होती थीं, उसके एक दिन पहले जो जमकर होली खेली जाती थी कि पूछो मत.मेस में स्पीकर लगाकर नाच-गाना होता था.
सभी खूब नाचते थे. नाचने का तो बहाना मिलना चाहिये होता था. होली हो और वो भी हॉस्टल में, तो बदमाशी बिना बात कैसे बने? सारे हॉस्टल्स के कुछ ट्रेडीशन्स होते थे. हमारे यहाँ टाईटिल दिये जाते थे. जितनी चाहो भड़ास निकाल लो,
टाइटिल लिखकर. हमारे बैच में हमारा ग्रुप सबसे अधिक सक्रिय था.चाहे वो इंटर-हॉस्टल कॉम्फटीशन हों, हॉस्टल में कोई कार्यक्रम हो या पढ़ाई-लिखाई हो. बी.ए. थर्ड इयर में हमलोगों ने टाइटिल निकाले. किसी को लिखावट पहचान में ना आये, इसके लिये हमने एक नया तरीका निकाला. पहले मैंने पेन्सिल से चार्ट पेपर पर सारे टाइटिल लिखे उसके बाद दो लड़कियों ने बारी-बारी से उसे स्केच पेन से दोहरा दिया. हमने रात के तीन बजे तक जागकर ये काम किया,जिससे किसी को पता ना चले. एक्ज़ाम में भी इतनी मेहनत नहीं की जाती थी. अब बी.ए. में भी कोई पढ़ता है क्या? साढ़े तीन बजे रात में इस चार्ट को नोटिस-बोर्ड के पास लगा दिया गय दूसरे दिन सुबह सब इसी के बारे में बात कर रहे थे.शक सबको हमीं पर था, पर बिना सबूत कोई कुछ नहीं कर सकता था. हमने इतनी मज़ेदार बातें लिखी थीं कि सब हँस-हँसकर लोट-पोट हुये जा रहे थे. हमारी एक बैचमेट हमारे ग्रुप से बहुत जलती थी उसे इस बात से शिकायत रहती थी कि कोई भी बात होने पर सुपरिंटेंडेंट हमको ही क्यों बुलाती थी.वो पक्की पुजारिन थी, रोज़ नहाती थी, पर, बसाती रहती थी.
हमने उसको टाइटिल दिया था-

"तेरे आने की जब खबर महके, तेरी खुशबू से सारा टी.वी. हॉल महके."

वो ये टाइटिल पढ़कर गुस्से से लाल-पीली हो रही थी. अब लाल और पीला भी तो रंग ही हैं न. इतना चलता है....न... होली में.-आराधना "मुक्ति"

हरि शर्मा :वंदना जी आपने जो प्रश्न उछाला है उसका कोई भला आदमी सही सही जवाब दे दे तो किसी ना किसी का नाराज़ होना तो तय है लेकिन आपने प्रश्न किया है तो हमारी दोस्ती की कसम जबाब भी जरूर देंगे. आपके सुझाए विकल्पों में से पत्नी से तो होली खेलने को होली तक का इंतज़ार क्यों किया जाए? बच्चन बाबा कह गए "दिन को होली रात दिवाली रोज मनाती मधुशाला". रही बात प्रेयसी की तो अभी तलाश जारी है कोई मिल गयी तो अगले साल होली उसी के साथ मनाने का वचन देता हूँ.


अब बात करे दोस्तों की तो में ये मानकर चल रहा हूँ कि दोस्त से आपका आशय पुरुष दोस्तों से है तो दोस्तों के साथ खूब होली खेली है और दोस्तों के साथ होली खेलना आनंद, उल्लास और उत्सव की त्रिवेणी है.

