शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

तमाम औरतों की पीड़ा है –“जानो तो गाथा है”

जानो तो गाथा है…….. पुष्पा दी का ये उपन्यास जब हाथ में आया तो बहुत देर तक मैं इस शीर्षक को ही देखती रह गयी.. कई बार पढा. हर बार इस शीर्षक ने नया अर्थ दिया, नये भाव पैदा किये और नये सिरे से पढने को उद्वेलित किया. बहुत कम ऐसे शीर्षक होते हैं, जो बरबस पाठक को अपनी ओर खींचते हैं.  “जानो तो गाथा है” ऐसा ही करिश्माई शीर्षक है.
 “रुदादे इश्क/बेदादे शादी” की मेरे द्वारा की गयी समीक्षा पढने के बाद पुष्पा दी ने मेल किया. “ वंदना, तुम्हारी समीक्षा पढ के उम्मीद बंधी है, कि तुम निष्पक्ष समीक्षा करोगी.”  मेरे लिये ये बहुत बड़ा कॉम्प्लिमेंट था. किताब मुझे मई के पहले हफ़्ते  में ही मिल गयी थी. लेकिन इस किताब के पहले भी कुछ किताबें पहुंच चुकी थीं, जिन पर मुझे अनिवार्य रूप से लिखना था.  सो, इस किताब पर लिखना पिछड़ता गया.
मौसी….ज्ञानो…यानि ज्ञानवती पांडे. जी हां यही हैं इस उपन्यास की केन्द्रीय पात्र. ’जानो तो गाथा है’ पांडे परिवार की ऐसी गाथा है, जिसमें तीन पीढियों के दर्शन होते हैं, लेकिन मुख्यतया एक ही पीढी की जीवन शैली पाठकों तक अपने समग्र रूप में पहुंचती है. ये वो पीढी है, जिसमें ज्ञानो मौसी बड़ी हुईं, ब्याही गयीं, और फिर मौसी के अपने जीवन के तमाम रंग इस घर की चहारदीवार में बेरंग होते गये. पाठक पूरे समय लेखिका के साथ-साथ इस घर के कोने-कोने का दर्शन करते चलते हैं. घर और उसमें रहने वालों का चित्रण पुष्पा जी ने इतनी बारीक़ी से किया है, कि कई बार लगता है- यदि इनमें से कोई भी सामने आ जाये तो तुरन्त पहचान लिया जाये. बहुत जीवंत चित्रण है, पात्रों का. वैसे भी इस उपन्यास में वर्णित तमाम पात्र केवल पात्र नहीं लगते, बल्कि हमारे परिवार का हिस्सा सा बन जाते हैं.
उपन्यास की ख़ासियत है इसका स्त्री प्रधान होना. एक ही समय में कई स्त्रियों के जीवन और उनके अन्तर्मन की सूक्ष्म निरीक्षण पुष्पा जी ने किया है. ज्ञानो मौसी का व्यक्तित्व चमत्कारी है. वे परम्पावादी हैं, लेकिन रूढिवादी नहीं. तमाम वर्जनाओं का उपहास उड़ाते हुए उनके वाक्य पूरे उपन्यास में जहां-तहां बिखरे पड़े हैं. औरत के लिये बनाये गये थोथे नियमों की वे उस काल विशेष में भी भर्त्सना करती दिखाई देतीं हैं, जिस काल विशेष में औरत परम्पराओं को ले के भीरू हुआ करती थी. विपरीत परिस्थितियों ने मौसी को भीरू नहीं, बल्कि रूढि विरोधी बना दिया. घर में हर तरह की सुख सुविधाप्राप्त मौसी अन्तिम क्षण तक पति प्रेम के लिये तरसती रहीं. एक हूक ले के वे इस संसार से विदा हुईं. यानि प्रेम की कोई उम्र नहीं होती. जिसे प्रेम मिलता है, वो चिर प्रेमी बना रहता है, और जिसे नहीं मिलता, उसकी प्रेम पाने की आकांक्षा चिर युवा रहती है.
उपन्यास में केवल ज्ञानो-कथा नहीं है. ज्ञानो के समानान्तर कई अन्य महिलाओं की व्यथा भी पुष्पा जी ने बहुत खूबी से उकेरी है. एक प्रकार से इस उपन्यास को एक ऐसा उपन्यास माना जाना चाहिये , जिसमें कई पीढियों की महिलाओं की लगभग एक जैसी व्यथाएं सामने आई हैं.  यानि समय बदला है, महिलाओं की व्यथा नहीं बदली…. एक स्थान पर पुष्पा जी लिखती हैं-
खुले मैदान में बैठी ढेर सी दुखी चेहरों वाली औरतें, बिन्दी, सिन्दूर लगाये कहती हुई दिखती हैं- “ कुछ नहीं बदला….कुछ भी नहीं बदला कपड़ों के सिवा, हम वैसी की वैसी हैं.”
उपन्यास में, ज्ञानो मौसी, रामा नानी, अजिया, बत्तो, दिदिया, जैसे अनेक नारी पात्र हैं, जिनकी व्यथा तो उन की अपनी है, लेकिन लगती तमाम औरतों की है. रामा नानी की व्यथा देखें-
’रामा नानी ने एक बार ससुराल छोड़ दी तो वहां झांकने नहीं गईं. थूक गुटक गुटककर वे अपने मन को ही गुटकती रहीं.”
’बप्पा की तीसरी पत्नी थी अजिया. ब्याह होते ही कौमार्य और कोखमयता के बीच खड़ी रति-आतुर नव यौवना यक ब यक सात बच्चों की मां कहलाने लगी. अजिया कहतीं- "औरत की ज़िन्दगी लिये गंगा बहती है. मां बाप की गंगोत्री से निकल कर ससुराल के संगम में पीढियों को समेटे. ये बच्चे जिस मां की कोख के स्नेह से उपजे हैं, मैं उस कोख को अपना चुकी हूं. इन बच्चों की ज़िन्दगी में मेरे स्नेह जल की कभी कमी नहीं होगी.”
उपन्यास की कथा, कानपुर के कर्मकांडी कान्यकुब्ज परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है. कान्यकुब्ज ब्राह्मणों  की तमाम मर्यादाएं/वर्जनाएं खूब विस्तार से लिखी गयी हैं.
“कान्यकुब्ज ब्राह्मण वंश का इतिहास रटाना नाना की दिनचर्या में शामिल था. नाना बड़े गर्व से बताते कि हमारे परनाना रामेश्वर दत्त कठोर कर्मकान्डी ब्राह्मण थे. “
जैसे तमाम वाक्य  उस समय के ब्राह्मणवाद को पुष्ट करते हैं, जिस काल विशेष का खाका कथा में खींचा गया है.
उपन्यास अपनी रोचकता के साथ-साथ कहीं-कहीं व्यक्ति या परिवार विशेष की जानकारी देते हुए जब विस्तार पा जाता है, तो  बोझिल हो जाता है. पात्रों की अधिकता भी पाठकों को संशय में डालती है. इस उपन्यास में इतने पात्र हैं, कि सब आपस में गड्ड-मड्ड होने लगते हैं. पात्रों की अधिकता पाठक को उलझाती है. किसी अन्य पात्र की कथा के बाद मौसी का ज़िक्र आता है तो हर बार पात्रों और उनके रिश्ते को जानने के लिये आगे के पन्ने पलटने पड़ते हैं. जबकि मुझे लगता है कि पुष्पा जी चाहें, तो अपने हर नारी पात्र पर एक अलग उपन्यास लिख सकती हैं.
पुष्पा जी की लेखनी सशक्त है. वे इस उपन्यास के ज़रिये लेखन की जिस ऊंचाई को छूती हैं, उसे आज के कथाकार तमाम कोशिशों के बाद भी नहीं छू पाते.  उपन्यास का अधिकान्श भाग, अवधी/कनपुरिया आंचलिक बोली में लिखा गया है. आंचलिक भाषा हमेशा कथा को न केवल विश्वसनीय बनाती है, बल्कि उपन्यास के माध्यम से बोली को ज़िन्दा भी रखती है. अन्य स्थानों पर बोली का प्रचार-प्रसार भी किसी उपन्यास/कहानी  के माध्यम से बेहतर तरीक़े से होता है. उपन्यास न केवल  रोचक है, बल्कि स्त्रियों की ऐसी तक़्लीफ़ों को उजागर करता है जिस ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता. सब भाग्य की बात मान लेने के कारण औरत का दुख कितना निजी हो जाता है, ये इस उपन्यास में बखूबी उभर कर आया है. सन २००१ में , आधार प्रकाशन से प्रकाशित इस उपन्यास के फ़्लैप पर साहित्यविद नरेश मेहता ने विशेष टिप्पणी की है. ३०० पृष्ठ के इस उपन्यास की कीमत २५० रुपये है. उपन्यास बेहद रोचक है, इसे अवश्य पढा जाना चाहिये.
उपन्यास: जानो तो गाथा है
लेखिका: पुष्पा तिवारी
प्रकाशक: आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, एस.सी.एफ़. 267, सेक्टर-16
पंचकूला- 134113
मूल्य: 250/
ISBN: 81-7675-039-5


शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

औरत से “व्यक्तित्व” में तब्दील होने की कथा है: कांच के शामियाने

कुछ संयोग यादगार होते हैं. रश्मि की किताब को सबसे पहले बुक करने और फिर उस किताब का सबसे पहले मुझे ही मिलने का संयोग भी ऐसे यादगार संयोगों में से एक है. “कांच के शामियाने” मेरे हाथों में सबसे पहले आई, लेकिन पढी सबसे पहले मेरी सास जी ने. उसके बाद  कुछ ऐसा सिलसिला चल निकला कि चाहने के बाद भी  किताब पर अपनी टिप्पणी लिखने का मौका टलता गया. इधर निवेदिता (निवेदिता श्रीवास्तव), रंजू (रंजू भाटिया), वंदना जी(वंदना गुप्ता) और साधना जी(साधना वैद) इस पुस्तक के बारे में लिख चुकी थीं. अब तो गिल्ट के मारे मेरी डूब मरने जैसी स्थिति हो रही थी. लगा, रश्मि क्या सोचती होगी!! पहले तो बड़ा हल्ला मचाये थी,- कब छपवाओगी? क्यों नहीं छपवा रहीं? कब तक आयेगी? और जब आ गयी तो चुप्पी साध गयी. खैर… देर आयद दुरुस्त आयद की तर्ज़ पर मैने अब “कांच के शामियाने” अपने साथ रखनी शुरु की. स्कूल जाती तो किताब हाथ में होती. नतीजा ये हुआ, कि अगले दो दिनों में ही उपन्यास पढ डाला.  दोबारा पढना कहूंगी क्योंकि इस उपन्यास को हम रश्मि के ब्लॉग  पर पहले ही पढ चुके हैं. बल्कि यूं कहूं, कि इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया की  कई बार हिस्सेदार भी बनी. तो “कांच के शामियाने” से अलग सा ज्जुड़ाव होना लाज़िमी था.
“कांच के शामियाने” कहानी है एक ऐसी लड़की की, जिसने बेहद लाड़ प्यार के बाद असीमित धिक्कार पाया. यानि दोनों ही अपरिमित. उपन्यास की केन्द्र जया की व्यथा-कथा है ये. एक ऐसी व्यथा-कथा, जिसे पढते हुए कई जयाएं अनायास आंखों के सामने घूम जाती हैं. आये दिन खाना बनाते हुए जल के मरने वाली बहुओं की तस्वीरें सामने नाचने लगती हैं. कुछ ऐसी महिलाएं याद आने लगती हैं, जिनके बच्चे किशोर हो रहे हैं, तब भी पति महोदय जब तब पिटाई का शौक़ पूरा करते हैं, उन पर हाथ आजमा के.
पढते-पढते कई बार जया पर गुस्सा आता है. क्यों की उसने शादी? क्यों नहीं उसके प्रस्ताव को टके सा फेर दिया? क्यों सही उसकी मार? हाथ पकड़ के दो थप्पड़ क्यों न लगा दिये? जानते हैं, ऐसे सवाल मन में कब आते हैं? तब, जब आप पात्र के साथ पूरी तरह जुड़ जाते हैं. हाथ में पकड़े उपन्यास के साथ-साथ चलने लगते हैं और यही किसी भी कहानी या उपन्यास की सबसे बड़ी सफलता है कि पाठक उस के साथ ऐसा जुड़ाव महसूस करे कि पात्र की कमियों पर उन्हें गुस्सा आने लगे तो खूबियों पर प्यार. पढते-पढते मन सोचता है कि- “काश! मैं वहां होती तो जया के साथ कोई दुर्व्यवहार न होने देती” कितना बड़ा जुड़ाव है ये पात्र के साथ!! लेखिका कमरे में जया को बाद में ले जाती है, पाठक पहले ही दहशत में भर जाता है कि पता नहीं अब कौन सा गुल खिलायेगा राजीव…
जया के साथ पाठक का इस क़दर जुड़ाव हो जाता है कि घर में उसकी तरफ़दारी करने वालों के प्रति भी मन में प्यार उपजने लगता है. मैने तो कई बार काकी और संजीव को धन्यवाद दिया. मैं निश्चित तौर पर कह सकती हूं, कि यही भाव तमाम अन्य पाठक/पाठिकाओं के मन में भी आया होगा.
उपन्यास में जया को जिस क़दर रश्मि ने जिया है, उससे लगता ही नहीं कि ये तक़लीफ़ किसी पात्र की है.. लिखते हुए जैसे रश्मि , जया में तब्दील हो गयी… पूरी तरह से रश्मि ने जया को जिया है, ये एक-एक शब्द, हर एक घटना की सजीवता से ज़ाहिर होता है. जया की छोटी-छोटी सी चिंहुक, उसकी दहशत पाठक के भीतर भी उतारने में सफल हुई है रश्मि.
पढते हुए शायद ही किसी के मन में आये कि- हुंह, राजीव जैसे पात्र भी होते हैं कहीं! होते हैं. तमाम राजीव समाज में बिखरे पड़े हैं. ऐसे राजीवों की वजह से ही औरतों की दुर्दशा है. खासतौर से उन औरतों की , जो जया की तरह आत्मनिर्भर नहीं हैं.  जिनमें प्रतिकार का हौसला कम और बर्दाश्त करने की क्षमता ज़्यादा है.
“रोज़ रात में मां की नसीहतें सुन सुन के उसका दिमाग़ भन्ना जाता. स्त्री जाति में जन्म क्या ले लिया, अपने जीवन पर अपना ही कोई अधिकार नहीं. हमेशा उसके फ़ैसले दूसरे ही लेंगे और उसे मन से या बेमन से मानना ही पड़ेगा. अगर मां ही साथ नहीं देगी तो वो क्या करे आखिर?”
इस स्वगत कथन में औरत का कितना बड़ा दर्द छुपा है. कुछ न कर पाने की बेबसी, अपनी ही मां के लिये परायेपन का अहसास..
उपन्यास पढते हुए बार-बार खुद से वादा करती रही- तमाम लड़कियों को नौकरी करने के बाद ही शादी करने की सलाह दूंगी, ताकि किसी को जया जैसी विवशता से दो-चार न होना पड़े.
“जब किसी का घर जलता है, तो जलते हुए घर पर प्रतिक्रिया देना सबको सहज लगता है, पर स्त्री की हिम्मत ग्राह्य नहीं होती. लोग स्त्री को अबला रूप में ही चाहते हैं. रोती-गिड़गिड़ाती औरत ताकि वे सहानुभूति जता सकें. उस पर बेचारी का लेबल लगा सकें.”
सचमुच. समाज का बहुत बड़ा हिस्सा आज भी औरत को अबला के रूप में ही देखना चाहता है. तमाम कामकाजी महिलाओं को भी उनके पति और परिवार पति से कमतर ही मानना चाहते हैं.
“अब पति की बात तो माननी ही पड़ती है. आखिर उसी का खाते-पहनते हैं. कभी हाथ उठा दिया, घर से निकलने को कह दिया तो क्या. वे लोग गरम खून वाले होते हैं. पति के सामने हमेशा झुक के रहने में ही भलाई है.”
आज भी घर से विदा होती बेटी को मां-बाप, रिश्तेदार, पड़ोसी यही सीख दे के भेजते हैं कि वो ससुराल में झुक के रहे. यही झुकने का नतीजा भोगा जया ने.
उपन्यास के अन्त में जया का विद्रोह कलेजे को ठंडक दे गया. और ये सही भी है. औरत के सहते जाने का मतलब उसका कमज़ोर होना नहीं है. औरत अपने ऊपर जुल्म सह सकती है लेकिन बच्चों पर अत्याचार उसकी बर्दाश्त से बाहर का काम है और जया का विद्रोह भी बच्चों की खातिर ही सामने आया. जया की सफलता सम्पूर्ण स्त्री जाति की सफलता की द्योतक है. संदेश है औरतज़ात को, कि सीमा से ज़्यादा बर्दाश्त मत करो. बल्कि मैं तो कहूंगी कि गलत बातों को, किसी के ग़लत रवैये को कभी बर्दाश्त ही मत करो. एक शानदार उपन्यास के लिये रश्मि को बधाई. उपन्यास में कथ्य और शिल्प दोनों ही मजबूत हैं. क्षेत्रीय बोली का पुट उपन्यास को ज़्यादा सजीव और विश्वसनीय बनाता है. सम्वाद पात्रों  के अनुकूल है. कहीं –कहीं प्रूफ़ की ग़लतियां हैं, जो उपन्यास के प्रवाह के चलते क्षम्य हैं. उपन्यास पाठक को बांधे रखता है.
 हिन्दयुग्म से प्रकाशित इस उपन्यास “कांच के शामियाने”  की कीमत १४० रुपये है. पुस्तक ऑनलाइन बिक्री के लिये “इन्फ़ीबीम” और “अमेज़न” पर उपलब्ध है.

पुस्तक : कांच के शामियाने
लेखिका: रश्मि रविजा
प्रकाशक: हिन्द-युग्म
1, जिया सराय, हौज खास,
नई दिल्ली-110016
मूल्य: 140/
ISBN:978-93-84419-19-6



सोमवार, 21 सितंबर 2015

मंज़िल की जुस्तज़ू में मेरा कारवां तो है....


