शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

शुभकामनाएँ....


नया साल शुरू होने में बस एक घंटा रह गया है. दिन भर से सोच रही हूँ, कुछ लिखने के बारे में, लेकिन मन है कि पिछले न्यू ईयर को याद कर रहा है, जब मैं कानपुर में थी. मैं भी न!! बीती बातें याद करने की आदत सी हो गई है मुझे. आगे का कुछ सोच ही नहीं पाती! कैसे धकेलूँ अपने मन को आगे की तरफ?
आप भी सोचेंगे कि इतने दिनों बाद लिखा, उसमें भी नया कुछ नहीं.
पिछले साल ३१ दिसंबर को कानपुर में मैंने फूलों की शॉप सम्हाली थी. मेरी बहन का ऑपरेशन हुआ था, और सुनील नर्सिंग होम में व्यस्त थे. नए साल पर जितने भी ऑर्डर आ रहे थे, वे कैंसिल करते जा रहे थे. मैंने उन्हें ऑर्डर कैंसिल न करने को कहा और शॉप का काम दो दिनों के लिए खुद संभाल लिया. इतना मज़ा आया फूलों के बीच रहते, और काम करते हुए कि क्या बताऊँ. घने कोहरे के बीच फूलों की बिक्री करना एकदम नया अनुभव था. उस रात मैं एक बजे तक शॉप पर थी.
यात्रा वाले दिन यानि दो जनवरी को अनूप जी और शेफाली से मुलाक़ात हुई, जिसकी उम्मीद मैं तो छोड़ ही चुकी थी. हाँ,अनूप जी को विश्वास था, कि मुलाक़ात होगी. और मुलाक़ात हुई.
इस बार नया साल मनाने की प्लानिंग पिछले चार दिनों से हो रही थी . पहला नाम लिया गया "रामवन" का, जो सतना से दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, लेकिन मैंने कहा कि एक तो ये जगह कई बार की घूमी हुई है, उस पर आज हुडदंगाई लड़कों का जमावड़ा भी होगा.
दूसरा नाम आया "पांडव-फ़ॉल" का, जो सतना से तीस किलोमीटर की दूरी पर है. यहाँ उमेश जी ने याद दिलाया कि पिछले साल इसी तारीख पर लड़कों ने शराब पीकर कितना तमाशा किया था , भूल गईं :(
अंततः घर पर ही नया साल मनाने का कार्यक्रम तय पाया गया. तय किया गया कि कल उमेश जी छुट्टी लेंगे, और हम सब पूरे दिन एक साथ रहेंगे. अच्छा है न?
नया साल शुरू होने ही वाला है, तो शुभकामनाएं दे दीं जाएँ न?
नए वर्ष की अनंत-असीम शुभकामनाएं आप सबको.
[ इसी तरह ब्लॉग पर आना-जाना बनाएं रक्खें :) ]

रविवार, 21 नवंबर 2010

नन्हे मेले के मुन्ने दुकानदार..

बाल-दिवस निकले सात दिन हो गये, और मैं आज ज़िक्र ले के बैठी हूं. मैं भी न...मैं जब स्कूल में पढती थी, तब वहां हर साल बाल-दिवस पर " बाल-मेला" आयोजित किया जाता था. हम बच्चे दुकाने सजाते, सामान बेचते और पूरी कमाई शाला-विकास के खाते में जमा करवा देते :(इतने सालों बाद, मेरे इस छोटे से स्कूल में जब बच्चों के रंग भरने लगे, तो मैने यहां मेला लगाने की सोची.
बड़े बच्चों को अपनी योजना की जानकारी दी, बच्चे तो उछल पड़े. बाल दिवस रविवार को था, सो मेला हमने मंगलवार सोलह नवम्बर को लगाया. पन्द्रह तारीख को बच्चों ने दिन भर जुट के अपने स्टॉल लगाये-सजाये.

हमारे नन्हे ग्राहक तो सुबह आठ बजे से ही अपनी मम्मियों या पापाओं की अंगुली पकड़े हाज़िर हो गये :) जबकि मेले का उद्घाटन नौ बजे होना था. मेला सुबह नौ बजे से दोपहर एक बजे तक चला. खूब मज़े किये बच्चों ने, और हम बड़ों ने भी. हां, बच्चों की मेहनत की कमाई हमने शाला विकास के नाम पर जमा नहीं करवाई है:)

अब आप भी मेले का आनन्द लें,तस्वीरों के ज़रिए-
सभी बच्चों ने बढिया स्टॉल लगाये थे। तमाम तरह की चीज़ें उपलब्ध थीं. किसी ने पानी-पूरी कीदुकान लगाई तो किसी ने आलू-टिकिया सजा ली. कोई गुब्बारे बेच रहा था तो कोई बुढिया के बाल :) एक दुकान पर शानदार चाऊमीन बिक रही थी. बच्चे की मम्मी खुद साथ में जुटीं थीं, मदद के लिये. खूब बिक्री हुई उसकी
दो स्टॉल भेलपुरी के थे , यहां भी जम के खाया लोगों ने।चने के चाट वाले स्टॉल पर भी खूब बच्चे दिखे. पर सबसे ज़्यादा भीड़ बटोरने में कामयाबी मिली पानी-पूरी के विक्रेता को. लाइन लगा के लोगों ने स्वाद लिया यहां.

बच्चों के उत्साह से उत्साहित हो, हमारी आर्ट टीचर, जो खुद भी बहुत सुन्दर पर्स,बैग आदि बनाती हैं, ने भी अपना स्टॉल लगाया, और धड़ाधड़ बैग्स बेचे. दोपहर एक बजे तक चलने वाले इस नन्हे मेले में ग्राहकों की भीड़ मेला खत्म होने के बाद भी लगी रही।


बाद में दौर शुरु हुआ बच्चों की आय का विवरण लेने का. एक एक कर के मुन्ने दुकानदार आते, अपनी मेहनत की कमाई टेबल पर रखते, उसे गिना जाता, लाभ-हानि का ब्यौरा दिया जाता, और राशि सौंप दी जाती. सबसे सुन्दर स्टॉल को पुरस्कृत भी किया गया. बच्चों के माध्यम से उस दिन हमने भी खूब अपना बचपन जिया....

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

एक बेमानी सी पोस्ट....

कई दिनों से मन बनाए हूँ, कि दीवाली पर कुछ ज़रूर लिखूंगी. कम से कम एक संस्मरण का तो हक़ बनता है, छपने का , लेकिन........ धरी रह गई पूरी सोच, और लिखने की तैयारी . हमारे पेंटर बाबू ने ३१ अक्टूबर से काम शुरू किया, और तीन दिन में वे केवल बाहरी खिडकियों के पल्ले ही पेंट कर सके . कल यानि तीन नवम्बर से मेरी छुट्टियां शुरू हुईं, और मेरी रफ़्तार ने भी पेंटर बाबू से होड़ लेते हुए, दो दिन में एक कमरा साफ़ करने का रिकॉर्ड बनाया. साफ़ करने के लिए बहुत कुछ नहीं था, लेकिन तब भी मैंने पूरा समय लिया, और घर के अन्य सदस्यों को ये कहने पर मजबूर कर दिया, कि देखो बेचारी कितना काम कर रही है
. तब तक धूल से अटी, अन्दर-बाहर होती रही, जब तक अम्मा और उमेश जी ने ये नहीं कह दिया, कि जाओ अब नहा-धो लो, और आराम करो. थक गई होगी .
बाहर काम कर रहे पेंटरों के बीच बेवजह
घूमती रही, और उनके काम में नुक्स निकालती रही. चार बजे के आस-पास लगा कि अब तो कोई काम जैसा काम रहा ही नहीं, अब कैसे व्यस्त दिखाई दें? तभी बिजली के नन्हे-नन्हें बल्बों की झालरें लिए, इलैक्ट्रीशियन महोदय नमूदार हुए, और हमारी बांछें खिल गईं . व्यस्त होने का कारण मिल गया. हम यूं ही इलेक्ट्रिशियन पुष्पेन्द्र के साथ छत पर आ गए. एक घंटे तक उसे यहाँ-वहां की सलाह देते हुए, उसके काम में व्यवधान डालते रहे.

