बुधवार, 16 सितंबर 2020

अटकन- चटकन : कुछ प्रतिक्रियाएं

शिउली सिंह
Shiully Singh उन प्रबुद्ध पाठकों में से हैं, जिनकी दम पर आज भी किताबें छप रहीं। वे मेरी बेटी की तरह हैं लेकिन हमारे बीच चर्चाएं दोस्तों की तरह होती हैं। अपने काम के प्रति बेहद ईमानदार लड़की। जितनी कर्मठ, बुद्धिमान उतनी ही सहज और सरल भी। देखें क्या लिखा है शिउली ने-
अटकन चटकन
------------------

आज मैने आपका पहला उपन्यास अटकन चटकन  पूरा किया! पिछली बार की ही तरह इस बार भी जो पढ़ने बैठी तो एक बार में ही समाप्त करके उठी
कथा इतनी रोचक है कि जब तक अंत न पढ़ लो दिमाग में बस वही चलता रहता है कि आगे  क्या होगा
अटकन चटकन के रूप में मुझे बुंदेलखंड के ग्रामीण परिवेश को जानने का सौभाग्य मिला और इतनी सधी हुयी भाषा शैली के कारण लगता है जैसे हम प्रत्यक्ष उस कहानी को अपने सामने चलता देख रहे हैं॥ 
पढ़ने के दौरान जैसे हम भी उस कहानी के पात्र हो जाते हैं ॥ बाकी आप मेरे लिए श्रद्धेय हमेशा से ही हैं, इसलिए इस सफल और रोचक कृति के लिए मेरी बधाई और प्रणाम स्वीकार करें।
#अटकनचटकन

गिरिजा कुलश्रेष्ठ
गिरिजा कुलश्रेष्ठ .... ये नाम है एक लब्ध प्रतिष्ठ कथाकार का, जिनकी कहानियां पाठक को झकझोर देती हैं। जिनकी गायकी सीधे दिल में उतरती है , सादगी और  सरलता के आगे बच्चे भी फीके पड़ जाएं... उन्हीं गिरिजा दीदी ने लिखा है अटकन चटकन के लिए। आप भी पढ़ें-