लिखना जब किसी अजनबी के बारे में हो, तो ज़्यादा आसान होता है, लेकिन लिखना अगर अपने/अपनी दोस्त पर हो तो इससे मुश्किल काम शायद ही कोई और हो. कारण- हम सारी बातें निष्पक्ष भाव से लिखेंगे, और पाठक समझेंगे कि दोस्ती निभा रहे सो जबरिया तारीफ़ें कर रहे.....  मने दोस्त की तारीफ़ करो तो मुश्किल, न करो तो मुश्किल!! नहीं करने पर भी गालियां पड़ेंगी- कि देखो, बड़ी दोस्त बनी फ़िरती थी, अब निकल गयी सब दोस्ती ... हमारे बारे में सब जानते हैं , कि जब भी हमने दोस्तों के लिखे हुए पर लिखा है- पंच परमेश्वर हमारे सिर पर हमेशा सवार हुए हैं  जहां मामला खिंचाई का बना, जम के खेंचा है और जहां तारीफ़ की बात बनी, वहां बिना ये ध्यान में लाये कि लेखक अपन का मित्र है, जम के तारीफ़  भी कर दी. इत्ता लिखने का सार ये, कि कोई भी हमारी पोस्ट पर पक्षपाती होने का आरोप न लगाये  

हमारी मुलाक़ात ब्लॉग के ज़रिये हुई. दोनों कहानी लिखने वाले सो विचार  जल्दी ही मेल खा गये. एक दूसरे की पोस्ट्स पर कमेंट करते हुए हम जीमेल के चैट बॉक्स में भी बतियाने लगे. फ़िर फोन नम्बर का आदान-प्रदान हुआ और हम  देर-देर तक दुनिया जहान की चिंताएं, लेखन की चिंताएं, सामाजिक चिंताएं सब फोन पर व्यक्त करने लगे. रश्मि कोई नयी कहानी लिखती, तो तुरन्त मेल करती- "यार देख के बताओ न, ठीक है या नहीं?" और हम गुरु गम्भीर टाइप एक्टिंग करते हुए उस कहानी को पास कर देते पूरे नम्बरों से  . 
ब्लॉगिंग के उन सुनहरे दिनों में हमने खूब लिखा. धड़ाधड़ लिखा. रश्मि की भी तमाम कहानियां छा गयीं. रश्मि ने तो बताया भी, कि सालों से बंद पड़ा लेखन अब ब्लॉग के बहाने फ़िर शुरु हो गया है.
रश्मि ने २००९  में अपनी कहानियों का ब्लॉग " मन का पाखी" और २०१० में एक और ब्लॉग " अपनी उनकी सबकी बात" बनाया और दोनों ब्लॉग्स पर नियमित लिखती रही. इधर उसका लेखन थोड़ा बाधित हुआ है, सो लम्बे समय से कोई कहानी "मन का पाखी" को नहीं मिल सकी. उम्मीद है रश्मि जल्दी ही कोई कहानी पोस्ट करेगी   रश्मि के कथा लेखन पर एक नज़र डालें तो ज़रा- सितम्बर २००९ को शुरु किये गये  अपने ब्लॉग " मन का पाखी" में रश्मि ने जिन कहानियों/ लघु उपन्यासों को पोस्ट किया उनका विवरण जान लीजिये- 
  २३ सितम्बर- २००९- कशमकश
  ८ जनवरी -२०१० लघु उपन्यास- और वो चला गया बिना मुड़े ६ भाग
  ११ फ़रवरी- होंठो से आंखों तक का सफ़र - कहानी
  ५ मार्च - से १३ मई आयम स्टिल विथ यू शचि लघु उपन्यास  भाग
   १७ जून से  ८ अगस्त तक - आंखों में छुपी झुर्रियों की दास्तान-  १४ भाग लघु उपन्यास
   ३१ अगस्त- आंखों का अनकहा सच- कहानी
   २१ सितम्बर - पराग तुम भी कहानी 
   २६ अक्टूबर- ३ नवम्बर चुभन टूटते सपनों के किरचों की ३ भाग
   २४ दिसम्बर-  बखिये से रिश्ते  २ भाग
   १० अप्रेल २०११-आखिर कब तक- कहानी
   १० अगस्त २०११- ३० अगस्त २०११ - हाथों की लकीरों सी उलझी जिन्दगी -चार भाग
   १७ जनवरी २०१२ - बंद दरवाज़ों का सच- दो भाग
     १६ अगस्त २०१३ -दुख सबके मश्तरक हैं पर हौसले जुदा कहानी
     ६ अक्टूबर २०१३ - खामोश इल्तिजा
   २२ जुलाई २०१३- अन्जानी राहें- कहानी 
     १८ मई २०१४ -   बदलता वक्त- कहानी


"अब जबकि रश्मि का उपन्यास " कांच के शामियाने" जल्दी ही प्रकाशित हो के हम सबके बीच होगा, तो ऐसे में उसके उपन्यास पर मैं न लिखूं , ऐसा कैसे हो सकता है न? तो भैया/बहनो , हम तो लिखेंगे ही, आप सबने इस उपन्यास की बुकिंग की या नहीं?? नहीं की तो फ़ेसबुक पर रश्मि के पेज़ पर लिंक दिया गया है, फ़टाक देना बुक कर ली जाये, ताकि जब हम इस उपन्यास के बारे में लिखें, तो आप सब भी अपनी-अपनी राय व्यक्त कर सकें :)" 
अभी के लिये इतना ही, मिलते हैं रश्मि के बारे में कुछ और जानकारियां ले के जल्दी ही :) 
    
   
          