अम्मा की फोन पर तिवारी आंटी से बात हो रही थी, और वे कह रहीं थीं- " राजू ( उमेश जी) को तो टाइम ही नहीं मिलता, सारा काम तो हमारी वंदना ही करती है,वो चाहे घर का हो या बाहर का...... आज दिन भर से लगी है मजदूरों के साथ, हमारी तो बहू भी वही है और बेटा भी..... दिन भर की थकान कहाँ गायब हो गई, पता ही नहीं."
नीचे आये तो फिर याद आया कि आज तो कुछ लिखने का प्लान था..... लेकिन ये लिखना-लिखाना तो काम में शामिल नहीं है न, सो इरादा स्थगित कर दिया. लगा, शाम से नेट पर बैठ जाएंगे , तो पूरे दिन के किए हुए काम पर भी पानी फिर जाएगा .
फिर बाहर आ गये. गमलों पर जो पेंट हो रहा था, उसे देखते और बिन मांगी सलाह देते रहे. बगल की गली
में कुछ बच्चे फुटबॉल -फुटबॉल खेल रहे थे, उन्हें घुड़का, क्यों कि उनकी फुटबॉल बार बार हमारी बाउंड्री के अन्दर आ रही थी.
अब तक छह बज चुके थे, अन्दर से अम्मा कि आवाज़ आई- "वन्दना, चाय तो पी लो, फिर करना जो भी कर रही हो....." हम अन्दर की तरफ चले, भीतर से आवाज़ आ रही थी, अम्मा की फोन पर तिवारी आंटी से बात हो रही थी, और वे कह रहीं थीं-
" राजू ( उमेश जी) को तो टाइम ही नहीं मिलता, सारा काम तो हमारी वंदना ही करती है,
वो चाहे घर का हो या बाहर का...... आज दिन भर से लगी है मजदूरों के साथ, हमारी तो बहू भी वही है और बेटा भी..... "
दिन भर की थकान कहाँ गायब हो गई, पता ही नहीं.

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

इस्मत से "शेफ़ा" तक का सफ़र....

रोज़ की तरह उस दिन भी मैंने अपने पेज का काम निपटाया और फिर रविवारीय पृष्ठ की सामग्री देखने लगी. दो-तीन आलेख एडिटिंग के लिए निकाले ही थे, कि हमारे मुख्य सम्पादक, श्री श्याम सुन्दर शर्मा
जी आये, उनके साथ एक गौरांग, सुदर्शना, गंभीर सी दिखने वाली लड़की भी भीतर आई. शर्मा जी बोले-
" वंदना, ये इस्मत हैं,
, अच्छा लिखतीं हैं, इनके आलेख देख लो."
इस्मत की तरफ मैंने एक औपचारिक मुस्कान फेंकी, बदले में उसने भी हलकी सी मुस्कराहट बिखेरी. उस दिन ही हम लगभग आधे घंटे साथ रहे, और मुझे लगा, कि ये तो मेरी दोस्त है!

और फिर चल पड़ा सिलसिला हमारी मुलाकातों का, बातों का, सामयिक चिंतन का..
तब इस्मत गद्य-लेखिका थी, और सामयिक, सामजिक आलेख लिखती थी. 'देशबंधु' में उनके प्रकाशन का अधिकार मेरे पास था. बस, जम गई जोड़ी.

जल्दी ही हमारी दोस्ती पारिवारिक दोस्ती में बदल गई. ज़हूर भाई, उमेश जी, इस्मत, मैं, हम सब जब इकट्ठे होते तो देर रात तक गर्मागर्म राजनैतिक बहसें छिड़ी रहतीं. हमारी इस बहस में स्थान के अनुसार कभी अम्मा, तो कभी आपी और अम्मी साथ होतीं.

१९९० में होने वाली ये मुलाक़ात, १९९५ तक दाँत काटी दोस्ती में तब्दील हो चुकी थी. १९९५ में, मेरी बिटिया विधु के जन्म के पूर्व, तबियत खराब हो जाने के कारण मुझे एडमिट कर लिया गया, और तब इस्मत, जो कि शहर से दूर , केबिल फैक्ट्री की कॉलोनी में रहती थी, दोनों वक्त समय से खाना लेकर नर्सिंग होम में हाज़िर हो जाती थी. वो भी बड़े जतन से बनाया गया खाना. मना करने पर मानती नहीं थी, उल्टा ज़ोरदार डांट लगा देती थी. विधु के जन्म के बाद स्थितियां कुछ ऐसी बनी, कि मुझे ४८ बॉटल ब्लड चढ़ाया गया, जिसमें से आधे से ज्यादा का इंतजाम ज़हूर भाई ने किया था! अब इस बारे में और नहीं लिखूंगी, वर्ना हो सकता है कि इस्मत इस पूरे हिस्से को पोस्ट में से हटा देने की जिद पर ही अड़ जाए. मैं चाहती हूँ कि उससे कहूं, कि उसने मेरी जान बचाई है, लेकिन वो कहने ही नहीं देती. खैर छोड़ देती हूँ.

