गुरुवार, 20 अगस्त 2009

मन न भये दस-बीस.....

बहुत दिन हुए , कुछ लिखा नहीं। असल में किसी चैनल विशेष पर प्रसारित होने वाले "सच का सामना" पर लिखना चाहती थी। लेकिन मैं लिखने का मन बनाऊं तब तक कई ब्लॉग्स पर इस कार्यक्रम के बारे में लिखा जा चुका था। फिर आज के परिवेश से जुड़े किसी अन्य मुद्दे पर लिखना चाहा तो ल्लिखने की इच्छा ही नहीं हुई। सच कहूं, तो आज के हालत पर कुछ लिखने मनही नहीं होता। मेरा मन तो है की बस पीछे पीछे और पीछे ही चला जाता है.......आँख बंद करती हूँ तो मन दौड कर पुराने समय में पहुँच जाता है...........याद आने लगते हैं फिल्मों के वो रोड शो....
मैं बहुत छोटी थी तब। लेकिन वे फिल्में जो उस वक्त रोड पर देखीं आज भी याद हैं। तब सूचना और प्रसारण विभाग और परिवार कल्याण विभाग की ओर से फिल्मों का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाता था।
श्री भानु प्रताप गौर, जिन्हें हम दादा कहते थे उस वक्त जिला न्यायाधीश थे। उनके और हमारे परिवार के बीच घरेलू सम्बन्ध हैं। दादा के दामाद सूचना विभाग में निदेशक जैसे पद पर थे। वे जब भी आते तो विभागीय बस से आते, जिसमें फ़िल्म का प्रोजेक्टर आदि भी होता। उनके आने का मतलब ही था फ़िल्म का प्रदर्शन। ये बस हमें शहर में दिखती और हम बल्लियों उछलने लगते। शाम को दादा का सन्देश आ जाता कि आज फ़िल्म दिखाई जायेगी, सपरिवार आ जायें। सपरिवार ही पहुंचते हम। मेरी मां को छोड्कर। डा. गौर ( दादा के बेटे) अंकल के घर के बाहर आगे ज़मीन में बैठने वालों की व्यवस्था होती और पीछे कुर्सियों पर बैठने वालों। की। अब चूंकि हम आमन्त्रित गण होते थे सो कुर्सियों पर तो बैठना ही था। ऐसे महत्वपूर्ण समय में मेरी निगाह केवल अपने उन साथियों पर होती जो उस वक्त नीचे ज़मीन में बैठे होते थे। वे भी बडी हसरत से मेरी ओर देखते कि शायद अपनी दोस्ती का लिहाज़ कर मैं उन्हें भी अपनी कुर्सी पर बिठा लूं शायद। लेकिन मैं तो उस वक्त उन पर एक घमन्ड भरी नज़र डालती थी, कि देखा! मैं कुर्सी पर बैठी हूं!

रोड शो के उस दौर में ही हमने उपकार , अछूत कन्या , चौथा पलना, धर्मयुद्ध, हकीकत, और बाद में प्रेम रोग जैसी फिल्में देखीं। बहुत छोटी थी लेकिन अछूत कन्या की नायिका देविकारानी से बेहद प्रभावित...(वैसे मैं सभी नायिकाओं से प्रभावित रहती थी) घर में आकर देविकारानी की तरह ’खेत की मूली...बाग कौ आम’ गाना...... दीदी के दुपट्टे को लपेट कर साडी बनाना.....और खुद को देविका रानी समझना। वैसे मैं जब भी कोई फ़िल्म देख कर आती(तब) तो खुद को उसी हीरोइन जैसा समझने लगती। मुझे लगता कि मैं बिल्कुल वैसी ही दिख रही हूं। मेरी चाल-ढाल भी वैसी ही हो जाती। मैं नवीं कक्षा में पढती थी तब तक ऐसी खुशफ़हमियां पाले रहती थी। मूर्ख तो मैं इतनी थी कि ग्यारवीं में पढती थी और तबतक सोचती थी कि ट्रक वाले कितने मूर्ख होते हैं, ट्रक के पीछे लिखते हैं’ horn-please'।
आज अपनी बेटी को ही देखती हूं तो सोचती हूं कि इसकी उम्र में मैं कितनी मासूम थी। केवल पढाई और बेवकूफ़ियां। पढाए तो आजके बच्चे कुछ ज़्यादा ही करते हैं लेकिन मासूमियत?
तमाम चैनल हैं न परिपक्व करने के लिये.