शुक्रवार, 19 जून 2015

तमाम रंग समेटे है- कसाब.गांधी@यरवदा.in

 कसाब.गांधी॒@यरवदा.in.... जी हां. ये किताब का नाम है. वो भी कहानी संग्रह का. इधर इस तरह के शीर्षक वाली किताबों का चलन बढा है. आज हर वक्त अन्तर्जाल से जुड़े मानव जगत को शायद ऐसे शीर्षकों की जरूरत भी हैयुवा पीढी भी ऐसे शीर्षक पर कुछ पल को ठिठकती है, रुक के देखती है. ये किताब है ख्यात लेखक/कथाकार/शायर पंकज सुबीर की. तमाम राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित, देश-विदेश से प्रकाशित हैं पंकज सुबीर ,सो इस लब्ध-प्रतिष्ठ लेखक का नये सिरे से परिचय देने की आवश्यकता मुझे महसूस नहीं हो रही. पिछले दिनों  शिवना प्रकाशन द्वारा आयोजित सम्मान समारोह में सीहोर जाना हुआ. उसके पहले न मैं पंकज से मिली थी, न कभी फोन पर बात हुई थी. सो वे किस मिजाज़ के होंगे, नहीं जानती थी. कार्यक्रम में गौतम राजरिशी आ रहे थे, और उनसे मिलने की अदम्य इच्छा थी मेरी. पंकज, जिनके स्वभाव के बारे में मैं बिल्कुल नहीं जानती थी, ऐसे मिले जैसे हम तो बरसों बरस मिलते रहे हैं. इतना मान,स्नेह  तो सगे भाइयों से न मिले जितना पंकज ने कुछ घंटों में दिया. लगा ही नहीं कि मैं इस दौर के एक चर्चित लेखक से मिल रही हूं, जिसके खाते में न केवल भारतीय ज्ञान पीठ का नवलेखन पुरस्कार है बल्कि वागीश्वरी और कथा यू के जैसे प्रतिष्ठित सम्मान भी हैं. इनके अलावा शब्द साधक सम्मान, वनमाली कथा सम्मान, नवोन्मेष साहित्य सम्मान जैसे तमाम सम्मानों से वे नवाजे जा चुके हैं. अविस्मरणीय यात्रा बना दिया उसे पंकज के आत्मीय व्यवहार ने. और गौतम तो फ़िर गौतम हैं.... उनके बारे में फ़िर कभी.  पहले इस कहानी संग्रह के बारे में.
संग्रह में कुल ग्यारह कहानियां संग्रहीत हैं. पहली कहानी है कसाब.गांधी॒@यरवदा.in. इस कहानी की अलग ही गढन है. कहानी में कसाब और गांधी, जो कि दोनों ही समान कैदी हैं, किस तरह अपने-अपने काल विशेष की घटनाओं और उनके तमाम पहलुओं पर चर्चा करते हैं, पढना कौतुक से भर देता है. कहानी ने तमाम ऐसे सवाल उठाये हैं, जो न केवल आतंकवाद और आतंकवादियों की दशा पर विमर्श हैं, बल्कि गांधी जी के यरवदा जेल जाने और आज़ादी के समय हुई तमाम घटनाओं का भी खुल के विवेचन करते हैं. ये संग्रह की सबसे सशक्त कहानी कही जा सकती है.
मुख्यमंत्री नाराज़ थे…” कहानी  प्रशासन और प्रशासनिक अधिकारियों के  राज़ खोलती अच्छी और सच्ची कहानी है. कहानीलव जिहाद उर्फ़ उदास आंखों वाला लड़का..” हर उस व्यक्ति को पढनी चाहिये जो मानते हैं कि प्रेम के नाम पर लड़्कियों को बरगलाया जा रहा है.
पेज़ नम्बर ५० से लेकर ८३ तक चलने वाली 34 पेज़ की कहानी- “चिरई-चुनमुन और चीनू दीदी”  इस संग्रह की सबसे लम्बी कहानी है और  बहुत शानदार विषय को लेकर गढी गयी है. इस कहानी में पंकज जी ने जिस सहज हास्य और घटनाओं का सृजन किया है वो अद्भुत है. बाल्यावस्था से लेकर किशोरावस्था तक बच्चों में होने वाले परिवर्तन और घर वालों द्वारा तमाम उन बातों पर दिया जाने वाला दंड, जो बच्चे ने सहजता से पूछा है, सबको अपने बचपन की याद दिलायेगा. हिन्दुस्तान के अति मर्यादित परिवारों में ऐसा ही व्यवहार होता है बच्चों के साथ और कई बार बच्चे अज्ञानता के चलते, न केवल ग़लत संगत में फ़ंसते हैं, बल्कि ग़लत काम भी कर बैठते हैं. कहानी पृष्ठ संख्या 50 से लेकर 63 तक बहुत रोचक और कसी हुई है लेकिन इसके बाद लगा जैसे कहानी को जबरन आगे बढा दिया गया. चीनू दीदी के प्रवेश के बाद भी यदि घटनाओं को थोड़ा और संक्षिप्त कर पाते पंकज जी, तो ये कहानी न केवल इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानी होती, वरन इस विषय पर लिखी गयी तमाम कहानियों में मैं इसे सर्वश्रेष्ठ कहती. लेकिन जैसा कि हम सब जानते हैं, कि जब भी किसी रचना की लम्बाई बढती है, तो उसकी कसावट में कमी आ जाती है, वही इस कहानी के साथ हुआ.
आषाढ का फ़िर वही एक दिनएक ऐसी कहानी है जिसे मैने दो बार पढा. इतना सजीव माहौल उकेरा गया है इस कहानी में, कि किसी भी पाठक को ये उसके अगल-बगल की कहानी लग सकती है. “ हर एक फ़्रेंड कमीना होता है…” कॉलेज के लड़के लड़्कियों और उस वक्त में होने वाली आसक्ति पर आधारित है. अच्छी कहानी है. “कितने घायल हैं, कितने बिस्मिल हैं…” आज के दौर की कहानी है. महानगरीय संस्कृति की कहानी है. लिव इन रिलेशनशिप मध्यमवर्गीय शहरों के लिये आज भी अजूबा ही हैं, सो मैने इसे आज के दौर की कहा, वरना इस तरह के सम्बंधों को भी अब अरसा हुआ. इस कहानी ने मुझे बहुत प्रभावित नहीं किया. लिव इन में रहने वाले लड़के-लड़कियों की सोच निश्चित रूप से आम लड़के लड़कियों की सोच से अलग होती है. वे ज़्यादा आज़ाद खयाल और बंधनमुक्त जीवन जीना चाहते हैं. कहानी का अंत भी कुछ ज़्यादा ही सांकेतिक हो गया जिसे प्रबुद्ध पाठक कुछ समझेगा, कुछ नहीं..
इस संग्रह की एक औउर शानदार कहानी है “ नक्कारखाने में पुरुष विमर्श”. बहुत सशक्त कहानी है. पंकज जी इस कहानी में एक सम्पूर्ण कहानीकार के रूप में उभरे हैं. एक ऐसी कहानी, जिसमें पुरुष की मनोदशा बहुत सच्चे तरीक़े से व्यक्त की गयी. पुरुष भी कितना विवश हो सकता है, इस कहानी को पढ के  जाना जा सकता है. इस संग्रह की, मुझे ये सबसे अच्छी कहानी लगी.    इसके अलावा कहानी ’चुकारा” , “खिड़की”, और “सुनो मांडव” हैं, जो रहस्य रोमांच से भरपूर हैं और भरपूर मनोरंजन करती हैं. कहानियां अपना रहस्य तब तक बनाये रखने में सक्षम हैं, जब तक लेखक ने चाहा. कहानियों की सबसे खास बात है, उनका शिल्प, कथ्य और भाषा शैली. सभी कहानियों की भाषा इतनी कसी हुई है कि पाठक, शुरु की गयी कहानी को एक ही बैठक में पढ जाता है. लेखक द्वारा अपनी बात कहने और पात्रों के मुंह से अपनी बात कहलवाने का हुनर हर कहानी में दिखाई देता है.
कुल मिला के संग्रह कसाब.गांधी@यरवदा.in  एक ऐसा संग्रह है, जिसे कथा-प्रेमियों को पढना ही चाहिये. पुस्तक का कवर पृष्ठ , शीर्षक की गरिमा के अनुसार है. प्रिंटिंग बहुत शानदार है. किताब का मूल्य भी चकित करने वाला है जबकि  १८४ पृष्ठों की यह पुस्तक हार्ड बाउंड में है. ज़िल्द सहित इस पुस्तक की कीमत लुभाती है पाठक को. मेरा तो मानना है, कि तमाम प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाज़े गये पंकज सुबीर की ये पुस्तक भी भविष्य के किसी न किसी पुरस्कार की दावेदार बनेगी. बधाई. शुभकामनाएं.
लेखक- पंकज सुबीर
प्रकाशक-शिवना प्रकाशन
पी.सी.लैब,सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट
बस स्टैण्ड, सीहोर-466001 (म.प्र.)
मूल्य: 150.00 रुपये मात्र/
फोन-07562405545, 07562695918
E-mail- shivna.prakashan@gmail.com







  

मंगलवार, 12 मई 2015

बेदाद ए इश्क़/रुदाद ए शादी- इसी स्याह समंदर से नूर निकलेगा....

