रविवार, 27 नवंबर 2011

पढियेगा बार-बार हमें, यूं न फेंकिये, हम हैं इंसान शाम का अखबार नहीं हैं.....

अभी पिछले दिनों रश्मि रविजा की पोस्ट "उम्र की सांझ का, बीहड़ अकेलापन" पढी, जिसमें उन्होंने बहुत सटीक मुद्दा उठाया है, बुज़ुर्गों के अकेलेपन का. उसी पोस्ट से प्रेरित हो कर कुछ लिखने की कोशिश कर रही हूं. हालांकि मेरी ये पोस्ट, किसी भी तरह से रश्मि की पोस्ट का खंडन नहीं करती, बस इस मसले पर मेरी राय जैसी है. मैं उन लोगों की कड़ी भर्त्सना करती हूं, जो अपने बुज़ुर्गों का खयाल नहीं रखते या जानबूझ कर उन्हें उपेक्षित करते हैं.
रश्मि ने कई ऐसे बुज़ुर्गों का ज़िक्र किया है, जो अब एकाकी जीवन जी रहे हैं, बच्चों के होते हुए भी. इनमें अधिकांश ऐसे बुज़ुर्ग हैं, जो बच्चों की उपेक्षा के शिकार हैं.
आज के इस आपा-धापी जीवन में वे बुज़ुर्ग निश्चित रूप से उपेक्षित हो जाते हैं, जो अपने बेटे-बहू पर आश्रित होते हैं, और उनके साथ ही जीवन गुज़ार रहे हैं. उपेक्षा तभी होती है, जब सब साथ हों, दूर रह के तो बस अकेलापन होता है.
असल में सबसे ज़्यादा उपेक्षित वे ही महसूस करते हैं, जिन्होंने अपने बच्चों से अपेक्षाएं लगा रखी होती हैं. ये अपेक्षाएं पूरी नहीं होने पर खुद-बखुद उपेक्षा में तब्दील हो जाती हैं .
आज ज़िंदगी का जो रूप है, उसमें बच्चों के लिये नई राहें बढीं हैं, गिने-चुने रास्ते नहीं रह गये, लिहाजा इन नये रास्तों की मंज़िलें भी दूर हो गयीं हैं. ये मंज़िलें महानगरों से होते हुए विदेशों तक पहुंच गयीं हैं. बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जितने आकर्षक पैकेज़ देतीं हैं, उतना ही निचोड़ के काम भी लेती हैं. महानगरों की ज़िन्दगी इतनी व्यस्त और खर्चीली है, कि पति-पत्नी दोनों का काम करना लाज़िमी सा हो गया है. वैसे भी लड़कियां अब बराबरी की डिग्री हासिल कर रही हैं, तो उसका इस्तेमाल भी चाहती हैं, ऐसे में घर पर कोई नहीं होता या केवल नौकर होता है. सुबह जल्दी निकलने और रात देर से लौटने के बाद दोनों ही इस स्थिति में नहीं होते कि किसी को भी समय दिया जाये. अगर मां-बाप साथ में हैं, तो उनसे भी केवल हाल-चाल ही पूछने का समय होता है उनके पास, जबकि पूरा दिन घर में गुज़ारने के बाद उनके पास तमाम बातें होती हैं. अपनी बातें पूरी तरह न बता पाने की कसक, उपेक्षा का रूप ले लेती है
बुज़ुर्ग, जो आज की कार्य-पद्धति से परिचित नहीं हैं, जिन्हें नहीं मालूम कि उनके बेटे या बहू दिन भर किन तनावों से गुज़रे हैं, उलाहना देने से नहीं चूकते कि हमने भी तो नौकरी की है लेकिन क्या मज़ाल कि मां-बाप के लिये समय न निकाला हो. ये उलाहना नये तनाव को जन्म देता है. पीढियों का ये अन्तराल, दूरियां बढाने का काम करता है .
मेरे एक परिचित बुज़ुर्ग दम्पत्ति हैं, जिनके बेटे-बहू बैंगलोर में हैं. समयाभाव उन्हें साल में एक बार ही यहां आ पाने की इजाज़त देता है . अंकल तो कम, लेकिन आंटी लगाता ये कहने से नहीं चूकतीं कि उनका बेटा तो बहुत अच्छा था, लेकिन बहू ने उसे अपना ग़ुलाम बना लिया. अब बस उसी की मानता है. एक ये थे, कि कभी इन्होंने अपने पिताजी के सामने मुझसे बात तक नहीं की, एक वो है जो हमारे सामने ही उसे ऑर्डर देती रहती है
जबकि मुझे मालूम है, कि उनकी बहू, बेटे से ज़्यादा उनका खयाल रखती है.
ये दोनों बैंगलोर गये भी, लेकिन जल्दी ही वापस आ गये. वहां की संस्कृति- खान-पान उन्हें रास नहीं आया.
एक अन्य दम्पत्ति हैं, जिनके तीन बेटे हैं, तीनों बाहर हैं, और बस दीवाली पर ही मां-बाप के पास आ पाते हैं, लेकिन ये दोनों खुश हैं. कहते भी हैं, कि हमारे बेटों की जीवन-शैली अलग है, उसमें हम खप नहीं पाते, सो यहीं अपने पुश्तैनी घर में रहते हैं
हमारे पड़ोसी की मां के निधन के बाद, उनके पिता जी बेटे के पास आ गये, और अपना समय पोते को पढाने, पूजा करने, और पढने में बिताते हैं, बेटे-बहू की ज़िन्दगी में दखल दिये बिना.
मैं खुद अपनी बात करूंगी, मेरे ससुर जी के देहावसान के बाद मेरी सास, यानि हमारी अम्मां बिना किसी एकाकीपन के हमारे साथ बहुत खुश हैं. पापा की कमी तो हम पूरी नहीं कर सकते, लेकिन हमारे द्वारा उनकी उपेक्षा हो, ऐसा कोई व्यवहार नहीं करते . उनका समय भी पूजा, भजन-कीर्तन, किताबों और टी.वी. के साथ बीतता है, जबकि हम दोनों सीधे रात में ही थोड़ी देर उनके पास बैठ पाते हैं. मेरे दोनों देवर भी बाहर ही हैं, लेकिन दोनों अम्मा को ज़िद सहित अपने पास बुलाते रहते हैं, क्योंकि इन दोनों का ही बार-बार आना सम्भव नहीं हो पाता. अम्मां की मांग हर जगह बराबर है. मज़े की बात तो ये है, कि हम बहुओं से उनका एकदम दोस्ताना है. और यही ज़रूरी भी है. जहां बुज़ुर्ग बच्चों के साथ मिल जाते हैं, वहां उपेक्षित महसूस ही नहीं करते
ऐसे लोग भी बहुतायत हैं, जो अपने बुज़ुर्गों के साथ बहुत बुरा बर्ताव करते हैं, लेकिन ऐसे भी बहुत हैं, जो अपने बुज़ुर्गों की उपस्थिति भर से भरा-भरा महसूस करते हैं.
तो मुझे तो बस यही लगता है कि जो बुज़ुर्ग यदि बच्चों की समस्याओं को समझें, उनका साथ दें, तो आखिर बच्चे तो उन्हीं के हैं, उपेक्षा क्यों करेंगे? अपनी राय थोपे बिना, पुराने समय की दुहाई दिये बिना, कोई भी तुलना किये बिना प्रसन्न मन से रह के तो देखें.
अभी समय इतना भी खराब नहीं आया है

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

क्या होगा अंजाम मेरे देश का....

चौदह अक्टूबर को श्री लालकृष्ण आडवाणी की रथ-यात्रा सतना पहुंची. चूंकि मध्य-प्रदेश में भाजपा की सरकार है, सो पूरा प्रदेश ही इस यात्रा की अगवानी और तैयारियों में बिछा जा रहा था. सतना में भी ज़ोरदार तैयारियां हुईं. रात में ही विशाल जन सभा का आयोजन हुआ. भारी भीड़ जुटी या जुटाई गयी. सुबह सारे अखबार इस जनसभा की तस्वीरों और समाचारों से अटे पड़े थे. लेकिन इस खबरों के पार्श्व में एक और खबर भी थी, जिसने मन खराब कर दिया. खबर थी पार्टी के अधिकारियों द्वारा आमंत्रित पत्रकारों को पांच-पांच सौ के लिफ़ाफ़े बांटने की. किसी एक पत्रकार ने इस घटना को अपने कैमरे में कैद कर लिया, और देखते ही देखते ये समाचार राष्ट्रीय समाचार बन गया. कल तमाम राष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों की हैड लाइन था ये समाचार.
राजनैतिक फलक पर होने वाली हलचल मुझे कभी उद्वेलित नहीं करती, लेकिन अन्य किसी क्षेत्र से जुड़े समाचार मुझे खुश या नाखुश ज़रूर करते हैं. फिर ये मामला तो पत्रकारों से जुड़ा हुआ था, यानि मेरे अपने ही क्षेत्र से जुड़ा समाचार था.
दुख यहां पैसे बंटने का नहीं था, बल्कि पत्रकारों द्वारा ले लेने का था :(
किसी भी राजनैतिक दल द्वारा सांसदों को खरीदने, मतदाताओं को खरीदने, आम सभा में भीड़ को जुटाने के लिये पर्याप्त पैसा खर्च किया जाता है, तो राजनैतिक दलों द्वारा खरीदने की कोशिश नयी नहीं है, लेकिन पत्रकारों का बिक जाना दुखद है.
ऐसा नहीं है कि इस तरह की कोशिश पहली बार की गयी हो. "पेड-न्यूज़" का चलन अब पुराना हो गया है. कई दल खबरें न छापने के लिये पैसा देते हैं, तो कई विरोधी दल की खबरें छापने के लिये पैसा खर्च करते हैं. लेकिन यहां किस बात के लिये पैसे दिये जाने की कोशिश की गयी, समझ में नहीं आया. महज पांच-पांच सौ के लिफ़ाफ़े लेने के पीछे यदि पत्रकारों का मक़सद पार्टी की निम्न स्तरीय हरक़त दिखाने का था, तो इन सबने उसी वक्त आपत्ति दर्ज़ क्यों नहीं करवाई? मामला तो तब भी प्रकाश में आता ही, बल्कि ज़्यादा कारगर तरीक़े से सामने आता.
संविधान के दो अतिमहत्वपूर्ण स्तम्भ संसद और मीडिया , दोनों ही लगातार विवादों में रहने लगे हैं. संसद की निष्पक्षता तो कभी खबरों में थी ही नहीं, लेकिन मीडिया एक समय में अपनी निष्पक्षता और खबरों की प्रामाणिकता के लिये जाना जाता था, लेकिन अब मीडिया की छवि ही मसखरे की तरह हो गयी है.
रेडियो सरकारी तंत्र का मुखबिर है तो टीवी चैनलों को अफ़वाहों की पुष्टि करते रहने से फ़ुर्सत नहीं है. पीत-पत्रकारिता ने जड़ें जमा ली हैं. रेडियो के समाचार सुनो तो वहां केवल सरकारी कामकाज का गुणगान होता रहता है. न्यूज़ चैनल किसी एक खबर को पकड़ते हैं तो पूरा तंत्र बस उसी खबर को दोहराता रहता है. खास तौर से किसी फ़िल्मी हस्ती के जीवन में झांकने या किसी भी ख्यातिलब्ध व्यक्ति की व्यक्तिगत मीमांसा में मीडिया को ज़्यादा मज़ा आने लगा है. आम आदमी देश-विदेश के खास समाचार जानने की इच्छा मन में ही लिये रह जाता है. यदि पत्रकारिता ही बाज़ार में पहुंच गयी तो क्या होगा?
अखबारों से भी अब वास्तविक पत्रकारिता ग़ायब है. सभी अखबार प्रायोजित खबरों से भरे होते हैं. अखबारों की अपनी रिपोर्टिंग या किसी खास घटना के आगे का हाल जिसे हम अखबार की भाषा में स्टोरी-डेवलपमेंट कहते हैं, पढने को अब आंखें तरसती रह जाती हैं.
ऐसी खरीदी और बिकी हुई पत्रकारिता का क्या भविष्य होगा, राम जाने!

सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

कोई आहट, कोई हलचल हमें आवाज़ न दे......

आज जगजीत सिंह चले गये................
कितना अजीब लगता है ये सोचना भी कि अब उनकी कोई नयी ग़ज़ल हमें सुनाई नहीं देगी. वो आवाज़ जो लाखों-करोड़ों दिलों पर राज कर रही थी, अब खामोश हो गयी है.
अचानक ब्रेन हेमरेज़ होने और ऑपरेशन होने के बाद उनसे सम्बन्धित कोई खबर किसी भी न्यूज़ चैनल में नहीं आ रही थी. अखबारों में भी कोई खबर नहीं थी, तो लगा कि शायद अब उनकी हालत बेहतर हो रही होगी. ये तो कल्पना भी नहीं की थी हमने कि वे इस तरह चुपचाप, इतनी जल्दी चले जायेंगे! लगता है जैसे हमने उन्हें अभी ही तो सुनना शुरु किया था! इतनी ताज़गी थी उनकी आवाज़ में कि उन्हें गाते हुए ३४ साल हो गये, लगता ही नहीं था.
मैं बहुत छोटी तो नहीं लेकिन स्कूल में पढती थी तब उन्हें सुनना शुरु किया. मेरी दीदी " पहले तो अपने दिल की रज़ा जान जाइये..." गाती रहती थीं, और मैने तभी जाना कि ये किन्हीं जगजीत सिंह-चित्रा सिंह की गायी ग़ज़ल है. फिर कुछ दिनों बाद उनका रिकॉर्ड "अनफ़ोर्गेटेबल" देखा. उसके बाद तो जगजीत सिंह की ग़ज़लों के साथ ही जैसे बड़ी हुई. उन दिनों " सरकती जाये है रुख से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता...." मेरी पसंदीदा ग़ज़ल होती थी.
कुछ और बड़ी हुई आकाशवाणी के युववाणी विभाग से जुड़ी तो मेरी हर ड्यूटी पर जगजीत जी की एक ग़ज़ल ज़रूर बजती थी. मेरे साथी कम्पेयरों ने कहना शुरु कर दिया था कि " आज जगजीत सिंह की ग़ज़ल बज रही थी तो हम जान गये कि आपकी ड्यूटी होगी, सो मिलने आ गये".
सन २००९ में जगजीत जी सतना के यूनिवर्सल केबिल्स लिमिटेड द्वारा आयोजित- " एक शाम-जगजीत सिंह के नाम" कार्यक्रम में आये थे. तब लगा जैसे बरसों पुरानी साध पूरी हो गयी हो. पूरे दिन शाम होने का इन्तज़ार करते रहे. मंच पर जगजीत जी आये तो आंखों पर भरोसा नहीं हो रहा था कि हम उन्हें देख रहे हैं...उन्होंने गाना शुरु किया तो कानों पर से विश्वास उठ गया कि वे सामने से उन्हें सुन रहे हैं. कार्यक्रम नौ बजे शुरु हुआ. कब बारह बज गये पता ही नहीं चला. खुद जगजीत जी ने हाथ जोड़ के आज्ञा मांगी तो लगा कि अरे! अभी तो प्रोग्राम शुरु हुआ था!
पता नहीं कितने दिनों तक जगजीत जी की पुरकशिश आवाज़ का खुमार दिल-दिमाग़ पर छाया रहा. उनकी आवाज़ है ही ऐसी, जो बहुत जल्दी लोगों से रिश्ता क़ायम कर लेती है. एक बार सुन लेने के बाद इस आवाज़ को भुला पाना मुश्किल है.
जगजीत सिंह जी अब हमारे बीच नहीं हैं, इस बात पर भरोसा करने को जी नहीं चाहता, लेकिन सुबह से लेकर अभी तक प्रसारित हो रहे समाचार बार-बार इस खबर की पुष्टि कर देते हैं, जैसे कह रहे हों कि अब भरोसा कर लो.
जगजीत जी अब नहीं हैं, लेकिन उनकी आवाज़ हमेशा ज़िन्दा रहेगी हमारे दिलों में, हमारे सुरों में.
अश्रुपूरित श्रद्धान्जलि.

सोमवार, 22 अगस्त 2011

बहुत खुशमिज़ाज़ थे परसाई जी...

22 अगस्त, यानि परसाई जी का जन्म-दिवस.
कल से कोशिश कर रही हूं, कि कुछ लिख लूं, लेकिन वही बहाना....... :)
अभी लिखने बैठी हूं, तो ज़रूरी था कि उस समय में लौटूं, जब परसाई जी से मेरी मुलाक़ात हुई थी ( वैसे पुराने दिनों में लौटने की तो मेरी आदत भी है. आगे की बजाय पीछे ज़्यादा देखती हूं. शायद इसलिये, कि बहुत अच्छे दिन पीछे छूट गये हैं वे दिन, जब मेरी मुलाक़ातें पता नहीं कितने नामचीन लेखकों, संगीत-साधकों से हुईं. मैं इन सारी मुलाक़ातों के लिये "देशबंधु" की आभारी हूं.
हालांकि परसाई जी से मेरी पहली मुलाक़ात देशबंधु के कारण नहीं हुई :)
१ अप्रैल १९८७-
मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की स्वर्ण-जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में तथा वरिष्ठ कवि श्री केदारनाथ अग्रवाल की ७५ वीं वर्षगांठ के अवसर पर जबलपुर इकाई ने दो दिवसीय कार्यक्रम आयोजित किया था. इस कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मुझे भी मिला. चूंकि उस समय नयी-नयी लेखक संघ में शामिल हुई थी, सो इन कार्यक्रमों के लिये अतिरिक्त उत्साह भी था. पर सबसे ज़्यादा उत्साह था केदार जी और परसाई जी से मिलने का. डॉ. कमलाप्रसाद ने पहले ही वादा किया था, कि यदि परसाई जी कार्यक्रम में नहीं आ सके तो हमें उनसे मिलवाने, परसाई जी के घर ले जाया जायेगा.
कार्यक्रम के दौरान में मनाती रही कि परसाई जी न आयें . उनके घर जाने का मौका मैं गंवाना नहीं चाहती थी. वैसे भी कार्यक्रम में औपचारिक मुलाक़ात होती. परसाई जी अपने नरम-गरम स्वास्थ्य के कारण नहीं आ सके. अगले दिन कमलाप्रसाद जी शाम का सत्र शुरु होने से पहले ही मुझे परसाई जी से मिलवाने ले गये. कितना अद्भुत था ये! डॉ. कमलाप्रसाद, हनुमान प्रसाद तिवारी, जो उस वक्त हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सचिव थे और मैं.
नेपियर टाउन स्थित अपने घर के बरामदे में परसाई जी तख्त पर अधलेटे, कुछ पढ रहे थे. जैसा मैने उन्हें तस्वीरों में देखा था, ठीक वैसे ही थे वे. सफ़ेद पजामा-कुरता, और पीछे को खींच के काढे हुए बाल. हम लोगों की आहट पा, ज़रा उठंग हुए, बड़े प्यार से पूछा-
" कौन? कमला? साथ में और कौन है?"
" देख लीजिये , आप से मिलने छतरपुर से ये बच्ची आई है."
मैने नमस्कार में हाथ जोड़ दिए ( उस वक्त शदी नहीं हुई थी, सो पैर छूने की आदत ही नहीं थी ) बाद में लगा कि मुझे पैर छूने चाहिये थे.
" क्या बात है! क्या बात है! आओ बेटा इधर निकल आओ"
उनकी किताबों और अखबारों के बीच में जगह बनाती मैं बैठ गई. मेरा नाम पढाई और शौक पूछने के बाद वे कमला जी से बातें करने में मशगूल हो गये. मैं सुनती रही. विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं उनके सामने बैठी हूं.
कितना अद्भुत था ये! डॉ. कमलाप्रसाद, हनुमान प्रसाद तिवारी, जो उस वक्त हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सचिव थे और मैं.नेपियर टाउन स्थित अपने घर के बरामदे में परसाई जी तख्त पर अधलेटे, कुछ पढ रहे थे. जैसा मैने उन्हें तस्वीरों में देखा था, ठीक वैसे ही थे वे. सफ़ेद पजामा-कुरता, और पीछे को खींच के काढे हुए बाल.
" क्यों बेटू, तुमने मेरा लिखा क्या क्या पढा है?"
मैं अचकचा गई. सवाल अचानक ही पूछ लिया था उन्होंने.
" जी... भोलाराम का जीव, सदाचार का ताबीज़, काग-भगोड़ा.... और भी पढे हैं..." दिमाग़ से जैसे सब पढा हुआ हवा हो गया."
" अभी क्या कर रही हो?"
" पुरातत्व विज्ञान में एम.ए. ..."
बीच में ही कमला जी ने कमान हाथ में ली और बताने लगे कि मैं कितनी अच्छी (!) कहानियां लिखती हूं. परसाई जी प्रसन्न हो गये. तुरन्त बोले-
" जून माह में कहानी प्रतियोगिता हो रही है, तुम कहानी भेजना, वसुधा के लिये. तिवारी जी, मेरी तरफ़ से एक पत्र भी भिजवा देना वंदना के नाम"
लगभग डेढ घंटे हम साथ रहे. पता नहीं कितनी बातें होती रहीं. कितने किस्से सुना डाले उन्होंने. बहुत भरा-भरा सा मन ले के लौटी नौगांव.
परसाई जी का पत्र मिला, टाइप किया हुआ जिसमें कहानी भेजने का अनुरोध था. कहानी भेजी भी, लेकिन समय पर नहीं पहुंच सकी. कुछ दिनों बाद ही परसाई जी का एक पोस्ट-कार्ड मिला, जिसमें लिखा था-
" प्रिय वंदना,
कहानी समय पर न मिलने के कारण प्रतियोगिता में शामिल नहीं हो सकी, लेकिन इसे मैं वसुधा के जून अंक में प्रकाशित कर रहा हूं.
सस्नेह "
आज बहुत ढूंढा, लेकिन पत्र मिला नहीं अलबत्ता वसुधा का वो अंक ज़रूर मिल गया, जिसमें परसाई जी ने मेरी कहानी छापी थी. शादी के बाद मैं सतना आ गई और बहुत जल्दी "देशबंधु" ज्वाइन भी कर लिया. उस वक्त परसाई जी "देशबंधु" के लिये " पूछिये परसाई से" कॉलम लिखते थे, और मेरे पास रविवारीय पृष्ठ भी था, सो जब-तब उनसे फोन पर बात होती थी. ये जानकर कि मैं वही वंदना हूं, जो उनसे मिलने आई थी, उन्हें पता नहीं कितनी खुशी हुई. बच्चों की तरह किलक के बोले-
" सुनो, मायाराम( मायाराम सुरजन) को बता देना ज़रा, कि तुम मेरी कितनी बड़ी प्रशंसक हो..." और ज़ोर से हंस दिए.
आज भी जब भी परसाई जी को याद करती हूं, तो उनकी वही उन्मुक्त हंसी कानों में गूंजने लगती है.
विनम्र श्रद्धान्जलि.

