मंगलवार, 5 जून 2018

केरल यात्रा: खट्टी-मीठी यादें


कोच्चि जाने की चार महीने पुरानी प्लानिंग पर उस समय पानी फिरता नज़र आया, जब हमारी ट्रेन लेट पर लेट होती गयी। लगा, कहीं कैंसिल ही न हो जाये! ख़ैर! राम-राम करते, सुबह चार बजे आने वाली ट्रेन शाम साढ़े चार बजे आई। बोगी में घुसे तो शाम को ही रात जैसा नज़ारा दिखाई दिया। हर तरफ़ सफ़ेद चादरें तनी हुईं। हमारी लोअर बर्थ पर एक बहन जी सो रहीं थीं। उन्हें जगाया तो वे अपनी मिडिल बर्थ खोल के फिर सो गयीं। ट्रेन में ऐसा भीषण सन्नाटा मैंने पहली बार देखा। अब चूंकि सब सो रहे थे तो हम अकेले गर्दन टेढ़ी करे, कब तक बैठे रहते? हम भी लेट गए। 6 बजे के आस पास कुछ हलचल हुई। दूसरी बोगी से कुछ लोग आए, और सामने, बगल, ऊपर की बर्थ वालों को जगा के बतियाने लगे। बातचीत तेलुगू में हो रही थी, सो हम उनके मुंह ताकने के सिवाय और कर भी क्या सकते थे? ये ज़रूर समझ में आया कि कोई बड़ा परिवार है जो सफ़र कर रहा। 
रात आठ बजे हमारे सिर के ऊपर तनी मिडिल बर्थ से बहन जी नीचे उतरीं। बर्थ अब भी तनी थी क्योंकि उस पर उन्होंने अपनी गृहस्थी सजा ली थी। यानी अब तीन दिन तक हमें गर्दन टेढ़ी कर, इसी छतरी की छत्रछाया में रहना था। सामने की बर्थ पर एक। भीमकाय महिला लगातार खर्राटे लेकर सो रही थीं। इतनी नींद!! हम चकित थे। ख़ैर! हमारे ऊपर वाली बहिन जी भी भारी शरीर की थीं, लेकिन थीं खूबसूरत। उतना ही सरल उनका व्यवहार भी था। ट्रेन पटना से आ रही थी तो हमें लगा ये सब हिंदी तो जानते ही होंगे। लेकिन जब हमने उनके बारे में जानना चाहा तो समझ में आया कि वे तो हिंदी का एक भी शब्द नहीं समझ पा रहे!! अंग्रेज़ी भी टूटी-फूटी। इसी टूटे-फूटेपन में ही उन्होंने बताया-"ऑल एल आई सी फ़ैमिली। 90 मेम्बर्स। विज़िट काशी, बोधगया, पटना। नेल्लोर गोइंग।" 
उनके यहां दफ़्तरी काम भी तेलुगू में ही होता है। तीन-चार बच्चे थे जो अंग्रेज़ी पढ़ते थे स्कूल में लेकिन सेकेंडरी लैंग्वेज़, सो फिर भी ठीक ठाक बात कर पा रहे थे। हमेशा सफ़र में मैं सहयात्री की बातों से बचने के लिए अपना सिर जबरन क़िताब में घुसाए रहती हूँ, इधर तरस रही थी कि कोई तो बात कर ले!! 48 घण्टों का सफ़र और ये नेल्लोरी!! या अल्लाह!! कहाँ फँस गई!! मेरी दुविधा वे भी समझ रहे थे, या शायद मेरे चेहरे से ज़ाहिर हुआ होगा, सो मुझसे इशारों में ही बात करने की कोशिश करते। गूंगे लोगों की पीड़ा समझ में आई!! 😑 कुछ भी खाने को निकालते तो मुझे पहले पूछते। दस तारीख़ की रात ग्यारह बजे नेल्लोर आने वाला था। इस रात उन्होंने ज़िद करके अपने साथ मुझे नेल्लोरी भोजन कराया। 
इन दो दिनों में लगा, कि यदि आप भाव समझ लेते हैं तो भाषा माने नहीं रखती। मेरे दोनों दिन इन सारे परिवारों और ख़ास तौर से मेरी छत्रछाया वाली बर्थ की मालकिन जिनका नाम भारती था, के स्नेह को मैं भूल नहीं पाउंगी। नेल्लोर आने पर सब उतरने लगे। मैंने भी भारती के दो बैग उठा लिए, उतरवाने के लिहाज से। सब जब उतर गए, तो हर व्यक्ति मुझसे मिलने की होड़ में था। बच्चे लिपट गए और भारती!! भारती ने तो हाथ ही नहीं छोड़ा। जब तक ट्रेन चल न पड़ी, पूरे 90 लोग हाथ हिलाते खड़े रहे। विदा प्यारे दोस्तो...कभी न कभी फिर मिलेंगे। 
नेल्लोरी साथियों के उतरते ही पूरी बोगी ख़ाली हो गयी। उधर पहले क्यूबिक में चार-पांच लोग और इधर आख़िरी क्यूबिक में छह-सात लोग! मेरी बर्थ का नम्बर 35 था, यानी बीच मंझधार का नम्बर 😊 बाएं-दाएं दोनों तरफ़ ख़ाली बर्थ मुंह चिढ़ा रही थीं। अब तक जो बोगी तरह-तरह के तेलुगू स्वरों से भरी थी, अचानक शांत हो गयी। उन सबका जाना मुझे पता नहीं क्यों इतना उदास कर रहा था। उन सबके हिलते हाथ देख के तो मुझे रोना आ रहा था 😞 
नेल्लोर प्लेटफॉर्म और मेरे साथी जैसे ही दिखना बन्द हुए, मैं अपनी बर्थ पर आ गयी। अब आज़ाद थी। मिडिल बर्थ गिरा के बैठूँ, चाहे पचासों बर्थ पर उछल-कूद मचाऊँ। कोई नहीं था रोकने वाला। लेकिन मैंने मिडिल बर्थ नीचे नहीं गिराई। पता नहीं क्यों लग रहा था जैसे भारती लेटी है अभी। खिड़की के शीशे से सिर टिकाये जबरन बाहर देखती मैं अब निपट अकेली थी। तभी बुरका ओढ़े एक महिला , आगे वाले क्यूबिक से उठ के मेरे सामने वाली बर्थ पर आ गईं। उनके साथ उनका 15-16 साल का बेटा और 12 साल की बेटी थी। बिटिया भी हिज़ाब लगाए थी। आते ही शुरू हो गईं-" हाय-हाय..कैसा मुश्क़िल सफर बीता होगा बाजी आपका? मैं तो उधर बैठी आपकी ही फ़िकर कर रही थी। अकेली फंस गयीं थीं आप । मैं मुस्कुरा दी उनकी फ़िकर पर। उन नेल्लोरियों के विरुद्ध बोलने का मेरा कतई मन नहीं था। लेकिन उनकी फ़िकर देख के मुझे लगा, कौन कहता है इंसानियत ख़त्म हो गयी? आगे वाले क्यूबिक में वे साइड लोअर बर्थ पर बैठीं थीं, बेटी सहित, सो जितनी बार भी वहां से निकलना हुआ, उतनी ही बार हमारी मुस्कुराहटों का आदान प्रदान हुआ था और ये मुस्कुराहटें ही अब अजनबियत ख़त्म कर चुकी थीं। 