बेदाद-ए-इश्क़/रुदाद--शादी……….. ऐसा शीर्षक है कि किताब खरीदने का मन केवल शीर्षक पढ के ही हो जाये, उस पर अगर ये पता चले कि किताब आपकी /आपके उस दोस्त की है, जिसके लिये आपके मन में पता नहीं कितना अजाना स्नेह है तब कहना ही क्या… ये किताब भी मेरी ऐसी ही स्नेही मित्र की है. नीलिमा चौहान. जी हां. नीलिमा चौहान और अशोक कुमार पांडे के संयुक्त सम्पादकत्व में इस पुस्तक का प्रकाशन सम्भव हो पाया है. ’सम्भव’ शब्द का इस्तेमाल  इसलिये, क्योंकि पुस्तक का विषय बड़ा क्रांतिकारी है. ’प्रेम’. जी हां. तमाम वर्जनाओं से घिरा विषय. मज़े की बात, कि ये विषय कवियों और लेखकों का प्रिय विषय रहा है, लेकिन जब भी किसी युगल ने इसे अपने जीवन में उतारने की कोशिश की है, उसे न केवल अपराधी क़रार दिया गया बल्कि तमाम प्रताड़नाओं का अधिकारी भी माना गया.
तमाम आध्यात्म गुरु ’प्रेम’ करने की बात करते हैं, लेकिन जब यही प्रेम सजीव होने लगता है, तो समाज सिखाने की कोशिश करता है कि बेटा ये सब किताबों में ही रहने दो. इसे कविता और फ़िल्मों का विषय ही मानो. ’प्रेम’ करके दो परिवारों में नफ़रत न बढाओ. ग़़ज़ब का विलोम है भाई………
अपने पुस्तकीय उदबोधन में नीलिमा चौहान लिखती हैं- “ व्यक्ति और संस्थाओं की अस्मिताओं के बीच  आमने सामने की जंग ने प्रेम और प्रेम विवाह को एक चुनौती में तब्दील कर दिया है. ऐसे वक्त में प्रेम और उसकी चुनौतियों  पर बात करना , समाज को उस दलदल से बाहर निकालने की पहल की कोशिश है.”
निश्चित रूप से इस किताब में ईमानदार कोशिश की गयी है. तमाम ऐसे नाम शामिल किये गये हैं, जिन्होंने प्रेम की इस जंग में आमने सामने की लड़ाई लड़ी, और अपने प्रेम को विवाह के अंजाम तक पहुंचाया. इन नामों में से तमाम नाम ऐसे हैं जिन्हें कहीं न कहीं आप सबने पढा होगा. उनके लेखकीय व्यक्तित्व से परिचय हुआ होगा लेकिन उनके इस  ’निज’ के बारे में कल्पना भी न की होगी. इस लिहाज से नीलिमा जी और अशोक कुमार जी बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने नितान्त वर्जित क्षेत्र में सेंध लगाने की कोशिश की है.
पुस्तक में कुल सोलह प्रेम जेहादियों की आपबीती शामिल की गयी है. उपसंहार सम्पादकद्वय ने किया है. अनुक्रम के अनुसार शामिल किये गये नामों में- सुमन केशरी, अमित कुमार श्रीवास्तव, देवयानी भारद्वाज, विभावरी, नवीन रमण, पूनम, प्रज्ञा, विजेन्द्र चौहान(मसिजीवी), वर्षा सिंह, रूपा सिंह, किशोर दिवसे, मोहित खान, प्रीति मोंगा, ममता, राजुल तिवारी, शकील अहमद खान, और अन्त में सुजाता तथा अशोक कुमार पांडे.
सभी लेखकों ने अपनी अपनी आपबीती बहुत प्रभावी तरीके से लिखी है. कुछ संस्मरण सचमुच झकझोर गये. आज ये क़लमबद्ध हैं, तो हम उनकी दुरूहता का अन्दाज़ा नहीं लगा पा रहे क्योंकि संघर्ष के कई वर्ष चंद पन्नों में सिमट गये, और हमने भी कुछ घंटों में ही उनका जीवन संक्षेप पढ लिया. उस संकटकाल को कमतर इसलिये भी आंक पाये, क्योंकि उनके संघर्ष, सुखद अन्त ( happy ending) के साथ मौजूद थे.
सुमन केशरी लिखती हैं- “ प्रेम विवाह समूह मानसिकता का नकार है इसीलिये वह अमान्य ही नहीं, अक्षम्य भी है. वह डर को अंगूठा दिखाने का तो साहस रखता ही है, सामने वाले के मन में बस कर उसे भी समूह से उखाड़ डालने की कोशिश करता है.”
बहुत सही लिखा है सुमन जी ने. असल में प्रेम का विरोध भी समूह सामाजिकता का ही नतीजा है. समूचा समाज प्रेम और प्रेमियों का विरोध करने कमर कस के बैठा है, और मां-बाप इसी समाज के हिस्से हैं. सो उन्हें समाज में मुंह दिखाने का डर सताता रहता है. कई बार इस डर में बेटे/बेटी को यथास्थितिवादियों द्वारा शारीरिक खतरे की सम्भावना भी उनके  विरोध के स्वर ऊंचे करती है.
अमित कुमार श्रीवास्तव ने बहुत मज़े ले-ले के लिखा है अपना वृतान्त. जिस मन:स्थिति में उन्होंने लिखा, वो पाठको तक पहुंच रही है, आनन्दित कर रही है.
तीसरे क्रम पर देवयानी भारद्वाज का संस्मरण है और मेरी बदकिस्मती देखिये, कि मेरे हाथ में इस पुस्तक की वो प्रति आई, जिसके तमाम पृष्ठ ( केवल देवयानी जी के आत्मकथ्य वाले) मिस प्रिंट हैं. सबसे लम्बा कथ्य देवयानी जी का है, और बहुत सधा हुआ भी, लेकिन इसी कथ्य के आठ पृष्ठ, मेरे पठन की तारतम्यता को खत्म करते रहे. प्रकाशक को  ऐसी प्रतियां जो मिस प्रिंट हैं, देख के अलग निकालनी चाहिये थीं. मिस प्रिंट होना बड़ी बात नहीं है, लेकिन पाठक के हाथ में ऐसी प्रति पहुंचना अच्छा नहीं है.
देवयानी जी का कथ्य जितना पढ पाई उससे ज़ाहिर हुआ कि प्रेम जब अपने अंजाम पर पहुंचता है तो बहुत कुछ तयशुदा रिश्तों जैसा व्यवहार करने लगता है. जिस व्यक्ति को कभी बेहिस प्यार किया हो, उसी के प्रति नफ़रत पैदा होना… ठीक उन अजनबी रिश्तों की तरह लगा, जो शादी के बंधन में बंधते हैं और कई बार जीवन भर नफ़रत के साथ ज़िन्दा रहते हैं, या अलग हो जाते हैं.
विभावरी का संस्मरण एक ऐसी कथा है, जिसे पढ के तमाम प्रेमी युगलों को राहत मिलेगी. प्रेम पर उनकी आस्था और मजबूत होगी. एक जगह विभावरी लिखती हैं- “ मुझे आश्चर्य होता है यह सोच कर कि जिस जातिवाद का शिकार कभी मेरे घरवाले रहे होंगे, जिस जातिवाद ने उन्हें हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया था उसी जातिवाद को तोड़ने का एक मौका जब उन्हें मिल रहा था तो उन्होंने बहुत उत्साह के साथ इसे स्वीकार नहीं किया.”
यही विडम्बना है हमारे समाज की. जब मौका मिलता है तो पता नहीं कितनी बाधाएं, कितने संस्कार, कितनी परम्पराएं घरवालों को नया कदम उठाने, बेडियां तोड़ने से रोक देती हैं.
नवीन रमण और पूनम ने भी अपनी आख्यायिकाएं पूरी ईमानदारी से लिखी हैं. शुरु में खिलंदड़े स्वभाव के नवीन ने प्रेम में जिस स्थायित्व का परिचय दिया है, काबिलेतारीफ़ है.  पूनम ने भी बेबाक लिखा है.
प्रज्ञा जी जानी मानी कथाकार हैं. बहुत सधा हुआ आख्यान है उनका. वे लिखती हैं- “ हमारी शिक्षा और  शिक्षण संस्थाएं भी रूढिवाद, जातिवाद और क्षेत्रवाद का खुल कर विरोध करती नहीं दिखाई देतीं. जब खाप पंचायतें प्रेम विवाह करने वाले जोड़ों को सरेआम मौत की सज़ा देती हैं तो हमारे विचार के केन्द्र कहे जाने वाले शिक्षण संस्थान मौन रहते हैं.”
बहुत पते की बात कही है उन्होंने. मज़े की बात, इन्हीं शिक्षण संस्थानों में सबसे ज़्यादा जातिभेद और लिंग भेद किया जाता है. जातिगत आरक्षण प्राप्त बच्चों की अलग लिस्ट होती है वहीं सहशिक्षा वाले स्कूल में लडकों और लड़कियों को अलग-अलग पंक्तियों में बिठाया जाता है.
जिनका आख्यान पढने की जितनी ज़्यादा उत्सुकता थी मुझे, उन्होंने उतना ही ज़्यादा निराश किया. जी हां. मैं विजेन्द्र चौहान उर्फ़ मसिजीवी की बात कर रही हूं. आप सब जानते हैं उन्हें. चमत्कारिक भाषा के धनी मसिजीवी जी अपनी भाषा का चमत्कार यहां भी दिखा गये. बहुत सफ़ाई से अपनी प्रेम कहानी को चंद शब्दों में निपटा दिया उन्होंने. ठीक उसी तरह जैसे किसी बच्चे को कहानी सुनाने से बचने के लिये- “ एक था राजा एक थी रानी, दोनों मर गये खतम कहानी.” सुना दी जाये.
मसिजीवी एक जगह लिखते हैं- “ अब सोचने पर लगता है कि विवाह भले ही प्रेम विवाह हो, है ये बहुत पेचीदी शै . प्रेम बहुत समर्पण मांगता है. और इस धारा में कूदने वाले यह सब जान समझ कर ही इस धारा में कूदते हैं. किन्तु इस अगाध समर्पण के बाद, सबकुछ सौंप देने के बाद भी कुछ हमारे पास बचा रह जाता है और फिर यही जो बचा रह जाता है बार-बार बीच में आता है.”
मसिजीवी जी, आपको बहुत विस्तार से लिखना चाहिये था. आपके शब्द लुभाते हैं, भाषा पैठ बनाती है लेकिन यहां आप पाठक को उलझा के चले गये. जब तक पाठक आपका मंतव्य समझे, तब तक आख्यान समाप्त.
वर्षा सिंह और रूपा सिंह के विद्रोह अल्ग ही तरह के थे. वर्षा जी जहां निपट अकेले अपना ब्याह रचा पाईं, वहीं रूपा सिंह ने न केवल अकेले ब्याह रचाया वो भी अलग धर्म में प्रवेश किया और पूरी हिम्मत के साथ अपनी जड़ों को जमाया. आज ये दोनों ही बहुत प्रसन्न हैं अपने अपने घरों में. अपने चुने हुए रिश्ते में. किशोर दिवसे जी ने उस समय प्रेम विवाह किया जब प्रेम विवाह का न इतना चलन था न ही विरोध करने की अनुमति. लेकिन उन्होंने ये साहस दिखाया और आज उनके विवाह को तीस बरस गुज़र चुके हैं. वे लिखते हैं-
“ बेशक जरा आदमी की शान ही नहीं,
जिसको न होवे इश्क़ वो इंसान ही नहीं.”
मोहित खान की कहानी एकदम आज की कहानी है. अन्तर्जालीय प्रेम, और फिर उसका पराकाष्ठा पर पहुंचना. अपनी चुनौतियों को उन्होंने बहुत रोचक तरीक़े से लिखा है. ममता जी राजुल तिवारी  और शकील अहमद खान इन दोनों ने बहुत खुले दिल से अपनी आपबीती पाठकों तक पहुंचायी है.
एक आख्यान, जिसे पढ के मेरा रोम-रोम सिहर गया, वो है- प्रीति मोंगा जी का आख्यान. ये आख्यान शायद अंग्रेज़ी में लिखा गया होगा या पंजाबी में, जिसका हिन्दी अनुवाद प्रभात रंजन जी ने किया है. मूल आख्यान किस भाषा में था, इसका ज़िक्र किया जाना चाहिये था. खैर. प्रीति जी की आपबीती पढ कर लगा कि एक नेत्रहीन महिला को प्यार के नाम पर क्या क्या बर्दाश्त करना पड़ा…. लेकिन सलाम है उनकी जिजीविषा को, जिसने आज तक न केवल उन्हें ज़िन्दा रखा, बल्कि जीने की ताक़त दी.
सम्पादक द्वय के वक्तव्य अच्छे हैं, सम्पादक के लायक हैं. बहुत बेबाक शब्दों में सुजाता जी लिखती हैं-
“ एक प्यार के लिये जरूरी है समाज द्वारा दबे-छिपे तरीक़ों से दी जाने वाली प्रेम की गुप्त और विवाह की स्वीकृत ट्रेनिंग को परत दर परत उघाड़ते हुए अपने व्यक्तित्व को फिर से गढ सकने की हिम्मत और इच्छा का होना. वरना तो क्या फ़र्क़ पड़ता है किसने प्रेम किया!”
अपनी बात कहते हुए अशोक कुमार पांडे जी ने अमीर क़ज़लबाश का शानदार शे’र पेश किया है-
“ मेरे जुनूं का नतीजा जरूर निकलेगा
इसी स्याह समन्दर से नूर निकलेगा.”
निश्चित रूप से कोशिशें अगर ऐसी जुनूनी हों तो, नूर निकलना ही है.
कुल मिला के पुस्तक न केवल पठनीय है, बल्कि खोज के पढने लायक है. शायद पहली बार लोगों ने अपने निजी अनुभवों को इस तरह सार्वजनिक किया होगा, सो ये एक साहसिक पुस्तक तो है ही. कुछ बातें जो मुझे कमियों की तरह नज़र आईं, उनमें सबसे पहली कमी- लेखकों की तस्वीरों का ना होना है. यहां केवल लेखक की नहीं, बल्कि उनके सहयात्री की तस्वीर भी जरूरी थी. तस्वीर पाठक और लेखक के बीच अजब कड़ी का काम करती है, तादात्म्य बिठाने में. दूसरी बात, आख्यान एक ही पक्ष के हैं. कोशिश की जानी चाहिये थी कि जिस लड़ाई को दोनों ने लड़ा है, तो आपबीती भी दोनों की हो. क्योंकि संघर्ष दोनों ने अपने-अपने मोर्चे पर अलग अलग तरह के किये होंगे. ये संघर्ष लड़कियों के ज्यादा कठिन होते हैं. तीसरी बात- लगभग सभी आख्यानों में प्रूफ़ की तमाम गलतियां हैं. ऐसा लगता है जैसे कम्पोज़ होने के बाद न तो प्रूफ़ रीडर ने इसे देखा और न ही सम्पादक द्वय ने. जबकि ये बहुत जरूरी काम था. अशुद्धियों के चलते अच्छी भली भाषा भी कमज़ोर पड़ने लगती है.  मिस प्रिंट वाला ज़िक्र मैं कर ही चुकी हूं. ऐसी प्रति जब मेरे पास आई है तो औरों के पास भी पहुंची होगी. इस ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिये था.
किताब का आवरण-पृष्ठ बहुत शानदार है. पुस्तक का मूल्य भी पाठकों की पहुंच में है.  किताब इंटरनेट पर खरीद हेतु उपलब्ध है ही, प्रकाशक से भी सीधे प्राप्त कर सकते हैं. पता है-