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

क्या है जनलोकपाल विधेयक?

देश में गहरी जड़ें जमा चुके भ्रष्टाचार को रोकने के लिए जन लोकपाल बिल लाने की मांग करते हुए अन्ना हजारे ने मंगलवार को आमरण अनशन शुरू कर दिया। जंतर - मंतर पर सामाजिक कार्यकर्ता हजारे के समर्थन में जुटे हजारों लोगों की संख्या क्रमश: बढती जा रही है.।
कल लगभग पूरे देश के सभी शैक्षणिक संस्थान विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं ने बंद करवा दिए. सतना के स्कूल भी बंद हो गये ( वैसे अभाविप कार्यकर्ता बंद करवाने का काम बखूबी निभाते हैं).तमाम लोग अभी भी ऐसे हैं, जिन्हें लोकपाल या जनलोकपाल के बारे में पूरी तरह नहीं मालूम. कई तो ये भी नहीं जानते कि अन्ना के अनशन के मुख्य बिंदु हैं क्या? तो हमने सोचा कि क्यों न कई अखबारों की ये प्रामाणिक जानकारी हम सबके साथ साझा करें.
आइए जानते हैं जन लोकपाल बिल के बारे में... खासतौर से वे मुद्दे, जिन्हें लेकर अन्ना अनशनरत हैं-



१- इस कानून के तहत केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त का गठन होगा।



२- यह संस्था इलेक्शन कमिशन और सुप्रीम कोर्ट की तरह सरकार से स्वतंत्र होगी।



३- किसी भी मुकदमे की जांच एक साल के भीतर पूरी होगी। ट्रायल अगले एक साल में पूरा होगा।



४- भ्रष्ट नेता, अधिकारी या जज को 2 साल के भीतर जेल भेजा जाएगा।



५- भ्रष्टाचार की वजह से सरकार को जो नुकसान हुआ है अपराध साबित होने पर उसे दोषी से वसूला जाएगा।



६- अगर किसी नागरिक का काम तय समय में नहीं होता तो लोकपाल दोषी अफसर पर जुर्माना लगाएगा जो शिकायतकर्ता को मुआवजे के तौर पर मिलेगा।



७- लोकपाल के सदस्यों का चयन जज, नागरिक और संवैधानिक संस्थाएं मिलकर करेंगी। नेताओं का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।



८- लोकपाल/ लोक आयुक्तों का काम पूरी तरह पारदर्शी होगा। लोकपाल के किसी भी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत आने पर उसकी जांच 2 महीने में पूरी कर उसे बर्खास्त कर दिया जाएगा।



९- सीवीसी, विजिलेंस विभाग और सीबीआई के ऐंटि-करप्शन विभाग का लोकपाल में विलय हो जाएगा।

१०- लोकपाल को किसी जज, नेता या अफसर के खिलाफ जांच करने और मुकदमा चलाने के लिए पूरी शक्ति और व्यवस्था होगी।

जस्टिस संतोष हेगड़े, प्रशांत भूषण, सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल ने यह बिल जनता के साथ विचार विमर्श के बाद तैयार किया है।

अब ज़रा सरकारी लोकपाल विधेयक और जनलोकपाल विधेयक के बीच का अन्तर भी जान लें-


सरकारी लोकपाल विधेयकजनलोकपाल विधेयक
सरकारी लोकपाल के पास भ्रष्टाचार के मामलों पर खुद या आम लोगों की शिकायत पर सीधे कार्रवाई शुरू करने का अधिकार नहीं होगा।प्रस्तावित जनलोकपाल बिल के तहत लोकपाल खुद किसी भी मामले की जाँच शुरू करने का अधिकार रखता है।
सरकारी विधेयक में लोकपाल केवल परामर्शदात्री संस्था बन कर रह जाएगी।जनलोकपाल सशक्त संस्था होगी।
सरकारी विधेयक में लोकपाल के पास पुलिस शक्ति नहीं होगी।जनलोकपाल न केवल प्राथमिकी दर्ज करा पाएगा बल्कि उसके पास पुलिस फोर्स भी होगी।
सरकारी विधेयक में लोकपाल का अधिकार क्षेत्र सांसद, मंत्री और प्रधानमंत्री तक सीमित रहेगा।जनलोकपाल के दायरे में प्रधानमत्री समेत नेता, अधिकारी, न्यायाधीश सभी आएँगे।
लोकपाल में तीन सदस्य होंगे जो सभी सेवानिवृत्त न्यायाधीश होंगे।जनलोकपाल में 10 सदस्य होंगे और इसका एक अध्यक्ष होगा। चार की कानूनी पृष्टभूमि होगी। बाक़ी का चयन किसी भी क्षेत्र से होगा।
सरकार द्वारा प्रस्तावित लोकपाल को नियुक्त करने वाली समिति में उपराष्ट्रपति। प्रधानमंत्री, दोनो सदनों के नेता, दोनों सदनों के विपक्ष के नेता, कानून और गृहमंत्री होंगे।प्रस्तावित जनलोकपाल बिल में न्यायिक क्षेत्र के लोग, मुख्य चुनाव आयुक्त, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, भारतीय मूल के नोबेल और मैगासेसे पुरस्कार के विजेता चयन करेंगे।
सरकारी लोकपाल विधेयक में दोषी को छह से सात महीने की सजा हो सकती है और घोटाले के धन को वापिस लेने का कोई प्रावधान नहीं है।जनलोकपाल बिल में कम से कम पाँच साल और अधिकतम उम्र कैद की सजा हो सकती है। साथ ही दोषियों से घोटाले के धन की भरपाई का भी प्रावधान है।
Hindustan Times, Times of India, नवभारत टाइम्स से साभार.

रविवार, 7 अगस्त 2011

न लिखने का बहाना.....

लम्बा समय हुआ, कुछ लिखे हुए.
लिखने और न लिखने के बीच का अन्तराल जब लम्बा हो जाता है, तो कुछ भी लिखने की इच्छा ही खत्म हो जाती है.
कम से कम मेरे साथ ऐसा ही होता है. ढाई महीने से कुछ भी नहीं लिखा, तो अब लगता है , कि मेरे पास कुछ लिखने के लिये है ही नहीं. आज सोचा कुछ लिखूं, तो पता नहीं कब से बैठी हूं, की-बोर्ड पर हाथ धरे :(
आज मित्र-दिवस है, कई ब्लॉग्स पर इस दिन से जुड़ी अच्छी पोस्टें पढने को मिली. खुद भी सोचा, इसी पर लिखा जाये. लेकिन न! दिमाग़ ने मना कर दिया :(
बचपन के तमाम दोस्तों के चेहरे याद आये........लेकिन फिर सब गड्ड-मड्ड हो गये.
कॉलेज के तमाम दोस्त याद आये.... लेकिन कोई खास वाक़या याद नहीं आया :(
सामाजिक-राजनैतिक खबरें उछल-उछल के अपना चेहरा दिखाने लगीं, कि लो , मुझ पर लिखो, लेकिन दिमाग़ ने इन्कार में ही हिलते रहने की ठान ली थी, सो लगा कि इन सब मुद्दों पर बहुत लिखा जा चुका है, अब हम क्या नया लिख लेंगे?
विधु बहुत देर से ताड़ रही थी, कि मैं कम्प्यूटर भी घेरे हूं, और लिख भी नहीं रही, सो मेरी डायरी उठा लाई. बोली-" लो कोई कहानी ही टाइप कर के सेव कर दो" :)
डायरी उलट-पलट के देखी. कुछ टाइप करने का मन नहीं हुआ.
ऐसी उदासीनता तो कभी छाई ही नहीं मुझ पर!!
व्यस्तता का रोना नहीं रोया जा सकता. सब व्यस्त हैं, लेकिन लिख भी रहे हैं. ये तो मेरी अपनी ही कमी है :(
खैर.........
लिखती हूं जल्दी ही कोई संस्मरण :) :)
फिलहाल विदा, तब तक के लिये, जब तक कुछ लिखने का मन न बन जाये.
मित्रता-दिवस की अनंत शुभकामनाएं.

