शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

राजनर्तकी की छवि से मुक्ति दिलाने की सार्थक कोशिश है-" एक थी राय प्रवीण"

बुंदेलखंड का इतिहास बहुत समृद्ध है. तमाम कहानियां इसके अतीत में समाहित हैं. यूं तो ऐतिहासिक उपन्यास हमेशा ही रोचक होते हैं लेकिन उनकी रोचकता तब और बढ जाती है जब कथा किसी महत्वपूर्ण राज्य के  नामी गिरामी राजा की प्रेमकथा पर आधारित हो. प्रेम हमेशा से जीवन में उमंग और उत्साह का संचार करने वाला तत्व रहा है, सो जब कथाएं प्रेम पर आधारित होती हैं, तो पाठक का आनन्दित होना लाज़िमी है.
पिछले दिनों श्री गुणसागर सत्यार्थी जी द्वारा रचित ऐतिहासिक उपन्यास “एक थी राय प्रवीण” पढने का सुयोग जुटा. इस उपन्यास से पहले,  राय प्रवीण पर आधारित एक और उपन्यास- “ओरछा की नर्तकी”  मैं पढ चुकी हूं,  वो भी अद्भुत लिखा गया है, लेकिन उस उपन्यास में राय प्रवीण को दरबारी नर्तकी साबित किया गया है, जबकि सच ये है कि राय प्रवीण कभी दरबारी नर्तकी रही ही नहीं. और इस सत्य को बहुत प्रामाणिक तरीक़े से प्रस्तुत करता है उपन्यास- “एक थी राय प्रवीण”.
यह उपन्यास बरधुआं की पुनिया से  ओरछा की राय प्रवीण होने तक का सफ़रनामा बहुत विस्तृत और रोचक तरीके से प्रस्तुत करता है. आमतौर पर ऐतिहासिक उपन्यास बोझिल होने लगते हैं लेकिन सत्यार्थी जी ने इस उपन्यास की रोचकता को उसकी मौलिकता के साथ आरम्भ से अन्त तक बरक़रार रखा.
   यह एक अफ़सोसनाक  सत्य है कि अब तक, राय प्रवीण पर जितना भी लिखा गया, जितने भी उपन्यास लिखे गये, उन सब में उन्हें राजनर्तकी के रूप में वर्णित किया गया. अब चूंकि राजनर्तकी, उस पर राजा इंद्रजीत सिंह की प्रेमिका. तो उपन्यासकारों ने स्वयमेव मान लिया कि यदि कोई नर्तकी प्रेमिका भी है, तो उसकी स्थिति क्या मानी जायेगी? ज़रा स्तरीय भाषा में हम भले ही उसे राजनर्तकी लिखें, लेकिन अन्तत: राजनर्तकी का क्या स्थान होता था दरबार?एक नर्तकी जो राजा की प्रेमिका भी हो को क्या उपाधि दी जा सकती है? रखैल से ज़्यादा कुछ नहीं. चलताऊ भाषा में हम इस रिश्ते को यही नाम देते हैं. लेकिन सत्यार्थी जी का उपन्यास – “एक थी राय प्रवीण” इस मिथक को पूरी तरह नकारता है, और राय प्रवीण को उनकी भार्या के रूप में स्थापित करता है. हां ये सच है कि राय प्रवीण घोषित पत्नी का दर्ज़ा पाने के पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गयीं. कवि केशव की शिष्या, जिसे स्वयं केशवदास ने राय प्रवीण नाम दिया, कितनी कुशल कवियित्री, नर्तकी, गायिका और चित्रकार थी ये आप इस उपन्यास के माध्यम से जान सकेंगे.
