सोमवार, 22 अगस्त 2011

बहुत खुशमिज़ाज़ थे परसाई जी...

22 अगस्त, यानि परसाई जी का जन्म-दिवस.
कल से कोशिश कर रही हूं, कि कुछ लिख लूं, लेकिन वही बहाना....... :)
अभी लिखने बैठी हूं, तो ज़रूरी था कि उस समय में लौटूं, जब परसाई जी से मेरी मुलाक़ात हुई थी ( वैसे पुराने दिनों में लौटने की तो मेरी आदत भी है. आगे की बजाय पीछे ज़्यादा देखती हूं. शायद इसलिये, कि बहुत अच्छे दिन पीछे छूट गये हैं वे दिन, जब मेरी मुलाक़ातें पता नहीं कितने नामचीन लेखकों, संगीत-साधकों से हुईं. मैं इन सारी मुलाक़ातों के लिये "देशबंधु" की आभारी हूं.
हालांकि परसाई जी से मेरी पहली मुलाक़ात देशबंधु के कारण नहीं हुई :)
१ अप्रैल १९८७-
मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ की स्वर्ण-जयंती वर्ष के उपलक्ष्य में तथा वरिष्ठ कवि श्री केदारनाथ अग्रवाल की ७५ वीं वर्षगांठ के अवसर पर जबलपुर इकाई ने दो दिवसीय कार्यक्रम आयोजित किया था. इस कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मुझे भी मिला. चूंकि उस समय नयी-नयी लेखक संघ में शामिल हुई थी, सो इन कार्यक्रमों के लिये अतिरिक्त उत्साह भी था. पर सबसे ज़्यादा उत्साह था केदार जी और परसाई जी से मिलने का. डॉ. कमलाप्रसाद ने पहले ही वादा किया था, कि यदि परसाई जी कार्यक्रम में नहीं आ सके तो हमें उनसे मिलवाने, परसाई जी के घर ले जाया जायेगा.
कार्यक्रम के दौरान में मनाती रही कि परसाई जी न आयें . उनके घर जाने का मौका मैं गंवाना नहीं चाहती थी. वैसे भी कार्यक्रम में औपचारिक मुलाक़ात होती. परसाई जी अपने नरम-गरम स्वास्थ्य के कारण नहीं आ सके. अगले दिन कमलाप्रसाद जी शाम का सत्र शुरु होने से पहले ही मुझे परसाई जी से मिलवाने ले गये. कितना अद्भुत था ये! डॉ. कमलाप्रसाद, हनुमान प्रसाद तिवारी, जो उस वक्त हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सचिव थे और मैं.
नेपियर टाउन स्थित अपने घर के बरामदे में परसाई जी तख्त पर अधलेटे, कुछ पढ रहे थे. जैसा मैने उन्हें तस्वीरों में देखा था, ठीक वैसे ही थे वे. सफ़ेद पजामा-कुरता, और पीछे को खींच के काढे हुए बाल. हम लोगों की आहट पा, ज़रा उठंग हुए, बड़े प्यार से पूछा-
" कौन? कमला? साथ में और कौन है?"
" देख लीजिये , आप से मिलने छतरपुर से ये बच्ची आई है."
मैने नमस्कार में हाथ जोड़ दिए ( उस वक्त शदी नहीं हुई थी, सो पैर छूने की आदत ही नहीं थी ) बाद में लगा कि मुझे पैर छूने चाहिये थे.
" क्या बात है! क्या बात है! आओ बेटा इधर निकल आओ"
उनकी किताबों और अखबारों के बीच में जगह बनाती मैं बैठ गई. मेरा नाम पढाई और शौक पूछने के बाद वे कमला जी से बातें करने में मशगूल हो गये. मैं सुनती रही. विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं उनके सामने बैठी हूं.
कितना अद्भुत था ये! डॉ. कमलाप्रसाद, हनुमान प्रसाद तिवारी, जो उस वक्त हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सचिव थे और मैं.नेपियर टाउन स्थित अपने घर के बरामदे में परसाई जी तख्त पर अधलेटे, कुछ पढ रहे थे. जैसा मैने उन्हें तस्वीरों में देखा था, ठीक वैसे ही थे वे. सफ़ेद पजामा-कुरता, और पीछे को खींच के काढे हुए बाल.
" क्यों बेटू, तुमने मेरा लिखा क्या क्या पढा है?"
मैं अचकचा गई. सवाल अचानक ही पूछ लिया था उन्होंने.
" जी... भोलाराम का जीव, सदाचार का ताबीज़, काग-भगोड़ा.... और भी पढे हैं..." दिमाग़ से जैसे सब पढा हुआ हवा हो गया."
" अभी क्या कर रही हो?"
" पुरातत्व विज्ञान में एम.ए. ..."
बीच में ही कमला जी ने कमान हाथ में ली और बताने लगे कि मैं कितनी अच्छी (!) कहानियां लिखती हूं. परसाई जी प्रसन्न हो गये. तुरन्त बोले-
" जून माह में कहानी प्रतियोगिता हो रही है, तुम कहानी भेजना, वसुधा के लिये. तिवारी जी, मेरी तरफ़ से एक पत्र भी भिजवा देना वंदना के नाम"
लगभग डेढ घंटे हम साथ रहे. पता नहीं कितनी बातें होती रहीं. कितने किस्से सुना डाले उन्होंने. बहुत भरा-भरा सा मन ले के लौटी नौगांव.
परसाई जी का पत्र मिला, टाइप किया हुआ जिसमें कहानी भेजने का अनुरोध था. कहानी भेजी भी, लेकिन समय पर नहीं पहुंच सकी. कुछ दिनों बाद ही परसाई जी का एक पोस्ट-कार्ड मिला, जिसमें लिखा था-
" प्रिय वंदना,
कहानी समय पर न मिलने के कारण प्रतियोगिता में शामिल नहीं हो सकी, लेकिन इसे मैं वसुधा के जून अंक में प्रकाशित कर रहा हूं.
सस्नेह "
आज बहुत ढूंढा, लेकिन पत्र मिला नहीं अलबत्ता वसुधा का वो अंक ज़रूर मिल गया, जिसमें परसाई जी ने मेरी कहानी छापी थी. शादी के बाद मैं सतना आ गई और बहुत जल्दी "देशबंधु" ज्वाइन भी कर लिया. उस वक्त परसाई जी "देशबंधु" के लिये " पूछिये परसाई से" कॉलम लिखते थे, और मेरे पास रविवारीय पृष्ठ भी था, सो जब-तब उनसे फोन पर बात होती थी. ये जानकर कि मैं वही वंदना हूं, जो उनसे मिलने आई थी, उन्हें पता नहीं कितनी खुशी हुई. बच्चों की तरह किलक के बोले-
" सुनो, मायाराम( मायाराम सुरजन) को बता देना ज़रा, कि तुम मेरी कितनी बड़ी प्रशंसक हो..." और ज़ोर से हंस दिए.
आज भी जब भी परसाई जी को याद करती हूं, तो उनकी वही उन्मुक्त हंसी कानों में गूंजने लगती है.
विनम्र श्रद्धान्जलि.