2000-2001 में ज़हूर भाई का स्थानान्तरण गोवा हो गया, खबर सुनने के बाद मुझे कैसा लगा बता नहीं पाउंगी. और इस्मत सतना से गोवा पहुँच गईं. भौगोलिक दूरी बढ़ गई.
तीन साल पहले इस्मत ने मुझे अपनी ग़ज़ल सुनाई( फोन पर) मैं चकित, जो लड़की अभी तक कविता लिखती ही नहीं थी, ग़ज़ल कहने लगी? वो भी इतनी सुन्दर, और संतुलित? साल भर हमारा ग़ज़ल सुनाने और सुनने का सिलसिला चला. फिर मैंने अपना ब्लॉग बनाया, और तभी से इस्मत को उकसाती रही ब्लॉग बनाने के लिए. जब भी उसकी ग़ज़ल सुनती, सोचती, काश ये रचनाएँ अन्य सुधिजन भी पढ़ पाते! जब भी मैं इस्मत से ब्लॉग बनाने के लिए कहती, उसके पास सौ बहाने होते. डेस्कटॉप खराब है, लैपटॉप श्रीमान जी ले जाते हैं. मुझे कम्प्यूटर और नेट
के बारे में बहुत कुछ नहीं आता, वगैरह-वगैरह
खैर लगातार पीछे पड़े रहने का नतीजा ये हुआ, कि झल्ला के उसने अपना ब्लॉग बना डाला :)
और दुनिया, जहान, वतन, समाज के तमाम हालात को लेकर इस्मत की खूबसूरत गौर-ओ-फ़िक्र का पैकर
"शेफ़ा" उपनाम के साथ हम सबके रूबरू आने लगा.

आज नौ अक्टूबर को उनके ब्लॉग ने सफलतापूर्वक एक वर्ष पूरा किया है, मेरी अनंत शुभकामनाएं अपनी इस इकलौती दोस्त के लिए, हमारी दोस्ती, और उसके ब्लॉग का सफ़र इसी तरह नित नई ऊंचाइयों को छुए.
तख़य्युलात की परवाज़ कौन रोक सका
परिंद जब ये उड़ा फिर कहीं रुका ही नहीं


रविवार, 26 सितंबर 2010

नंदन जी के नहीं होने का अर्थ.....


कन्हैयालाल नन्दन नहीं रहे" नुक्कड पर ये खबर पढते ही लगा जैसे एकदम से रीत गई.... बचपन से लेकर आज तक पढे हुए नन्दन जी, सुने गये नन्दन जी याद आने लगे. याद आने लगी पराग में छपने वाली उनकी चिट्ठी, जिसका समापन- "तुम्हारा चाचा- नन्दन " से होता था. तब मेरी बाल-बुद्धि में केवल इतना ही आता था, कि ये मेरे चाचा हैं, तभी तो लिखते हैं- तुम्हारा चाचा, और ये भी कि ज़रूर इनका सम्बन्ध ’नन्दन(पत्रिका) से होगा, तभी तो सबको बताने के लिये अपने नाम के साथ नन्दन लिखते हैं..... बड़ी हुई, नन्दन जी को पढना जारी रहा, और नन्दन जी तथा सर्वेश्व्रर दयाल सक्सेना मेरे प्रिय कवि हो गये. ब्लॉग-जगत से जुड़ी, पता चला कि नन्दन जी अनूप शुक्ल जी के मामा जी हैं, तो वे मुझे मेरे ही परिवार के लगने लगे, ठीक मेरे मामा जी की तरह....