उपन्यास इंद्रजीत की कछौआ यात्रा और  पुनिया की सुरीली आवाज़ के आकर्षण के साथ शुरु होता है. बरधुंआ नाम के एक छोटे से गांव के बहुत गरीब लुहार की बेटी है पुनिया. बिना मां की इस बेटी को ईश्वर ने बहुत सुरीला  गला दिया है. पिता भी संगीत प्रेमी है. किस प्रकार राजा इंद्रजीत इस गरीब बालिका का गायन सुनने के लिये कछौआ में समारोह के दौरान पुनिया का भी गायन रखवाते हैं और वहीं प्रसाद देते हुए प्रसन्न हो भगवान को चढाई जाने वाली माला पुनिया के गले में डाल, उसके आंचल में मिठाई का दोना रख देते हैं. पुनिया ने इस हार को ही वरमाला मान लिया और खुद को राजा इंद्रजीत की पत्नी. आगे की कथा आप उपन्यास में ही पढ्ने का आनन्द है. पुनिया की संघर्ष गाथा और कला के उच्च शिखर पर पहुंचने का सिलसिलेवार वर्णन किया है सत्यार्थी जी ने. सौतिया डाह के चलते रावरानी ने जब अकबर तक राय प्रवीण की खबर भेजी, और अकबर ने जब उसे दरबार में तलब किया तो इंद्रजीत प्रवीण को वहां भेजने के सख्त विरोधी थे. ऐसे में चंद पंक्तियों से राय प्रवीण ने उन्हें समझाया-
 ''आई हों बूझन मंत्र तुमें, निज सासन सों सिगरी मति गोई,
प्रानतजों कि तजों कुलकानि, हिये न लजो, लजि हैं सब कोई। 
स्वारथ और परमारथ कौ पथ, चित्त, विचारि कहौ अब कोई। 
जामें रहै प्रभु की प्रभुता अरु- मोर पतिव्रत भंग न होई।“
 इस पद को पढ के कौन राय प्रवीण को राजनर्तकी या रखैल मानेगा? सत्यार्थी जी ने ऐसे तमाम पद/दोहे इस उपन्यास में उल्लिखित किये हैं जो राजा इंद्रजीत सिंह और राय प्रवीण के रिश्ते को स्पष्ट करते हैं. उपन्यास राय प्रवीण के संघर्ष  को पूरी प्रामाणिकता के साथ सिद्ध करता चलता है. इसीलिये इस उपन्यास को मात्र एक उपन्यास कहना ग़लत होगा. ये सत्यार्थी जी द्वारा रचित शोढ ग्रंथ है. एक ऐसा उपन्यास जिसे आने वाले समय में संदर्भ ग्रंथ के रूप में इस्तेमाल किया जायेगा.  ऐतिहासिक उपन्यास तब प्रामाणिक हो जाते हैं जब उन्हें गहन शोध के बाद लिखा जाता है. इस उपन्यास में भी सत्यार्थी जी के चालीस वर्षों की मेहनत है. छोटे से छोटा तथ्य भी उन्होंने जुटाया, ऐसा तथ्य जो राय प्रवीण की  राजनर्तकी की छवि को मिटा सके. और उनकी मेहनत रंग लाई है. इस उपन्यास को पढने के बाद लोग राय प्रवीण की राजनर्तकी की छवि  को तोड़ पायेंगे.
पूर्व में एक उपन्यास पढा था – “ ओरछा की नर्तकी”  ये उपन्यास इक़बाल बहादुर देवसरे द्वारा रचित है. बहुत बढिया उपन्यास है, लेकिन राय प्रवीण को पूरी तरह राजनर्तकी के रूप में स्थापित करता हुआ. जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है. सत्यार्थी जी ने ऐसे तमाम मिथकों को तोड़ने का सार्थक प्रयास किया है. उपन्यास बहुत रोचक शैली में लिखा गया है. लोक भाषा का समावेश उपन्यास को पात्रों के निकट ले जाने के साथ-साथ उसमें विश्वसनीयता पैदा करता है. ओरछा बुन्देलखंड की प्रमुख रियासतों में से एक है. सो बुन्देली भाषा का  प्रयोग उपन्यास को ज़्यादा प्रामाणिक और आत्मीय बनाने में सफल हुआ है.