अटकते चटकते रिश्तों का खूबसूरत दस्तावेज 
------------------------------------------------------- 
“अटकन चटकन दही चटाकन 
बाबा लाए सात कटोरी 
एक कटोरी फूटी तामें भौजी रूठी 
नई कटोरी लाएंगे ,भौजी को मनाएंगे “
वन्दना जी के उपन्यास का नाम (अटकन चटकन) सुनते ही बचपन का यह छोटा सा बालगीत याद आगया और इस कृति को पढ़ डालने की उत्सुकता जाग उठी . वैसे भी वन्दना मेरी पसन्दीदा लेखिका ,गायिकाऔर आत्मीया मित्र हैं .  उनका कहानी संग्रह 'बातों वाली गली 'पढ़ चुकी हूँ  .यह उपन्यास आया तो  तुरन्त ऑर्डर किया हाथ में आते ही पढ़ने बैठ गई . एक ही बैठक में लगभग पूरा उपन्यास पढ़ डाला .  उपन्यास अपेक्षाकृत छोटा भी है ( इतना भी छोटा नहीं कि एक बैठक में पढ़ा जा सके ) असल में एक साथ पढ़ डालने का कारण इसकी लघुता नहीं ,आत्मीयता व रोचकता है . भाषा संवाद परिवेश सब कुछ अपना सा .हालांकि पूरे उपन्यास में बचपन के उस बालगीत से जुड़ा तो कोई प्रसंग नहीं है पर कहानी शीर्षक को पूर्णतः सार्थक करती है . रिश्तों की अटकन यानी अटकाव प्रेम और चटकन यानी दरार रिश्तों की दीवार में . यानी पूरा उपन्यास केवल दो बहिनों की अटकन और चटकन पर ही बुना गया है . यह मेरा अपना विचार है . संभवतः वन्दना ने भी इसी अर्थ के साथ यह शीर्षक रखा होगा . खैर...
पूरा कथानक ,अन्त तक ,दो सगी बहिनों सुमित्रा और कुन्ती के आसपास घूमता है .बड़ी सुमित्रा अपनी छोटी बहिन कुन्ती के लिये जो बाद में उसकी जेठानी भी बन जाती है ,जितनी स्नेहमयी सहनशीला और उदारमना है ,कुन्ती उतनी ही संकीर्ण-हदया ,विद्वेषिनी , हीनताग्रस्त और अपने लक्ष्य को पूरा करने छल और झूठ का सहारा लेने वाली है . वह जब भी मौका मिलता है सुमित्रा को नीचा दिखाने की कोशिश करती है लेकिन सुमित्रा बड़ी उदारता के साथ उसे माफ करती जाती है . इसका परिणाम भी कुन्ती को मिलता है . उसे उसके बच्चे तक सहन नहीं करते . बहू उसके अत्याचार का खुलकर विरोध करती है ..कुन्ती की सारी क्रूरता दीनता में बदल जाती है . वह अन्ततः उसी बहिन को फोन करती है , जिसे एक लम्बे समय तक कुन्ती आहत करती रही है  (यहीं से उपन्यास शुरु होता है ) ठोकरें खाने के बाद अन्त में कुन्ती सुधर जाती है .बस इतनी सी और सामान्य सी बात है न ? लेकिन इसी कथ्य को लेकर घर--आँगन के कोने कोने में , भावनाओं के हर मोड़ पर वन्दना जिस अपनेपन और खूबसूरती के साथ झाँकी ही नहीं हैं बल्कि पूरे अधिकार के साथ विराजमान है . बड़े और भरे पूरे संयुक्त परिवार की छोटी से छोटी बातों को लेकर एक जीवन्तता के साथ . यही इस कृति की सबसे बड़ी विशेषता है . वे किसी प्रसंग के लिये अपनी तरफ से कोई वर्णन या निष्कर्ष नहीं देती बल्कि घटना का जीवन्त चित्रण उस बात का गवाह बनता  है . मैं तो चकित हूँ कि किस कौशल के साथ बुना है कथा को .
यह वन्दना जी की मौलिकता और विशेषता है कि वे हर घटना व प्रसंग को किस्सा की तरह सुनाती हैं , पाठकों को सामने बिठाकर उनसे बात करती हुई . जैसे,  “आप सोच रहे होंगे कि .”....चलिये पहले उस घटना के बारे में बताते हैं .”...”आपके मन में यह सवाल जरूर होगा कि तिवारी जी ने कुन्ती को कुन्ती भाभी क्यों कहा ..तो सुनिये ..”.वगैरा . पाठक कदम कदम पर मौजूद है उपन्यास में . जहाँ तक शिल्प की बात है तो वह बहुत ही सहज और रोचक है मानो कि रजाई में पाँव डाले आराम से बैठकर लेखिका हमें कोई किस्सा सुना रही हैं .बीच बीच में जो भी याद आता है जोड़ती जा रही हैं .. सायास कुछ भी नहीं लगता . ऐसा तब होता है जब कथानक रचनाकार का इतना देखा और भोगा हुआ होता है कि कुछ सोचने ,उलझने या रुकने की जरूरत ही नही होती . पाठक को ऐसा अनुभव होना रचना की सफलता व उत्कृष्टता है . अटकन चटकन में यह बात बखूबी दिखाई देती है .
उपन्यास भाषा आंचलिकता के सौन्दर्य से रची बसी है .घिचिया मसक देना , भकोसना ,पुसाना धमधूसड़ी ,गुड़ताल ( मुरैना की तरफ गुन्ताड़ बोलते हैं ),तनक..मौड़ी , जैसे शब्द मेरे विचार से टीकमगढ़ ,छतरपुर के आसपास की बुन्देली है . बोली के बारे में कहा गया है कि कोस कोस पर बदले पानी , चार कोस पर बानी ..बुन्देलखण्ड में भी बोली के अलग अलग रंग देखने मिलते हैं . मुझे उपन्यास की बोली और संवादों में आनन्द आया . संवाद छोटे हैं जिनमें बुन्देली का माधुर्य है .
कहीं कहीं मुझे चरित्रों के एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की अपेक्षा महसूस हुई  है . जैसे कि कुन्ती ने अकारण ही भाभी की नई साड़ी का पल्ला फाड़ दिया और उसे सुमित्रा के नाम जोड़ दिया .ऐसा निकृष्ट कार्य करने से पहले उसने क्या क्या सोचा होगा तब इस स्तर पर गिरी होगी ..ऐसे ही दूसरे प्रसंगों के पीछे अगर उसकी मनोदशा का चित्रण भी होता ..इसी तरह सुमित्रा जी कुन्ती के प्रति असीमित रूप से उदार हैं पर उसके पीछे उनके भावों का भी वर्णन होता .(.हालांकि है ,लेकिन और भी अपेक्षित है .)..तो कृति में और भी चार चाँद लग जाते . जो भी हो , अटकन चटकन रिश्तों का खूबसूरत दस्तावेज है ही , लॉकडाउन काल में लिखे जाने के कारण एक इतिहास भी है लेखिका के दृढ़ संकल्प ,परिश्रम और लगन का ..समय को मुट्ठी में बाँध लेने का . जहाँ हम जैसे लोग समय को चूहों की तरह कुतरते काटते रहे , ‘जिज्जी’ ने एक अदद उपन्यास लिख डाला . यह बड़ी प्रेरणा है हम सबके लिये . इस बात के लिये उनको बहुत सारी बधाइयाँ .
#अटकनचटकन

