गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

एक साल बीत गया.....

एक साल
आज पिछली पोस्टों को देखते हुए अचानक ही पहली पोस्ट पर गई तो चौंक पड़ी. २ दिसंबर २००८. यानी मुझे ब्लॉग जगत से जुड़े एक साल से भी ज्यादा हो गया!!!!

लगता ही नहीं कि एक साल हो गया. नई पोस्ट लिखने, पोस्ट करने और फिर प्रतिक्रियाएं जानने कि चाह में कब दिन महीनों, और महीने साल में तब्दील हो गए, पता ही नहीं चला. इस दौरान आप सबका जो स्नेह मिला, उसे बताने की ज़रुरत ही नहीं है. केवल और केवल आप सबके स्नेह के कारण ही मुझे कुछ नया लिखने कि प्रेरणा मिलती रही.

जानते हैं, मुझे ब्लॉग लिखने को किसने प्रेरित किया?

तब नेट मेरे लिए केवल जानकारियां एकत्रित करने का साधन मात्र हुआ करता था. एक दिन मैं नेट पर राजकमल प्रकाशन की पुस्तक सूची सर्च कर रही थी. तभी मेरी निगाह राजकमल के एक अन्य कॉलम "पुस्तक मित्र बनेंगे?" पर पड़ी. मैं तो हमेशा से ही पुस्तकों की मित्र रही हूँ. सोचा देखूं, कौन पुस्तक मित्र बना रहा है? इस पेज पर गई तो देखा की कोई फुरसतिया जी हैं, जिन्होंने राजकमल की पुस्तक-मित्र योजना की विस्तृत जानकारी दी है. तब ब्लॉगिंग मेरे लिए केवल सितारों के द्वारा किया जाने वाला कार्य होता था. मैं नहीं जानती थी की ये जानकारी मैं जहाँ पढ़ रही हूँ, उसे ब्लॉग कहते हैं.

खैर, मैंने भी वहां एक जिज्ञासा पोस्ट कर दी. लगे हाथों फुरसतिया जी का जवाब भी आ गया. बाद में अनूप जी ने मुझसे ब्लॉग बनाने को कहा. मैं अचकचाई. कैसे? क्या? कब? लेकिन अनूप जी ने राह सुझाई और मेरा ब्लॉग बन गया. बाद में मैंने ब्लॉग सजाने के बारे में कुछ जानकारियां चाहीं तो अनूप जी ने टका सा जवाब दे दिया- "हम खुद नहीं जानते." लेकिन तब से अब तक मेरी हर समस्या को अनूप जी सुलझाते रहे हैं, लिहाजा मेरे लिए गुरु तुल्य हैं

इसके बाद सिलसिला चल पड़ा.

कल जबकि मैं कानपूर जा रही हूँ, तो मेरे मन मैं अपनी बहन प्रियदर्शिनी, उसके पति सुनील, बच्चे अनमोल और यश से मिलने की उत्कंठा से कहीं ज्यादा ख़ुशी इस बात की हो रही थी की मैं फुरसतिया जी से, सुमन जी से मिल सकूंगी. लेकिन हाय री किस्मत!!! इधर २५ दिसंबर की शाम पांच बजे हम ट्रेन में बैठेंगे, और उधर फुरसतिया जी कानपुर से सपरिवार छुट्टियाँ बिताने यात्रा पर निकल पड़ेंगे!! यानी मुलाकात की कोई गुंजाइश नहीं. खैर, महफूज भाई ने लखनऊ आने का और मिलने का न्यौता दिया है अपनी इस दीदी को, सो हम कोशिश करेंगे की लखनऊ जा सकें और महफूज से मिल सकें.
जब ब्लॉग बना, तो मैंने मात्र एक सन्देश पोस्ट किया, जिस पर जिन मित्रों की टिप्पणियां आईं, उन्हें मैं कभी नहीं भूलूंगी -आप भी देखें-

प्रिय दोस्तो; इस ब्लोग के ज़रिये हो सकता है मेरे बहुत से पुराने साथी मिल जायें........हो सकता है बहुत से नये साथी बन जायें....वरना मुझ जैसे अदना से इन्सान को ब्लौग की क्या ज़रूरत थी......ज़रूरत महसूस हुई, केवल इसलिये कि मेरे लिखने-लिखाने वाले साथी जो अब पता नहीं कहां हैं, शायद टकरा जायें...... कुछ को तो मैं नियमित प्रकाशित होते देख रही हूं; लेकिन जो नहीं छप रहे, उन्होंने भी लिखना तो बन्द नहीं ही किया होगा....ऐसा विश्वास है मेरा......बस उन्हीं की तलाश में हूँ..........

"दोस्तों के नाम........."

8 टिप्पणियाँ - ब्लॉगर अनूप शुक्ल ने कहा…

वाह, बधाई! लिखना शुरू करने की बधाई!

९ दिसम्बर २००८ ६:५३ PM

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ब्लॉगर Bahadur Patel ने कहा…

bahut badhiya hai.likhate raho.

१७ फरवरी २००९ १२:१५ AM

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ब्लॉगर nai dunia ने कहा…

आप की सोच वाकई काबिले तारीफ है....

५ मार्च २००९ १:०५ AM

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ब्लॉगर manojkumarsingh ने कहा…

दोस्‍तो की तरफ से बधाई

१६ मार्च २००९ १२:१५ AM

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बेनामी उन्मुक्त ने कहा

स्वागत है चिट्ठजगत में, बहुत मित्र मिलेंगे।

३ अप्रैल २००९ ७:३६ PM

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ब्लॉगर गौरव मिश्रा ने कहा…

Aur aaj se hm bhi aapke follower ho gaye, aise hi apni achchi achchi rachnaayein laati rahiye...

११ अप्रैल २००९ १२:३१ PM

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ब्लॉगर Mai Aur Mera Saya ने कहा…

namashkar
mai yaha naya hu . likhta bhi naya hu .shayd apke bare me kisi dost se suna hu .. alok prakash putul ya richa se suna hu lagta hai..jo bhi ho app meri rachnao par kabhi tiapanni karengi ye socha na tha .. achha laga bahut achha laga.. apka bolg dekhkar kuch aur naya karne ko man hua .. karunga . mai photogrepher hu .. kaya yaha photo bhi lagaye ja sakte hai ...

२४ अप्रैल २००९ ६:४८ PM

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सोमवार, 14 दिसंबर 2009

याद न जाये, बीते दिनों की...

भाग- दौड़
कैसी भाग-दौड़ की ज़िन्दगी हो गई है.....|घड़ी के साथ उठना, घड़ी के साथ सोना, घड़ी के साथ आना- घड़ी के साथ जाना........|

इंसान न हुआ, घड़ी हो गया। घूमता रहता है, काँटों की तरह। हर वक्त " समय ही नहीं मिलता...", "फुरसत ही नहीं है...." जैसे जुमले मुंह पर सवार रहते हैं। और ये सच भी है। आज बड़े हों या बच्चे, सब इस कदर व्यस्त हो गए हैं की किसी को किसी की बात सुनने तक का टाइम नहीं।

मेरे घर में चार सदस्य हैं, और हम चारों अतिव्यस्त। बिटिया सुबह से लेकर रात तक पढ़ाई, स्कूल, ट्यूशन होमवर्क, मैं व्यस्त, पतिदेव अपनी फैक्ट्री में इतने व्यस्त की सुबह निकलते हैं और रात में आते हैं। मैं अपने काम पर सुबह सात बजे से जुटती हूँ, तो रात नौ बजे फुरसत होती हूँ। केवल अम्मा जी ( सास जी) फुरसत में होतीं हैं, तो उन्हें टीवी व्यस्त रखता है।

कमोबेश यही हाल हर परिवार का है। हमारी तरह सब अपने परिजनों का चेहरा रात में ही देख पाते हैं। अच्छा हुआ जो प्रकृति ने रात का विधान किया!!

आज के बच्चों को जब देखती हूँ, तो मुझे मेरा बचपन बहुत शिद्दत से याद आने लगता है।

कितना निश्चिन्त ..... कितना मासूम.... न पढ़ाई का ऐसा कमरतोड़ बोझ, न ट्यूशन की चिंता। स्कूल से आये तो बैग एक तरफ़ उछाला और जूते दूसरी तरफ....."मम्मे.....खाना......" का आदेश प्रसारित करती आवाज़ घर में गुंजाती।

इधर खाना अभी शुरू ही होता , कि उधर परदे के दोनों ओर से साथियों के चेहरे झांकने लगते। इशारे होने लगते कि जल्दी-जल्दी खाओ। मैं भी हबड़-तबड़ खाती। दौड़ के आधे-अधूरे हाथ धोती, और "मम्मे.....खेलने जा रहे हैं...." का एलान करती भाग जाती। पीछे से मम्मी आवाज़ देती रह जातीं।

हमारे खेल भी निराले थ॥ आज की तरह इलेक्ट्रोनिक का ज़माना तो था नहीं सो जो भी खिलौने थे अधिकतर खुद के तैयार किये उत्पाद होते थे। घर के आँगन में गुड्डे-गुड़ियों के बाकायदा घर बने हुए थे, जिन पर मेरी बड़ी दीदियों और उनकी सहेलियों का कब्ज़ा था, लेकिन दीदी की छुट्टी शाम को होती थी, सो तब तक उनकी गुड़ियों से हम खेलते। लेकिन गुड़ियों से हम बहुत देर तक नहीं खेलते थे , कारण मेरी मित्र -मंडली में लड़के भी थे, जो गुड़ियों से खेलना पसंद नहीं करते थे। किसी प्रकार मन मार के घर के गुड्डे से काम कराते रहते थे।
भाग-दौड़
दूसरा और हमारा बहुत प्रिय खेल था- "घर-घर"। तब हर घर में निबाड़ से बुने पलंग ज़रूर होते थे, जिन्हें गर्मियों में आँगन में बिछाया जाता था, इन्हीं पलंगों को खड़ा करके इनके घर बनाए जाते। मम्मी की साड़ियाँ पहनी जातीं। बाकायदा मम्मी, पापा, बच्चे, चाचा-चाची, पडोसी, बाई, सब्जी वाला, और टीचर जैसे रोल बांटे जाते। दीदियों की मौजूदगी में जब भी ये खेल खेला जाता तो मेरी बड़ी दीदी हमेशा टीचर बनतीं और हम सब को खूब मारतीं। मैं हमेशा सब्जी वाली बनती, और ढक्कनों से बनाई गई तराजू में कंकड़, पत्थर और पत्तों की सब्जी बेचती।

इसके अलावा हम बच्चे दोपहर में अपने घर की बाउंड्री में कंचे खेलते, गुल्ली-डंडा खेलते, और शाम होते ही "नमक-पाला" जैसा भारी दौड़ भाग वाला खेल खेलते। अँधेरा होते ही "आइस-पाइस" (आई-स्पाई) खेल जमता जो मम्मी की आवाज़ पर ही ख़त्म होता।

घर आते बैग उठाते, होमवर्क करते, कुछ थोडा बहुत याद भी करते और बस हो गई पढ़ाई।

रविवार को मम्मी-पापा दोनों घर पर होते , लिहाज़ा हमें कंचे या गुल्ली-डंडा खेलने का मौका नहीं मिलता, इस दिन हम सभ्य बच्चों की तरह कायदे में रहते और केवल लूडो, सांप-सीढ़ी या कैरम जैसे खेल खेलते। कैरम तो हमारे पापा भी साथ में खेलते थे और क्या खूब खेलते थे। आज भी वे बहुत बढ़िया खेलते हैं।
भाग-दौड़
शैतानियाँ भी हमारी काम न थीं. ये अलग बात है की घर में हम हमेशा सबसे शांत और कोमल बच्ची के रूप में गिने गए, लेकिन गुपचुप शैतानियाँ हमने भी खूब कीं। वैसे हम बहनों में मेरी बड़ी दीदी सबसे ज्यादा शैतान थीं। अपने ग्रुप की लीडर। जो बच्चा उनकी बात न माने उसकी खैर नहीं। दूसरे मोहल्ले की लड़कियों को ललकारती की दम है तो शाम को मंदिर में मिलना। और फिर अपनी फौज के साथ उस टोली की जो दुर्गत करतीं , उसके हम चश्मदीद गवाह है। चूंकि हम छोटे थे, सो हमें मंदिर के अन्दर बंद कर दिया जाता और खुद मंदिर के चबूतरे पर घमासान में जुट जातीं।

ऊंचे-ऊंचे इमली के पेड़ों पर सरपट चढ़ जातीं , साइकिल पर करतब दिखातीं। सर्कस देख के आने के बाद घर में बाकायदा सर्कस होता। अस्थाई झूला बाँधा जाता और उस पर उल्टा लटकाया जाता।

मेरी दीदी कहीं भी जातीं, साथ में मुझे ले जाना अनिवार्य था। मैं मन मारके जाती। दीदी भी कहाँ ले जाना चाहती थीं, लेकिन क्या करें? उस समय माँ के आदेश को टाला नहीं जाता था।

बड़ी दीदी के बाल बेहद लम्बे और खूबसूरत थे। कहीं जातीं तो मम्मी उनकी छोटी बना देतीं। लेकिन दीदी घर से ज़रा आगे पहुँचते ही अपनी चोटी खोल देतीं। मेरी उपस्थिति का भान होते ही मुझे मम्मी से न बताने के एवज में दस पैसे की रिश्वत दी जाती।