"जानती हैं बाजी, मेरे दो टिकट वेटिंग में ही हैं अब तक। तीन में से केवल एक कन्फ़र्म हुआ। और अल्लाह की मर्ज़ी देखिए, कि अब बर्थ ही बर्थ। मैंने सोचा आप अकेली हैं, तो यहीं आ जाये जाए ।" मैं फिर मुस्कुरा दी। बोली -"आपने बहुत अच्छा किया जो यहां आ गईं।" ये अलग बात है कि अकेलापन कभी मुझे डराता नहीं। डराती तो भीड़ भी नहीं है 😊 लोगों से बहुत पूछताछ की आदत नहीं है मेरी। फिर भी उनकी इतनी बातचीत में कुछ तो दिलचस्पी दिखानी थी न सो मैंने पूछा- "आप केरल जा रहीं? कहाँ से आ रहीं?" इतना पूछना था कि वे धाराप्रवाह शुरू हो गईं-" अरे बाजी कुछ न पूछिये। हम तीनों पटना से आ रहे हैं। ये मुआ हनीफ़, ऐसा मनमर्ज़ी का लड़का है कि क्या कहें! ट्रेन का अता-पता लगाएं बिना ले आया हमें स्टेशन। सोचिये, शाम चार बजे चलने वाली गाड़ी स्टेशन पर ही रात 10 बजे आई। फ़ातिमा के अब्बू तो बोले कि वापस आ जाओ, पर फिर हमने सोचा किसी प्रकार इस छोरी के एडमिशन का जुगाड़ जमा है, लौट गए तो क्या पता इसके अब्बू का फिर मन बदल जाये? हम लोग तिरुपति जा रहे हैं। वहां बहुत बड़ा स्कूल है हाफिज़ी की पढ़ाई का। अभी छटवीं तक इंग्लिश मीडियम में पढ़ी है पूरे सब्जेक्ट। अब यदि टेस्ट पास कर गयी तो यहीं रहेगी, हॉस्टल में। 
स्कूल का नाम उन्हें याद नहीं था और मुझे जानने की बहुत उत्सुकता भी नहीं थी। मैं तो खुश थी, कि हिज़ाब में लिपटी इस बच्ची को पढ़ाने, इतनी दूर भेज रहे इसके मां-बाप। ये अलग बात है कि हाफिज़ी की पढ़ाई का ताल्लुक़ शायद उस धार्मिक पढ़ाई से है जिसके बाद सम्भवतः वो बच्ची मदरसे में नौकरी करे। अभी फ़ातिमा की अम्मी कुछ और बतातीं, उसके पहले ही उनके बेटे का फोन घनघनाया। फोन पर ज़रा तल्ख़ बातचीत हो रही थी। फोन रखते ही बेटा बोला-"अम्मी, ठहरने का कोई इंतजाम नहीं हो पाया वहां।" अम्मी बदहवास सी कभी मुझे और कभी बेटे को देख रही थीं। बोलीं- बाजी, तिरुपति तो आने ही वाला है। वहां से हमें तुरत ही लौटने की ट्रेन मिल जाएगी क्या? अब जब अजनबी शहर में रहने का ही ठिकाना नहीं तो हम इस बच्ची को ले के कहाँ जाएंगे? पता नहीं कैसे लोग होते होंगे! इन सबकी बोली सुन के तो लगता है न कोई हमें समझेगा, न हम किसी को समझ पाएंगे। इसकी परीक्षा तो 13 मई को है और आज तो 10 तारीख ही है! या ख़ुदा! कैसा इम्तिहान है ये? बाजी अपने मोबाइल में देख के बताइये न हम लौट जाएंगे। पटना होता तो कोई डर नहीं था लेकिन यहां...!!"
उनका बोलना जारी था तब तक बेटे से मैंने पूछा कि माज़रा क्या है? उसने बताया कि जिन्होंने स्कूल हॉस्टल में ही हम लोगों को चार दिन रुकवाने का वादा किया था, वे खुद तिरुपति से बाहर हैं। उन्होंने कहा है कि फिलहाल किसी होटल में रुक जाए। 
अब मैंने फ़ातिमा की अम्मी को समझाना शुरू किया कि जब चार दिन का सफर करके अपनी मंज़िल तक पहुंची हैं तो अब वापसी की बात न करें। बच्ची को टेस्ट ज़रूर दिलवाएं। और फिलहाल वे 12 घण्टों के लिए रेलवे के रिटायरिंग रूम में रुक जाएं। दिन भर उनके पास होगा, तब वे स्कूल प्रबंधन से बात कर होस्टल में रुकने का इंतज़ाम करवा लें। बात उनकी समझ में आ गयी। मैंने तुरन्त नेट पर सर्च किया तो रात बारह बजे तक बुकिंग की जा सकती थी यदि रूम खाली है तो। 
अब फ़ातिमा की अम्मी फिर रुआंसी हो आयीं-" बाजी, आप तो इतनी अच्छी मददगार मिलीं हमें लेकिन ऑनलाइन बुकिंग के लिये हमारे पास कार्ड नहीं है 😞"
मेरे पास वेस्ट करने के लिए टाइम नहीं था, क्योंकि पौने बारह बज चुके थे, सो उनका फॉर्म भरते हुए ही मैंने कहा-मैं अपने कार्ड से जमा कर दूंगी, आप हमें नक़द दे देना। आनन फानन उनकी 24 घण्टे की बुकिंग कराई कुल 950 रुपये में। जो इन्हें हॉस्टल में रुकवाने की बात कह के मुकर गयीं थीं उन्हें भी फोन लगा के फटकारा कि वे वादाख़िलाफ़ी न करें, और हर हालत में कल इनके रुकने का इंतज़ाम हॉस्टल में करके मुझे सूचित करें। फ़ातिमा की अम्मी का चेहरा देख के मुझे लग रहा था कि मैं इनके ही साथ उतर जाऊं। ख़ैर... इंतज़ाम हो गया।
इस पूरी व्यवस्था में जुटी मैं,अब तक फ़ातिमा की ओर देख ही नहीं पाई थी। अब उसकी तरफ़ देखा, तो उसे एकटक अपनी तरफ़ देखते पाया, बेहद कृतज्ञ निगाहों से, जो प्यार से भरी थीं। मैंने उसकी तरफ 👍 का इशारा किया तो वो खिलखिला दी। बेहद निश्छल हंसी। फ़ातिमा की अम्मी ने अब बुरका उतार दिया था और इत्मीनान से कंघी कर रही थीं। शीशे में देखते हुए ही बुदबुदा रहीं थीं-"कौन कहता है दुनिया में अच्छे लोग नहीं हैं....हर धर्म में अच्छे बुरे लोग हैं...जिससे बुरा टकराया, उसने पूरी कौम को ही बुरा कह दिया, वो हिन्दू हो चाहे मुसलमां...! 
और मेरे दिमाग़ में उनका वही वाक्य घूम रहा था-' पटना होता तो कोई डर की बात न थी...!" अपना शहर सबको कितना निरापद लगता है। 
अगला स्टॉपेज तिरुपति ही था।

सोमवार, 28 मई 2018

कुछ दिन तो गुज़ारिये पर्यटन में.....!