उर्मिला सिंह
उर्मिला दीदी उन विशिष्ट पाठकों में से हैं जिनके पास विस्तृत अध्ययन और सुलझी हुई सोच है। उनके द्वारा किसी पुस्तक की समीक्षा की जाए ये लेखक और पुस्तक दोनों का सौभाग्य है। आइये देखें क्या लिखतीं हैं Urmila Singh दीदी अटकन चटकन के बारे में-

अटकन-चटकन
------------------

मैंने सोचा था कि 'बातों वाली गली' के बाद वन्दना की अगली किताब का नाम 'फूलों वाली गली' या 'काँटों वाली गली' जैसा कुछ होगा। ऐसा होने में कोई सन्देह भी नहीं था किन्तु अच्छा हुआ जो बाबूजी ने इसका नाम 'अटकन चटकन' रख दिया। हालाँकि कथ्य को देखते हुए यह उपन्यास 'झगड़ों वाली गली' की याद दिलाता है।

मैं बहुत दिनों से इस सोच में थी कि वन्दना की अगली किताब कब और कैसे पूरी होगी जबकि उनका सारा दिन साधन-सुविधाहीन बच्चों के लिए समर्पित रहता है। दिन के कई घन्टे स्कूल और ट्यूशन को देने के बाद उनके पास समय बचता ही कितना है? सम्भवतः लॉक डाउन से मिले समय के कारण ही यह किताब पूरी हो सकी।

कहानी उस जमाने से शुरू होती है जब जीवन और समाज में नैतिक मूल्यों का बड़ा सम्मान था। परिवार में प्रेम और सहयोग की भावना रहती थी। संयुक्त परिवार, ग्रामीण और कस्बाई संस्कृति को जीवंत करता यह उपन्यास एक पूरा कालखंड अपने में समेटे हुए है। कहानी में रोचकता और प्रवाह इतना है कि कोई भी इसे एक बैठक में समाप्त कर सकता है।