शादी के बाद हम दोस्त लोग एक दूसरे के घर जाकर उनके परिवार और विशेषकर दोस्त की पत्नी से भी जी भरकर होली खेलते थे. इसमें जो भाभीयां ज्यादा होशियार होती थी वो आराम से खडी होकर रंग लगवा लेती थी जिससे ये होली शालीनता और आदर के साथ खेल ली जाती थी. मुझे यही तरीका पसंद रहा है लेकिन इसमें मस्ती कम हो पाती है. एक साल ऐसा हुआ की मेरी पत्नी से घर आये दोस्तों से होली खेलने से मना कर दिया तो मुझे थोड़ा खराब लगा तो मैंने अगले साल दोस्तों को मेरे घर होली खेलने आने को मना कर दिया और खुद भी तय कर लिया की किसी दोस्त के घर जाकर होली नहीं खेलनी है


फिर भी मेरे एक प्रिय दोस्त घर आये और कहा की होली मत खेलना घर तो चल तो में उनके घर चला गया तो भाभी सामने आते ही बोली की कैसे डरकर छिपे हुए हो तो मैंने कहा की किसी कारण से मैएँ तय कर लिया है कि में महिलाओ से होली नहीं खेलूंगा. इस पर वो बोली आपने तय किया है आप मत खेलो हमने तो ऐसा कुछ तय नहीं किया है हमें तो खेलने दो तो मेरे पास उनके इस अधिकार को छीनने का कोई तरीका नहीं था और उन्होंने मुझे अपने तरीके से पूरी तरह रंग दिया.


फिर भी दोस्त और उनकी पत्नी को लगा कि मुझे इस जिद से कैसे पीछे किया जाए तो भाभी बोली कि आपको भाभियों से नहीं खेलनी है तो मेरी बहिनों से खेल आओं सालियों से खेलने के लिए मना मत करो तो शाम को हम गए तो उनकी सालियो की तो लोटरी लग गयी और मेरी शालीनता के जवाब में मुझे पकड़कर मेरी रंग, गुलाल और जाने क्या लगाकर दुर्गति कर दी. अब भी हर साल होली पर आने की मनुहार होती है लेकिन जिन्दगी की दौड़ धूप और भौतिक दूरी फिर उनकी मनुहार को सुनाने नहीं देती.

इस साल वन्दना जी आपने ये अवसर दिया है की किससे होली खेले ये बताऊ तो यहाँ जोधपुर में हूँ यहाँ हम २ परिवार है जो पास पास रहते है और मेरे इस मित्र की साली को वचन दिया हुआ है जिसे पूरा करना है तो पहले दोस्त के परिवार के साथ और फिर उनकी साली के यहाँ रंग गुलाल का उत्सव होना है इसके अलावा जिन परिवारों से यहाँ परिचय है उनके यहाँ जाकर भी स्नेह के क्षण बिताने का मन है.


ब्लोगर्स में संजय व्यास और राकेश मूथा जी से मिलाने की कोशिश करूंगा,. शोभना जी को फ़ोन पर शुभकामना देंगे. मैंने एक उड़न खटोला किराए पर ले लिया है और उसे लेकर बिभिन्न शहर और देशो की यात्रा होली पर करूंगा और होली खेलूंगा.


परदेश में बसे लोगो में उड़न तश्तरी समीर लाल जी पर रंग लगाना है पर कौनसा लगाऊं जो चढ़ सके राज भाटिया जी को रंगने का बहुत मन है और पूर्णिमा वर्मन जी, श्रद्धा जैन जी, अदा जी, लावण्या जी, सुधा ओम धींगरा जी को रंगने के लिए वीजा ले लिया है.

भारत के शहरो में उड़ने और होली खेलने का बड़ा ही व्यस्त कार्यक्रम है मुंबई जहा अपनी ससुराल भी है वहा शिप्रा वर्मा - प्रवीर वर्मा से होली खेलकर फिर रश्मि रवीजा जी के परिवार से होली खेलनी है फिर कवी कुलवंत और अनिता जी को रंगना है वही वोरीवाली में मेरे पुराने दोस्त चन्द्रभान शर्मा और उनकी पत्नी से होली खेलनी है, मराठी ब्लोगर और वहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रसाद कुलकर्णी जी से पिछली बार मिला था अब उनके साथ होली खेलनी है. ऑरकुट दोस्तों में अल्ज़िरा जी. शीला मिश्रा जी, मोनी भूषन जी, होली खेलनी है फिर अहमदाबाद में आलोकपर्ना जी से होली खेलनी है फिर इन्दोर में मेरा प्रिय युवा लेखक धीरेन्द्र है और एक पारिवारिक मित्र का परिवार है. छात्तेसगढ़ पहुचेंगे तो रायपुर में ही सभी को बिला लेंगे भिलाई से सूर्या कान्त जी गुप्ता और सुरेखा भाभी, ललित जी, पावला जी, शरद कोकस, गिरीश बिल्लोरे और महेंद्र मिश्रा जी से होली खेलेंगे फिर कोटा पहुचेंगे और वकील साहब द्विवेदी जी और डॉ गरिमा तिवारी जी से होली खेलेंगे.


दिल्ली में एक लम्बी लिस्ट है इसलिए उड़न खटोले को अविनाश जी के यहाँ खडा कर देंगे और बहा रखे कडाहे में अविनाश जी, अजय झा भाई, मिथलेश, राजीव तनेजा, खुशदीप bhaaI को रंग से भरे कडाहे में दाल देंगे और संजू भाभी, सुजाता जी को गुलाल लगायेगे. ऑरकुट दोस्तों में सवीना जी, मनु भुल्लर जी, अनीता जी और मंजू से होली खेलनी है. फिर जयपुर भी जाना है हां चिंता ना करे इसी बीच आपके यहाँ आकर आपके और ज्योति सिंह जी के परिवार से भी होले खेलनी है

जो दोस्त बच गए है वो ये जान ले की ये अधूरी सूची है और आप हमसे बतियाते रहे हम होली से ७ दिन के अन्दर वहा भी पहुच ही जायेंगे.
ज्योति सिंह :
होली के रंग किसके संग ?कितना प्यारा और ख़ास है ये प्रसंग मैं जो कहना चाह रही वो कह नही पा रही सोचने के लिए समय नही मिल रहा एक बार सोची रहने दूं सबने काफी कह दिया मगर इस आमंत्रण को खाली ठुकराना उचित नही लगा क्योंकि ये आमंत्रण ख़ास है .इसलिए जो कुछ बन पड़ रहा है लिखकर भेज रही हूँ -------
रिश्तों का बंधन अपने में नही कोई भाईजहां मिल सब खेले, फगुआ वही सुहाई ,
ज्यो राधा के संग खेले कृष्ण कन्हाई होली तो हर मनवा को यही है भायी ,
होली खेलूँ मिलकर उसके संग प्रीत के रंग बरसे जिस आँगन ,
धुल जाये जहां इस पावन रंग मेंनफरत- ईर्ष्या,भेदभाव ,जंग व द्वन्द ,
ऐसी होली मनेगी मित्रो जिस ओर चल देंगे भीगने ख़ुशी से हम उस ओर
.

अजित वडनेरकर :अव्वल तो होली अब नहीं मनाते। पहले जब मनाते थे तो न जाने कितने लोग उस दायरे में होते थे। होली ही क्या, सभी त्योहार समाज में समरसता लाने के लिए होते हैं सो पर्व-उत्सव के दिन अपना पराया कोई नहीं। सब अपने हैं। इस दिन जिसे अपना बना लिया, जिंदगी भर के लिए वह आपका बन गया। यही है पर्वों की सार्थकता। सो होली अगर मनाने का मौका आता है तो हमें सबका साथ चाहिए। मित्र-परिजन सब।


किशोर चौधरी :यहाँ मौसम में जरा सी ठंडक बनी रहा करती है और विद्यार्थी हर साल कोसते रहते हैं परीक्षा के शेड्यूल को. मुझे पता नहीं क्यों इस त्यौहार को मनाये जाने का ढंग कभी पसंद ही नहीं आया. हुल्लड़ करते हुए दलों और शारीरिक उठापटक में लगे जोकरों की बदतमीजियां कभी स्वीकार न हुई. गधा हो जाने की चाह में रंग से पुते हुए भारत के इस त्यौहार का किताबी स्वरूप ही पसंद है. आप पूछती है किसके संग खेलें होली तो जो सूझता है वह है कि इस एक दिन हम अपने भीतर के गधे से होली खेलें और ससम्मान नए साल तक के लिए बाहर का रास्ता दिखा दें. ज़िन्दगी के उड़े हुए रंग और आर्थिक असमानता के विशाल गेप को भरने का काम करने वाला ये त्यौहार किस रूप में आ गया है ये सोचता हूँ तो अफ़सोस सम्मुख आ खड़ा होता है. किन्तु सिर्फ होली ही नहीं सब त्योहारों और पर्वों पर पूंजीवादी चकाचौंध का ग्रहण लगा हुआ है. मानवीयता रिश्तों की ही तरह किताबी हो गयी है.
सबकी जिंदगी के रंग इस त्यौहार पर लौट आयें. शुभकामनाएं.