मंगलवार, 17 मई 2011

ठंडा मीठा बरियफ़.......

कल उमेश जी का ऑफ़िस से लौटते समय विधु के पास फोन आया-
"बेटू, कौन सी आइसक्रीम लानी है?"
" ऑरेंज बार"
"बस?"
"हां बस"
उमेश जी घर आये तो उनके हाथ में ऑरेंज बार का बड़ा सा डिब्बा था. आम महिलाओं की तरह मैने भी तुरन्त विपरीत प्रतिक्रिया ज़ाहिर कर
दी-
"अरे!!! इतनी सारी??"
"तो क्या हुआ? केवल साठ रुपये की ही तो हैं." उमेश जी मेरी चिन्ता भांप
गये थे, सो कीमत बता दी . आइसक्रीम खिलाने की ज़िम्मेदारी उमेश जी की है, इसलिये मुझे किसी भी तरह की आइसक्रीम की कीमत नहीं मालूम. जानने की कोशिश भी नहीं की . लेकिन आज हिसाब लगाया- साठ रुपये की बारह, मतलब पांच रुपये की एक!!! वाह! क्या बात है!! मुझे लगा एक मात्र यही आइसक्रीम है जो इतने कम दामों पर मिलती है.
आइसक्रीम से होते हुए फिर मेरा बचपन मेरे इर्द-गिर्द झांकने लगा.....
मुझे ठीक-ठीक याद
नहीं, लेकिन तब मैं बहुत छोटी थी और तीन पहिये वाली साइकिल चलाती थी. उस समय साइकिल पर बड़ा सा लकड़ी का बॉक्स बांधे, उसमें लाल-गुलाबी रंग के आइसक्रीम बार भरे आइस्क्रीम वाला आता था. दोपहर हुई नहीं, कि उसकी आवाज़ मोहल्ले में गूंजने लगती-
"ठंडा मीठा बरियफ़... मलाई वाला बरियफ़...(बरियफ़=बर्फ)"
हर घर की खिड़कियों के खुलने की आहट मिलने लगती. बच्चे चोरी-छिपे बाहर निकलते, अपनी पसंद की बरफ खरीदते, और दबे पाँव अन्दर. मुझे भी बहुत अच्छी लगती थी ये रंगीन बर्फ, कीमत भी केवल पांच पैसे. पंद्रह पैसे में मलाई वाली बरफ आती थी, जिसमें केवल ऊपर की तरफ थोड़ी सी मलाई लगी होती थी. एक और आइसक्रीम वाला आता था, जो कुल्फी बेचता था. ये भी जब पत्ते पर रख के कुल्फी काटता तो सब्र करना मुश्किल हो जाता . लगता, कितनी देर लगा रहा है, यहाँ लार टपकी जा रही...
स्कूल में जब हम थोड़ी बड़ी क्लास में आ गए, तो खर्चे के लिए रोज़ पच्चीस पैसे मिलने लगे. पच्चीस पैसे का मतलब समझ रहे हैं न आप? उस वक्त इतने पैसों में मैं बरफ, मूंगफली, बेर, गटागट, तिल-पापडी सब खरीद लेती थी. कई बार तो पैसे बच भी जाते थे . किसी दिन यदि पचास पैसे मिल गए, तब तो समझो राजा हो गए. समझ में ही नहीं आता था कि कहाँ खर्च करें इतना पैसा?
हाँ तो बात बरफ की हो रही थी...विषयांतर बहुत करती हूँ मैं, है न?
मेरी मम्मी को हम बहनों का बरफ खाना बिलकुल पसंद नहीं था. कुल्फी खाने पर आपत्ति नहीं थी उन्हें लेकिन उस बक्से वाले से बरफ लेकर खाना..... बरफ खाते हुए फंसती मैं ही थी. दीदियाँ तो फटाफट खा के ख़त्म कर देतीं थीं, मैं देर तक उस गुलाबी बरफ को चूस-चूस के सफ़ेद निकालने के चक्कर में धर ली जाती . मेरी मम्मी के समझाने
के तरीके बड़े अनोखे थे. एक दिन जब मैं चुपचाप बरफ खा रही थी, मम्मी ने देख लिया. कुछ बोलीं नहीं बस अन्दर गईं, थोडा सा नमक हाथ में लाईं और बोलीं-
" बेटा अपनी बरफ देना तो , देखो हम दिखाएँ कि इसके अन्दर कितने कीड़े होते हैं"
मैंने चुपचाप बरफ मम्मी को पकड़ा दी. उन्होंने बरफ ली, और उस पर नमक डाल दिया. थोड़ी ही देर में नमक ने बर्फ में तमाम छेद बना दिए. मुसकुरात हुए मम्मी ने मुझे देखा. मेरे मंह का पूरा जायका बिगड़ चुका था. लग रहा था जैसे तमाम कीड़े मेरे मुंह में बिलबिला रहे हैं...बड़ी देर तक कुल्ला करती रही.
उस दिन से लेकर आज तक मैंने फिर चूसने वाली बार टाइप आइसक्रीम नहीं खाई .
अब खाने की इच्छा भी नहीं होती. अभी देख रही हूँ, विधु बड़े स्वाद ले ले के ऑरेंज बार खा रही है..... नमक डाल दूँ क्या?

रविवार, 10 अप्रैल 2011

डॉ. कमलाप्रसाद: ऐसे कैसे चले गये आप?

25 मार्च 2011
सुबह आठ बजे दिल्ली से राजीव शुक्ल जी का फोन आया. आता ही रहता है, हम लोगों के हाल-चाल लेने के लिये, सो सहज भाव से फोन उठाया, और प्रसन्नचित्त ’ हैलो’ भेजा. उधर से राजीव जी ने कहा-
"वन्दना, एक बुरी खबर है, कमला जी नहीं रहे"
मोबाइल हाथ से छूटते-छूटते बचा.
" मैं अभी एम्स से ही आ रहा हूँ. सुबह छह बजे उन्होंने अन्तिम सांस ली."
अन्तिम सांस??? कमला जी अन्तिम सांस भी ले सकते थे क्या??
" उनका पार्थिव शरीर आज दिन भर अजय-भवन में दर्शनार्थ रखा जायेगा. शाम को विशेष विमान द्वारा भोपाल ले जाया जायेगा. सुबह भोपाल में ही अन्त्येष्टि होगी."
पार्थिव शरीर??? अन्त्येष्टि???
सारे शब्द गड्ड-मड्ड हो रहे थे.... दिमाग़ ने जैसे काम करना ही बन्द कर दिया. हां, कान अपना काम कर रहे थे, राजीव जी का एक-एक शब्द स्पष्ट सुनाई दे रहा था, लेकिन दिमाग़ में आते ही एक-दूसरे से उलझ रहे थे... हर शब्द के साथ कमला जी का चेहरा उभरता...
" मैंने कई जगह फोन कर दिये हैं, लेकिन तब भी लगता है बहुत लोग छूट गये हैं. रीवा-सतना में जो भी लोग हैं, उनको खबर दे दो. कोई भी काम बाद में करना, पहले ये खबर सब तक पहुंचाओ."
कमला जी की मृत्यु का समाचार मुझे देना होगा???
देना तो होगा ही.....
सबसे पहले हरीश धवन को फोन लगाया. मैं कुछ कहूं, उससे पहले ही हरीश ने मुझे रोक दिया.
"न, कुछ मत कहिए, खबर हो गई है."
" तब वहां, रीवा में सबको खबर देने की ज़िम्मेदारी तुम्हारी है हरीश"
सतना के कुछ लोगों को फोन किया, लेकिन हर बार लगा," कमला जी नहीं रहे", ये कहना कितना मुश्किल हो रहा है मेरे लिये... नहीं कर पाउंगी ये काम. फिर से हरीश को फोन किया, और कहा कि तुम्हीं बताओ सबको.
याद आ रहे थे कमला जी... डॉ. कमलाप्रसाद.
28 अप्रैल 1986......
तब मैं आकाशवाणी छतरपुर में युववाणी कम्पेयर थी. अप्रैल में ही छतरपुर से प्रकाशित पत्रिका’ मामुलिया" में मेरी कहानी प्रकाशित हुई, उसके ठीक बाद पत्रिका के सम्पादक श्री नर्मदाप्रसाद गुप्त का फोन आया-" मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से चित्रकूट में दस दिवसीय कहानी रचना शिविर आयोजित किया जा रहा है, क्या आप इस शिविर में भाग लेना चाहेंगीं? ज़िले से दो कहानीकारों के नाम भेजे जाने हैं’ मैने अपनी अनुमति भेज दी.
उस समय राजीव कुमार शुक्ल जी युववाणी के कार्यक्रम अधिकारी थे, और प्रलेस-इप्टा में मेरे मित्र. मैने जब उन्हें शिविर के बारे में बताया तो बोले -" ज़रूर जाओ, वहां डॉ. कमलाप्रसाद से मुलाक़ात होगी, तुम्हें अच्छा लगेगा उनसे मिल के."
निर्धारित समय पर चित्रकूट पहुंची. प्रदेश भर के 80 युवा कहानीकार मौजूद थे. म.प्र. पर्यटन विभाग के होटल "यात्रिक" के सभागार में सब एकत्रित हुए, जहां यह शिविर आयोजित होने वाला था.
एक लम्बी-चौड़ी कद-काठी, सौम्य- सुदर्शन व्यक्तित्व ने सम्बोधित करना शुरु किया. स्पष्ट स्वर, साफ़ उच्चारण, और सम्मोहक शैली. आवाज़ बहुत बुलंद नहीं, लेकिन प्रभावी, अपना असर छोड़
ने वाली.
यही थे डॉ.कमलाप्रसाद.
सभा के ठीक बाद जब सब जाने लगे, तो उनकी आवाज़ गूंजी-
" छतरपुर से यदि वंदना अवस्थी यहां आ चुकी हों, तो कृपया मंच के पास आयें."
मैं मंत्रमुग्ध सी मंच के पास पहुंची.
"तुम हो वंदना? राजीव ने तुम्हारी बहुत तारीफ़ की है. अब तुम्हें उसकी तारीफ़ और यक़ीन का मान रखना है, जाओ खुश रहो, रात में खाने पर मिलते हैं, तब बात होगी."
मतलब राजीव जी ने मेरे बारे में कमला जी को बता दिया था. लगा ज़िम्मेदारी बढ गई अब तो.
अगले दिन से शिविर तीन सत्रों में शुरु हो गया. अनेक मूर्धन्य साहित्यकार, कहानीकार शिविर में थे. शशांक,
चित्रकूट रचना शिविर में डॉ. कमलाप्रसाद जी ने मेरी डायरी में लिखा-" अनुभव को दृष्टि मिल जाये, अध्ययन से उसे व्याप्ति दे सको और कहानी के कौशल को लगातार हासिल कर पाओ, तो तुम्हारी कहानियां बेजोड़ हो सकती हैं" ये पन्ना पहले मूल्यवान था, अब अमूल्य है.
शैवाल, स्वयंप्रकाश, अब्दुल बिस्मिल्लाह, अक्षय कुमार जैन, मायाराम सुरजन, और अन्तिम दिन डॉ. नामवर सिंह भी. लगभग सभी किसी न किसी सत्र में ग़ायब रहते थे, लेकिन कमलाप्रसाद जी? लंच के बाद फिर सभागार में आ जाते, और हम नौसिखियों की समस्याएं सुलझाते. आठ समूहों में हम सब को बांट दिया गया था, और एक कहानीकार हमारा लीडर बनाया गया था. हम अपने लीडर से उतनी बात नहीं करते थे, जितना खुल के कमला जी से करते थे.
शिविर समापन के दो दिन पहले नव कथाकारों की कहानियों का पाठ होना था, और श्रेष्ठ कहानी का चयन भी.
मैं लॉबी में अपनी कहानी ले के बैठी थी. अन्त कुछ जंच नहीं रहा था. मन ही नहीं भर रहा था मेरा. तभी कमला जी आये और मेरे पास बैठ गये. बोले- " क्या बात है? कहानी लिख ली? परेशान हो?"
मैने परेशानी बताई, तो पूरी कहानी एक सांस में पढ गये, बोले अन्त में नायिका जहां अपनी चोटी लपेटने लगी है, वहां उसे खुला लहराने दो. विरोध दर्शाने दो चोटी के रूप में."
अवाक देखती रह गई मैं. बस ऐसा ही कुछ तो चाहती थी मैं! कितनी आसानी से बता गये कमला जी! अगले दिन मेरी यही कहानी" हवा उद्दंड है" शिविर में सर्वश्रेष्ठ घोषित की गई.
30 अप्रैल 1986 में होने वाली यह मुलाक़ात बाद में नियमित होने लगी, कभी प्रगतिशील लेखक मंच की बैठकों में, तो कभी इप्टा के बहाने. बाद में सतना आ गयी, लेकिन सुयोग यह कि, उस वक्त कमला जी अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय रीवा में पदस्थ थे. उनका सान्निध्य और भी अधिक मिलने लगा.
मेरा और कमला जी का 25 वर्षीय स्नेहिल रिश्ता है. इस दौरान कितना कुछ घटा, कितना कुछ सीखा....बहुत सारी घटनायें हैं, यादें हैं, यहां तो बस उनसे पहली मुलाक़ात का ज़िक्र किया है, क्योंकि कमला जी के जाने के बाद बस उनसे हुई पहली मुलाक़ात ही याद आ रही है.... उनके वो शब्द याद आ रहे हैं, जो चित्रकूट में उन्होंने मेरी डायरी में लिखे...
ये अलग बात है कि मन अभी भी ये मानने को तैयार नहीं है, कि कमला जी नहीं हैं अब.... ऐसे नहीं जा सकते आप.