पुस्तक: बेदाद ए इश्क़ / रुदाद ए शादी
( बाग़ी प्रेम विवाहों के आख्यान)

सम्पादक:   नीलिमा चौहान/ अशोक कुमार पांडे

प्रकाशक: दखल प्रकाशन

107,कोणार्क सोसायटी,
प्लॉट नम्बर-22, आई.पी. एक्स्टेंशन,
पटपड़्गंज, दिल्ली- 110092

मूल्य: 175/ मात्र     


रविवार, 22 फ़रवरी 2015

क्या पता फिर मिलें, न मिलें....

हर साल फरवरी शुरु होती है और मैं तय कर लेती हूं कि इस बार तो भवानी दादा पर लिखना ही है. लेकिन फरवरी बीतती जाती है. बीस फरवरी आ जाती है और मेरे लिखने का कार्यक्रम अगले साल पर टल जाता है. ऐसा होते-होते तीस बरस गुज़र गये….  इस बार भी एक फरवरी से ही मन बनाये थी. कि इस बार नहीं चूकना है, और लो बीस फरवरी निकल गयी…. L फिर भी हमने ठान लिया था कि अब तो लिखना ही है.
बात १९८३ की है. हम बी.एस.सी. प्रथम वर्ष में थे उस वक्त. मेरी छोटी दीदी का रिश्ता भवानीप्रसाद मिश्र जी के छोटे भाई केशवानन्द मिश्र के सुपुत्र अमित मिश्र के साथ तय हुआ. कोई रस्म नहीं हुई थी लेकिन दोनों परिवार एक दूसरे से मिलकर प्रसन्न थे. मुझे तो ज़्यादा प्रसन्नता भवानी दादा का रिश्तेदार कहलाने में थी J रिश्ता लगभग तय था बस सगाई की रस्म होनी थी. उसके पहले ही केशवानन्द जी की बेटी का रिश्ता तय हो गया सो उन्होंने कहा कि अब बेटी का ब्याह हो जाये फिर उसके बाद सगाई और शादी सब एक साथ कर लेंगे. मेरा परिवार तो पहले ही सोचने के लिये वक्त चाह रहा था. केशवानन्द जी ने अपनी बिटिया की शादी में मेरे पापा से खूब आग्रह किया कि वे पहुंचें ही. लेकिन चूंकि उनके यहां शादी ग्यारह फ़रवरी को थी और ये वक्त पापाजी के विद्यालय छोड़ने का नहीं था. सो उन्होंने मुझे मेरे भाई के साथ भेजने की बात कही.
मुझे पूरा भरोसा था कि इस शादी में भवानी जी जरूर आयेंगे तो मैने भी एक बार में ही हां कह दी. जबकि अजनबी परिवारों में मैं उस वक्त तक बहुत कम घुल-मिल पाती थी.
शादी नरसिंह पुर ( म.प्र.) से होनी थी जो भवानी जी का पैतृक गृह है. मेरा मन तो केवल इसी बात से झूमा जा रहा था कि मैं भवानी जी के पैतृक गृह को देख पाउंगी. दस फरवरी की सुबह हम नरसिंहपुर के लिये बस से निकले तो शाम को चार बजे ठिकाने पर पहुंचे. घर पहुंचने में दिक्कत नहीं हुई. दरवाजे पर पहुंचे ही थे कि किसी ने जोर से अन्दर की तरफ़ मुंह करके आवाज़ लगायी- : अरे देखो तो अमित की ससुराल से मेहमान आये हैं…. ( अभी कोई रस्म न हुई थी फिर भी इतनी आत्मीयता!) अन्दर से दौड़ती हुई दो-तीन लड़कियां आईं जो अमित जी की बहनें थीं. और हमें बड़े प्रेम और आत्मीयता से भीतर ले गयीं. तुरन्त पानी, चाय, नाश्ते का इन्तज़ाम होने लगा.
मेरा मन हो रहा था कि किसी से पूछूं- भवानी दादा आये क्या? लेकिन संकोचवश पूछ नहीं पाई. उम्र भी बहुत कम थी सो संकोच उम्रगत भी था. सब मुझसे बड़े थे वहां. और बहनों के नाम तो भूल गयी मैं केवल शैला दीदी का नाम याद है जिनकी शादी थी. उन्हें कोई बहन मेंहदी लगा रही थी. उस वक्त मेंहदी लगाने वालियां/वाले पार्लर से नहीं आते थे बल्कि घर का ही कोई मेंहदी लगा देते थे.
चाय के साथ शरमाते हुए बिस्किट खा रही थी मैं, जबकि मन रसगुल्ला उठाने का था J  इस खाने-पीने के संकोच ने हमेशा मुझे घाटे में रखा है J तभी देखा अन्दर की तरफ़ से एक बेहद सौम्य 28-30  बरस के आस-पास की महिला बाहर निकलीं..मेरे पास आकर बैठ गयीं. प्यार से मेरी पीठ पर हाथ रखा और बोलीं- मैं नन्दिता हूं, भवानी प्रसाद मिश्र की बेटी” मैं बस उन्हें देखती रह गयी…… कितनी सुन्दर. कितना सौम्य चेहरा! लगा भवानी जी से मिल ली जैसे. मुझे तो जैसे मन चाहा साथ मिल गया. उस घड़ी  से लेकर जितने दिन मैं वहां रही नन्दी जीजी का साथ नहीं छोड़ा.
 नन्दी जीजी ने बताया कि भवानी दादा को अभी पेसमेकर लगा है. उनकी तबियत ठीक नहीं है सो शायद न आ पायें. मेरा मन उदास हो गया L फिर सांत्वना दी कि चलो कोई बात नहीं, नन्दी जीजी तो मिल गयीं.
दूसरे दिन सबेरे मैं शैला दीदी के साथ रसोई में बड़े से चूल्हे पर चाय बनवा रही थी. तभी बाहर से शोर उठा-“ अरे दद्दा आ गये….” मैने पूछा- कौन दद्दा? शैला दी बाहर की तरफ़ लपकते हुए बोलीं भवानी दद्दा… मैंने चाय वहीं पटकी और दौड़ पड़ी…
दो लोगों का सहारा ले के भवानी जी चले आ रहे थे. एकदम वैसे ही जैसे तस्वीरों में मैने देखे थे… पीछे को काढे गये बाल, सफ़ेद कुर्ता और पाजामा.  उन्हें आराम से पीछे के कमरे में ले जाया गया. घर बहुत बड़ा था ये वाला. मुझे बार-बार लग रहा था कि पता नहीं उनकी ऐसी तबियत में मैं मुलाकात कर पाउंगी या नहीं L दिन के बारह बज गये थे. भवानी जी का स्नान ध्यान हो गया था. हम सब रसोई में ही बैठे थे गप्पें करते हुए. नन्दी जीजी भवानी जी को दवाई देने गयीं थीं. भवानी जी के कमरे और रसोई के बीच बड़ा सा आंगन था.  तभी देखा, आंगन के दरवाजे पर खड़े भवानी जी पूछ रहे थे- “ भाई वो जो नौगांव से लड़की आई है, कहां है? मुझे मिलवाया क्यों नहीं? भेजो तो जरा उसे .”
मैं मुंह बाये देख रही थी. अकेले जाने की हिम्मत ही नहीं हुई सो शैला दी के साथ गयी उनके कमरे तक.
“अच्छा, तो ये गुड़िया है? आओ बच्चा, बैठो यहां. देखो तो क्या मैच चल रहा है. क्रिकेट पसन्द है न? “
भवानी जी कंधे पर ट्रान्जिस्टर रखे कमेंट्री सुन रहे थे. शायद विश्व कप का ही समय था. क्रिकेट के बेहद शौकीन भवानी जी से कैसे कहती कि मुझे तो ये खेल एकदम पसन्द न  है L
फिर तो मेरे बारे में, परिवार के बारे में, मेरे शौक सबके बारे में इतनी बातें की उन्होंने कि मुझे लगा ही नहीं ये भवानी जी हैं. ये सुन के कि मुझे लिखने पढने का शौक है, प्रसन्न हो गये अपनी जाने कितनी कवितायें सुना डालीं. बीच बीच में मैं टोकती- दद्दा ज्यादा मत बोलिये आपको मना किया है डॉक्टर ने” हंसते हुए कहते- “ अरे बोल लेने दे. क्या जाने फिर मिलें न मिलें”
मेरा अधिकतर समय अब उन्हीं के साथ बीतता. थोड़ी देर को कुछ काम करवाने आई तो आवाज़ देने लगे- अरे वो नौगांव वाली गुड़िया को भेजो न. कहां काम में फंसा लिया बच्ची को” उन्हें मेरा नाम याद नहीं हो पाया था.
अगले दिन हमें वापस आना था. वो इतने संकोच का समय था मेरा कि उनसे उनकी कलम मांगना तो दूर, ऑटोग्राफ़ तक न लिया… L आज का समय होता तो उनका पैन ज़रूर मांग लेती..
हम तेरह फ़रवरी को वापस आये और बीस को खबर मिली भवानी जी नहीं रहे….. मुझे याद आ रही थी उनकी ठहाकेदार हंसी  के साथ कही गयी बात- अरे बोल लेने दे, क्या पता फिर मिलें न मिलें……