अजब संयोग है, अभी चार दिन पहले ही नन्दन जी की एक रिकॉर्डंग सुन रही थी, उनकी असरदार, दानेदार आवाज़ अभी भी कानों में गूंज रही है... उसी रिकॉर्डिंग की कुछ कविताएं श्रद्धान्जलि-स्वरूप-

ooo
नदी कि कहानी कभी फिर सुनाना,

मैं प्यासा हूँ दो घूँट पानी पिलाना,

मुझे वो मिलेगा, ये मुझको यकीं है,


बड़ा जानलेवा है ये दरमियाना

मुहब्बत का अंजाम हरदम यही था,

भंवर देखना कूदना, डूब जाना,

अभी मुझसे, फिर आपसे फिर किसी से

मियां ये मुहब्बत है या कारखाना ?


o


अंगारे को तुमने छुआ

और हाथ में फफोला नहीं हुआ

इतनी सी बात पर,

अंगारे पर तोहमत मत लगाओ

ज़रा तह तक जाओ,

आग भी कभी कभी

आपत धर्म निभाती है,

और जलने वाले की

क्षमता देख कर जलाती है.


o


लुटने में कुछ नहीं आज लूट ले,

लेकिन उसूल कुछ तो होंगे लूटमार के....


सब पी गए पूजा नमाज़ बोल प्यार के,

और नखरे तो ज़रा देखिये, परवरदिगार के.

o

एक नाम अधरों पर आया,

अंग-अंग चंदन वन हो गया.


बोल है कि वेद की ऋचायें,

सांसों में सूरज उग आयें


आखों में ऋतुपति के छंद तैरने लगे,
मन सारा नील गगन हो गया.

गंध गुंथी बाहों का घेरा,
जैसे मधुमास का सवेरा

फूलों की भाषा में देह बोलने लगी,
पूजा का एक जतन हो गया.

पानी पर खीचकर लकीरें,
काट नहीं सकते जंजीरें

आसपास अजनबी अधेरों के डेरे हैं,
अग्निबिंदु और सघन हो गया.


एक नाम अधरों पर आया,
अंग-अंग चंदन वन हो गया.


गुरुवार, 16 सितंबर 2010

राज कर रही है तीन बेटों की मां...

कुछ दिन हुए, अपने मेहमानों को छोड़ने स्टेशन गई थी। तभी वहाँ मैंने देखा कि एक जर्जर बुढ़िया किसी प्रकार अपने पैर घसीटती संकोच सहित भीख मांग रही है। हालाँकि इसमें नया कुछ भी नहीं है। सैकड़ों बुजुर्ग महिलायें इस प्रकार भीख मांग रहीं हैं। लेकिन मेरे लिए नई बात ये थी कि ये वही बूढी अम्मा थी जिसने कई सालों तक हमें हमारे ऑफिस में चाय पिलाई थी।
पहले तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ, कि ये अम्मां है, लेकिन जैसे ही मैने उसे आवाज़ दी, अम्मां मुझसे लिपट के रोने लगी. इस वाकये से पहले मुझे ये नहीं मालूम था कि उसके बेटों ने उसे भिखारी बना दिया है.
जाति से कुलीन ब्राह्मणी इस अम्मा के तीन बेटे हैं। तीनों अच्छा-भला कमा रहे हैं। थोडी बहुत ज़मीन भी है। बूढी अम्मा के पति की मृत्यु बहुत पहले हो गई थी , सो अम्मा ने ही चाय की दुकान के ज़रिये अपने पाँच बच्चों का भरण-पोषण किया। उन्हें पढाया-लिखाया भी। बड़ा लड़का सरकारी नौकरी में है, बीच वाला किसी फैक्ट्री में है और तीसरा प्रैस में काम करता है। अम्मा तीसरे के पास ही रहती थी, क्योंकि दो बड़े पहले ही उसे निष्कासित कर चुके थे। लेकिन अब इस तीसरे ने भी उसे घर से निकाल दिया था। जबकि अम्मा घर का पूरा काम करती थी । उम्र अधिक हो जाने के कारण दुकान ज़रूर नहीं चला पाती थी। घर का काम भी अब उतनी फुर्ती से नहीं कर पाती थी। लिहाज़ा उसे घर में रखने योग्य नहीं समझा गया.
पिछले एक हफ़्ते से अम्मां मेरे पास रह रही है, और इस बीच उसके एक भी सपूत ने ,उसकी खोज खबर लेने की कोशिश नहीं की. इस बार घर से बाहर करने के पीछे बहू की वो साड़ी थी, जिसे अम्मां ने थोड़ी देर के लिये पहन लिया था.
न मेरी समझ में ऐसी बहुएं आती हैं और न ही बेटे. ये बहुएं क्या अपनी मां के साथ ऐसा ही व्यवहार करती होंगीं? और बेटे???? कैसे ८५ साल की बूढी, जर्जर मां को घसीट के घर से बाहर किया होगा? कैसे अपनी मां को भीख मांगते देख पाते होंगे? देखते तो ज़रूर होंगे, क्योंकि उसी शहर में रहते हैं.
अम्मा मुझे अपनी बेटी की तरह प्यार करती हैं। वे जब भी मुसीबत में होती हैं, तो मेरे पास आ जाती हैं. कुछ दिन रहती हैं, फिर लड़कों का मोह उन्हें सताने लगता है. जो लड़के उन्हें हर घड़ी दुत्कारते रहते हैं, उन्हीं के बच्चों को याद करके रोने लगती है. परिवार का, ऐसे परिवार का जिसमें उनके लिये कोई जगह ही नहीं है, मोह उन्हें आज भी छोड़ता नहीं।
तीन बेटों की माँ यदि भीख माँगने पर मजबूर हो तो बेहतर है, कि ऐसे बेटे पैदा ही न हों।
सोचने पर मजबूर हूँ, कि तमाम बेटों के कारनामे पढ़ने-देखने- भोगने के बाद भी लोग बेटों की पैदाइश ही क्यों चाहते है?