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

जय हो................


अन्ना, हम तुम्हारे साथ हैं........

लिखते-लिखते-
जीते अन्ना-जीता देश......जय हो

शनिवार, 19 मार्च 2011

बेवकूफ़ियां, जो यादगार बन गयीं... (२)

लीजिये, आज मिलिये ब्लॉग-जगत के कुछ और महारथियों से और पढिये उनकी बेवकूफ़ियां, उन्हीं की क़लम से- ( समीर जी की एक शानदार कविता भी मेरे अधिकार क्षेत्र में है अब, सो यथासमय पोस्ट करूंगी)


सहानुभूति बन गई बेवकूफ़ी......समीरलाल


ट्रेपूरी भर चुकी थी, लेकिन सीट मिल गई. शायद अगले स्टेशन से पकड़ते तो खड़े खड़े ही जाना पड़
ता एक घंटे ऑफिस तक.अगले स्टेशन पर ट्रेन रुकी तो बहुत से लोग और चढ़े. अब ट्रेन में भी कुच्च्मकुच्चा हो गई. ऐसे में शिष्टाचारवश लोग किसी बुजुर्ग या गर्भवति महिला या छोटे च्चों के साथ आई महिला के लिए जगह खाली कर देते हैं और खुद खड़े हो जाते हैं. मेरे बाजू में भी एक महिला आ कर खड़ी हुई. देखा तो गर्भवति महिला थी अतः मैं अपनी सीट से खड़ा होकर उनसे आग्रह करने लग कि आप बैठ जाईये.स महिला ने मुझसे कहा कि नहीं, मैं ठीक हूँ. आप बैठिये.मैने पुनः निवेदन किया कि आप गर्भवति हैं, आपको इतनी दूर खड़े खड़े यात्रा नहीं करना चाहिये, आप बैठ जाईये. देर तक खड़े रहना स्वास्थय और आने वाले बेबी के लिए ठीक नहीं है. उसने चौंकते हुए मुझे देखा और बोली- मैं..गर्भवति...यू मस्ट बी किडिंग (आप जरुर मजाक कर रहे होंगे) और वो मुँह बनाकर डिब्बे के दूसरी तरफ चली गई. मैं झेंपा सा अपने आस पड़ोस वालों को देखने लगा. सभी मुस्करा रहे थे. मैने तो बस उसका पेट देख अंदाजा लगाया था. काश, मैं मो
टी महिला और गर्भवति महिला का स्पष्ट भेद जानता होता. मगर अब हो भी क्या सकता था-बेवकूफी तो कर ही बैठे थे. सो अपना सा मुँह लिए वापस बैठ गए सर झुकाये और राम-राम करते रहे, कि जल्दी जल्दी मेरा स्टेशन आये और मैं उतरकर गुम हो जाऊँ भीड़ में.आज भी जबयह वाकिया याद आता है तो अपनी बेवकूफी पर एक बार फिर शरम आ जाती है.चलते चलते-
कभी न रहा शर्मिंदा मैं, नमालूम वाणियों की सूफियों से
मगर मैं बच नहीं पाया, गुजर कर अपनी बेवकूफियों से...
बेवकूफ़ियां याद न दिलायें- अनूप शुक्ल
न्दनाजी आपका बेवकूफ़ियों को सिर्फ़ होली के मौके पर याद करना जंगल में स्वच्छंद विचरते जानवरों को घेरघार कर बाड़े में बंद करने जैसा है। इस सतत प्रक्रिया को केवल होली के मौके तक सीमित करके आप बेवकूफ़ों के पर करतने जैसा काम कर रही हैं। अब आपने कोई
बेवकूफ़ी याद करने के लिये कहा है। जबकि हमें लगता है कि बेवकूफ़ियां करके भूल जानी चाहिये ताकि उनको फ़िर से किया जा सके। याद रखने से बेवकूफ़ियां दोहराने में हिचक होती है।
जैसा कि हम बता चुके हैं यात्राओं में बेवकूफ़ियां चंद्रमा की कलाओं की तरह खिलती है तो हमारी कई बेवकूफ़ियां यात्राओं के दौरान हुई हैं। कई हैं लेकिन उनको याद करने में खतरा यही है कि याद आ जायेंगी तो दुबारा उनको दोहराने में मन हिचकेगा लेकिन आपके आदेश को टालना भी सही नहीं है अत: कुछ बेवकूफ़ियों को याद करने का खतरा मोल ले रहे हैं। एक बार हम दिल्ली हवाई अड्डे पर समय पर पहुंच गये। टिकट के हिसाब से जहाज उड़ने में कुछ घंटे बाकी थी। सो हम मारे स्मार्टनेस के जस्ट इन टाइम चेक इन करने का मंसूबा धरे हवाई अड्डे पर चाय-काफ़ी पीते रहे, हवाई अड्डे से ब्लागिंग करते रहे। जब टिकट के अनुसार समय हुआ तो हम खरामा-खरामा टिकट लेकर चेक इन के लिये पहुंचे तो पता चला कि जहाज तो दो घंटे पहले रवाना हो चुका था। फ़िर तो हमने अपनी स्मार्टनेट को किनारे धकेलकर चेहरे पर बेवकूफ़ी और दीनता धारण की और तू दयालु दीनि हौं तू दानि हौं भिखारी वाली मुद्रा में संबंधित अधिकारी से अनुरोध किया कि अगर मैं पूना नहीं पहुंचा तो न जाने क्या-क्या हो जायेगा। उस भले मानुष ने भी काम भर की दया करके हमें अगले हवाई जहाजसे पूना तो नहीं लेकिन मुंबई तक तो पहुंचा ही दिया। यह मासूम किस्सा यहां विस्तार से वर्णित है। अपनी यह हसीन बेवकूफ़ी बयान करने के बाद लगा कि कुछ बेवकूफ़ियां कई पीढियों तक सफ़र करती हैं। खुशबुओं की तरह फ़ैलती हैं। अभी इसी हफ़्ते मेरा बड़ा बालक अपने कुछ साथियों के साथ एक स्कूली प्रोजेक्ट के सिलसिले में अमेरिका के टेक्सास में डलास गया था। साल भर दिन-रात एक करके बालकों ने एक हसीन सा हवाई जहाज बनाया था। उसे एयरो कम्पटीशन में ले जाने के लिये बुक कराया था। वहां पहुंचकर बालकगण मस्ती करने लगे यह सोचते हुये कि मालवाहक कम्पनी अपने आप उस जहाज को गंतव्य तक पहुंचायेगी। लेकिन वहां कस्टम वालों की सतर्कता का उनकी बेवकूफ़ियों से मुकाबला हो गया। कस्टम वालों ने जहाज के माडल को संवेदनशील मानकर लटका दिया और उसे छोड़ने के लिये तब राजी हुये जब कम्पटीशन तक पहुंचने की उसकी आशायें समाप्त हो चुकी थीं। इतना सतर्क अमेरिकन कस्टम वाले हमेशा रहे होते तो शायद ट्विन टावर पर न मोमबत्तियां जलतीं और न ही उनकी फ़ौज इराक में फ़ंसी होती। पहले तो हमने मौका पाकर बालक को ढेर सारी एक्सपायरी डेट वाली नसीहती झिड़कियां देने की बेवकूफ़ी शुरु की। फ़िर अचानक सहज बुद्धि का तूफ़ान आ गया और बापप्रेम की पिता प्रेम की वर्षा होने लगी। यह जानकर बड़ा सुकून मिला कि बालक अपने पिता की बेवकूफ़ी की परम्परा को आगे बढ़ा रहा है। हमने उसे कहा मस्त रहो और वही आपसे भी कह रहे हैं। बुरा न लगे इस लिये बुरा न मानो होली है भी कह दे रहे हैं।
कितना बड़ा पागल??- सतीश सक्सेना
मेरी तारीफ़ करने लायक बात पूंछ्तीं तो अच्छा लगता ...खैर आपका आदेश टाला नहीं जा सकता !यादगार बेवकूफी ...
कोई १९७६ की बरेली में, कुंवर पुर मोहल्ले में, ह
दो सहपाठियों ने ,एक कमरा किराये पर ले रखा था ! एक दिन क्लास से बापस लौटते समय घर के सामने बने हुए कुएं पर भीड़ देखी जो की रस्सी में बाल्टी डाल क
, बंद अंधे कुंएं में गिरे
एक पिल्ले को बाहर निकालने की कोशिश कर रहे थे !
बेचारा पिल्ले के चिल्लाने की आवाज सुनकर मैंने लोगों से
कहा
कि आप
में से
कोई नीचे क्यों नहीं उतर
जाता ??तो जवाब मिला कि कह किसे रहे
हो तुम्ही
उतर जाओ ! बस ताव में आते ही , मैंने अपनी किताबें उसे दे जूते उतार , रस्सी पकड़ कुंए में उतरने लगा ! फिसलन भरी दीवार पर, पैर का सहारा लेते, नीचे शीघ्र ही पंहुच गया था म
गर पिल्ले को उठाकर बाल्टी में डालते डालते कुछ खतरा सा महसूस हुआ ! बंद सड़े हुए पानी और उसमें से उठती हुई गैस , ने मेरा दम घोंटना शुरू कर दिया था
!
खतरे का अहसास होते ही शरीर में जान बचाने के लिए अतिरिक्त ताकत आ गयी थी और ऊपर चढ़ना शुरू कर दिया मगर पैर रखते ही फिसलन भरी काई से, पैर फिसल जा रहा था ! घबरा कर लोगों को चीख कर, ऊपर
खींचने के लिए आवाज लगायी !इसके बाद मुझे नहीं मालूम कि मैं कैसे ऊपर पंहुचा था ...
जब होश आया था तो घर में मकान मालकिन अम्मा मु
झ पर पानी छिडकते हुए गालियाँ दे रही थी
कि उन्हें
मालूम
नहीं था कि मैं इतना बड़ा पागल हूं......
पे
स्ट
ना
म शे
विं
ग क्रीम- कुश
दो
साल पहले की बात है-
सुबह से होली खेलने का सिलसिला शुरू हो गया. दोपहर को जब घर आया, उस समय तक रंग की कई परतें मेरे चेहरे पर चढ़ चुकीं थीं. आँखों में भी रंग की जलन महसूस हो रही थी, और दांतों में रंग का कडवापन, सो घर आते ही बाथरूम में घुस गया और सोचा पहले ब्रश कर लूं . अधमुंदी आँखों से ही पेस्ट उठाया,ब्रश पे लगाया और ज़ोर-ज़ोर से रगड़ने लगा ताकि दांत चमकने लगें. लेकिन ये क्या? पेस्ट का स्वाद कुछ बदला-बदला सा लगा, मुंह से भी ढेर-ढेर झाग बुलबुले बन निकलने लगा......तुरंत कुल्ला करने के लिए पानी मुंह में भरा तो झाग और बढ़ गया, तब समझ में आया कि जल्दबाजी में पेस्ट की जगह शेविंग क्रीम ब्रश पे लगा बैठे थे :)