मनुष्य स्वभाव से ही घुमक्कड है. आदिमानव भोजन और अपने शिकार की खोज में एक जगह से दूसरी जगह घूमता था. लेकिन इस घूमने ने उसका ऐसा मन मोहा, कि खेती करने की समझ आने के बाद भी उसे एक जगह ठिकाना बना के रहना रास न आया. घूमता ही रहा, इस जंगल से उस जंगल. पुराने राजे-महाराजे देखिये. राज-काज से समय निकाल के महीने-महीने भर को शिकार पर चले जाते थे. ये शिकार क्या था? शुद्ध घुमक्कड़ी ही न? साधु संत निकल जाते थे देशाटन पर. एक गांव से दूसरे गांव, एक पर्वत से दूसरे पर्वत. ये भी घुमक्कड़ी का ही एक रूप है. बुज़ुर्गवार तीर्थाटन पर जाते रहे हैं पुराने समय से. ये तीर्थाटन भी वृद्धावस्था की घुमक्कड़ी ही है. तो समय और देशकाल के अनुसार नाम चाहे जो ले लें हम, है ये विशुद्ध घुमक्कड़ी. घुमक्कड़ी यानी परिष्कृत भाषा में पर्यटन.
पर्यटन के प्रति आकर्षण , मनुष्य का एक ऐसा गुण है जिसे जन्मजात कहा जा सकता है. तमाम अन्य गुणों की तरह ये गुण भी अलग-अलग लोगों में कम या ज़्यादा हो सकता है. लेकिन होता सब में है. पर्यटन असल में केवल घुमक्कड़ी नहीं है. असल में पर्यटन भी भिन्न-भिन्न उद्देश्यों के चलते किया जाता है. कोई पढ़ाई-लिखाई के चक्कर में किसी दूसरे शहर या दूसरे देश जाता है, तो कोई काम के सिलसिले में तो कोई केवल घूमने के उद्देश्य से ही जाता है. लेकिन इन सभी परिस्थियों में नई जगह को जानने, वहां की खास और महत्वपूर्ण जगहों को देखने की इच्छा कोई रोक सकता है क्या? यही इच्छा अपने काम के साथ-साथ उसे पर्यटन का सुख दे जाता है.
जब हम किसी नई जगह पर घूमने जाते हैं, तो ये केवल घूमना नहीं होता, बल्कि उस शहर या देश की संस्कृति को आत्मसात करने का वक्त होता है. वहां की संस्कृति से साक्षात्कार ही हमें रोमांच से भर देता है. किसी दूसरे देश की संस्कृति तो स्वाभाविक तौर पर अलग और नई होती है, लेकिन ये नयापन हमारे देश में भी कम नहीं. जितने प्रांत, उतनी ही भिन्न संस्कृति, आचार-व्यवहार, खान-पान, वेशभूषा, सोने जागने के तरीके, सब भिन्न. हर दो सौ किलोमीटर पर बदली हुई संस्कृति दिखाई देती है. केवल मध्यप्रदेश को ही लें. बुंदेलखंड, बघेलखंड, मालवा, चम्बल इन चारों हिस्सों की संस्कृति में भिन्नता है. कुछ त्यौहार जो बुन्देलखंड में मनाये जाते हैं, वे बाकी तीन में नहीं, तो कुछ रिवाज़ जो मालवा में हैं, बाकी जगहों पर नहीं. ये सब हम कैसे जानेंगे? केवल पढ़ के ये सब नहीं जाना जा सकता. इस भिन्नता के दर्शन तब होंगे, जब हम इन जगहों पर घूमने निकलेंगे. किसी जगह को पढ़ के जानने, और घूम के जानने में उतना ही फ़र्क है, जितना खाना बनाने और व्यंजन विधियों को पढ़ने में है.
हिन्दुस्तान तो वैसे भी भिन्न संस्कृतियों, भिन्न भाषाओं का देश है. कभी-कभी अचरज होता है, कि एक ही भूभाग पर कैसे इतनी भिन्नताएं एक साथ हैं? बहुत से लोग हैं, जो देश के ही तमाम प्रांतों को जानने-समझने के लिये छुट्टियों में केवल घूमने का ही प्रोग्राम बनाते हैं, और निकल पड़ते हैं. घूमने के ऐसी प्रेमियों को बहुत ज्ञान होता है. भाषाई ज्ञान के साथ-साथ इन्हें भौगोलिक और सांस्कृतिक ज्ञान भी खूब होता है. तो पर्यटन केवल घूमने का नहीं बल्कि ज्ञानार्जन का भी ज़रिया है.
पर्यटन हमारे लिये घूमने का, तो देश के लिये राजस्व का बेहतरीन ज़रिया है. पुरानी इमारतों, विशेष स्थानों को सुरक्षित रखने, संरक्षित करने, या उसके आस-पास मनोरम स्थल विकसित होने का कारण भी एकमात्र मानव पर्यटन है. लोगों की आवाजाही को देखते हुए, उस स्थान विशेष को विकसित किया जाता है. तो पर्यटन के चलते हमारा इतिहास भी सुरक्षा पा जाता है.
सन 1966 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 1967 को अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटन वर्ष घोषित किया था. इसी वर्ष अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पाया गया कि विकासशील देशों में भारत एकमात्र देश है, जहां पर्यटन की बहुत अधिक सम्भावना है. यहां के ऐतिहासिक स्थलों को विकसित किया जाये, तो ये पर्यटन स्थल बन सकते हैं. वैसे भी विदेशी पर्यटकों के लिये भारत में आअकर्षण के लिये बहुत कुछ है. यहां की महत्वपूर्ण ऐतिहासिक इमारतें ही इतनी हैं, कि एक विदेशी पर्यटक, जब साल भर का वीज़ा ले के हिन्दुस्तान आता है, तब यहां के सारे ऐतिहासिक स्थल देख पाता है. त्यौहारों के इस देश में मेलों की भी अद्भुत परम्परा रही है. और विदेशी, हमारे इन हिन्दुस्तानी मेलों के दीवाने हैं,. मौसम और त्यौहार विशेष पर लगने वाले कुछ प्रमुख मेलों में जैसे कुम्भ, माघ, या बिहार का पशु मेले में उनके आयोजित होने के समय पर अतिरिक्त पर्यटक जुटते हैं. भारतीय संस्कृति की भिन्नता ही उन्हें इस देश के पर्यटन के लिये उकसाती है. बनारस की अपनी अलग शान है. यहां के घाट, यहां की परम्पराएं और यहां का मोक्षगान, विदेशियों को यहीं बस जाने के लिये प्रेरित करता है.
भारत सरकार ने भी पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये बहुत सी योजनाएं बनाई हैं, सरकार द्वारा हमेशा नई-नई योजनाएं बनाई जाती रहती हैं, क्योंकि हमारा घूमना, देश के राजस्व को बढ़ाता है, जो भविष्य में हमारे ही काम आता है. तो देर किस बात की कुछ दिन तो गुज़ारिये पर्यटन में....!  
( नई दुनिया में प्रकाशित आलेख)

बुधवार, 23 मई 2018


हथेली से बादल को छूने के अरमां...!


