कल से कोशिश कर रही हूं, कि कुछ लिख लूं, लेकिन वही बहाना....... :)
अभी लिखने बैठी हूं, तो ज़रूरी था कि उस समय में लौटूं, जब परसाई जी से मेरी मुलाक़ात हुई थी ( वैसे पुराने दिनों में लौटने की तो मेरी आदत भी है. आगे की बजाय पीछे ज़्यादा देखती हूं. शायद इसलिये, कि बहुत अच्छे दिन पीछे छूट गये हैं वे दिन, जब मेरी मुलाक़ातें पता नहीं कितने नामचीन लेखकों, संगीत-साधकों से हुईं. मैं इन सारी मुलाक़ातों के लिये "देशबंधु" की आभारी हूं.
हालांकि परसाई जी से मेरी पहली मुलाक़ात देशबंधु के कारण नहीं हुई :)
१ अप्रैल १९८७-
मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की स्वर्ण-जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में तथा वरिष्ठ कवि श्री केदारनाथ अग्रवाल की ७५ वीं वर्षगांठ के अवसर पर जबलपुर इकाई ने दो दिवसीय कार्यक्रम आयोजित किया था. इस कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मुझे भी मिला. चूंकि उस समय नयी-नयी लेखक संघ में शामिल हुई थी, सो इन कार्यक्रमों के लिये अतिरिक्त उत्साह भी था. पर सबसे ज़्यादा उत्साह था केदार जी और परसाई जी से मिलने का. डॉ. कमलाप्रसाद ने पहले ही वादा किया था, कि यदि परसाई जी कार्यक्रम में नहीं आ सके तो हमें उनसे मिलवाने, परसाई जी के घर ले जाया जायेगा.
कार्यक्रम के दौरान में मनाती रही कि परसाई जी न आयें . उनके घर जाने का मौका मैं गंवाना नहीं चाहती थी. वैसे भी कार्यक्रम में औपचारिक मुलाक़ात होती. परसाई जी अपने नरम-गरम स्वास्थ्य के कारण नहीं आ सके. अगले दिन कमलाप्रसाद जी शाम का सत्र शुरु होने से पहले ही मुझे परसाई जी से मिलवाने ले गये. कितना अद्भुत था ये! डॉ. कमलाप्रसाद, हनुमान प्रसाद तिवारी, जो उस वक्त हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सचिव थे और मैं.
नेपियर टाउन स्थित अपने घर के बरामदे में परसाई जी तख्त पर अधलेटे, कुछ पढ रहे थे. जैसा मैने उन्हें तस्वीरों में देखा था, ठीक वैसे ही थे वे. सफ़ेद पजामा-कुरता, और पीछे को खींच के काढे हुए बाल. हम लोगों की आहट पा, ज़रा उठंग हुए, बड़े प्यार से पूछा-
" कौन? कमला? साथ में और कौन है?"
" देख लीजिये , आप से मिलने छतरपुर से ये बच्ची आई है."
मैने नमस्कार में हाथ जोड़ दिए ( उस वक्त शदी नहीं हुई थी, सो पैर छूने की आदत ही नहीं थी ) बाद में लगा कि मुझे पैर छूने चाहिये थे.
" क्या बात है! क्या बात है! आओ बेटा इधर निकल आओ"
उनकी किताबों और अखबारों के बीच में जगह बनाती मैं बैठ गई. मेरा नाम पढाई और शौक पूछने के बाद वे कमला जी से बातें करने में मशगूल हो गये. मैं सुनती रही. विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं उनके सामने बैठी हूं.
कितना अद्भुत था ये! डॉ. कमलाप्रसाद, हनुमान प्रसाद तिवारी, जो उस वक्त हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सचिव थे और मैं.नेपियर टाउन स्थित अपने घर के बरामदे में परसाई जी तख्त पर अधलेटे, कुछ पढ रहे थे. जैसा मैने उन्हें तस्वीरों में देखा था, ठीक वैसे ही थे वे. सफ़ेद पजामा-कुरता, और पीछे को खींच के काढे हुए बाल.
" क्यों बेटू, तुमने मेरा लिखा क्या क्या पढा है?"
मैं अचकचा गई. सवाल अचानक ही पूछ लिया था उन्होंने.
" जी... भोलाराम का जीव, सदाचार का ताबीज़, काग-भगोड़ा.... और भी पढे हैं..." दिमाग़ से जैसे सब पढा हुआ हवा हो गया."
" अभी क्या कर रही हो?"
" पुरातत्व विज्ञान में एम.ए. ..."
बीच में ही कमला जी ने कमान हाथ में ली और बताने लगे कि मैं कितनी अच्छी (!) कहानियां लिखती हूं. परसाई जी प्रसन्न हो गये. तुरन्त बोले-
" जून माह में कहानी प्रतियोगिता हो रही है, तुम कहानी भेजना, वसुधा के लिये. तिवारी जी, मेरी तरफ़ से एक पत्र भी भिजवा देना वंदना के नाम"
लगभग डेढ घंटे हम साथ रहे. पता नहीं कितनी बातें होती रहीं. कितने किस्से सुना डाले उन्होंने. बहुत भरा-भरा सा मन ले के लौटी नौगांव.
परसाई जी का पत्र मिला, टाइप किया हुआ जिसमें कहानी भेजने का अनुरोध था. कहानी भेजी भी, लेकिन समय पर नहीं पहुंच सकी. कुछ दिनों बाद ही परसाई जी का एक पोस्ट-कार्ड मिला, जिसमें लिखा था-
" प्रिय वंदना,
कहानी समय पर न मिलने के कारण प्रतियोगिता में शामिल नहीं हो सकी, लेकिन इसे मैं वसुधा के जून अंक में प्रकाशित कर रहा हूं.
सस्नेह "
आज बहुत ढूंढा, लेकिन पत्र मिला नहीं अलबत्ता वसुधा का वो अंक ज़रूर मिल गया, जिसमें परसाई जी ने मेरी कहानी छापी थी. शादी के बाद मैं सतना आ गई और बहुत जल्दी "देशबंधु" ज्वाइन भी कर लिया. उस वक्त परसाई जी "देशबंधु" के लिये " पूछिये परसाई से" कॉलम लिखते थे, और मेरे पास रविवारीय पृष्ठ भी था, सो जब-तब उनसे फोन पर बात होती थी. ये जानकर कि मैं वही वंदना हूं, जो उनसे मिलने आई थी, उन्हें पता नहीं कितनी खुशी हुई. बच्चों की तरह किलक के बोले-
" सुनो, मायाराम( मायाराम सुरजन) को बता देना ज़रा, कि तुम मेरी कितनी बड़ी प्रशंसक हो..." और ज़ोर से हंस दिए.
आज भी जब भी परसाई जी को याद करती हूं, तो उनकी वही उन्मुक्त हंसी कानों में गूंजने लगती है.
विनम्र श्रद्धान्जलि.