सुमित्रा और कुंती दोनों के चरित्र मैं सख्त नापसंद करती हूँ। हालाँकि लेखक के अपने अनुभव होते हैं। वन्दना ने ऐसे चरित्रों को नजदीक से अवश्य देखा होगा। स्त्रियों के स्वभाव की एक बात मुझे हरदम खटकती रही है कि अपनी सास से प्रताड़ित होने वाली ज़्यादातर बहुएँ उसी परम्परा को आगे भी जीवित रखती हैं। वे अपनी बहू के साथ वही व्यवहार करती हैं जैसा उनके साथ हुआ। वे सोचती हैं कि जिस दुर्व्यवहार को हमने सहा है, हमारी बहुओं को भी उन्हीं अनुभवों से गुजरना चाहिए।
इस मानसिकता के चलते ज़्यादातर घरों में जो भी अप्रिय घटनाएँ घटती हैं, उसमें अस्सी प्रतिशत योगदान महिलाओं का होता है। इसी बिगड़ी हुई परंपरा के कारण नब्बे प्रतिशत क्षेत्रों में जिन महिलाओं को दूध और घी नहीं मिला, उन्होंने अपनी बहुओं एवं लड़कियों को भी इससे वंचित रखा।  मालकिन बन जाने के बाद अधिकांश बहुओं ने इस परम्परा में किसी सुधार या संशोधन की कोशिश नहीं की।

वन्दना का पहला कहानी संग्रह 'बातों वाली गली' भी बढ़िया था। उस संग्रह की दो बड़ी कहानियाँ अपनी कथावस्तु और कसावट के कारण बहुत अच्छी बन पड़ी थीं। वन्दना की हास्यवृत्ति उनकी रचनाओं में भी भरपूर नज़र आती है। हास परिहास के अनेक प्रसङ्ग उनकी दोनों किताबों में मौजूद हैं।

मुझे यह बात भी हर्षित करती है कि वन्दना के सादगीपूर्ण और सरल स्वभाव का असर उनके लेखन पर भी स्पष्ट दिखाई देता है।
चूँकि विद्यालय अभी भी बंद चल रहे हैं अतः हम पाठक ये उम्मीद कर सकते हैं कि इस विस्तारित लॉकडाउन का फायदा उठाते हुए वन्दना बहुत जल्द अपनी तीसरी किताब पूर्ण कर लेंगी। रही बात प्रकाशन की तो उसके लिए अपने बन्धु पंकज सुबीर हैं ही।

निरुपमा चौहान राघव
हम अब तक फेसबुक फ्रेंड नहीं थे, लेकिन व्हाट्सएप ग्रुप 'गाएं गुनगुनाएं शौक़ से' की वजह से अजनबी भी नहीं थे। आज जब Nirupma Chauhan Raghav की ये प्यारी सी टिप्पणी मिली तो हम उछल पड़े। बहुत स्नेह निरुपमा ❤️

अटकन चटकन
------------------
वंदना अवस्थी दुबे - आप के लेखन से ये मेरा पहला परिचय है जबकि आपकी गायकी की मैं भी फैन हो गईं हूँ ... अटकन चटकन ... नाम से ज्यादा समझ नहीं आ रहा था और उपन्यास पढ़ने का बेहद मन था तो झट से Amazon तलाशा उसका थोड़ा नखरा देखा तो Kindle का रुख किया और वहाँ ये उपन्यास देख कर  download किया ... बस फिर क्या था जो पढ़ना शुरू किया खत्म करके ही छोड़ पाये 🧡उपन्यास के पात्र कथानक सब बहुत ही रोचक, मन को बांधने वाला आपका लेखन मन को बहुत भाया एकदम मौलिक . एक दिन अच्छी किताब खत्म करके उसे जज्ब करने में लगता हमें तो, खो ही जाते हैं  सब पात्रों और कथानक में , तभी आज थोड़ा चैतन्य होने पर आपको बताने का मन किया अपने मन के भाव और जो हमें बहुत ही भाया वो आपके लिखने का style बिल्कुल कहीं भी नहीं लगा कि अरे ये इसके जैसा या उसके जैसा... अटकन चटकन के वैसे तो सभी पात्र अपने से लगे लेकिन ये कुंती . . . भगवान न मिलायें ऐसी देवी से😁इतने रोचक और बेहतरीन उपन्यास के लिये बहुत बधाई और हमें आगे भी बहुत इंतजार रहेगा लिखती रहिये बहुत शुभकामनाएं💐
#अटकनचटकन

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें