कन्हैयालाल नन्दन नहीं रहे" नुक्कड पर ये खबर पढते ही लगा जैसे एकदम से रीत गई.... बचपन से लेकर आज तक पढे हुए नन्दन जी, सुने गये नन्दन जी याद आने लगे. याद आने लगी पराग में छपने वाली उनकी चिट्ठी, जिसका समापन- "तुम्हारा चाचा- नन्दन " से होता था. तब मेरी बाल-बुद्धि में केवल इतना ही आता था, कि ये मेरे चाचा हैं, तभी तो लिखते हैं- तुम्हारा चाचा, और ये भी कि ज़रूर इनका सम्बन्ध ’नन्दन(पत्रिका) से होगा, तभी तो सबको बताने के लिये अपने नाम के साथ नन्दन लिखते हैं..... बड़ी हुई, नन्दन जी को पढना जारी रहा, और नन्दन जी तथा सर्वेश्व्रर दयाल सक्सेना मेरे प्रिय कवि हो गये. ब्लॉग-जगत से जुड़ी, पता चला कि नन्दन जी अनूप शुक्ल जी के मामा जी हैं, तो वे मुझे मेरे ही परिवार के लगने लगे, ठीक मेरे मामा जी की तरह....
अजब संयोग है, अभी चार दिन पहले ही नन्दन जी की एक रिकॉर्डंग सुन रही थी, उनकी असरदार, दानेदार आवाज़ अभी भी कानों में गूंज रही है... उसी रिकॉर्डिंग की कुछ कविताएं श्रद्धान्जलि-स्वरूप-
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नदी कि कहानी कभी फिर सुनाना,
मैं प्यासा हूँ दो घूँट पानी पिलाना,
मुझे वो मिलेगा, ये मुझको यकीं है,
बड़ा जानलेवा है ये दरमियाना
मुहब्बत का अंजाम हरदम यही था,
भंवर देखना कूदना, डूब जाना,
अभी मुझसे, फिर आपसे फिर किसी से
मियां ये मुहब्बत है या कारखाना ?
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अंगारे को तुमने छुआ
और हाथ में फफोला नहीं हुआ
इतनी सी बात पर,
अंगारे पर तोहमत मत लगाओ
ज़रा तह तक जाओ,
आग भी कभी कभी
आपत धर्म निभाती है,
और जलने वाले की
क्षमता देख कर जलाती है.
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लुटने में कुछ नहीं आज लूट ले,
लेकिन उसूल कुछ तो होंगे लूटमार के....
सब पी गए पूजा नमाज़ बोल प्यार के,
और नखरे तो ज़रा देखिये, परवरदिगार के.
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एक नाम अधरों पर आया,
अंग-अंग चंदन वन हो गया.
बोल है कि वेद की ऋचायें,
सांसों में सूरज उग आयें
आखों में ऋतुपति के छंद तैरने लगे,
मन सारा नील गगन हो गया.
गंध गुंथी बाहों का घेरा,
जैसे मधुमास का सवेरा
फूलों की भाषा में देह बोलने लगी,
पूजा का एक जतन हो गया.
पानी पर खीचकर लकीरें,
काट नहीं सकते जंजीरें
आसपास अजनबी अधेरों के डेरे हैं,
अग्निबिंदु और सघन हो गया.
एक नाम अधरों पर आया,
अंग-अंग चंदन वन हो गया.