ऐसी ही रिश्वत तब भी दी जाती जब दोनों दीदियाँ अपनी सहेलियों के साथ फिल्म देखने का प्रोग्राम बनातीं । मुझे पुछल्ले की तरह फिर लटकाया जाता, फिर रिश्वत दी जाती, लेकिन इस बार फिल्म न जाने के लिए रिश्वत दी जाती। मेरा मन वैसे भी फिल्म देखने में तब लगता नहीं था। शायद ज्यादा छोटी थी। कुछ समझ में तो आता नहीं था, सो टॉकीज़ के प्रोजेक्टर रूम के बाहर की बालकनी में फिल्म के कटे हुए टुकड़े बीनती रहती। ऐसे में रिश्वत लेकर फिल्म जाने से मुकर जाना फायदे का सौदा होता था।
भाग-दौड़
एक रिश्वत और कभी नहीं भूलती............दीदी और उनकी सहेलियां "सूरज" फिल्म देख के लौटी। मेरी दीदी और उनकी मंडली के बीच बहुत लोकप्रिय खेल था, "गुलाम-चोर-डंडा। ये खेल उसी ऐतिहासिक मंदिर के मैदान में उगे विशालकाय बरगद के पेड़ के इर्द-गिर्द होता, जहाँ घमासान हुआ करते थे। वहीँ दीदी की मित्र उषा जोशी रहतीं थीं। वे भी अपने भाइयों समेत इस खेल में शामिल होतीं थीं। उस वक्त की सबसे अच्छी बात यही थी की लड़के-लड़कियों के बीच विभाजन रेखा नहीं थी। सब मिलजुल के खेलते थे। बराबरी से लड़ते थे। तो उषा दीदी के बड़े भैया भी गुलाम चोर डंडा खेलते थे। जिस रोज़ ये सब सूरज फिल्म देख के आये, उसके अगले दिन जब खेल जमा, तो हमने देखा की प्रकाश भैया मेरी खूबसूरत दीदी को देख के गा रहे हैं-" चेहरे पे गिरी जुल्फें, कह दो तो हटा दूँ मैं, गुस्ताखी माफ़.........." हालाँकि मैं कुछ नहीं समझी, लेकिन इस गीत और दीदी के बीच मैं फिर मौजूद थी। मूसरचंद की तरह। बहुत बाद में समझ आया, जब दीदी ने खुद मज़े ले लेकर ये किस्सा सुनाया। आज भी इस किस्से को और भी कई किस्सों को वे बड़ा रस ले के सुनातीं हैं।

कहाँ से कहाँ पहुँच गई। बात कर रही थी आज के बच्चों और उनकी व्यस्तताओं की। आज की शिक्षा-प्रणाली ने बच्चों को कोल्हू का बैल बना दिया है। पढाई हमारे समय में भी होती थी, लेकिन पाठ्यक्रम का अनावश्यक बोझ नहीं होता था। तब के पढ़े हुए हम आज के बच्चों को पढ़ा रहे हैं, मतलब हमारी शिक्षा में कोई कमी नहीं है। वर्ना आजके बच्चों को पढ़ा ही न पाते। समय के साथ-साथ बदलाव होगा ही, लेकिन अनावश्यक बदलाव की क्या ज़रुरत है? आज पता नहीं कितनी अतिरिक्त किताबें कोर्स में लगा दी जातीं हैं, जिन्हें पूरी तरह पढाया भी नहीं जाता, लेकिन पेपर होता है। बच्चे के लिए तनाव पर्याप्त।

पहले रिज़ल्ट फर्स्ट डिवीज़न, गुड सेकण्ड , सेकंड डिवीज़न, थर्ड डिवीज़न जैसा बोला जाता था। लेकिन अब? अब तो पर्सेंटेज बोला जाता है. पहले ६०-६५ बहुत था, अब ८० भी कम गिना जाता है। बच्चा दिन-रात ९० -९५ की दौड़ में जुटा रहता है। पढ़ाई का तनाव, होम वर्क का तनाव, परीक्षाओं का तनाव, क्लास में रैंक बनाए रखने का तनाव ऊपर से माँ- बाप की इच्छाओं का तनाव। "बेटा, फलाना प्रतिशत आना ही चाहिए. " और " हम तुम्हारे लिए पानी की तरह पैसा बहाते हैं, और तुम पढ़ तक नहीं सकते?"
भाग-दौड़
आजके बच्चे जिस दौर से गुज़र रहे हैं, उसमें उन्हें तनाव के अलावा और कुछ नहीं मिल रहा। मनोरंजन के नाम पर टीवी या फिर नेट की दुनिया। लड़के तो फिर भी बाहर कुछ खेल-कूद ही लेते हैं, लेकिन लडकियां? अब मिलजुल के खेलने का समय नहीं रहा। इनडोर गेम्स के लिए ही अकेले लड़कियों को भेजते माँ-बाप डरते हैं। मेरी बिटिया खुद कत्थक सीखती है। दो अन्य बच्चियों के साथ शाम को डांस-क्लास जाती है. लेकिन जब तक लौट नहीं आती, मेरे प्राण उसी में अटके रहते हैं। समय बदला है, बदलाव ज़रूरी भी हैं, लेकिन ये बदलाव सुखद हैं? क्या इन्हें सुखद नही बनाया जा सकता? बच्चों का बोझ कुछ काम नहीं किया जा सकता? वे भी खुली सांस ले सकें? अपना बचपन जी सकें?