रविवार, 26 सितंबर 2010

नंदन जी के नहीं होने का अर्थ.....


कन्हैयालाल नन्दन नहीं रहे" नुक्कड पर ये खबर पढते ही लगा जैसे एकदम से रीत गई.... बचपन से लेकर आज तक पढे हुए नन्दन जी, सुने गये नन्दन जी याद आने लगे. याद आने लगी पराग में छपने वाली उनकी चिट्ठी, जिसका समापन- "तुम्हारा चाचा- नन्दन " से होता था. तब मेरी बाल-बुद्धि में केवल इतना ही आता था, कि ये मेरे चाचा हैं, तभी तो लिखते हैं- तुम्हारा चाचा, और ये भी कि ज़रूर इनका सम्बन्ध ’नन्दन(पत्रिका) से होगा, तभी तो सबको बताने के लिये अपने नाम के साथ नन्दन लिखते हैं..... बड़ी हुई, नन्दन जी को पढना जारी रहा, और नन्दन जी तथा सर्वेश्व्रर दयाल सक्सेना मेरे प्रिय कवि हो गये. ब्लॉग-जगत से जुड़ी, पता चला कि नन्दन जी अनूप शुक्ल जी के मामा जी हैं, तो वे मुझे मेरे ही परिवार के लगने लगे, ठीक मेरे मामा जी की तरह....

अजब संयोग है, अभी चार दिन पहले ही नन्दन जी की एक रिकॉर्डंग सुन रही थी, उनकी असरदार, दानेदार आवाज़ अभी भी कानों में गूंज रही है... उसी रिकॉर्डिंग की कुछ कविताएं श्रद्धान्जलि-स्वरूप-

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नदी कि कहानी कभी फिर सुनाना,

मैं प्यासा हूँ दो घूँट पानी पिलाना,

मुझे वो मिलेगा, ये मुझको यकीं है,


बड़ा जानलेवा है ये दरमियाना

मुहब्बत का अंजाम हरदम यही था,

भंवर देखना कूदना, डूब जाना,

अभी मुझसे, फिर आपसे फिर किसी से

मियां ये मुहब्बत है या कारखाना ?


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अंगारे को तुमने छुआ

और हाथ में फफोला नहीं हुआ

इतनी सी बात पर,

अंगारे पर तोहमत मत लगाओ

ज़रा तह तक जाओ,

आग भी कभी कभी

आपत धर्म निभाती है,

और जलने वाले की

क्षमता देख कर जलाती है.


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लुटने में कुछ नहीं आज लूट ले,

लेकिन उसूल कुछ तो होंगे लूटमार के....


सब पी गए पूजा नमाज़ बोल प्यार के,

और नखरे तो ज़रा देखिये, परवरदिगार के.

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एक नाम अधरों पर आया,

अंग-अंग चंदन वन हो गया.


बोल है कि वेद की ऋचायें,

सांसों में सूरज उग आयें


आखों में ऋतुपति के छंद तैरने लगे,
मन सारा नील गगन हो गया.

गंध गुंथी बाहों का घेरा,
जैसे मधुमास का सवेरा

फूलों की भाषा में देह बोलने लगी,
पूजा का एक जतन हो गया.

पानी पर खीचकर लकीरें,
काट नहीं सकते जंजीरें

आसपास अजनबी अधेरों के डेरे हैं,
अग्निबिंदु और सघन हो गया.


एक नाम अधरों पर आया,
अंग-अंग चंदन वन हो गया.


गुरुवार, 16 सितंबर 2010

राज कर रही है तीन बेटों की मां...

कुछ दिन हुए, अपने मेहमानों को छोड़ने स्टेशन गई थी। तभी वहाँ मैंने देखा कि एक जर्जर बुढ़िया किसी प्रकार अपने पैर घसीटती संकोच सहित भीख मांग रही है। हालाँकि इसमें नया कुछ भी नहीं है। सैकड़ों बुजुर्ग महिलायें इस प्रकार भीख मांग रहीं हैं। लेकिन मेरे लिए नई बात ये थी कि ये वही बूढी अम्मा थी जिसने कई सालों तक हमें हमारे ऑफिस में चाय पिलाई थी।
पहले तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ, कि ये अम्मां है, लेकिन जैसे ही मैने उसे आवाज़ दी, अम्मां मुझसे लिपट के रोने लगी. इस वाकये से पहले मुझे ये नहीं मालूम था कि उसके बेटों ने उसे भिखारी बना दिया है.
जाति से कुलीन ब्राह्मणी इस अम्मा के तीन बेटे हैं। तीनों अच्छा-भला कमा रहे हैं। थोडी बहुत ज़मीन भी है। बूढी अम्मा के पति की मृत्यु बहुत पहले हो गई थी , सो अम्मा ने ही चाय की दुकान के ज़रिये अपने पाँच बच्चों का भरण-पोषण किया। उन्हें पढाया-लिखाया भी। बड़ा लड़का सरकारी नौकरी में है, बीच वाला किसी फैक्ट्री में है और तीसरा प्रैस में काम करता है। अम्मा तीसरे के पास ही रहती थी, क्योंकि दो बड़े पहले ही उसे निष्कासित कर चुके थे। लेकिन अब इस तीसरे ने भी उसे घर से निकाल दिया था। जबकि अम्मा घर का पूरा काम करती थी । उम्र अधिक हो जाने के कारण दुकान ज़रूर नहीं चला पाती थी। घर का काम भी अब उतनी फुर्ती से नहीं कर पाती थी। लिहाज़ा उसे घर में रखने योग्य नहीं समझा गया.
पिछले एक हफ़्ते से अम्मां मेरे पास रह रही है, और इस बीच उसके एक भी सपूत ने ,उसकी खोज खबर लेने की कोशिश नहीं की. इस बार घर से बाहर करने के पीछे बहू की वो साड़ी थी, जिसे अम्मां ने थोड़ी देर के लिये पहन लिया था.
न मेरी समझ में ऐसी बहुएं आती हैं और न ही बेटे. ये बहुएं क्या अपनी मां के साथ ऐसा ही व्यवहार करती होंगीं? और बेटे???? कैसे ८५ साल की बूढी, जर्जर मां को घसीट के घर से बाहर किया होगा? कैसे अपनी मां को भीख मांगते देख पाते होंगे? देखते तो ज़रूर होंगे, क्योंकि उसी शहर में रहते हैं.
अम्मा मुझे अपनी बेटी की तरह प्यार करती हैं। वे जब भी मुसीबत में होती हैं, तो मेरे पास आ जाती हैं. कुछ दिन रहती हैं, फिर लड़कों का मोह उन्हें सताने लगता है. जो लड़के उन्हें हर घड़ी दुत्कारते रहते हैं, उन्हीं के बच्चों को याद करके रोने लगती है. परिवार का, ऐसे परिवार का जिसमें उनके लिये कोई जगह ही नहीं है, मोह उन्हें आज भी छोड़ता नहीं।
तीन बेटों की माँ यदि भीख माँगने पर मजबूर हो तो बेहतर है, कि ऐसे बेटे पैदा ही न हों।
सोचने पर मजबूर हूँ, कि तमाम बेटों के कारनामे पढ़ने-देखने- भोगने के बाद भी लोग बेटों की पैदाइश ही क्यों चाहते है?