उपन्यास की सम्वाद शैली बहुत प्रभावी है, लेकिन कहीं-कहीं बहुत लम्बे सम्वाद हैं, जो पाठक को बोझिल करने लगते हैं. कई लम्बे सम्वाद उपन्यास की मांग के अनुसार हैं. फिर भी लम्बे सम्वादों से बचना उचित होता. लम्बे सम्वाद , उपन्यास की कसावट में सेंध लगाने का काम करते हैं.
“एक थी राय प्रवीण” के रचयिता श्री गुण सागर सत्यार्थी जी का स्थायी निवास कुण्डेश्वर- ज़िला टीकमगढ, म.प्र. में है. आपका जन्म सन- १७ अगस्त सन १९३७ को चिरगांव-झांसी में हुआ. आप मुंशी अजमेरी के पौत्र हैं. सो लिखने का गुण विरासत में मिला, जिसे परम्परा के रूप में वे आगे बढाते रहे हैं. आपने मेघदूत का बुंदेली में काव्यानुवाद किया, जो कालिदास अकादमी उज्जैन द्वारा किया गया.  चौखूंटी दुनिया, नाव चली बाल महाभारत सहित  लगभग ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. तमाम क्षेत्रीय पत्रिकाओं का सम्पादन भी आपके खाते में है. लगभग बीस पांडुलिपियां अभी प्रकाशन के इंतज़ार में हैं. बुन्देलखंड की इस विभूति को पढना ही अपने आप में बुन्देलखंड को जान लेने जैसा है.
नेशनल पब्लिशिंग हाउस-दिल्ली से प्रकाशित “एक थी राय प्रवीण” भी आने वाले समय में बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक साबित होगी, ऐसा मेरा विश्वास है. शुभकामनाओं सहित

उपन्यास: एक थी राय प्रवीण
लेखक: गुण सागर सत्यार्थी
प्रकाशक : नेशनल पब्लिशिंग हाउस
4230/1 अंसारी रोड, दरियागंज
नई दिल्ली- 110002
मूल्य : ७२५ रुपये मात्र




शनिवार, 9 अप्रैल 2016

सोलह दिनों तक चलने वाला एकमात्र त्यौहार है-गणगौर


बचपन में जब गणगौर का त्यौहार आता, तो हम सबमें सबसे ज़्यादा  उत्साह टेसू (पलाश) के फूलों से रंग बनाने के लिये होता. हमारे छोटे से शहर में टेसू के पेड़ बहुतायत हैं, सो फूल मिलने में दिक्कत न होती. हम अपनी फ़्रॉक की झोली बना के उसमें ढेर सारे फूल भर लाते. ताज़े- चटक नारंगी रंग के फूल… मम्मी  एक बड़ी सी थाली में पानी भर के सारे फूल डाल देतीं. जब तक कथा समाप्त होती, फूलों के रंग से पूरा पानी नारंगी-लाल हो उठता. एक बार फिर फूलों को मसल के मम्मी सारा रंग निचोड़ लेतीं, और कथा के अन्त में सब पर ये रंग डाला जाता. तब इस रंग के डाले जाने का पौराणिक महत्व नहीं मालूम था, ये हमारे मौज-मज़े का सामान होता था. हमारा सारा ध्यान तो इस रंग और पूजा के लिये बने पकवानों पर लगा होता था.  लेकिन इतना है, कि मुझे उन दिनों घर में होने वाली सारी पूजाओं में, गणगौर की पूजा बहुत अलग सी, और बहुत अच्छी लगती थी. आज भी लगती है. 