हमारी गुप्तकालीन बेवकूफ़ी - अजित वडनेरकर
बेवकूफियां तो खूब की हैं और आज तक जारी हैं। मेरी ज्यादातर बेवकूफ़ियाँ शरारती सिफ़त की देन हैं क्योंकि खुद को बडा होने ही नहीं दिया है। अभी इतने बड़े नहीं हुए कि खुद से बाहर बचपन ढूंढना पड़े। हालांकि खुद की शरारतों को मैं शरारतों की श्रेणी में नहीं रखता। मेरी फितरत ही ऐसी थी कि मेरी हरकतों को शरारत समझा गया। हमारा बचपन मध्यप्रदेश के सर्वाधिक पिछड़े जिलों में एक राजगढ़ मुख्याल पर हुआ। यह जिला राजस्थान सीमा से सटा हुआ है और प्रदेश के मालवांचल का उत्तर पश्चिमी छोर कहलाता है। एक मिसाल। नवीं कक्षा में हम थे तो साइंस के विद्यार्थी मगर सोशल साइंस जैसे विषयों के तहत इतिहास भी पढ़ना पड़ता था। इतिहास हमारा प्रि
य विषय रहा है । ये अलग बात है हमारे पाठ्यक्रम में ये कभी रहा। सोशल के पीरियड में ही प्रसंगवश शिक्षक समझा रहे थे कि मौर्य वंश से पहले भारत की एकता खतरे में थी। यूनानियों ने पश्चिमी सरहद पर अपनी बस्तियां बना ली थीं। पूरे भारत में अस्थिरता थी। राजमहलों में भितरघात और षड्यंत्रों का बोलबाला था। चापलूस दरबारियों की बन आई थी और राजा अहंकारी व निरंकुश हो रहे थे। इस दौर में कोई किसी पर भरोसा नहीं करता था। लगातार सत्तापरिवर्तन हो रहा था। असुरक्षा इतनी थी कि मुख्य शासक या प्रशासक रोज अपने शयन के ठिकाने भी बदल देते थेताकि सोते में उनकी हत्या न कर दी जाए। वगैरह वगैरह….
हमने ये सब कुछ नहीं सुना। हम तो अपनी खिड़के के पास वाली जगह पर बैठ कर बाहर का नजार कर रहे ते। अलबत्ता इतना ज़रूर पता था कि मौर्यकाल के बारे में कुछ चल रहा है। बीच-बीच में चंद्रगुप्त , महापद्मनंद, चाणक्य वगैर भी नज़र आ जाते
थे मगर कुल मिलाकर गुरुजी के मुखारविंद से जो इतिहास झर रहा था, उसकी तरफ ध्यान नहीं था। अचानक तेज आवाज से हमार ध्यान भंग हुआ - वडनेरकर…
हम चेते, कहा -जी सर।
बताइये, नंद वंश के अंतिम दौर में शासक रोज़ अलग अलग कमरों में क्यों सोता था ?
हमने भी तपाक से
जवाब दिया- -क्योंकि उनकी बहुत सारी रानियां होती थी ...
इसके बाद प
ता नहीं क्या हुआ सारी क्ला जोर जोर से हंसने लगी। दो लड़कियां भी हमारे साथ पढ़ती थी, उन्होंने अपना
मा
था टेबल पर टिका दिया। लड़के टेबल पीटने लगे। शिक्षक निरीह भाव से हमें देखते रह और फिर बैठने का इशारा कर
दिया।
शाम को जब हम हमेशा कि तरह किसी किताब को पढ़ने में मशगूल थे, हमने उन्ही शिक्षक को अपने घर मे प्रवेश करते देखा। हम समझ गए कि माम
ला नंदवंश से जुड़ा हुआ ही है। हमारे माता-पिता भी शिक्षक थेसो उन्हें पता था इसीलिए वे शाम को आए थे। बहरहाल,
हमने खुद को उसी वक्त बाथरूम में बंद कर लिया। उसके बाद कई बार हमारे नाम की आवाज़ लगी हम बाहर नहीं निकले। लंबे अंतराल के बाद जब लगा कि रास्ता साफ है, हम गुनगुनाते हुए कमरे में दाखिल हुए तो देखा कि गुरुवर तब भी बैठे हुए थे और बातचीत जारी थी। बहरहाल, जैसा सोचा था , वैसा कुछ नहीं हुआ। वो आए भी और चले भी गए। बाद में हमारे माता-पिता ने बताया कि वे हमारी प्रत्युत्पन्नमति की प्रशंसा करने आए थे। हालाँकि हम आज तक इस संस्मरण को अपनी बेवकूफियों में ही याद करते हैं। होली मुबारक हो....
लो जी, फिर बेवकूफ़ बन गये- अर्कजेश
वंदना जी का मेल मिला कि होली पर परिचर्चा पोस्‍ट के लिए अपनी यादगार बेवकूफी जाहिर कीजिए। चार दिन पहले मेल कर रही हूँ और आप लोगों के लिए तो एक घंटा ही काफी है। मतलब यदि किसी ने कभी कोई बेवकूफी न की हो (यदि ऐसा कोई समझता हो) तो अभी भी उसके पास चार दिन का समय था। यह बात अलग है कि वंदना जी मानती हैं कि हमारे जैसे कुशाग्र बेवकूफ के लिए एक घंटा ही काफी
है कोई बेवकूफी कर मारने को। पहले मैंने समझा कि होली पर की गई बेवकूफियों के बारे में लिखने को कह रही हैं। बाद में पता चला कि सिर्फ होली पर ही नहीं कभी भी कैसी भी की हो तो चलेगी। एक बेवकूफी तो हमारी यही हो गई। बेवकूफियॉं इतनी ज्‍यादा हो गई हैं कि याद ही नहीं आ रहीं कि कौन सी बेवकूफी लिखें। जैसे खरब‍ पतियों को याद नहीं रहता कि उनके पास कितनी दौलत है, क्‍योंकि ऐसे लोग खुद दौलत के पर्याय बन जाते हैं। वैसा ही हमारा हाल समझिए।अब बताइए भूमिका में ही आधा पेज खा गए और अभी बात शुरु भी नहीं हुई। सभी को होली की शुभकामनाऍं। और-
कबूलते रहें अपनी बेवकूफियां, जिससे
हम भी कह सकें "बडे" बेवकूफ हैं आप