क्या हार में, क्या जीत में,
किंचित नहीं भयभीत मैं,
संघर्ष पथ पर जो मिले,
यह भी सही, वह भी सही
रसोई में जगह थोड़ी कम है चाची. दो फुट लम्बाई और होती, तब सही होता. चाय के प्यालों को सिंक के दूसरी ओर सरकाती, प्रेमाबाई ने ज़रा खिन्न अवाज़ में कहा. प्रेमाबाई की बात मन स्वीकार करने ही वाला था कि परात में आटा निकालतीं पाठक चाची का स्वर मेरे कानों में पड़ा-
अरे! कहां कम है? खूब जगह है. तुम्हारा काम रुक रहा क्या? हमारा काम रुक रहा? सारे काम हो रहे न? घर में पंद्रह लोग हैं अभी और इसी रसोई से सबका खाना बन पा रहा न? फिर काहे की कमी? कुछ कम नहीं है. खूब है. जगह ही जगह है...
प्रेमाबाई की बात से अचानक ही बोझिल हुआ मन, खट से खिल गया. लगा एक नितांत अनपढ़ महिला की सोच कितनी सकारात्मक है! कितनी खूबसूरती से उसने उस छोटी सी जगह को बड़ा बना दिया! ज़ाहिर है- दोष उस जगह के छोटे होने में नहीं, बल्कि हमारी सोच में है. किसी भी चीज़ को छोटा या बड़ा हमारा नज़रिया बनाता है. असल में हमने असंतोष को अपना स्थायी भाव बना लिया है. अपने काम से असंतुष्ट, भोजन से असंतुष्ट, पहनावे से असंतुष्ट और सबसे ज़्यादा दूसरों के रवैये से असंतुष्ट. फ़लाने ने ऐसा कहा- क्यों कहा होगा? ज़रूर तंज किया होगा... वो शायद हमारी सफलता से चिढ़ता है. उसे हमारे रहन-सहन से ईर्ष्या है...आदि-आदि. ऐसी बातें सोचते हुए हम खुद कितनी नकारात्मकता से भर जाते हैं, कभी सोचा है? दूसरे ने भले ही सहज भाव से कुछ कहा हो, लेकिन उस बात के दूसरे-तीसरे मतलब निकालने की आदत सी होती जा रही हमारी. न केवल मतलब निकालने की, बल्कि नकारात्मक मतलब निकालना शगल सा हो गया है. कार्यस्थल पर यदि दो लोग आपस में बात कर रहे हों, वो भी धीमी आवाज़ में, तो पहला व्यक्ति यही सोचता है कि ज़रूर ये दोनों उसकी बुराई कर रहे होंगे. यानी उसने खुद को ही बुराई करने के लायक़ समझ लिया! कभी ये भी किसी ने सोचा, कि अगले व्यक्ति उसकी तारीफ़ कर रहे होंगे? बुराई करने की बात सोच के उसने अपने दिमाग़ को उथल-पुथल के हवाले कर दिया. यदि वहीं तारीफ़ की बात सोची होती तो कितना सुकून होता उस दिमाग़ में! आम ज़िन्दगी में भी हमने अपने ही लोगों के प्रति ऐसी सोच बना ली है कि हर व्यक्ति खुद के ख़िलाफ़ नज़र आने लगा है.
आम ज़िन्दगी से असंतुष्ट व्यक्ति हर बात से असंतुष्ट होता है. उसे जितना मिला, उससे संतुष्ट होने की जगह उसे हमेशा शिक़ायत बनी रहती है कि कम मिला. या उसका भाग्य ही खराब है. जबकि ग़ौर तो उसे अपनी कोशिशों पर करना चाहिये था. अकर्मण्य व्यक्ति कोशिश की जगह भाग्य को दोषी मानने लगते हैं. जबकि भाग्य का निर्माण तो हमारा कर्म करता है. ऐसे व्यक्ति अपने घर में भी गज़ब नकारात्मक ऊर्जा का संचार करते हैं. नतीजतन, पत्नी, बच्चे सब सहमे-सहमे से रहते हैं. उन्हें भी अपना भाग्य ही खराब लगने लगता है. वहीं चंद लोग ऐसे भी हैं, जो अपनी कमज़ोर आर्थिक स्थिति के बाद भी खुश-संतुष्ट दिखाई देते हैं. जैसे हमारी पाठक चाची. कहने को वे हमारे घर में खाना बनाती हैं, लेकिन मन से वे बहुत धनी हैं. सुविचारों की एक ऐसी पोटली उनके पास है, जो उन्हें और उनसे जुड़े लोगों को निराश नहीं होने देती. ज़िन्दगी में आई हर मुश्क़िल का सकारात्मक पहलू उनके पास मौजूद है. इस बढ़ती उमर में भी काम करना उनके लिये अफ़सोस का नहीं बल्कि स्वाबलम्बन का वायस है.
जैसा खायें अन्न, वैसा होबे मन की तर्ज़ पर ही हम जैसा सोचते हैं, वैसा ही हमारा व्यक्तित्व भी बन जाता है. मेरी एक परिचिता हैं, उनके पास शिक़ायतों का अम्बार है. ससुराल से शिक़ायत, मायके से शिक़ायत, पड़ोस से शिक़ायत, अपने काम से शिक़ायत.... कई बार लगता है इतनी शिक़ायतों के बीच कैसे कट रही इनकी ज़िन्दगी? उनकी शिक़ायतों का आलम ये, कि उनके बच्चे भी अपने विद्यालय, शिक्षकों और सहपाठियों की शिक़ायत करते दिखाई देने लगे हैं. इन कम उम्र बच्चों ने खूबियों की जगह कमियां खोजना सीख लिया है. हमारी ये आदतें बचपन को नकारात्मकता से भर रही हैं, इस ओर ध्यान देना बेहद ज़रूरी है. ज़रूरी है कि हम बच्चों को आधे खाली गिलास की जगह भरे गिलास का महत्व समझायें. खुश होना या दुखी होना हमारे हाथ में है. किसी एक बात पर ही हम खुश हो सकते हैं, और दुखी भी, फ़र्क़ केवल हमारे नज़रिये का होगा.