सोमवार, 23 अगस्त 2010

रक्षा सूत्र... कैसे-कैसे....

कई दिनों से सोच रही हूँ, कुछ लिखूं, आज लिखने बैठी तो रक्षा बंधन के लिए!
क्या लिखूं उस त्यौहार पर, जिसे मैंने कभी महसूस ही नहीं किया? बहन का भाई के प्रति या भाई का बहन के प्रति कैसा स्नेह होता होगा, पता ही नहीं..... क्योंकि मेरा कोई भाई ही नहीं है. वैसे तो मेरे खानदान में लड़कों की भरमार है, सो भाइयों की कमी नहीं है, लेकिन न हम बहनों का कोई सगा भाई है, न हमने कभी उसकी कमी महसूस की.
जब छोटी थी, तब ज़रूर सोचती थी कि हमारा कोई भाई क्यों नहीं है? लेकिन ये सोचना भी क्षणांश के लिए होता था. कारण, हमें कभी ये महसूस ही नहीं होने दिया गया कि हमारा भाई नहीं है, या वो होता तो बेहतर होता. हम छह बहनों को जिस लाड-प्यार और एहतियात से पाला गया, वो लिखने का मसला नहीं है.
याद आता है बचपन का रक्षा बंधन, जब हम बहनों के लिए नए कपडे आते, नौगाँव में रक्षा बंधन के पहले मेला लगता, ( बुंदेलखंड में आज भी मेले कि प्रथा है) मैं दीदी के साथ जाती और तमाम खिलौने खरीदती, खूब सारी राखियाँ खरीदीं जातीं. उस दिन मम्मी खूब अच्छा-अच्छा खाना बनाती.... पूरी, कचौड़ी, खीर, दही बड़े और


