गुरुवार, 30 नवंबर 2017

च्यूइंग गम सा चबा रही हूं कहानियों को : उषाकिरण

महीने भर इंतज़ार करवाया उषाकिरण  ने, लेकिन आज जब उनकी पोस्ट देखी, तो मन बल्लियों उछलने लगा। आप भी देखें क्या लिखा उन्होंने।
बातों वाली गली
लम्बे इंतजार के बाद आज कासिद ने “बातों वाली गली” लाकर दी..बेसब्री से पैकिंग फाड़फूड़ कर फेंकी..उलटी-पलटी..सुंदर कवर ,हाथ में लेते ही गुनगुनाती ,फुसफुसाती,ठहाके लगाती आवाजें कानों में खुसपुस करने लगीं...पढ़ रही हूं जैसे च्यूंइंगम सी चबा रही हूं ..वन्दना बिना ताम-झाम ,बिना भारी भरकम कथानक और बिना बोझिल संवादों के जितनी सहजता ,सरलता से रोचक कहानियां लिखी हैं पढ़ते लगता है कि अरे ऐसा 
तो रोज होता है हमारे साथ या हमारे आस-पास ..तो हम क्यों नहीं लिख सकते भई ,हम भी लिख सकते हैं ऐसी कहानियां ..बस क्लिक नहीं हुईं..पर लिखी तो नहीं न उषा किरण ..इसी लिए तो तुम ,तुम हो वन्दना अवस्थी दुबे नहीं न ...वैसे हो बहुत खतरनाक आपसे मिलते बहुत सावधान रहना होगा ..गज़ब की ऑब्जर्वर हैं आप..जैसे आंखों में एक्सरे मशीन फिट हो..और फिर इतनी खूबसूरती से वो सारा मसाला कहानी में मिलाया आपने..आपकी सभी कहानियां कितनी अपनी सी लगती हैं..छोटे-छोटे सादे से वाक्यों के साथ आपका अपना मन्तव्य भी चलता रहता है..जैसे किसी कोने में बैठ देख रही हैं सब और बड़बड़ा रही हैं ।अचानक आगंतुक के आ जाने पर हुई हड़बड़ाहट ,बेरोजगारी की बेचारगी,गली मोहल्ले के लोगों की ताक -झांक वाली मानसिकता,बस में बत्तमीजी झेलती महिलाओं की मन:स्थिति जैसे विषयों को बहुत खूबसूरती से उठाया है..सारी कहानियां बहुत ही रोचक हैं कहानी के शीर्षक और अंत भी बहुत रोचक लगे वन्दना..कहानी की आखिरी लाइन एकदम मामूली होने पर भी आशा का बीज बो जाती हैं ,राहत देती हैं ..पाठक को खुद ही आगे का कथानक गढ़ने पर मजबूर करती हैं..लगता है चलते -चलते जिंदगी एक लम्बी सांस लेती है और फिर आगे बढ़ती है खरामा-खरामा नए जोश,नए कथानक के साथ..आखिरी कहानी शिव बोल मेरी रसना ..बहुत रोचक लगी बाबा राम रहीम की याद दिला गई..अलग-अलग दायरे , ज्ञातव्य ,बातों वाली गली,हवा उद्दंड है , रमणीक भाई नहीं रहे ,सब जानती है शैव्या ,प्रिया की डायरी, बड़ी हो गई हैं ममता जी आदि सभी कहानियां बेहद रोचक हैं..इतनी सुंदर पुस्तक लिखने के लिए बहुत बधाई और शुभकामनाएं वन्दना जी ..उम्मीद है भविष्य में भी हमको आपकी ऐसी बहुत सी किताबें पढ़ने को मिलेंगी ...किताब पढ़ कर तुरंत अपनी प्रतिक्रिया लिखी थी पर फिर कहीं लिखा हुआ रख कर भूल गई..आज मिली तो प्रस्तुत है