सकारात्मकता का गुण यदि सीखना है, तो एक नज़र प्रकृति पर डालनी होगी. पेड़-पौधों के बीच पहुंचते ही दिल-दिमाग़ कितने सुकून से भर जाता है न? क्यों? क्योंकि प्रकृति में कोई नकारात्मक गुण नहीं है. पेड़ों ने, पौधों ने नि:स्वार्थ भाव से केवल देना सीखा है. लेने की लालसा तो केवल इंसानी है. जहां केवल देने का भाव हो, वहां कैसी नकारात्मकता? चारों ओर सकारात्मक घेरा होता है. यही हमें सुकून देता है. लेकिन हमने कभी पौढों से कुछ सीखने की कोशिश की ही नहीं. ग्रीष्म से तपी, सूखी धरती पर पहली बारिश की बौछार पड़ते ही नन्हे-नन्हे पौधे अपनी बाहें फैला के खड़े हो जाते हैं रातोंरात. उन्हें कुचले जाने का खौफ़ नहीं होता. हम जैसा दूसरों को देते हैं, हमें ठीक वैसा ही वापस मिल जाता है. धरती में भी अगर हम अच्छा बीज बोयेंगे तो हमें एक स्वस्थ पौधा प्राप्त होगा. खराब बीज अव्वल तो पनपेगा ही नहीं, और यदि पनप भी गया तो स्वस्थ पौधे की उम्मीद, उस बीज से नहीं होनी चाहिये. बच्चे भी बीज की तरह हैं. हम उनके दिमाग़ में जैसी खुराक डालेंगे, वे वैसे ही तैयार होंगे. बचपन से ही यदि हम उन्हें प्रेम और सद्भाव के साथ-साथ संतोष का पाठ पढ़ायें, तो युवावस्था में वे इसका उलट करेंगे, ऐसी उम्मीद न के बराबर है.
हमारे हौसलों का रेग-ए-सहरा पर असर देखो,
अगर ठोकर लगा दें हम तो चश्मे फूट जाते हैं
इस्मत ज़ैदी ’शिफ़ा’ का ये शेर मुझे कई बार याद आता है. खासतौर से हौसलापरस्त युवाओं को देखकर.
पिछले दिनों मेरा एक विद्यार्थी किसी प्रतियोगी परीक्षा में शामिल हुआ. लौट के उसने हंसते हुए बताया कि- मैं कुल पचास प्रश्नों के ही उत्तर दे सका. गणित के लगभग सभी सवाल ग़लत हो गये. लेकिन मुझे इससे बड़ी सीख मिली, कि जिस गणित से मैं बचता रहा, उससे पीछा छुड़ाना इतना आसान नहीं है. मुझे उससे भागना नहीं है. अब मैं पहले मन लगा के गणित की ही तैयारी करूंगा मैं खुश थी. एक बच्चे ने अपनी कमज़ोरी को पहचाना. एक असफलता ने उसे नैराश्य से नहीं भरा, बल्कि अपनी कमी को दूर करने के लिये प्रेरित किया. यदि यही सकारात्मक रवैया अपनाया जाये, तो वो दिन दूर नहीं, जब सफलता आपके कदम चूमेगी. ज़िन्दगी है तो सुख-दुख, सफलता-असफलता का सिलसिला भी अवश्यम्भावी है. अपने तमाम दुखों के हल खोजना ज़्यादा बेहतर है, बजाय उस दुख को पालने-पोसने के. हमारी असफलताएं भी हमें अपने आपको जांचने का मौक़ा देतीं हैं, बशर्ते की हम परिस्थितियों को दोषी न मानने लगें. नकारात्मकता के इस जंगल में हमें आशा कि किरण को बचाना ही होगा. मन में आसमान छूने का हौसला रखना ही होगा भले ही हम इस कोशिश में कई बार गिरें क्यों न. चिड़ियों को घोंसला बनाते देखा है न? कितनी बार उनके तिनके गिरते हैं. कई बार तो पूरा घोंसला ही उजाड़ दिया जाता है, लेकिन वे तब भी अपनी कोशिशें नहीं छोड़तीं. नतीजतन, घोंसला तैयार हो ही जाता है. लेकिन इंसानी फ़ितरत में निराशा बहुतायत है. और ये खुद की कोशिश से, अपनी सोच बदलने से ही आशा में तब्दील हो सकेगी.
एक कहानी मुझे याद आती है हमेशा- एक व्यक्ति ऑटो से रेल्वे स्टेशन जा रहा था. ऑटो की रफ़्तार सामान्य थी. एक कार अचानक पार्किंग से निकल कर रोड पर आ गयी. ऑटो ड्राइवर ने ब्रेक लगाया और कार ऑटो से टकराते-टकराते बची. कार चला रहे व्यक्ति ने गुस्से में ऑटो वाले को खूब बुरा भला कहा. गालियां तक दीं, जबकि ग़लती उसी की थी. ऑटो चालक बिना कोई बहस किये, क्षमा मांग के आगे चल दिया. ऑटो में बैठे व्यक्ति ने कहा- तुमने उसे ऐसे ही क्यों जाने दिया? कितना बुरा भला कहा उसने जबकि तुम्हारी ग़लती थी ही नहीं. ऑटो वाले ने सहजता से कहा- साहब, कुछ लोग कचरे से भरे ट्रक के समान होते हैं. ये तमाम कचरा अपने दिमाग़ में भर के चलते हैं. जिन चीज़ों की जीवन में कोई जरूरत नहीं होती, उसे भी मेहनत करके जोड़ते रहते हैं जैसे क्रोध, चिंता, निराशा, घृणा. जब उनके दिमाग़ में कचरा जरूरत से ज़्यादा हो जाता है तो वे उस बोझ को हल्का करने के लिये इसे दूसरों पर फेंकने का मौक़ा खोजते हैं. इसलिये मैं ऐसे लोगों को दूर से ही मुस्कुरा के विदा कर देता हूं. अगर मैने उनका गिराया कचरा स्वीकार कर लिया तो फिर मैं भी तो कचरे का ट्रक ही बन जाउंगा न? ऐसे लोगों के कारण मैं क्यों तनाव पालूं? कितनी सच्ची बात है ये! कोई भी झगड़ा बढ़ाने से ही बढ़ता है वरना एक अकेला व्यक्ति कब तक बकझक करेगा?
लोग भूल जाते हैं, कि ये ज़िन्दगी उन्हें एक बार ही मिली है, और वे इसे नरक बना रहे हैं. ज़िन्दगी बहुत खूबसूरत है. हम इसे अपनी सोच, और व्यवहार से और भी खूबसूरत बना सकते हैं. खाली पड़े मैदान में केवल घास-फूस पैदा होती है जो किसी काम की नहीं होती, जबकि खेतों में फसल के रूप में ज़िन्दगी लहलहा रही होती है. उसी तरह हमें भी अपने दिमाग़ को खाली मैदान नहीं बनाना है, यहां बोना है सकारात्मक विचारों की फसल, जो आने वाली पीढ़ियों को भी जीवनदान दे सके.
(31 दिसम्बर 2017 को अहा ज़िन्दगी पटना ( दैनिक भास्कर) में प्रकाशित आवरण कथा )
तस्वीर: गूगल सर्च से साभार