गणगौर….. गण यानि शिवभक्त और गौर यानि पार्वती. पार्वती से बड़ा शिवभक्त भला कौन हुआ है !! लेकिन गौरा के नाम के साथ गण लगने और इस पूरे शब्द  के “गणगौर” बनने की अलग कथा है.  इस शब्द के उत्पत्ति पार्वती द्वारा किये गये एक व्रत के बाद हुई. पार्वती ने शिव को प्राप्त करने के लिये  जो व्रत किये, ये भी उनमें से एक है. वैसे तो गणगौर विभिन्न प्रांतों में मनाया जाता है, लेकिन सबसे ज़्यादा उत्साह और रीति रिवाज़ के साथ इसे राजस्थान में मनाया जाता है. तो आइये जानते हैं इस व्रत की विहि. व्रत को करने का विधान ताकि जो महिला इसे शुरु करना चाहे, वो कर सके, विधान जान सके.
गणगौर पूजन कब और क्यों?
गणगौर का त्यौहार एकमात्र ऐसा त्यौहार है जो चैत्र नवरात्रि के मध्य आता है. नौदुर्गा की तृतीया को आने वाले इस त्यौहार का विशेष महत्व इसलिये भी है क्योंकि चैत्र नवरात्रि का यह दिन  देवी के चंद्रघंटा स्वरूप को समर्पित है. चंद्रघंटा तंत्रमंत्र की स्वामिनी हैं. इनकी अर्चना से अलौकिक वस्तुओं की प्राप्ति होती है. नवरात्रि के तीसरे दिन, यानि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को गणगौर माता की पूजा की जाती है. इस दिन पार्वती के अवतार के रूप में “गणगौर माता” और शिव के अवतार के रूप में “ईशर जी” की पूजा की जाती है.  कहा जाता है कि पार्वती ने शिव को पति के रूप में पाने के लिये तपस्या की. शिव प्रसन्न होके प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा. पार्वती ने वरदान में शिव को ही मांग लिया. और वरदान फलित हुआ, शिव पार्वती के विवाह के रूप में. तबसे कुंआरी कन्याएं इच्छित वर पाने के लिये और सुहागिनें अपने सौभाग्य के लिये इस व्रत को करती चली आ रहीं. गणगौर पूजा की शुरुआत चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया से आरम्भ हो जाता है. महिलाएं सोलह दिन तक इस पूजा के विधान का पालन करती हैं. सुबह जल्दी उठ के ऊब चुनने जाती हैं. उस दूब से थाली में रखी मिट्टी की गणगौर माता की मूर्ति को छींटे देती हैं. आठवें इन लड़कियां कुम्हार के यहां जा के मिट्टी लाती हैं, और फिर इस मिट्टी से ईशर जी की प्रतिमा के साथ साथ पार्वती के मायके का परिवार भी बनाती हैं. गणगौर की जहां पूजा की जाती है, उसे पीहर और जहां विसर्जन किया जाता है उसे ससुराल माना जाता है.
गणगौर की मूर्ति को पूजा के दिन सुन्दर वस्त्रों से सजाया जाता है. पकवान बनाये जाते हैं जिनमें मीठे और नमकीन  गुना –फूल होते हैं. कई जगह इन्हें गनगौरे भी कहते हैं. एक थाली में टेसू के फूलों से रंग तैयार किया जाता है. थाली को गणगौर की मूर्ति के ठीक नीचे रखा जाता है ताकि उसमें गौर की छाया दिखाई दे. कथा के बाद यह रंग सब पर उलीचा जाता है. गणगौर की मूर्ति से सिंदूर ले के विवाहिताएं अपनी मांग भरती हैं. और फिर भोजन ग्रहण करती हैं. यह निराहार रहने वाला व्रत नहीं है.
कैसे करें पूजा?