रविवार, 1 फ़रवरी 2015

जीवन और मृत्यु के उत्सव का शहर- बनारस..

पिछले दिनों बनारस जाना हुआ. कई दिनों से बनारस के अनुभव लिखना चाह रही थी, लेकिन आज बैठ पाई लिखने. 

अपने गृह नगर के नाम के अलावा इलाहाबाद और बनारस ये दो ऐसे शहर हैं जो मुझे हमेशा  बहुत अपील करते हैं. इन नामों में पता  नहीं क्या है जो मुझे हमेशा  अपनी ओर खींचता है. इलाहाबाद  तो मेरा आना-जाना लगा रहता है, लेकिन बनारस पहले कभी जाना नहीं हुआ था. सो इस बार पुराने साल को विदा करने हम बनारस पहुंच गये.

कड़ाके की ठंड में यात्रा का मज़ा कुछ अलग ही होता है. ये अलग बात है कि हमारी यात्रा रात की ट्रेन से शुरु हो रही थी सो अपनी बर्थ पर पहुंच के हमने चुपचाप बिस्तर बिछाया , और लेट गये. नींद भले ही न आये पर संभ्रांतों की नींद में खलल डालना अभद्रता है, सो कानों में इयर प्लग ठूंसे गाने सुनते रहे.

हमारी ट्रेन एक घंटा चालीस मिनट लेट थी सो सुबह 5:30 की जगह  7:10 पर पहुंचने वाली थी लेकिन आधी रात को ट्रेन ने जो रफ़्तार पकड़ी कि हमें ठीक छह बजे बनारस  स्टेशन पर ला पटका. जबकि हम मना रहे थे कि ट्रेन दो-तीन घंटा लेट हो के पहुंचे. खैर. स्टेशन से बाहर निकले तो घने कोहरे की गिरफ़्त में आ गये. एक हाथ आगे का नहीं दिखाई दे रहा था. और भीड़ इतनी जैसे शाम के छह बजे हों.  

हमने जो होटल बुक किया था उसका चैक इन दिन में दो बजे से था. अतिरिक्त आठ सौ रुपये दे के हम सुबह सात बजे ही अपने रूम में स्थापित हो गये. चाय पी के थोड़ा आराम करके हम दस बजे नहा-धो के तैयार हो गये और सारनाथ के लिये रवाना होने नीचे उतरे. टैक्सी आने में टाइम लग रहा था. तो होटल के ही एक कर्मचारी अजय  ने कहा कि जब तक टैक्सी आ रही है तब तक आप लोग मुगल-टाउन देख आइये. मुझे लगा कोई मुग़ल गार्डन जैसा स्थान होगा. आगे-आगे अजय, और पीछे-पीछे हम दोनों. संकरी गलियों की भूल भुलैया से गुज़रते हुए हम बस चले जा रहे थे.
मैने पूछा-“ अजय मुगल टाउन कब आयेगा?”

 “अरे! यही तो है मुग़ल टाउन…”  मेरी दुविधा को अजय समझ रहे थे. उन्होंने तत्काल अपनी गलती मानी और बोले-
“ इस पूरे स्थान पर बनारसी साड़ियों के कारखाने हैं. अधिकतर पावर लूम पर बनायी जाने वाली साड़ियों के कारखाने हैं. कुछ हैंड लूम वाले भी हैं.”
सुबह का वक्त था, वो भी भीषण सर्द, सो कारीगर पावर लूम पर धागे चढा के चले गये थे. हमने दरवाज़ों की सुराखों और खिड़कियों के अधखुले पल्लों में से झांक के देखा, कैसे खटाखट साड़ियां बन रही हैं… एक साथ कई पावर लूम चल रहे हैं. अलग-अलग रंग और डिज़ाइन बन रही हैं… अद्भुत… अजय ने बताया कि थोड़ी देर में कारखाने खुल जायेंगे तब हम आपको अन्दर कारीगरों से मिलवा देंगे. हम भी वापस चल दिये, हमारी टैक्सी आ गयी थी. असल में यह एक ऑटो था   बनारस में बुक किये गये ऑटो को टैक्सी कहते हैं

बुद्ध के तमाम स्थान भी मुझे बहुत आकर्षित करते हैं. ये अलग बात है कि यशोधरा और राहुल को छोड़ के जाना मुझे उतना ही नागवार गुज़रता है जितना राम का सीता को वनवास पर भेजना. लेकिन गौतम इस मायने में अच्छे लगते हैं कि उन्होंने यशोधरा को निर्वासित नहीं किया था…लांछित नहीं किया था, सो उनका जीवन अपने बच्चे के साथ राजमहल में ही कट गया. लेकिन सीता?? अरेरेरेरे…… मैं भी कहां-कहां भटकती हूं…
स्टेशन से होटल बहुत दूर नहीं था, और सुबह कोहरा भी बहुत था, सो ऑटो के अगल-बगल कुछ देख न पाये थे. लेकिन अब सूरज निकल आया था, और सारे रास्ते, पूरा अगल-बगल साफ़ नज़र आ रहा था. हमारी ’टैक्सी’ तंग गलियों से होती हुई एक संकरी रोड पर आ गयी थी. पूरे शहर की रोड़ें इतनी संकरी, कि हर पांच मिनट पर जाम लग जाता है. यानि दस मिनट का रास्ता आप ४० मिनट में पूरा कर पायेंगे. रोड के  दोनों ओर से फुटपाथ गायब है. वाहनों के कारण पैदल चलने वालों का चलना मुहाल…

 तंग गलियों, संकरी सड़कों ,  निरंतरता बनाये हुए कचरे के ढेर, आवारा जानवरों के जत्थे के जत्थे..इस सब के वाबजूद बनारस की गलियों में कुछ बहुत अपना सा लग रहा था… गलियां इतनी तंग, कि आप अपना दरवाज़ा खोल के सामने की ओर दो कदम बढायें, तो तीसरे कदम में ही सामने वाले के घर में खड़े दिखाई देंगे  लेकिन तब भी ये गलियां खीझ पैदा नहीं कर रही थीं.

सारनाथ के बारे में सब जानते हैं सो बहुत विवरण की जरूरत मुझे नहीं लगती.  दोपहर तीन बजे हम सारनाथ के मुख्य मन्दिर से बाहर आये. आते ही चाय पीने की इच्छा हुई, उमेश जी की. मुझे भूख लग रही थी. लेकिन दूर-दूर तक खाने-पीने का मामला दिखाई न दे रहा था. बायें हाथ पर चाय के कुछ ढाबे थे, उन्हीं में से एक पर हम भी पहुंचे. स्वादिष्ट गरमागरम चाय, बड़े-बड़े कुल्हड़ों में ली. दो पाव लिये और चाय के साथ खा गये. चाय इतनी अच्छी थी कि मेरे जैसे चाय के प्रति उदासीन भाव रखने वाले व्यक्ति को भी दोबारा चाय पीने की इच्छा हो आई. चाय वाला जैतराम और उसकी पत्नी इतने प्यार से चाय पिला रहे थे कि हम थोड़ी देर उन्हीं से बतियाते बैठे रहे. जैतराम ने ज़िद करके बनारसी पान खिलाया  हम पान नहीं खाते, ये कहने पर भी उसने मीठा पान लगा कर दिया, ये कहते हुए कि बनारस आई हैं और पान न खायें, ऐसा कैसे हो सकता है?