हम हर वक्त नादानी नहीं करते- शाहिद मिर्ज़ा
वंदना जी आप भी ना :)
चलिए अपनी बात एक शेर के ज़रिये कहने की कोशिश करते हैं-
मुलाहिज़ा फ़रमाएं :) :) :)
हमारी ज़ि
न्दगी में कुछ शरारत का भी हिस्सा है
समझदारी की हम हर वक़्त नादानी नहीं करते.
अब बात चली है तो सोच रहे हैं कि बताएं....या न बताएं?
चलिए बता देते हैं.....
नहीं,
आप सबको बता देंगी :)
अरे हम भी अजीब
बेवक़ूफ़ हैं,
जो ऐसी बेवक़ूफ़ी भरी बातों में आ गए,
कि अपनी बेवक़ूफ़ी बताने चल दिए
अब आ गए हैं तो....
लीजिए बन ही गए न....
’बेवक़ूफ़’
भांग की मस्ती और रेलवे स्टेशन का हुडदंग -डॉ०
कुमारे
न्द्र सिंह सेंगर
होली आये और होली में किये हुए हुड़दंग भी याद न आयें तो समझो कि होली मनाई ही नहीं। हम लोग संयुक्त परिवार में रहते आये हैं और अपने बचपन से ही सभी पारिवारिकजनों के साथ ही होली का मजा लूटते रहे हैं। होली जलने की रात से शुरू हुआ धमाल कई-कई दिनों तक चलता रहता था। बचपन में अपने बड़ों की मदद से होली का हुड़दंग किया जाता था लेकिन स्वतन्त्र रूप से होली का हुड़दंग मचा जब हम अपनी उच्च शिक्षा के लिए ग्वालियर गये। हॉस्टल का माहौल एकदम पारिवारिकता से भरपूर था। हम सभी छात्रों के बीच किसी तरह का भेदभाव नहीं था। पहला ही साल था और हम सभी मिलकर दीपावली, दशहरा आदि अपने-अपने घरों में मनाने के पहले हॉस्टल में एकसाथ मना लिया करते थे। इसी विचार के साथ कि होली भी घर जाने के पहले हॉस्टल में मना ली जायेगी सभी कुछ न कुछ प्लानिंग करने में लगे थे। हम कुछ लोगों का एक ग्रुप इस तरह का था जो हॉस्टल की व्यवस्था मेंकुछ ज्यादा ही सक्रिय रहा करता था। इसी कारण से उन दिनों हॉस्टल की कैंटीन की जिम्मेवारी हम सदस्यों पर ही थी। होली की छुट्टियां होने के ठीक दो-तीन दिन पहले रविवार था। रविवार इस कारण से हम हॉस्टल वालों के लिए विशेष हुआ करता था कि उस दिन एक समय-दोपहर का- भोजन बना करता था, खाना बनाने वाले को रात के खाने का अवकाश दिया जाता था। रविवार को पूड़ी, सब्जी, खीर, रायता आदि बना करता था। हमसदस्यों ने सोचा कि कुछ अलग तरह से इस दिन का मजा लिया जाये। हमारी इस सोच में और तड़का इससे और लग गया जब पता चला कि हॉस्टल के बहुत से छात्र उसी रविवार को अपने-अपने घर जा रहे हैं। रविवार के भोजन को खास बनाने की योजना हम दोस्तों तक रही और अन्य सभीछात्रों के साथ आम सहमति बनी कि होली इसी रविवार को खेली जायेगी, उसके बाद ही जिसको घर जाना है वो जायेगा। हम दोस्तों ने अपनी योजना के मुताबिक उस दिन खाने में खीर में खूब सारी भांग मिलवा दी। इसी बीच कुछ छात्र जो होली नहीं खेलना चाहते थे और उन्हें घर भी जाना था, सो उन्होंने खीर भी इतनी नहीं खाई थी कि नशा उनको अपने वश में करता। ऐसे लगभग पांच-छह छात्रों ने हॉस्टल की दीवार फांदकर रेलवे स्टेशन की ओर भागना शुरू किया। उनके दीवार फांदने का कारण ये था कि हम सभी रंगों से भरी बाल्टी आदि लेकर दरवाजे पर ही बैठे थे कि कोई भी बिना रंगे घर न जा पाये। इस बीच उनका भागना हुआ और हम लोगों को भनक लग गई कि कुछ लोग जो हमारी इस होली में साथ नहीं हैं वे पीछे से भाग गये। बस फिर क्या था, होली का हुड़दंग सिर पर चढ़ा हुआ था, भांग का नशा अपनी मस्ती दिखा ही रहा था, हम सभी जो जिस तरह से बैठा था वैसे ही रेलवे स्टेशन की तरफ दौड़ पड़ा। कोई नंगे पैर तो कोई एक पैर में चप्पल-एक पैर में जूता बिधाये; कोई शर्ट तो पहने है पर पैंट गायब तो कोई नंगे बदन दौड़े ही जा रहा था। और तो और क्योंकि उन्हें रंगना भी था जो बिना रंगे निकल पड़े थे तो हाथों में रंगों से भरी बाल्टी भी लिये सड़क पर दौड़ चल रही थी। आप सोचिए कि बिना होली आये, होली जैसी मस्ती को धारण किये एकसाथ लगभग 20-25 लड़के बिना किसी की परवाह किये बस सड़क पर दौड़े चले जा रहे थे। लगभग चार-पांच किमी की दौड़ लगाने के बाद स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर हुरियारों की टोली पहुंच ही गई, वे भी बरामद हो गये जिनको रंगना था। बस फिर क्या था चालू हो गई होली रेलवे स्टेशन पर ही। मस्ती का मूड, भांग का सुरूर, अपने साथियों को रंगने के बाद अपनी तरह के ही कुछ मस्ती के दीवाने यात्रियों को रंगना शुरूकिया। कुछ देर का हुल्लड़ देखने के बाद प्लेटफॉर्म पर बनी चौकी के सिपाहियों ने आकर दिखाये दो-दो हाथ तो रंगीन हाथ उनके साथ भी हो गये पर बाद में डर के मारे सभी वापस हॉस्टल लौट पड़े। आज भी कभी-कभी होली में भांग का स्वाद लेने का प्रयास किया जाता है तो हॉस्टल की होली और रेलवे स्टेशन का हुड़दंग याद आये बिना नहीं रहता है।

वो यादगार होली- रूपचन्द्र शास्त्री ’यंक’

लगभग 37 साल पुरानी बात है। उस समय मेरी नई-नई शादी हुई थी! पहली होली

सु

रा

ल में

मनानी थी। इसलिए मैं और मेरी

श्रीमती जी होली के एक दिन पहले ही रुड़की पहुँच गए थे।

उस समय मेरी इकलौती

साली का विवाह नहीं हुआ था। उसे भी जीजाजी के साथ होली खेलने की बहुत उमंग चढ़ी थी। रात में खाना खाकर सभी

लोग एक बड़े कमरे में इकट्ठे हो गये। उस कमरे में छत पर लगे बिजली के पंखे के साथ तीन गुब्बारे लटके हुए थे

सभी लोग ढोल-मंजीरे के साथ गाना गाने में और हँसी ठिठोली में मशगूल थे। तभी मेरी सलहज साहिबा ने मुझे डांस करने के लिए राजी कर लिया और नाच-गाना होने लगा। मेरी साली तो न जाने कब से इस मौके की फिराक में थी।

जैसे ही मैं पंखे से लटके गुब्बारों के नीचे आया साली ने सेफ्टीपिन से इन गुब्बारों को फोड़ दिया और बहुत गाढ़े लाल-हरे और बैंगनी रंग से मैं सराबोर हो गया।

आज भी वो होली मुझे भुलाए नहीं भूलती!

र पुलाव या मटन पुलाव??- शिखा वार्ष्णेय

अरे वंदना जी ये

क्या

पूछ लिया :) :) ..बेबकूफी और वह भी जो याद रह जाये ..बहुत नाइंसाफी है अब भला कितनी याद रखे कोई

? और

क्यों भला ?.खैर आपने पूछ ही लिया है तो अपने बचपन की एक बेबकूफी बताते हैं .

कोई १२- १३ साल की उम्र रही होगी हम तीनो बहने, पापा मम्मी के साथ मुंबई घूमने गए थे .जिस होटल में ठहरे थे उसके नीचे ही रेस्टोरेंट था .तो पापा ने हम बहनों को भेज दिया और क
हा कि तुम
लोग नीचे जाकर खाना खा आओ और हमारे लिए एक मटर पुलाव पैक करा कर ले आना.अब हमें जिम्मेदारी सौंपी गई थी तो रोब में हम गए और मेनू देखा. क्रम से लिखा था वेज पुलाव .चिकेन पुलाव,मटर पुलाव ..जल्दबाज हम जनम से हैं. तो हमने आव देखा ना ताव दो मटर पुलाव आर्डर
कर दिए .

अब खाना आया हमने खाया और एक मटर पुलाव पैक करा कर ले गए .पापा ने पूछा कितने का आया हमने बताया कि वेज पुलाव ३५ रु ...(सही रेट याद नहीं अभी ) का था और मटर पुलाव ५५ रु का .अब पापा का माथा ठनका कि मटर पुलाव वेज पुलाव से महंगा कैसे .? उन्होंने पेकेट खोला सूंघा और कहा इसे नीचे कोई भिखारी घूम रहा होगा उसे दे आ. अब माजरा समझ आया और हम भागे सिंक की ओर उल्टियां करने .असल में हुआ यह था कि जल्द बाजी में हमने मटन को मटर पढ़ लिया था और उसके नीचे पीस पुलाव पढने तक की जहमत नहीं उठाई थी.और मटर की जगह मीट पुलाव खा कर और लेकर आ गए थे . तब हम शाकाहारी हुआ करते थे और हमारे माता पिता शुद्ध शाकाहारी.तीन दिन तक जाने कैसा कैसा लगता रहा जीभ पर भी और मन में भी .खैर अपनी इस बेबकूफी की वजह से हमारा जो धर्म भ्रष्ट हुआ वो तो अलग बात है . परन्तु इस बेबकूफी ने उस भिखारी की ईद जरुर करवा दी.