मंगलवार, 21 नवंबर 2017

निष्ठा की कलम से-बातों वाली गली

वंदना दी की किताब सोमेश के मार्फ़त मिली। जब से किताब के बारे में मालूम चला था, तब से ही पढ़ने के लिए उत्साहित थी। और मिली उसके कुछ दिन बाद ही पूरी किताब पढ़ ली थी। पर उस पर यहाँ लिखना कुछ व्यस्तताओं की वजह से इतनी देर से हो पायेगा, यह मुझे भी न मालूम था। सो अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने में देरी के लिए वंदना दी से क्षमाप्रार्थी हूँ।
कुछ कहानियां होती हैं जो आपके दिल को छू जातीं हैं यह किताब कुछ ऐसी ही सुंदर कहानियों का संग्रह है। सफ़दर हाशमी की पंक्तियाँ "किताबें करतीं हैं बातें" इस पुस्तक पर एकदम सटीक बैठती है। आखिर शीर्षक भी है "बातों वाली गली"। सच यह किताब पढ़ते हुए हम भूल जाते हैं कि किताब पढ़ रहे हैं बल्कि किताब खोलते ही आस पास के लोग हमसे बतियाने आ जाते हैं। लेखिका के अनुभव संसार से गुजरते हुए सारे पात्र धीरे धीरे हमारे सामने खुलते जाते हैं। हर पात्र हमें अपरिचित न लगते हुए एकदम जाना पहचाना लगता है। एक जुड़ाव सा हो जाता है पात्रों से। हर कहानी पठनीय है एकदम जिंदगी से जुडी हुई।
संग्रह की कहानियां जिंदगी के छोटे छोटे विमर्श को केंद्र में लाती हैं जो कई बार अनदेखे अनछुए रह जाते हैं। शीर्षक कहानी 'बातों वाली गली' उन स्त्रियों की मानसिकता पर कटाक्ष है जिन्हें दूसरों के घर में झाँकने और उनके बारे में अनर्गल प्रलाप में बड़ा रस मिलता है। कहानी 'बड़ी हो गईं हैं ममता जी' में सास बहू के रिश्ते का सटीक चित्रण है। सास का बहू पर इतना दबदबा रहा है कि सास के चले जाने पर भी उसे अपने बहुपने से मुक्ति असहज लगती है। उसे अब भी 'दुलहिन' पुकारे जाने की ही आदत हो गयी है। वहीं 'रमणीक भाई नहीं रहे' स्वाबलंबन का पाठ पढ़ाती कहानी है जिसमें एक पिता इतना कर्मठ है कि उसके बेटे बुढापे तक भी उसके ही आसरे व्यापार चला रहे हैं और उनके जाने के बाद परिवार तनाव में हैं कि व्यापार कैसे चलेगा।
एक माँ जो अपने को उम्रदराज स्वीकार करने को तैयार नहीं पर घर में हो रही शादी व बच्चों की लायी एक साड़ी उसे उसकी उम्र का अहसास करा जाती है। यह बात खूबसूरती से बयां की है कहानी 'दस्तक के बाद' में।
'अहसास' कहानी है संयुक्त परिवार में अपने प्रति हो रहे भेदभाव को महसूस कर उसके खिलाफ आवाज उठाने की।
साधुओं के ढोंग-ढकोसले की पोल खोलती, और अंधविश्वासों पर प्रहार करती एक बेहतरीन कहानी है 'शिव बोल मेरी रसना घड़ी घड़ी'।
इनके अतिरिक्त विरुद्ध, करत करत अभ्यास के, प्रिया की डायरी,अहसास, नीरा जाग गयी है स्त्री विमर्श के विभिन्न पहलुओं को छूती हुई कहानियां हैं।
यह किताब एक ऐसी किताब है जिसे आप शुरू करेंगे तो एक बार में ही पूरी पढ़े बिना नहीं रुकेंगे। अपने आप ही कहानी दर कहानी आपको अपने में डुबोती जायेगी। कहानियों की भाषा एकदम सहज सुगम्य, खूबसूरत आंचलिक शब्दों से गुंथी हुई है। इसलिए हम एक सांस में ही पूरी किताब पढ़ जाते हैं। यह किताब आप अपने हर दोस्त को तोहफे में दे सकते हैं। क्योंकि सभी अपने जीवन के किसी न किसी पहलू से इन कहानियों को जुड़ा पाएंगे।
सहज सरल भाषा शिल्प में गुथी इन सुंदर कहानियों के लिए वंदना दी बधाई की पात्र हैं। उनकी अगली किताब का इंतजार रहेगा।