रविवार, 6 मई 2018

ग़ायब हो गये हैं ठहाके.....!


सुबह का समय. मॉर्निंग वॉक से लौटते हुए, रास्ते में ही नया बना जॉगिंग पार्क मिलता है. जब लौटती हूं, तब सामूहिक हंसी सुनायी देती हैं. हा हा हा....हा हा हा....!!! पिछले दिनों इलाहाबाद गयी थी. प्रात: भ्रमण की शौकीन मैं, कम्पनी बाग़ चली गयी. सुबह पांच बजे से यहां लगभग आधा इलाहाबाद, मॉर्निंग वॉक के इरादे से चला आता है. जिससे कई दिनों से मिलना न हुआ हो, वो भी कम्पनी बाग में मिल ही जायेगा. ढाई सौ एकड़ में फ़ैले इस कम्पनी बाग में तो कई जगह लाफ़िंग एक्सरसाइज़ चल रहे थे. अधिकांश बुज़ुर्ग ही थे जो नकली हंसी के बहाने हंस रहे थे.  और मेरा मन पुराने ठहाकों की ओर दौड़ रहा था.
एक समय था, जब लोगों का मिलना-जुलना, बैठना और बैठकों में हंसी-ठट्ठा होना बहुत आम बात थी.शहर की गलियों में, गर्मियों की हर शाम, देखने लायक़ होती थी. घरों के बाहर पानी का झिड़काव और फिर चार-छह कुर्सियों का घेरा. बीच में टेबल. धीरे-धीरे पापाजी के वे मित्र आने शुरु होते जो प्राय: रोज़ ही आते थे. देश-दुनिया की बातें, समाज की बातें, और उससे भी ज़्यादा यहां-वहां की अनर्गल बातें. ज़रा-ज़रा सी बात पर ज़ोरदार ठहाका लगता. ऐसे ठहाके हर पांच मिनट पर सुनाई देते, जिनकी गूंज अगले तीन मिनट तक बनी रहती. ये विशुद्ध हास्य के ठहाके थे. इनमें किसी का मज़ाक नहीं उड़ाया जा रहा था, किसी पर तंज नहीं कसा जा रहा था, इन ठहाकों से किसी तीसरे को दुखी नहीं किया जा रहा था. जी भर के हंसते थे लोग. इतना कि हंसते-हंसते पेट दुख जाये. इतना कि हंसते-हंसते आंसू बहने लगें......!! पूरा माहौल ही जैसे मुस्कुराने लगता था. धरती से आसमान तक, केवल हंसी का साम्राज्य हो जैसे...!
ऐसा नहीं था कि हंसी केवल बड़ों तक ही सीमित थी. बच्चों के पास भी हंसी के ख़ज़ाने थे. तेनालीराम के किस्से, अकबर-बीरबल, मोटू-पतलू, लम्बू-छोटू, ढब्बू जी, और भी पता नहीं कौन-कौन से पात्र केवल बच्चों को नहीं, बड़ों को भी घेरे रहते थे अपनी हंसी के व्यूह में. ’नन्दन’ में तेनालीराम का नियमित स्तम्भ होता था. चम्पक में चीकू का तो पराग में छोटू-लम्बू का. पत्रिकाओं के सबसे पहले खोले जाने वाले स्तम्भ होते थे ये. ये वो पात्र हैं, जिनका नाम भर लेने से आज भी चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है. ये पात्र कैसा ग़ज़ब का हास्य सृजित करते थे! थोड़ा सा और बाद में बिल्लू, पिंकी, चाचा चौधरी जैसे पात्र कॉमिक्स के ज़रिये आये. अब तक तेनाली राम और अकबर-बीरबल भी कॉमिक्स के रूप में आ चुके थे. ये नन्हे-मुन्ने पात्र भी विशुद्ध हास्य ही पेश करते. साथ ही, इसमें तमाम शिक्षाप्रद बातें भी हंसी-हंसी में ही सिखा दी जातीं. तेनालीराम और बीरबल की बुद्धि का लोहा तो उनके राजा/बादशाह भी मानते थे. कमाल की बुद्धिमत्तापूर्ण बातें होती थीं, ज़बरदस्त हास्य के साथ.
पुरानी फ़िल्में यदि आप देखें, तो पायेंगे कि हर फ़िल्म में एक क~ऒमेडियन ज़रूर होता था. बिना हास्य कलाकार के फ़िल्म अधूरी सी लगती थी. इस हास्य कलाकार का काम था, अभिनेता के साथ मिल के किसी भी घटना पर हास्य का सृजन करना. दर्शक भी जी खोल के हंसते थे इन पात्रों के अभिनय पर. महमूद, मुकरी, राजेन्द्रनाथ, टुनटुन, मनोरमा जैसे कुछ बहुत अच्छे हास्य अभिनेता हैं, जिन्हें कोई भूल नहीं सकता. फ़िल्मों में इनकी उपस्थिति का उद्देश्य भी फ़िल्म को बोझिल होने से बचाना होता था. यानी, हास्य ज़िन्दगी का अहम हिस्सा था. लेकिन धीरे-धीरे हास्य का स्थान व्यंग्य ने ले लिया. अब पड़ोसी हो, रिश्तेदार हो, अपरिचित हो, परिचित हो, अधिकारी हो, मातहत हो, सरकार हो, मंत्री हो, नेता हो, सब केवल व्यंग्य के अधिकारी और व्यंग्य के पात्र हो गये हैं. आज हंसी में भी कड़वाहट सी घुल गयी है. ठीक वैसे ही जैसे हवा में कार्बन डाइऑक्साइड...... लोग हंसते कम हैं, हंसी ज़्यादा उड़ाते हैं. अब तो मुस्कुराहट भी कई अर्थ देने लगी है. पता नहीं व्यंग्य भरी मुस्कान है, या उपहास भरी!! हंसी का गुमना, यानी हमारे सबसे महत्वपूर्ण गुण का खत्म होना. हंसी का वरदान सभी जीवों में केवल इंसानों को ही प्रकृति ने दिया है. इसे बचा के रखें. न केवल बचायें, बल्कि बढ़ायें. न केवल बढ़ायें, बल्कि बढ़ाते रहने की चिन्ता भी करें, ठीक उसी तरह जैसे हम बैंक में रखे पैसे की चिन्ता करते हैं. खूब हंसे और दूसरों को हंसायें, बस हंसी न उड़ायें किसी की भी.
(नई दुनिया के लिये लिखे, और प्रकाशित बहुत सारे लेख इकट्ठे हो गये हैं, सो सोचती हूं यहां पोस्ट कर दूं, ताकि ब्लॉग पर आने-जाने का सिलसिला जमा रहे)




