रविवार, 8 अप्रैल 2012

ख्वाब था या खयाल था क्या था......

स्वप्न रहस्य -सतीश सक्सेना.... अभी दो दिन पहले ही सतीश सक्सेना जी की ये पोस्ट पढी. तमाम टिप्पणियां भी पढ़ीं. अधिकांश लोग सपने की बात पर ध्यान न देने की सलाह दे रहे हैं. सतीश जी के सपने की मौज भी ली जा रही है भई क्यों न लें! मित्र-गण हैं, हक़ बनता है मौज लेने का .
लेकिन जानते हैं, मैं सतीश जी को ये नहीं कह पाई कि वे इस सपने को केवल सपना ही मानें. सपने से जुड़ा अपना अनुभव सुनाऊँ न? दो घटनाएं हैं. सो दोनों ही झेल लीजिये -
बात बहुत पुरानी है . एक सपना जिसमें मैं सपने में भी सो रही होती थी और मेरा बायाँ हाथ पलंग से नीचे लटक रहा होता था . एक चांदी जैसे रंग का, चमकदार , लगभग दो फुट लम्बा सांप आता और मेरे हाथ को डस लेता. बस, इतना होते ही मेरी नींद खुल जाती. यह सपना मुझे तब आना शुरू हुआ जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ती थी. हफ्ते में एक या दो बार यह सपना मुझे आता ही था. मेरे इस सपने के बारे में घर में सब जानते थे. चऊआं-मऊआं भी जानती थीं, जिनका ज़िक्र अभी करूंगी
मैं बी.एससी. के अंतिम वर्ष में थी. सर्दियों के दिन थे. मैं अपने घर की बाउंड्री में, धूप में बैठ के पढ़ रही थी. मेरे ही घर के ठीक बगल वाले हिस्से में रहने वाले भूमित्र शुक्ल अंकल की बेटी मऊआँ ( निधि शर्मा जो अब सिंगापुर में है) बहुत ज़ोर से चिल्लाई-
" रेखा दीदीssssss.....पैर ऊपर करो, पता नहीं सांप जैसा क्या है वहां........"
मैंने घबरा के पैर ऊपर किये नीचे निगाह गयी तो देखती हूँ, कि ठीक वही सांप जो मेरे सपने में आता था, उतना ही लम्बा मेरी चप्पलों के पास बैठा है....पैर ऊपर न उठाती तो पैरों के पास...... सिहर गयी एकदम..लगा जैसे मेरा हाथ डसने को बैठा है... लेकिन मऊआँ का शोर सुन के शुक्ल आंटी, उसकी बहन चऊआँ ( रूचि शुक्ल) मेरे मम्मी-पापा , बहनें सब बाहर आ गए थे, आहट पा के सांप सामने वाले गेट से बाहर निकला जहाँ मोहल्ले के वीर योद्धा टाइप लड़के पहले ही जमा हो गए थे उसे मारने की ताक में .
तेज़ी से सरसराते सफ़ेद चांदी जैसे चमकदार सांप को उन लड़कों ने घेर के मार डाला. पता नहीं क्यों उसका मारा जाना मुझे अच्छा नहीं लगा, लेकिन उसके बाद उस सांप का सपना आना बंद हो गया.
मुझे नहीं पता कि वो क्यों आया था? उस सपने का क्या मतलब था? मैंने बहुत सोचने की कोशिश भी नहीं की. मेरी मम्मी ने कहा-
" भूल जाओ, सपना था. तुम तमाम कहानियां पढ़ती रहती हो, इसलिए आता होगा ऐसा सपना."
मैंने मान लिया . लेकिन उस सांप का आना? खैर उसे भी संयोग मान लिया.
दूसरी घटना जिसे मैं आज तक सपना भी नहीं मान पाई-
३१ जुलाई १९९९ को मेरे श्वसुर जी का देहांत हुआ. मेरे ऊपर उनका अगाध स्नेह था .विश्वास भी. उनके देहांत के बाद सितम्बर में मैं नौगाँव गयी थी. जिस दिन मुझे सतना वापस आना था, उस रात मुझे सपना आया कि पापा नौगाँव वाले घर में आये, सपने में भी मुझे पता था कि वे अब नहीं हैं. आ के कमरे में पड़े तखत पर बैठे और बोले कि- मेरी जी.पी. एफ़. वाली फ़ाइल हरे बॉक्स में है. फ़ाइल पीले रंग की है और उस पर ऊपर लिखा है-" जी.पी.एफ़. संबंधी कागज़ात".
चौंक कर मेरी नींद खुल गयी, देखा पसीने से नहाई हुई हूँ....देर तक पापा के वहां होने का अहसास होता रहा. सुबह मम्मी और बहनों को भी ये सपना सुनाया. सतना आते-आते सपना ध्यान से उतर गया, पता नहीं कैसे. अक्टूबर में उमेश जी के मामा श्री शालिग्राम शुक्ल और मामी आये. हम सब खाना खा रहे थे. तभी एक फोन आया, अम्मा फोन पर जवाब दे रही थीं - " हमने पूरे घर में फ़ाइल ढूंढ ली, मिली ही नहीं . एक बार फिर कोशिश करते हैं. " मेरे पूछने पर अम्माँ ने बताया कि पापा की जीपीएफ वाली फ़ाइल नहीं मिल रही. मुझे अचानक ही अपना सपना याद आ गया. मैंने बस यूं ही हँसते हुए सपना सुनाया. उमेश जी बोले कि जब फ़ाइल कहीं नहीं मिली, तो क्यों न हरा बॉक्स ही ढूँढा जाए? अब नए सिरे से हरे बॉक्स की ढूंढ मचाई गयी. एक हरे रंग का बॉक्स उस स्टोर-रूम में मिला, जहाँ केवल कबाड़ भरा है. बॉक्स खोला और आश्चर्य!!!!!
ऊपर ही पीले रंग की फ़ाइल रखी थी, जिस पर लिखा था " जीपीएफ सम्बन्धी कागज़ात".
इस सपने को मैं कभी सपना मान ही नहीं पाई.
आप ये न सोचें कि मैं अंध-विश्वास को बढ़ावा दे रही हूँ. मैं खुद कभी सपनों को सच नहीं मानती थी. आज भी मेरा मानना है, कि सपने हमारे अवचेतन का ही प्रतिफल होते हैं. लेकिन यदि कोई सपना बार-बार आये तो उसे केवल सपना नहीं कहना चाहिए. अंध विश्वास और विश्वास के बीच का फ़र्क मैं बखूबी समझती हूँ. इसलिए मुझ पर अंध-विश्वासी का तमगा लगाए बगैर अपनी राय दें.
जो घटना मेरे साथ घटी, उसे मैं सिरे से कैसे नकार दूँ?
( ऊपर वाला चित्र मेरे नौगांव वाले घर का है, इसी गेट से होकर चांदी जैसा सांप निकल के भागा था.)