क्यों बताऊं अपनी बेवकूफ़ी?- इस्मत ज़ैदी
वंदना , तुम भी कहाँ कहाँ से ढूंढ कर विषय लाती हो ?यादगार बेवक़ूफ़ी .....
...अरे एक हो तो बताएँ न ....भरे पड़े हैं क़िस्सेकोई बेवक़ूफ़ी ऐसी जो हंसी मज़ाक़ में टल गई
कोई ऐसी जो याद कर लूं तो आज भी शर्मिन्दा हो जाती हूँ और एक - दो ऐसी भी जो मुझे बहुत दुखी कर देती हैं तो ...न हम दुखी होना चाहते हैं ,न शर्मिन्दा और जो बात टल गई सो टल गई हा हा हा
होली बहुत बहुत मुबारक़ हो आप सब को.
(इस्मत साहिबा, आप बतायें या न बतायें, आपकी तमाम बेवकूफ़ियों का लेखा-जोखा है मेरे पास,
वो तो मेरी भलमनसाहत है, जो यहां ज़िक्र नहीं कर रही.)


" रउआ हंस दीं तो भोर हो जाई
" - रश्मि रविजा
अव्व
तो म
हिलाएँ बेवकूफियाँ करती नहीं हैं...भाई-पति-बेटे की बेवकूफियाँ सुधारने में ही उनका सारा समय निकल जाता है.:) पर कभी कभी कुछ ऐसा हो जाता है कि अनजाने ही की गयी कोई हरकत...इस श्रेणी में आ जाती है.
मेरे चाचा की लड़की की शादी हुई. खानदान की पहली शादी...हम सब बड़े उत्साह में थे ...शादी की तैयारियों से लेकर शादी की रस्मे....और उस
के बाद दीदी-जीजाजी का मायके आगमन, सब भरपूर एन्जॉय कर रहे थे. दीदी मायके आई हुई थी और उसके ससुराल के गाँव से एक चचेरा देवर उस से मिलने आया. हमलोगों को तो मजाक बनाने के लिए एक नया मुर्गा मिल गया...जीजाजी की खिंचाई भी चलती रहती थी...पर थोड़े एहतियात से.....कहीं उन्हें कुछ बुरा ना लग जाए..और फिर मम्मी-चाची से डांट ना खानी पड़ जा
ए. पर ये लड़का सीधा-साधा...हमारा हमउम्र....कॉलेज में पढनेवाला था... पर एकदम पूरे बाहँ की कमीज और गले तक बंद बटन और टेढ़ी मांग का
ढ कर करीने से सँवारे बाल {शायद थोड़ा तेल भी लगा हुआ था :)} ने ही हमें इशारा दे दिया कि इसकी जम का खिंचाई की जा सकती है. और हम लोग शुरू हो गए. सारी बहनें उसे घेर कर बैठ गए. बहनों में सबसे बड़ी मैं ही थी...सो कमान मैने संभाला हुआ था. हमलोग कुछ पूछते ...वो बेचारा जबाब देता और उसका जबाब हम सबकी समवेत हंसी में गुम हो जाता. देर तक ये सिलसिला चलता रहा उसकी हर बात पर हम जोर-जोर से हँसते ..उसने निरीह सी एक मुस्कराहट चिपका रखी थी, चेहरे पर. करता भी क्या....इतनी सारी लड़कियों के बीच उसकी बोलती बंद थी. जब नाश्ता आया...और जैसे ही उसने प्लेट की तरफ हाथ बढाया...हमने टोक दिया.."अरे अरे...अकेले अकेले खायेंगे....अपनी भाभी को पूछा भी नहीं...क्या खयाल रखेंगे आप हमारी दीदी का.." वो बेचारा रुक कर दीदी से आग्रह करने लगा....दीदी कहती रही ," आप इनकी मत सुनिए ..शुरू कीजिए.." दीदी के एक टुकड़ा ले लेने पर जब दुबारा उसने प्लेट की तरफ हाथ बढाने की कोशिश की...तो हमने फिर टोक दिया....."हमसे तो पूछा ही नहीं " . बेचारा फिर झेंप कर रुक गया. पूरे आधे घंटे तक हमने उसे उन लड्डू-बर्फी-समोसों-हलवा को बस ललचाई नज़रों से ताकने ही दिया...हाथ नहीं लगाने दिया. अब शायद दीदी को भी थोड़ा बुरा लगने लगा था...एक तो नया -नया रिश्ता और उस पे शायद सोच रही होगी..कहीं इसका बदला उससे ससुराल में ना लिया जाए. वो हमें मना करती रहती. पर हम सब तो अपनी धुन में थे. आखिरकार उसने दूसरी तरफ बात मोड़ने को कहा...,"ये बहुत अच्छा गाना गाते हैं...कॉलेज के प्रोग्राम में भी गाते हैं...एक गाना सुनाइये
"...हम और खुश हो गए...अब तो हंसी उड़ाने का एक और मौका मिल गया. हमने एक दूसरे की तरफ छिपी नज़रों से देखते हुए जोश बढाया..."हाँ ..हाँ सुनाइए" एकदम से उस लड़के की भाव-भंगिमा में परिवर्तन आ गया. कंधे थोड़े सीधे हो गए..तन कर बैठ गया और गला साफ़ करते हुए बोला.."एक लोकगीत सुनाता हूँ" हम फिर से हँसे, पता नहीं ये क्या गाने वाला है...पर वो उसके
सामने हमारी आखिरी हंसी थी. एक तो उसका गला बहुत ही अच्छा था. और उसने गाना भी ऐसा चुना...हर पंक्ति में विभिन्न उपमाओं से 'हंसी' को वर्णित किया गया था. और सीधा मेरी तरफ गर्व से देखते हुए जो तरन्नुम में गाया उसने ..मुझे समझ नहीं आ रहा था...किधर देखूं. दो पंक्तियाँ तो अब भी याद हैं.
"राउया हंस दीं तो भोर हो जाई
सारी दुनिया अंजोर हो जाई"
उसका गाना ख़त्म होते ही मैं बहाने से उठ कर चली गयी...फिर वो जब तक रहा,उसके सामने नहीं आई.
अब हो जाता है..ऐसा कभी कभी...हमलोग भी तो इंसान ही हैं ना..:)

नहीं भूलती डायपर की खरीददारी- ज्योति सिंह
तुम्हारा भी जवाब नहीं. ऐसे ऐसे टॉपिक चुनती हो कि बीते हुए दिन तुरंत ताज़ा हो उठाते हैं. और हंसी की पिचकारी फूट पड़ती है. एक ऐसी ही बेवकूफी मैं भी कर बैठी रही. बात कई वर्ष पहले की है, तब मेरी बेटी बहुत छोटी थी, आठ-नौ माह की. उसके लिए डायपर लेने जनरल स्टोर गई और दुकानदार से बोली एक पैकेट huggies दे दीजिये. दूकानदार ने पूछा किसके लिए? मैं सोची ये कैसा बेहूदा सवाल कर रहा है? तुरंत तेज़ आवाज़ में लगभग चिल्लाते हुए बोली- "मेरे लिए, और किसके लिए?" ये सुनते ही दुकान पर मौजूद सभी लोग मेरी तरफ देखने लगे, मेरे साथ मेरी पडोसी मित्र स्नेह भी रहीं , तुरंत बोलीं- भाभी जी, ये क्या कह रही हैं?मैंने कहा ये पूछ ही ऐसे रहे हैं. तभी दुकानदार ने कहा- भाभी जी, डायपर तो बच्चों की उम्र के हिसाब से मिलते हैं, आपको कितनी उम्र के लिए चाहिए? बस फिर क्या था? मैं अपनी बेवकूफी पर इतनी शर्मिंदा हुई, और बाकी सब ठहाका लगा के हंस पड़े. आज भी दूकानदार मुझे देख के हंस पड़ता है और मैं अपनी बेवकूफी पर.

रादेव जी, आप पहले क्यों न आये?- प्रियदर्शिनी तिवारी
मेरे द्वारा की गई बेवकूफ़ी ..हूंह,कैसी-कैसी बातें ,कैसे-कैसे टॉपिक आपके दिमाग में आते हैं .आप की तस्वीर देखकर तो ऐसा नहीं लगता कि पका दिमाग इतना खुराफ़ाती [यह शब्द मेरी मम्मी बहुत बोलती हैं ] होगा
.सच-सच कहूं तो इस टौपिक पर लिखना मेरे लिये बहुत मुश्किल है जानेंगी क्यूं ?,क्योंकि जिन्दगी भर से मैं बेवकूफ़ी ही करती आ रही हूं. और कोई भी इतनी स्टैन्डर्ड नही है.जिसे लिखकर मैं आपके पास भेज सकूं .जब मैं ग्यारहवीं का एग्जाम दे रही थी ,तब मैंने प्री-आयुर्वेद का टैस्ट दिया .पता नहीं कैसे मेरा सेलेक्शन हो गया..वह भी बिना किसी तैयारी के ,मुझे घमंड आना लाजिमी था.सोचा.जब पहली बार में मेरा सेलेक्शन हो गया तो क्यूं ना अगली बार एम बी बी एस का एग्जाम दूं सो मैंने एड्मीशन नही लिया .उस समय बाबा रामदेव जी को कोई नहीं जानता था .सो आयुर्वेद कि स्थिति
थोडी दयनीय सी थी .बैडलक ,अगले साल मैंने साईंस के विषय त्यागकर लिटरेचर के विषय अपनाये.सोचा पी एच डी करूंगी .जो अभी तक ना हो पाई .कुछ समय बाद बाबा रामदेव टी वी पर अवतरित हुए .जब से उन्होंने आयुर्वेद को घर-घर पहुंचाया है ,सच मानिये ,सोच कर ही मेरा गला भर आता है .जब भी ’"दिव्य योग "चिकित्सालय के पास से गुजरती हूं ,उसके अन्दर अपने आप को बैठा हुआ पाती
हूं .मुझे भी अब आयुर्वेद कि काफ़ी जानकारी हो गई है ,[रामदेव जी की कृपा से ] पर उससे क्या ..जो बेवकूफ़ी मैंने की है ,भुला नहीं सकती .हैप्पी होली.