थोड़े बहुत विभेद के साथ इस त्यौहार की पूजन विधि लगभग सभी जगह समान है. गणगौर की मूर्ति स्थापना कर एक थाली में अख्शत, चंदन, हल्दी सिंदूर, अगरबत्ती, धूप, कपूर और फूल-ऊब आदि रखी जाती है. यह थाली होली के दूसरे इन ही तैयार कर ली जाती है. अब इसी में मिट्टी से गणगौर माता की मूर्ति भी बना के रखते हैं. पूजा के कमरे में या जिस स्थान पर पूजा करनी हो, बालू से एक चौकोर बेदी बना के वहीं ये थाल स्थापित किया जाता है. पार्वती को सुहाग का समस्त सामान चढाया जाता है, जैसे कि हम हडतालिका तीज को चढाते हैं. फूल, धूप, दीप नैवेद्य अर्पण करने के बाद कथा कही जाती है और बाद में सभी महिलाएं भोग ग्रहण करती हैं. माता का सिंदूर लेती हैं.
राजस्थान का विशिष्ट त्यौहार
राजस्थान का यह खास उत्सव है. इस दिन भगवान शिव ने पार्वती को. तथा पार्वती ने  समस्त स्त्री समाज को सौभाग्य का वरदान दिया था. राजस्थान से लगे ब्रज के सीमावर्ती इलाकों में यह त्यौहार धूमधाम से मनाया जाता है. इस दिन यहां गणगौर माता को चूरमें का भोग लगता है.  
उमंग और उत्साह का पर्व है गणगौर
सोलह दिन तक चलने वाला यह एक मात्र त्यौहार है. पहले के ज़माने में जब मनोरंजन के साधन नहीं हुआ करते थे, तब लोग अपने उत्सव का बहाना इन त्यौहारों में खोज लेते थे. सोलह दिन बेहद मस्ती, उत्साह और उमंग में निकलते थे महिलाओं के. राजस्थान में आज भी सोलह दिन तक दूब से दूध का छींटा दिया जाता है गौरा को.
गणगौर की कथा
भगवान शंकर  तथा पार्वती जी नारदजी के साथ भ्रमण को निकले। चलते-चलते वे चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन एक गाँव में पहुँच गए। उनके आगमन का समाचार सुनकर गाँव की श्रेष्ठ कुलीन स्त्रियाँ उनके स्वागत के लिए स्वादिष्ट भोजन बनाने लगीं। भोजन बनाते-बनाते उन्हें काफ़ी विलंब हो गया किंतु साधारण कुल की स्त्रियाँ श्रेष्ठ कुल की स्त्रियों से पहले ही थालियों में हल्दी  तथा अक्षत लेकर पूजन हेतु पहुँच गईं। पार्वती जी ने उनके पूजा भाव को स्वीकार करके सारा सुहाग रस उन पर छिड़क दिया। वे अटल सुहाग प्राप्ति का वरदान पाकर लौटीं। बाद में उच्च कुल की स्त्रियाँ भांति भांति के पकवान लेकर गौरी जी और शंकर जी की पूजा करने पहुँचीं। उन्हें देखकर भगवान शंकर ने पार्वती जी से कहा, 'तुमने सारा सुहाग रस तो साधारण कुल की स्त्रियों को ही दे दिया। अब इन्हें क्या दोगी?'
पार्वत जी ने उत्तर दिया, 'प्राणनाथ, आप इसकी चिंता मत कीजिए। उन स्त्रियों को मैंने केवल ऊपरी पदार्थों से बना रस दिया है। परंतु मैं इन उच्च कुल की स्त्रियों को अपनी उँगली चीरकर अपने रक्त का सुहागरस दूँगी। यह सुहागरस जिसके भाग्य में पड़ेगा, वह तन-मन से मुझ जैसी सौभाग्यशालिनी हो जाएगी।'
जब स्त्रियों ने पूजन समाप्त कर दिया, तब पार्वती जी ने अपनी उँगली चीरकर उन पर छिड़क दिया, जिस जिस पर जैसा छींटा पड़ा, उसने वैसा ही सुहाग पा लिया। अखंड सौभाग्य के लिए प्राचीनकाल से ही स्त्रियाँ इस व्रत को करती आ रही हैं।
तो इस उल्लास-उमंग से भरपूर गणगौर व्रत को आप भी करें, बिना किसी विशेष आडम्बर के. शुभकामनाएं, आप सबको.