शुक्रवार, 16 मार्च 2018

वंदना अवस्थी दुबे ‘कहानी’ और ओम नागर ‘कविता’ श्रेणी में प्रथम


कलमकार पुरस्कारों की घोषणा
वंदना अवस्थी कहानीऔर ओम नागर कविताश्रेणी में प्रथम
जयपुर। कलमकार मंच की ओर से राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित कलमकार पुरस्कार प्रतियोगिता में कहानी एवं लघुकथा श्रेणी में प्रथम पुरस्कार सतना, मध्यप्रदेश निवासी वंदना अवस्थी दुबे की कहानी जब हम मुसलमान थेऔर गीत, गजल, कविता श्रेणी में प्रथम पुरस्कार कोटा, राजस्थान के ओम नागर की रचना हँसी के कण्ठ में अभी रोना बचा हैको दिया जाएगा। पुरस्कार वितरण समारोह आगामी 25 मार्च को जगतपुरा स्थित सुरेश ज्ञान विहार यूनिवर्सिटी में होगा। निर्णायक मंडल के निर्णय के अनुसार कहानी एवं लघुकथा श्रेणी में द्वितीय और तृतीय पुरस्कार क्रमश: मुंबई के दिलीप कुमार की कहानी हरि इच्छा बलवानऔर वड़ोदरा, गुजरात के ओमप्रकाश नौटियाल की कहानी शतरंजी खंभाको दिया जाएगा। गीत, गजल एवं कविता श्रेणी में द्वितीय और तृतीय पुरस्कार क्रमश: नई दिल्ली की मानवी वहाणे की रचना प्यारी दीदी के लिएऔर देवास, मध्यप्रदेश के मनीष शर्मा की रचना अटालाको दिया जाएगा। 
कलमकार मंच के संयोजक निशांत मिश्रा ने बताया कि देश के रचनाकारों और उनकी रचनाओं को सम्मान और मंच उपलब्ध कराने के उद्देश्य से कलमकार पुरस्कार के लिए राष्ट्रीय स्तर पर रचनाकारों से दो श्रेणियों रचनाएं आमंत्रित की गई थीं। कहानी एवं लघुकथा श्रेणी में कुल 87 और गीत, कविता एवं गजल श्रेणी में कुल 144 रचनाएं प्राप्त हुईं। टीम कलमकार की ओर से शॉर्टलिस्ट करने के बाद प्रथम चरण में पुरस्कार के लिए श्रेष्ठ रचनाओं का चयन साहित्यकार प्रदीप जिलवाने, उमा, तस्नीम खान और स्थानीय लेखक भागचंद गूर्जर ने किया।
मिश्रा ने बताया कि निर्णायक मंडल में प्रो. सत्यनारायण, पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज, विख्यात लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ, वरिष्ठ पत्रकार ईशमधु तलवार, दूरदर्शन के पूर्व निदेशक नंद भारद्वाज, कहानीकार चरणसिंह पथिक, साहित्यकार डॉ. अनुज कुमार और मध्यप्रदेश के जाने माने साहित्यकार बहादुर पटेल शामिल थे।
उन्होंने बताया कि प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय पुरस्कार के तहत क्रमश: 5100, 3100 और 2100 रुपए के साथ श्रीफ ल, प्रमाण पत्र और ट्रॉफ ी दी जाएगी। दोनों श्रेणियों में दस-दस श्रेष्ठ रचनाओं का चयन सांत्वना पुरस्कार के लिए किया गया है। सुरेश ज्ञान विहार यूनिवर्सिटी में 25 मार्च को होने वाले पुरस्कार वितरण समारोह में प्रतियोगिता के लिए चयनित और पुरस्कृत रचनाओं से सुसज्जित पत्रिका कलमकार का विमोचन भी किया जाएगा।
कहानी एवं लघुकथा श्रेणी में सांत्वना पुरस्कार विनोद कुमार दवे, अंजू शर्मा, रुपेन्द्र राज तिवारी, चन्द्रशेखर त्रिशूल, वैभव वर्मा, पूनम माटिया, राजेश मेहरा, असीमा भट्ट, सविता मिश्रा अक्षजा’, मिन्नी मिश्रा, भारती कुमारी, चन्द्रकेतु बेनीवाल और गीत, कविता एवं गजल श्रेणी में फरहत दुर्रानी शिकस्ता’, विकास शर्मा दक्ष’, लीलाधर लखेरा, कैलाश मनहर, अलका गुप्ता भारती’, राम नारायण हलधर, राम लखारा विपुल’, मनोज राठौर मनुज’, डॉ. शिव कुशवाहा शाश्वतऔर शाइस्ता मेहजबी शाइस्ताको दिये जाएंगे.

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गुरुवार, 1 मार्च 2018

श्वेता का प्यारा सा गिफ़्ट..... :)