शिखा वार्ष्णेय :
वंदना जी ! जब भी इस तरह का कोई विषय होता है ...कल्पना का हवाई जहाज अपनी पूरी गति से उढने लगता है ...एक साथ कई नाम आ गए हैं जहन में.और पहला स्टॉप तो अपना बॉलीवुड ही होता है ...पहले सोचा अमिताभ बच्चन ...फिर सोचा नहीं ...अरे कौन अपने साथ एक कुर्सी ले ले कर चलेगा जिसपर खड़ा होकर उसे रंग लगाया जाये ..फिर सोचा शाहरुख़ ठीक रहेगा..वो जब तक श्श्श्श शिखा कह कर रंग लगाएगा तब तक तो पूरी बाल्टी पानी ड़ाल दूंगी मैं उसके ऊपर .और गुलाल झड़ने की मेहनत भी बचेगी वो हम्म हम्म कह कर इतना हिलता है की अपने आप ही सारा रंग झड जायेगा...फिर ख्याल आया नही .अब होली का त्यौहार प्रेम और शांति का प्रतीक है तो थोडा बहुत फ़र्ज़ हमारा मानवता के प्रति भी बनता है तो सोचा उसमा बिन लादेन को रंगा जाये ...की भाई छोडो ये आतंकवाद और दुश्मनों को दोस्त बनाओ ...उसकी दाड़ी की वजह से गुलाल लगाने के लिए कम जगह मिलेगी तो गुलाल भी कम खर्च होगा ..यानि देश की इकॉनोमी में भी योगदान रहेगा.....पर फिर सोचा...... अरे होली का इतना अच्छा त्यौहार है .काहे इन झंझटों में बिताएं ..तो जी हम तो होली खेलना चाहेंगे अपने सब स्कूल और कॉलेज के पुराने मित्रों के साथ..इस आपा धापी के युग में और इस वेदेशी धरती पर उन्हें बहुत ही मिस करते हैं हम ...तो क्या खूब गुजरेगी जब मिल कर खेलेंगे होली सब पुराने मित्र गन ....वो मस्ती वो धमाल और वो दोस्त ..बस और क्या चाहिए होली जैसे मौके पर..?


नीरज गोस्वामी :जी ...सोच में पड़ गए हैं...किसको रंग लगायें ? पत्नी को रंग लगाने का तो खैर आप्शन ही नहीं है...पूछिए कैसे ? वो ऐसे की वो तो कारी कामरी( कम्बल) है उस पर कोई रंग चढ़ ही नहीं सकता तो भाई उसे लगा कर रंग क्यूँ वेस्ट करें? वो तो खुद अपने रंग में हमें रंगे हुए है .रही प्रेयसी को रंग लगाने की बात तो वो बरसों पहले टसुए टपकाती...हमें भूल जाना...कहती हुई किसी उल्लू के साथ शादी करके चली गयी थी और अब अपने ससुराल में ढेर सारे बच्चों के साथ मस्त है, वो हमसे रंग क्यूँ लगवाने लगी, उसे लगायेंगे तो तो उसके उल्लू मियां और बच्चों की फ़ौज को भी लगाना पड़ेगा...दूसरी बात और है प्रेयसियां शादी के बाद बहुत बदरंग लगती हैं ...इतनी बदरंग के अब रंगों को उसपे लगा कर खुद को शर्म आये..? बाकी बचे मित्र? अब आज कल कोई मित्रों को भी रंग लगाता है?...मित्र तो चूना लगाने के लिए बनाये जाते हैं...उन्हें रंग लगायेंगे तो चूना किसे लगायेंगे बोलिए?
अब हम सोच में हैं के किसे लगायें रंग? एक आइडिया है क्यूँ न शीशे में अपने अलविदा कह कर जाते हुए हुस्न को निहारते हुए खुद को ही लगा लें...जैसे अमिताभ ने अमर अकबर अन्थोनी में खुद को ही बेंड एड की पट्टियाँ लगायीं थीं....क्या ख्याल है ? नेक है ना...बस तो मैं ये ही करने वाला हूँ...

सुलभ सतरंगी :होली के महीने में हवाओं में ग़ज़ब की रवानगी होती है। बिरला ही कोई इसके जादू से बच पाये। और जब बात गाँव की होली की हो तो बस यूँ कहिये "बोलो जी सर्रअरअ ररअ". इधर तीन-चार सालों से अपने प्रदेश बिहार से दूर रहना हो रहा है. सपने पूरे करने की जद्दोजहद है. अपने प्रियजनों से दूर हूँ - आज की होली मैं प्रेयसी के संग कुछ इस तरह मनाना चाहताहूँ की वो बोल पड़े...
होली खेलन पनघट पर आई तेरी दीवानी
चुपके से क्यूँ रंग डाला ये तो हुई बेमानी

रंग गाढ़ा जो तुमने गालों पे लगाया
बोलो कैसे छूटेगी होगी बड़ परशानी

मैं तो समझी थी तुमको अनाड़ी 'सुलभ'
पर तुमने तो कर ली अपनी मनमानी ||


अर्कजेश :वंदना जी का मेल आया कि आप किसे चुनेंगे

हमने कहा कि
मत पूछिये किसे चुनेंगे
पूछिये किसे छोडेंगे
ज्‍यादा ना नुकुर किया
तो पकड के हाथ मरोडेंगे
रंगेगे और रंगे जायेंगे
प्रेम रंग से तुम्‍हें नहलायेंगे

अरे ! तुम्‍हारी मर्जी पूछता कौन है
देखो मत लगाना से डरता कौन है
हमें पता है लगवाने का मन है
पर तुम्‍हें भी आज भी शर्माने का मन है
इसीलिए जरूर लगायेंगे
तभी तो होली के दिन हम तुम्‍हें याद आयेंगे

मजा तो तब आता था जब होली की टोली ललकारते
हुए चलती थी छिपे हुए दोस्‍तों को
अरे ! क्‍या कायरों की तरह छिपकर बैठे हो
बाहर निकलो ।

हमारी अपील है कि होली ऐसे खेलें कि पर्यावरण को और किसी
व्‍यक्ति को नुकसान न हो । त्‍योहार का अपमान न हो ।

ब्‍लॉगिंग के ब्‍लॉगर की जय हो
रंगों के सागर की जय हो
होली के लफडों की जय हो
प्रेम सिक्‍त झगडों की जय हो
ृृृृृृृृृृृृृृृृृृ


चंद्रमोहन:होली एक ऐसा पर्व, जिसमें हर फूहड़ता सर उठा कर गुन्जायेमान हो उठती है, बहाने चाहे भांग के लें, फागुन के बयार के लें, परम्परों के ले, पर यह त्यौहार हर हालत में हसीं - ख़ुशी से ही बीतता पाया गया है. हर हाल में हर कोई मस्त, किसी में ग्लानि नहीं. महामूर्ख कि उपाधि से नवाजे जाने कि होड़ भी कितने रंग बिखेर कर ही जाती है. रंग लगाने वालों में जहाँ रंग लगा लेने की ख़ुशी वहीँ रंग लगवाने वाला अपने अजीबोगरीब बने चहरे पर भी बेहद खुश.ख़ुशी, ख़ुशी और बस सर्वत्र ख़ुशी ही ख़ुशी, भले ही एक दिन की हो, पर अपना कम भलीभांति कर जाती है.

अब ऐसे एक्मयी माहौल को यदि पत्नी, प्रेमिका, साली आदि में विभाजित कर देखने को कहा जाये तो मुझे एकबार फिर से बालठाकरे के मराठी मानुष की बात याद आ उठती है, जिन्हें अब इतने वर्षों बाद "भारतवासी एक" से "मराठी एक" जैसे जुमले तक आना पड़ा..............विवादों में पड़ना अपनी फितरत नहीं, होली में सब एक, और अपनी होली तो सदा से ही ऐसे ही होती आई है, और इश्वर से प्रार्थना है कि सबकी भी ऐसी ही होती रहे.
नहीं यहाँ कोई साला साली
ना ही प्रेम दीवानी सी कोई
पत्नी भी रंगी अनजानी सी
करे ठिठोली मिल सब कोई


समवेत स्वरों में कैसे जाने
रंग विरंगों में कैसे पहचाने
मदहोशी रंगों की पा कर
बदरंगों के भी अपने पैमाने


'बुरा न मानो होली है' सब की
' बुरा न सुनो' ये होली सबकी
'करो मजाक' ये होली सबकी
'तन-मन रंगों' ये होली सबकी



अल्पना वर्मा:
"होली के रंग-किसके संग?"
अपने परिवार और सहेलियों के संग ही खेलना पसंद करूंगी..सच कहूँ तो मुझे खुद खेलने से ज्यादा दूसरों को खेलते देखना ज्यादा अच्छा लगता है.

शरद कोकास:वन्दना जी , क्षमा करें , मेरा कुछ मूड ही नहीं बन रहा है ..और जब तक मूड न बने होली कैसे खेली जा सकती है । आप कहेंगी ..." होली खेलने की कौन कह रहा है .. मै तो कह रही हूँ कि आपका किस के साथ होली खेलने का मन है इतना ही बता दीजिये । " कल रश्मि जी के साथ चैट पर भी मैने यही कहा " वन्दना जी नाराज हो रही हैं , मै बता नहीं पा रहा हूँ कि मेरा किसके साथ होली खेलने का मन है । आप ही कुछ सजेस्ट कीजिये । " उन्होने कहा " अरे वाह होली आपको खेलना है मैं कैसे सजेस्ट करूँ ? वैसे भी आपको टाइटल दिया जा रहा है भूत पिशाच निकट नहीं आवै ,शरद कोकास जब नाम सुनावै ...हाहाहा । " मैने कहा " ग़नीमत है भूत पिशाच लिखा , चुडैल डायन नही लिखा । उनके आने की गुंजाइश तो बनती है । अब वो होंगी तो आ जायेंगी ..और आ जायेंगी तो होली भी खेल लेंगे । " रश्मि जी ने कहा .. " बड़ा भयानक इरादा है आपका चुड़ैल और डायनो से होली खेलने का ? मैने कहा " जब फिल्मी कवि लोग किसी पत्थर की मूरत से मोहब्बत का इरादा कर सकते हैं तो मै किसी चुड़ैल से होली खेलने का इरादा क्यों नहीं कर सकता ? " रश्मि जी ने मुझे सपने में इछ्छा पूरी होने की शुभकामना दीं और अदृश्य हो गईं ।

अरे वा ..! देखिये यह तो बातों बातों में आपके सवाल का जवाब बन गया । अब इसे ही अपनी परिचर्चा में शामिल कर लीजिये और ब्लॉग पर पोस्ट कर दीजिये । देखते हैं उसके बाद मेरी यह इच्छा पूरी होती है या नहीं । हाहाहा...। होली है....।

प्रियदर्शिनी तिवारी : सबसे पहले मैं आपको ढेर सारा धन्यवाद देना चाहूंगी इस परिचर्चा पर मुझे आमंत्रित करने के लिए .......
सच कहूं तो अब इस त्यौहार का कुछ मजा ही ना रहा ,बस बच्चों का मन रखने के लिए घर की छत पर बच्चों के साथ होली खेल लेते हैं ...हाँ अगर यह बात आपने 15-20 बरस पहले पूछी होती तो बताते की होली के रंग किसके संग नहीं बल्कि किस -किस के संग हमें भाते ...उस समय की होली की बात ही कुछ और थी ...हमने तो उस समय के सुपर हिट हीरो अनिल कपूर और जैकी श्रॉफ के साथ भी होली खेलने के सपने संजोये थी ....यह अलग बात है की वह सपने अभी तक सपने ही हैं ...अब तो बस यही मन करता है की ये सभी त्यौहार मैं उन बच्चों के साथ मनाऊं जिनके लिए होली . दिवाली . क्रिसमस . हो या कोई सामान्य दिन सब एक सामान होते हैं सुबह से रात तक सड़कों पर कचरा बीनते हुए ...होली की शुभकामनाएं ..

रंजना [रंजू भाटिया] :
होली के रंग किसके संग ..विचार बहुत अच्छा है ...पर मैंने तो होली शादी के बाद से सिर्फ लफ़्ज़ों ,यानी की अपनी कविताओं के जरिये कृष्ण संग ही खेली है ,ससुराल में रंग कोई खेलता नहीं था .फिर बच्चे भी जब बड़े हुए तो अपने ग्रुप के साथ खेलने चले जाते हैं .इस लिए किसके संग खेली जाए तो वही बचपन ही अब आँखों में घूम जाता है यदि मौका मिले तो मैं वापस उसी तरह से बच्ची बन कर खूब हुडदंग करते हुए होली खेलती पर सच कहूँ तो गया वक़्त कभी लौट के नहीं आता इस लिए अब सिर्फ लफ़्ज़ों यानी कविता में ही होली खेलना बहुत भाता है ..जो खुमार ,इस तरह से होली खेलने में है वह अब सच में खेलने पर आएगा या नहीं नहीं जानती ..और फिर खेलने के लिए भी तो कोई होना चाहिए न कविता में कान्हा है और रंग है वही अब भाता है

प्यार के रंग

होली का रंग बिखरा है चारो ओर
आज कुछ ऐसी बात करो
रंग दो अपने प्यार के रंगो से
उन्ही रंगो से मेरा सिंगार करो........

होली का रंग बिखरा है चारो ओर


रहो मेरे दिल के पिंजरे में,
और नज़रो से मुझको प्यार करो.
दो मेरी सांसो को अपनी धड़कनो कि लए
आज फिर कुछ ऐसी कोई बात करो..........


होली का रंग बिखरा है चारो ओर


रहो मेरी बाहों कि परिधि में.
और टूट कर मुझको प्यार करो.
आज मैं --मैं "ना रहूं ,आज मैं "तुम" हो जाउँ
अपने प्यार से ऐसा मेरा सिंगार करो.........

होली का रंग बिखरा है चारो ओर


लिख दो मेरे कोमल बदन पर
अपने अधरो से एक कविता.
जिसके" शब्द' भी तुम हो, और 'अर्थ" भी तुम हो,
बस ऐसा मुझ पर उपकार करो......


होली का रंग बिखरा है चारो ओर


तेरी 'मुरली कि धुन सुन कर..........
मन आज कुछ ऐसा भरमाये......
हिरदये की पीरा, देह कि अग्नि.
रंगो में घुल जाए..
होली का रंग-रास आज फिर से "महारास हो जाए,
रंग दो आज मुझको अपने प्यार के रंग में..
प्रियतम ऐसी रंगो कि बरसात करो..........


होली का रंग बिखरा है चारो ओर


होली का रंग बिखरा है चारो ओर
आज कुछ ऐसी बात करो......
रंग दो अपने प्यार के रंगो से......
उन्ही प्यार के रंगो से आज फिर तुम मेरा सिंगार करो........


संजय ग्रोवर :मुझे तो सवालों के बदले में सवाल ही सूझ रहे हैं: यह बताएं कि प्रेयसी अगर किसी की पत्नी हो तो ? या पत्नी किसी की प्रेयसी हो तो ? मित्र अगर इतने विचित्र हों कि पेट के अंदर तक हाथ डाल कर रंग लगाते हों तो ? या फिर हम ख़ुद ही इतने विचित्र हों कि दोस्त हमें हाथ लगाते भी डरते हों तो ? एक और बात बताईए कि आपने यहां पत्नी, प्रेयसी आदि शब्दों का इस्तेमाल किया ! क्या यह ‘प्रतियोगिता’ सिर्फ पुरुषों के लिए है ? नारी-मुक्ति संगठनों को बता दिया तो होली वाले दिन ही आपके घर के बाहर धरना देंगे :)

-संजय ग्रोवर
अनूप शुक्ल:देखिये जी ! ई अब हमारा फ़ेमिली सीक्रेट है और आप हमसे मजाक-मजाक में सब पूछ लेना चाहती हैं। ये भी कोई बात है? अच्छा आपको बतायें! बात ये है कि हम होली खेलने से बचते हैं काहे से कि मौसम इस समय भी जाड़े का ही रहता है। पानी ,कीचड़ , धूल ,मिट्टी से पहले तो बचने का कोशिश होता है। और जब एक बार रंग रहे तो तब तो रपट पड़े तो हर गंगा हो जाता है। रंग किसके साथ खेलें ई भी कौनौ तय नहीं है ! जो मिल गया उसको उसई का रंग लगा दिया। या फ़िर लगा है तो उसी को मिला दिये। खेलें चाहें जिसके साथ लेकिन हम कहेंगे हमेशा कि अपनी पत्नी के साथ ही खेलेंगें। सबेरे से दौड़ा रही हैं! कभी आलू,कभी प्याज,कभी खोया ,कभी पनीर ,कभी धनिया ,मंगाने के बहाने। जब दिन भर नून ,तेल , लकड़ी में ही निकल गया तो और किसी से सेटिंग ही न बना पाये रंग खेलने की! इसलिये मजबूरन पत्नी के साथ ही खेलें मौज से! वैसे भी हम कह
ही चुके हैं
--मैंने भी कोशिश की.टुकड़ों-टुकड़ों मे तमाम महिलाओं में तमाम गुण चीजें देखीं जो मुझे लगातार आकर्षित करते रहे.पर टुकड़े,टुकड़े ही रहे. उन टुकड़ों को जोड़कर कोई मुकम्मल कोलाज ऐसा नहीं बन पाया आज तक जो मेरी बीबी की जगह ले सके.विकल्पहीनता की स्थिति में खींच रहे हैं गाडी- इश्क का हुक्का गुड़गुड़ाते हुये!
मंहगाई के जमाने में पत्नी से ही रंग खेलने में बचत है। दूसरे के साथ खेलने में रंग लगता कम है,बहता जाता है। साबुन का खर्चा अलग! सो आजकल पत्नी के साथ ही रंग बरसने में बरक्कत है!

होली में मौज मनाइये , जीवन संगी के साथ,
मुस्का के आंखिन में डूबिये और गहो हाथ में हाथ !
लेव हाथ में हाथ और करो धमाल सखि/साजन से,
खिल-खिलकर हंसो जिससे हंसी पसरे घर आंगन में,
ऐसे मौज करो कि सब तरफ़ होये हंसी ठिठोली
साल बिताओ चाहे जैसे बस मौज करो जी होली में!


आनन्द वर्द्धन ओझा:वंदनाजी,
आपके आमंत्रण का शुक्रिया ! सोचा, क्या लिखूं ? जो भाव उपजे, यथारूप भेज रहा हूँ :
"पत्नी वृद्धा हुईं, मित्र सब छूट गये !
जितने मित्र हमारे थे, सब रूठ गए !!
मैंने जिनको चाहा, वो तो मिलीं नहीं,
प्रेम-वृंत पर कोई कालिका खिली नहीं !!
ना अन्य किसी से अपना कोई चक्कर है,
आय पड़ा परदेस, न कोई रहबर है !!
फाग में बैराग का रंग कहता मैं नाबाद !
तीस साल पहले की कविता करती है फरियाद : "
"आँखों के आकाश में
फागुन के रंग घिर आये,
बेतरह तुम याद आये !
लो, यह अबीर--
स्नेह सहित भेज रहा हूँ तुमको,
गाल से लगा के इसे--
हवा में उछाल दो,
मेरे आँगन में झांकता आकाश
तुम्हारे पास होगा
और स्मृतियों की तीस से
भर आया मन
हो जाएगा प्रेममय !!"

सप्रीत--आ. व. ओ.

उमेश दुबे :होली के रंग किसके संग......? असल में होली खेलने का मज़ा तो केवल दोस्तों के ही संग है, और वो भी अपने कॉलेज के साथियों के संग. अगर मौका मिलता तो मैं एक बार फिर अपने कॉलेज के उन दिनों कि होली में पहुंचना चाहता, जब हम दोस्तों कि टोली बड़े सबेरे घर से निकलती, और शाम चार बजे रंग की कई-कई परतें चेहरे पे चढ़ाए घर पहुँचती . होली के लिए स्पेशल कीचड के गड्ढे तैयार करते और हर आने-जाने वाले को उसमें पटकते.... हर दोस्त के घर पकवानों का आनंद लेते .

लेकिन अब न पहले जैसी होली रही, न ही किसी के मन में त्यौहार को ले के पहले सा उत्साह ही रहा. अभी त्यौहार का रूप इतना बदल गया है तो आने वाले समय में क्या होगा?
आप सबको होली कि हार्दिक शुभकामनायें

विधु दुबे :
मै इस बार होली नहीं खेलूंगी..... . क्योंकि मेरे एग्ज़ाम्स चल रहे हैं .....
नहीं तो वैसे मै अपनी होली हर साल अपने दोस्तों के साथ खेलती हूँ ,,,,,,,,