एक बार मैंने मम्मी से पूछा था- "कि गुड्डो तो अपने भाई को राखी बांधती है, फिर हम पापा जी को क्यों बांधते हैं?" मेरी मम्मी ने बड़े प्यार से समझाया था- "रक्षा बंधन रक्षा सूत्र बाँधने का त्यौहार है, जो रक्षा करे, उसे ही ये रक्षा-सूत्र, यानि राखी बांधनी चाहिए, ज़रूरी नहीं कि वो तुम्हारा भाई ही हो."
मिठाइयाँ बाज़ार से आतीं..... हम नहा-धो के तैयार होते, और अपने पापा को बड़े शौक से राखी बांधते, बदले में हम सबको रुपये मिलते. फिर हम बहने एक दूसरे को राखी बाँध देते, और पूरा कार्यक्रम मेरी मम्मी बड़े स्नेह से करवातीं. एक बार मैंने मम्मी से पूछा था- "कि गुड्डो तो अपने भाई को राखी बांधती है, फिर हम पापा जी को क्यों बांधते हैं?" मेरी मम्मी ने बड़े प्यार से समझाया था- "रक्षा बंधन रक्षा सूत्र बाँधने का त्यौहार है, जो रक्षा करे, उसे ही ये रक्षा-सूत्र, यानि राखी बांधनी चाहिए, ज़रूरी नहीं कि वो तुम्हारा भाई ही हो."
मेरी समझ में बात आ गई थी. फिर कभी नहीं पूछा. बाद में बड़े होने पर तो मम्मी की बात और भी ज्यादा सही लगने लगी. मेरी ननदों की, डाक द्वारा आईं हुई राखियाँ मैं उमेश जी को बांधती हूँ :) आखिर अब रक्षा का भार तो उन्ही पर है न? कभी किसी संकट में पड़ी, तो कौन सा भाई आकर मदद करेगा? सबसे पहले रक्षा करने वाले, मदद करने वाले उमेश जी ही होंगे न? तब रक्षा सूत्र उन्हें ही क्यों न बाँधा जाए?
वैसे ये केवल मेरा विचार है, और मैं इस पर अमल करती हूँ, बल्कि तोहफे भी लेती हूँ, लड़ - झगड़ के, फिर वो चाहे कैडबरीज़ का सेलिब्रेशन पैक ही क्यों न हो.
भाई-बहन के स्नेह का ये त्यौहार अपनी गरिमा बनाए रखे, आप सब को बहुत बहुत शुभकामनाएं.

शनिवार, 14 अगस्त 2010

भारत वर्ष हमारा है......


भारतवर्ष हमारा है, सबका राजदुलारा है,
कोटि-कोटि संतानों की, आखों का उज्ज्वल तारा है !

इसकी माटी मेरा तन, इसका आँगन मेरा मन,
इस धरती का कंकर-पत्थर, है मेरे जीवन का धन !
इसकी शान हमारी शान, इसकी आन हमारी आन,
कोई उठावे आँख देश पर, हम को नहीं गवारा है !
भारतवर्ष...
उत्तर का अधिवासी चीन, मन का काला तन का पीन,
बढ़ा आ रहा है छल-बल से, सीने पर ताने संगीन,
अपने शीश कटा देंगे, दुश्मन को दूर हटा देंगे,
निकल-निकल ओ क्रूर लुटेरे ! यह लद्दाख हमारा है !
भारतवर्ष...
तन दो, मन दो औ' धन दो, अपना सम्पूर्ण समर्पण दो,
एक हाथ से रक्त-दान दो, दूजे से आज़ादी लो,
रुकना नहीं हमारा काम, झुकना नहीं हमारा काम,
'है आराम हराम' यही नेहरु-सुभाष का नारा है !
भारतवर्ष...
वीर शिवा की हम संतान, राणा के रण की हैं आन,
हम झांसी की रानी माँ के, उर-पालित स्वप्निल अरमान,
हमें शपथ माँ-आँचल की, गंगा-यमुना के जल की,
कोई न दुश्मन टिक पायेगा, दृढ संकल्प हमारा है !
भारतवर्ष....
मेरा धर्म--हमारा देश, मेरा कर्म--हमारा देश,
जीवन और जगत-संयोजक, मेरा मर्म--हमारा देश,
मत्त समीरण मेरी सांस, कण-कण में मेरा विश्वास,
मैं प्यारा हूँ भारत माँ को, भारत मुझको प्यारा है !

भारतवर्ष हमारा है, सबका राजदुलारा है.....

( यह गीत मेरे पिताजी श्री रामरतन अवस्थी जी ने मेरे जन्म से भी पहले कभी लिखा था, ऐसा इसलिये कह रही हूं, क्योंकि मैं जब कुछ बड़ी हुई, तभी से इसे गुनगुना रही हूं, मेरी बड़ी दीदी तो इसे बहुत सुन्दर धुन में गाती भी हैं.)
स्वाधीनता दिवस पर अनन्त शुभकामनाएं.