चाय-पान निपटा के हम ऑटो की ओर लपके. ऑटो वाले भैयाजी, जिनका नाम धर्मेन्द्र था, बोले कि आप लोग थोड़ी देर होटल जा के हाथ-मुंह धो के वापस चले चलें ताकि घाट पर समय से पहुंच सकें. हमने अच्छे बच्चों की तरह सिर हिलाया और होटल पहुंच के ठीक दस मिनट बाद ही वापस ऑटो में लद गये. साढे चार बजे हम घाट पर पहुंच गये थे. धर्मेन्द्र भाई हमारे साथ केदार घाट तक आये और नाव तय करवाई. हमारे नाविक थे, पन्द्रह वर्षीय शशि केवट. इतने से बच्चे को देख के उमेश बोले- “ये बच्चा ले जायेगा क्या?” नन्हे नाविक को खुद को बच्चा कहा जाना पसन्द नहीं आया शायद. थोड़ा सा उतरे मुंह से बोला- “ अरे साहब, हम पन्द्रह बरस के हैं. जब ग्यारह बरस के थे तब से नाव चलाना सीखे हैं. एकदम से नाव न खेने लगे हैं. पहले तैरना सिखाया गया, फिर नाव को डूबने/पलटने से बचाना सिखाया गया. और अगर नाव पलट ही जाये, तो सवारियों को बचाना सिखाया गया.” माने हम कच्चे नाविक न हैं    मैने तुरन्त उसका पक्ष लिया और उमेश को समझाइश दी- अरे बहुत होशियार है ये. बड़े अच्छे से घुमायेगा हमें. तुम चिन्ता न करो. “

बैठ गये हम दोनों नाव में. शुरु हुई हमारी घाट-यात्रा……………तीन सौ चालीस घाट…ढाई घंटा….. इसी नाव से हम काशी विश्वनाथ जी के दर्शन और शाम की गंगा आरती के भी दर्शन करने वाले थे.  छह बजे शशि हमें ललिता घाट पर ले आया और बोला- साब, अभी विश्वनाथ जी के दर्शन करना सबसे बढिया है. फिर आरती शुरु हो जायेगी. हम फटाफट नाव से उतरे और शशि के पीछे लग लिये. पता नहीं कितनी सीढियां चढते, उतरते, सुरंगों में घुसते हम एक गली में पहुंचे. 

यहां प्रसाद की एक दुकान पर हमारे मोबाइल/कैमरे/ जूते / पर्स सब लॉक करवाया गया और हमें आगे की गली तक यानि विश्वनाथ जी के दर तक शशि छोड़ आया.  यहां पहुंचने की गलियां इतनी तंग हैं कि एक बार में दो लोगों का भी एक साथ चलना मुश्किल होता है. पानी और दूध जैसे पदार्थों ने इस गली को ज़बर्दस्त चिकना कर दिया है. कहीं-कहीं मैट बिछा हुआ मिला लेकिन अधिकतर जगह चिकनी ज़मीन या मिट्टी में समाया हुआ मैट ही मिला. मंदिर के मुख्य द्वार से भीड़ का रेला धंसा चला जा रहा था. मैने उमेश को कहा था कि अगर दम घोंटू भीड़ हुई तो मैं अन्दर  नहीं जाऊंगी. ऐसी अंध भक्ति मुझे कभी उद्वेलित नहीं कर पाई है कि भीड़ में कुचलते हुये मैं भगवान के दर्शन के लिये पहुंचूं. खैर हम अन्दर पहुंचे. हमारे आगे-आगे जाने वाली भीड़ थोड़ी देर में छंट गयी. हम जब मंदिर के अन्दर पहुंचे तो लगा जैसे शिव जी मुस्कराते हुये हमारे ही इंतजार में बैठे थे.
हमने  पूरे श्रद्धा भाव और मनोयोग से बेल-पत्र, फूल और प्रसाद चढाया. मैने अपना मन भक्ति भाव से भरने की कोशिश की, लेकिन बेकार. फूल चढाते हुए भी मेरा मन शिव जी से कह रहा था- “कहां बैठे हो महाराज? “चारों तरफ़ भारी अव्यवस्था है. बाहर पहुंच मार्ग गन्दगी से अटा पड़ा है और लोगों को नंगे पांव यहां तक आना पड़ता है. पैर मिट्टी में सन जाते हैं और मन्दिर में बह रहे पानी के साथ कीचड़ बनाते हैं. मन्दिर तक पहुंचने वाली गलियों को तो किसी भी प्रकार चौड़ा नहीं किया जा सकता, पर इन गलियों में पेबर ब्लॉक्स लगा कर इन्हें साफ़-सुथरा तो बनाया जा सकता है न? मन्दिर के अन्दर भी दर्शनार्थियों को लाइन में लगे रहने के लिये रेलिंग्स क्यों नहीं लगायी गयीं?  अन्दर सब दर्शन के लिये ऐसे टूटे पड़ रहे थे कि अगर इसी घड़ी सबने दर्शन न किये तो फिर कभी न कर पायेंगे  मन्दिर के अन्दर घुसते ही गुरुद्वारों की तर्ज़ पर पैर धोने की व्यवस्था होनी चाहिये ताकि लम्बा पहुंच मार्ग तय कर कीचड़ से सने पैर भगवान तक न पहुंचें. काशी विश्वनाथ विश्व प्रसिद्ध और अत्यंत सिद्ध स्थल माना जाता है. व्यवस्थायें बहुत जरूरी हैं यहां.



मन्दिर से निकल कर जब हम वापस ललिता घाट पहुंचे तो आरती की तैयारियां शुरु हो गयी थीं. ललिता घाट से सटा हुआ है मणिकर्णिका घाट…बहुत सुना था इस घाट के बारे में. लेकिन सुनने और देखने में कितना फ़र्क़ होता है ये देख के जाना. जब हम शिव जी के दर्शन कर ललिता घाट पर लौटे तो वहां सैकड़ों गरीब बैठे खाना खा रहे थे. एक साथ बहुत सारे लोग खिला रहे थे. लग रहा था जैसे कई परिवार मिल के खिला रहे हो. पूछा तो पता चला ये मृत्यु भोज चल रहा है. मत्यु भोज!! क्यों? “क्यों क्या? ये बगल का मणिकर्णिका घाट नहीं देखा क्या? यहां 108 लाशें एक साथ जलती हैं.


 उन्ही के परिवार वाले दाह कर्म करने के बाद यहीं मृत्यु भोज दे कर फ़ुर्सत हो जाते हैं. घाट की सीढियों पर खड़े हो के बायीं तरफ़ देखा, नीचे से लेकर तिमंजिले तक लाशें जल रहीं थीं... ऊंची-ऊंची लपटें ऊपर तक पहुंचने की कोशिश में हों.. अब दायीं तरफ़ सिर घुमाया तो पानी में बने ऊंचे से मंच पर सात युवा पुजारी पीली धोती पहने, हाथ में शंख लिये जीवन का विजय घोष करने को तैयार थे.. लोबाल का धुंआ चारों तरफ़ अपनी पहुंच बना रहा था. चिताओं की लपटों से उठता धुंआ और लोबान का धुंआ आसमान के जाकर एकाकार हो गया था... लाशों की चिरायंध अब लोबान की गंध में तब्दील हो गयी थी.


हम नाव पर सवार हो गये थे. सामने ललिता घाट पर और उससे जरा आगे दशश्वमेध घाट पर भव्य आरती शुरु हो गयी थी.  मंच पर एक साथ दस-दस पुजारी पीतम्बर पहने नंगे बदन  ऊंची-ऊंची लौ उठाती आरतियों से गंगा की आरती कर रहे थे. मेरा ध्यान आरती पर कम, चिताओं की लपट पर ज़्यादा था… मन कैसा-कैसा तो हो रहा था. आरतियों की लौ…चिताओं की लपट और दोनों की गंगा में बनती समान आकृतियां…  मणिकर्णिका घाट के अगल-बगल, पीछे सब तरफ़ ऊंची अट्टालिकाएं. सबके खिड़की दरवाजे घाट की तरफ़.  शशि केवट से पूछा- यहां जो लोग रहते हैं उन्हें तो रोज़ इतने अन्तिम संस्कार देखने पड़ते होंगे…बुरा लगता होगा न…” अरे काहे का बुरा? तर गये ये सब, जो यहां जले. और जो लोग रहते हैं इस घाट पे उन्हें तो आदत  हो गयी है. अगर कुछ कम लाशें जलें तो शायद उन्हें अटपटा लगे. और जानती हैं, कभी-कभी तो दिन भर में पांच सौ से लेकर सात सौ तक लाशें भी जली हैं. मान लीजिये कि 108  से कम तो जलाने का नियम ही नई है. "मैंने फ़ोटो खींची तो शशि ने मना किया-’ न मैडम जी, यहां की फोटो नहीं खींची जाती. अब खींच ली तो कोई बात नहीं.



नाव मणिकर्णिका घाट के सामने से जा रही है…. .. लम्बा-चौड़ा घाट..पूरे घाट पर जगह-जगह बनी चिताएं..जलती चिताएं. कुछ चिताएं अकेली ही जल रही हैं… कोई अपना न बचा उनके पास…कुछ अकेली लाशों को घाट के भिखारी ताप रहे हैं. लाशों की आग उनके लिये अलाव का काम करती है. एक चिता से चिटख के जलती हुई लकड़ी थोड़ी दूर जा गिरी, तो भिखारी बच्चों/गरीब बच्चों की टोली ने उससे खेलना शुरु कर दिया है….. घाट पर होती भव्य आरती..आरती के स्वर सब विस्मृत से हो गये हैं मुझे.. कुछ नहीं दिखाई दे रहा..कुछ नहीं सुनाई दे रहा…सिवाय जलती चिताओं के..चिताओं की आग से खेलते बच्चों के … जीवन और मृत्यु के उत्सव का शहर है बनारस…   मौत अब यहां  किसी को झकझोरती नहीं. गंगा में झिलमिलाती चिताओं की लपटें जैसे बहुत कुछ छीने ले रही थीं… बहुत कुछ छूट रहा था लहरों के साथ-साथ… पानी पर बनती आकृतियां जैसे आमंत्रित सा कर रही थीं खुद में समा जाने को….
अब और नहीं लिख पाउंगी. अद्भुत है बनारस……. याद रहेगा हमेशा.