शनिवार, 28 मार्च 2009

पल

ज़िन्दगी के कुछ ऐसे पल,

जिन्हें हम भोगना चाहते हैं,

लेकिन वे हमसे दूर भागते हैं;

शायद हमसे बचना चाहते हैं ,

हम पकडना चाहते हैं उन्हें,

और वे समा हो जाते हैं,

काल के निर्मम गाल में;

और हम परकटे परिंदे की तरह

देखते रह जाते हैं,

रह जाता है, अंतहीन इंतज़ार-

कि हम से रूठे पल कभी तो वापस आयेंगे.

शुक्रवार, 27 मार्च 2009

मुक्तक

चांद उठता है तो, तम दूर चला जाता है,

नेह की छांव में गम दूर चला जाता है.

चलती राहों पे अपना प्यार लुटाने वालो,

इश्क की ओट में,ईमान छला जाता है.

आर.आर.अवस्थी

मंगलवार, 24 मार्च 2009

औरत

पहले बेटी,

फिर बहू,

पत्नी और मां कहलाई है,

रिश्तों के इस

भंवरजाल में,

अपनी पहचान गंवाई है।

इसमें भी वो खुश थी, लेकिन फिर भी उसे क्या मिला?-

नाम गंवाया,

धाम गंवाया,

अपने मन का हर काम गंवाया,

फिर भी देखो

आज तलक,

उसने घर का विश्वास न पाया.

बुधवार, 18 मार्च 2009

बेटियां
नाज़ तुम्हें था बेटे पर,
बोझ लगी थीं बेटियां।
बेटों की सब मांगें पूरीं,
तरस रही थीं बेटियां।
पर तकदीर ने पल्टा खाया,
बोझ के वर्ग में तुम्हें बिठाया।
बेटों को तुम बोझ लगे,
ढोने से कतराने लगे,
तब पलकों पर तुम्हें बिठाने,
तैयार खडी थीं बेटियां।
नाज़ तुम्हें था बेटों पर,बोझ लगीं थीं बेटियां...

मंगलवार, 17 मार्च 2009

तिलक-होली

होली बीते छह दिन हो गये, लेकिन बात है कि दिल से जाती ही नहीं.... असल में बात "तिलक-होली" से सम्बंधित है.. मध्य-प्रदेश का जल-संकट अब जग-ज़ाहिर है, नये सिरे से बताने की बात नहीं. इसी जल-संकट के मद्देनज़र प्रदेश सरकार होली के दस दिन पहले से तिलक-होली का राग अलाप रही थी. प्रदेश के सभी अखबारों में बडी-बडी अपीलें-केवल तिलक लगायें-जल बचायें छाये हुए थे. अच्छा ही लगा...भीषण जल संकट से जूझने वाले सतना शहर के लिये तो ये ज़रूरी भी है कि पानी की हर बूंद बचाई जाये. होली के दिन उम्मीद थी कि शास्कीय जल प्रदाय शायद केवल एक घंटे को हो... लेकिन गज़ब तो तब हुआ जब सुबह सात बजे से लेकर दोपहर दो बजे तक पानी की सप्लाई होती रही. शहर के सैकडों टोंटी रहित सार्वजनिक नल नाली में बेशकीमती जल बहाते रहे.... क्या तिलक होली की सार्थकता तब नहीं होती, जब पानी नियत समय के बाद सप्लाई ही न किया जाता?? ये कैसा पानी बचाओ अभियान है???

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

ऐसे बीती होली...........
बडा रंगीला त्यौहार है होली!!!! रंगीला?? हां..कभी था. अब तो साल दर साल रंग फीके पडते जा रहे हैं.अब तो कई साल हुए हुरियारों की टोली देखे हुए.. फागों का मौसम तो कब का बीत गया..पता नहीं कहां गये वो ईसुरी की रस भीगी फागें गाने वाले..खैर... अभी कुछ साल पहले तक अडोस-पडोस के लोग, जो उम्र में मुझ से छोटे हैं, होली पर प्रणाम करने और अबीर लगाने तो ज़रूर ही आ जाते थे,लेकिन इस बार तो उन सब का भी पता नहीं...और दिनों की अपेक्षा कुछ ज़्यादा ही सन्नाटा पसरा रहा शहर में.बीच बीच में बच्चों की कुछ टोलियां अरूर होली का अहसास दिलातीं रहीं...
त्यौहारों पर मार केवल मंहगाई की नहीं है,बल्कि तथाकथित आधुनिकता की भी है.पर्व विशेष की पारम्परिकता को यदि दरकिनार कर दिया जाये तो त्यौहार में फिर कुछ बचता ही नहीं.अब आधुनिकता के नम पर ऐसी परम्पराओं को भी खत्म किया जा रहा है,जिनसे समाज को कोई नुक्सान कभी था ही नहीं;बल्कि ये तो जीवन में रस घोलने का काम करती थीं.भारत के रीति-रिवाज़ों को समझने और समझाने में मददगार थीं.अफ़सोस की आज इन त्यौहारों की रीतियों को "रूढियां" कहने वालों की कमी नहीं है, जबकि वास्तविक रूढियां, जिन्हें जड से हटाया जाना चाहिए आज भी अपनी जगह पर मौज़ूद हैं.... कोई संकल्प है हमारे पास इन्हें मिटाने का????

मंगलवार, 3 मार्च 2009

फिर हमला

एक बार फिर आतंकी हमला सुर्खियों में है। लेकिन हमला इस बार आतंकियों की हिफ़ाज़त करने वाले पाकिस्तान में हुआ है। निशाना फिर विदेशी मेहमान ही बने हैं। शायद अब पाकी हुकूमत अपना रवैया बदले.... शायद अब वह आतंकियों का पक्ष लेना छोडे..... लेकिन अब शायद बहुत देर हो गई है, पाक के लिये। गले तक आतंकियों के जाल में खुद अपनी ही गलती से फंस चुका है वह। अब चाह कर भी आतंक का यह जाल वह काट नहीं पायेगा। फिर??? कैसे रुकेगा यह दमन-चक्र?