जिन चीज़ों का इंतज़ार , हम छोड़ देते हैं, अगर अचानक ही वे मिल जाएं तो हमारे लिए सरप्राइज़ गिफ्ट की तरह होती हैं। Sweta Soni की ये पुस्तक समीक्षा भी मेरे लिए गिफ़्ट ही है। खूब स्नेह श्वेता 
बातों वाली गली------------------
हाँ-हाँ,जानती हूँ बहुत देर से आई हूँ!पर करती भी क्या? गुम जो हो गई थी गलियों में।बहुत हीं रोचक और मजेदार रही अवस्थी दीदी(वंदना अवस्थी दुबे)के मन की गली यानि-"बातों वाली गली"।एक दो नहीं पूरे बीसियों विषय की दिलचस्प और अनोखी कहानी है इसमें-चलिए रूब रू करवाती हूँ कहानियों की---
पहली गली से नाम है-"अलग-अलग दायरे"----यह कहानी सुनील,उसकी पत्नी नीरू और उसकी सखी राजी के इर्द-गिर्द घूमती है।इस कहानी में दो सखियों के बीच अमीरी-गरीबी में जी जा रही जिंदगी की कुछ झलकियां है जो पूरी तरह वास्तविकता से जुड़ी है के-कैसा महसूस करती है एक गरीब सखी जब उसके घर उसकी अमीर सखी कुछ पल बिताने आती है,हर चीज में कमी महसूस कर अंदर-अंदर शर्म और हीन भाव में जब खुद को आंकती है।परन्तु उसके पति ने उसे बहुत बढ़िया बात बताई और उसे ये कह कर सम्भाला के-"मित्रता उनके बीच हीं कायम रह सकती है जिसमें बनावटीपन या दिखावा न हो,साथ ही एक दूजे को समझने की क्षमता हो।.....👨‍👩‍👧‍👦
दूसरी गली-"अनिश्चितता में"...इस कहानी की शुरुआत लेखिका ने रेल यात्रा से की है और करे भी क्यूँ न!एक दुःखी चिंतित व्यक्ति को कुछ सोचने के लिए इससे अच्छी जगह कहाँ मिलेगी।इस कहानी का नायक अपने बेरोजगारी से हताश था जो एम.एस.सी में 65% लाने के बावजूद बेकार बैठा था।अब तो उसके छोटे भाई को भी नौकरी लग गई थी सो उसके सामने आने से भी शर्म महसूस होने लगी थी उसे और तो और पिताजी ने भी तो कोई कसर नहीं छोड़ी ऐसा महसूस कराने के लिए आखिर टोक लगा हीं दी उन्होंने--"आखिर कब तक खिलाता रहूँ तुमलोगों को"--और उस तुमलोगों में मेरे सिवा और बचा ही कौन था। 🤦‍♂️
तीसरी गली-"ज्ञातव्य"---ये गली बहुत कुछ बोध करा गई घर के बच्चों को जब घर की बागडोर सम्भालने का जिम्मा उनके पिता ने उनके हाथों में थमा दी के आखिर कैसे नहीं चलता आपसे घर इतने पैसों में --जब खुद पड़ पड़ी तब समझ आई आखिर होती कहाँ थी फिजूल खर्ची,क्यूँ लेने पड़ जाते थें घर के मुखिया को महीने के अंत में कर्ज!खैर इस फैसले से बच्चों में समझ तो आई,फिजूल खर्ची पर काबू पाने की। 👌
चौथी गली-"आस पास बिखरे लोग"--इस गली में आस-पड़ोस के बेतरतीब लोगों का काबिलानापन उजागर किया है लेखिका ने। जो किसी घटना के विषयों को तोड़-मरोड़ कर एक दूजे से बतिया तो सकते हैं पर वक्त आने पर किसी को इन्साफ दिलाने के लिए पुलिस का साथ नहीं दे सकते आखिर कौन पड़े इस झमेले में सोच भाग खड़े होते हैं 🏃‍♂️-----
पाँचवी गली----"बातों वाली गली"--जो अपने शीर्षक पर खड़ी उतरी है।बातें निकलती हीं है महिलाओं के बीच से सो यहाँ रू ब रू करवाई इस गली के महिलाओं के एक ऐसे झुंड से,जो किसी खास के विषय में झट से कोई राय बनाने से बाज नहीं आतीं-उनके मन को भाई तो बड़ी भली अगर अपनी चलाई तो उससे बुरी संसार में कोई नहीं 😄😄😄शायद! ये कभी नहीं बदल सकता कभी नहीं। 
छठी गली-"नहीं चाहिए आदि को कुछ"---इस गली एक ऐसा बच्चा है जो अक्सर हर गली में पाया जाता है।हाँ बगल के घर का छोटू सा प्यारा बच्चा-जीसे आपका घर,घर की सभी वस्तुएं इतनी भाती है कि वो अपने घर जाना नहीं चाहता।यहीं रह सब पाना चाहता है,मगर वहीं किसी एक रोज जब वो अपनी माँ से किसी कारण वश लम्बे समय तक दूर रहता है तो अपने घर लौटने के लिए ये बोल हीं पड़ता है-नहीं चाहिए मुझे कुछ मुझे तो बस मेरी माँ चाहिए।👩‍👦
सातवीं गली---"हवा उद्दंड है"--इस गली में उन मनचलों का जिक्र हैं जिनकी न तो कोई उम्र होती है न ईमान ये कब किधर हल्लर उठा देंगे किसी को क्या पता! शक होता है क्या ये अपनी माँ-बहन के होते भी होंगे या??👹
आठवीं गली---"नीरा जाग गई है"---इस गली में हर उस गली की वो बेटी है जो किसी न किसी वजह से शादी के लिए ठुकराई गई हो।पर ये बेटी निराश हो रोने धोने में नहीं बल्कि अपनी खुशी तलाश जीवन जीने में विश्वास रखती है।👧
नौवीं गली---" रमणीक भाई नहीं रहें"--इसमें एक बेटी अपने पिता के जाने के बाद उस सोच का लेखा जोखा लेकर बैठती है के पिताजी ने जो किया भाईयों के हक के लिए क्या वो सही है! जो अपनी मर्जी का काम नहीं आजतक उनके साथ दुकान पर हीं रहे बेमन बेसमझ काम से क्या अब जिंदगी भर उन्हें मुनीम चाचा पर हीं निर्भर नहीं रहना पडेगा ये सब शुरू से समझने करने को🤰
दसवीं गली----"सब जानती है शैव्या"---ये उस लड़की की कहानी है जिसे समाज के कुछ लोग आज भी पचा नहीं पाते के लड़की उनके बराबर में आ कैसे कदम मिला चल रही-इसे क्या समझ पत्रकारिता की या अन्य किसी विषय की।पर सयानी शैव्या भली भांति जानती है करना क्या है?👩‍🎓
ग्यारहवीं गली---"अहसास"---इसमें छोटे से घर से आई उन सभी बहुओं की व्यथा है,जीसे अपनी खुशी या अपनी पसंद तक पाने का कोई हक नहीं।🤦‍♀️ 
बारहवीं गली---"दस्तक के बाद"---इसका संबंध उम्र के दस्तक से है जो आप से पहले दूसरे आंक लेते हैं।और अंततः आप भी स्वीकार लेते हैं के सच यही है।👵
तेरहवीं गली---"प्रिया की डायरी"---यह कहानी एक गृहणी के जीवन शैली को प्रदर्शित करती है। 👰
चौदहवीं गली---"करत करत अभ्यास के"---ये कहानी उनकी है जो खुद तो आधुनिक हो गए परन्तु सोच पुरानी है इस में उन जैसों को सुधारने का एक अथक प्रयास किया जा रहा है।👼
पन्द्रहवीं गली---"बड़ी हो गई ममता जी"---इस कहानी में जो बहु है वो भले उम्र के आधे पड़ाव पर है पर अपनी सास के आगे अभी भी उसे बहुत छोटा बना रहना पड़ता है। पहले तो ये बात उसे बहुत खलती है पर जब एक दिन उसकी सास चल बसती हैं तो बार-बार उन्हें याद कर दुखी हो जाती है के अपने बड़े होने की खुशी मनाऊँ या उनके न रहने का गम😢
सोलहवीं गली---"विरूध"---इस कहानी से बहुत अच्छी सीख मिली के अगर रिश्तों में विश्वास या सामंजस्य बैठाने जैसा कुछ बचा न हो तो उसे अलविदा कह अलग हो जाने में हीं फायदा है। 🙅‍♀️
सत्रहवीं गली---"ये कहानी ऐसे पिता पुत्र की है जो परीक्षा और उसमें उपयोग होने वाली अलग-अलग प्रकाशन की किताब पर है।जब एक बार पिता किताब लाने में लेट हो जातें हैं तो बेटा ये सोच कर चिंतित होता है के-कितना समय तो निकल गया अब कैसे होगा----और वहीं पिता ये सोच निश्चिंत होते हैं चलो ले हीं आए हम वरना अंक कम मिलने पर तो ये यही कहता ....सब आपके वजह से हुआ 👴
अठारहवीं गली---"डेरा उखड़ने से पहले" बहुत हीं अलग है आभा की जिंदगी भाई बहन सभी है भाभी भतीजे से भरा घर है फिर भी आजतक अकेले हीं ढ़ोते आई अपने बीमार पिता को करती भी क्या भाई रखने को तैयार जो नहीं थें। वो तो शुक्र है कि उसे नौकरी है वरना क्या होता इन बाप बेटी का।पिता के रहते भाईयों से न के बराबर संबंध रखे थें आभा ने।पर अब अकेले रहने पर कभी कभार हो जाती है बात उनमें।फिर भी एक बड़े उलझन में है वो और हो भी क्यूँ न !पचपन की होने को आई है और सामने से शादी का एक रिश्ता आया है समझ नहीं पा रही आखिर करे क्या---🤔
उन्नीसवीं गली---"शिव बोले मेरी रचना घड़ी-घड़ी"-ढोंगी बाबा पर आधारित ये कहानी बहुत हीं बढ़िया है।आखिर हमने ही तो उपजाने में मदद की है समाज में इस जहरीले पौधे को। तो झेलते भी हम हैं,पर सुधरते नहीं है।...
बीसवीं गली---"ये कहानी ऐसे तथ्य को उजागर करती है के किसी की जिंदगी का फैसला हर बार सिर्फ घर का मुखिया करे ये हीं सही नहीं होता,हर फैसले को हर बार किसी पर थोपने से पहले उसके हित को ध्यान में रख लेना चाहिए। खुशहाल जीवन तभी मिलता है। हालांकि-बड़ी बाई साहब भी अंत में इस तथ्य से सहमत दिखाई पड़ रही थी। 👩‍⚖
हमने तो बहुत छोटा सारांश लिखा,लिखना तो बहुत चाहती हूँ पर दुविधा में हूँ क्या लिखूं और कितना---कैसे खत्म करू इन गलियों की कहानी। बातें भी कभी खत्म होती हैं???फिर कैसे खत्म हो बातों वाली गली की कहानी।तो फिर इंतजार कीजिए आने तक अगले गली की कहनी,जो हमारे बीच लेकर आएंगी हमसब की जिज्जी!एक ब्लॉगर,फेसबुक सखी वंदना अवस्थी दुबे। 
ढेरों शुभकामनाएँ दीदी 😍
------श्वेता सोनी-----