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

क्या है जनलोकपाल विधेयक?

देश में गहरी जड़ें जमा चुके भ्रष्टाचार को रोकने के लिए जन लोकपाल बिल लाने की मांग करते हुए अन्ना हजारे ने मंगलवार को आमरण अनशन शुरू कर दिया। जंतर - मंतर पर सामाजिक कार्यकर्ता हजारे के समर्थन में जुटे हजारों लोगों की संख्या क्रमश: बढती जा रही है.।
कल लगभग पूरे देश के सभी शैक्षणिक संस्थान विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं ने बंद करवा दिए. सतना के स्कूल भी बंद हो गये ( वैसे अभाविप कार्यकर्ता बंद करवाने का काम बखूबी निभाते हैं).तमाम लोग अभी भी ऐसे हैं, जिन्हें लोकपाल या जनलोकपाल के बारे में पूरी तरह नहीं मालूम. कई तो ये भी नहीं जानते कि अन्ना के अनशन के मुख्य बिंदु हैं क्या? तो हमने सोचा कि क्यों न कई अखबारों की ये प्रामाणिक जानकारी हम सबके साथ साझा करें.
आइए जानते हैं जन लोकपाल बिल के बारे में... खासतौर से वे मुद्दे, जिन्हें लेकर अन्ना अनशनरत हैं-



१- इस कानून के तहत केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त का गठन होगा।



२- यह संस्था इलेक्शन कमिशन और सुप्रीम कोर्ट की तरह सरकार से स्वतंत्र होगी।



३- किसी भी मुकदमे की जांच एक साल के भीतर पूरी होगी। ट्रायल अगले एक साल में पूरा होगा।



४- भ्रष्ट नेता, अधिकारी या जज को 2 साल के भीतर जेल भेजा जाएगा।



५- भ्रष्टाचार की वजह से सरकार को जो नुकसान हुआ है अपराध साबित होने पर उसे दोषी से वसूला जाएगा।



६- अगर किसी नागरिक का काम तय समय में नहीं होता तो लोकपाल दोषी अफसर पर जुर्माना लगाएगा जो शिकायतकर्ता को मुआवजे के तौर पर मिलेगा।



७- लोकपाल के सदस्यों का चयन जज, नागरिक और संवैधानिक संस्थाएं मिलकर करेंगी। नेताओं का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा।



८- लोकपाल/ लोक आयुक्तों का काम पूरी तरह पारदर्शी होगा। लोकपाल के किसी भी कर्मचारी के खिलाफ शिकायत आने पर उसकी जांच 2 महीने में पूरी कर उसे बर्खास्त कर दिया जाएगा।



९- सीवीसी, विजिलेंस विभाग और सीबीआई के ऐंटि-करप्शन विभाग का लोकपाल में विलय हो जाएगा।

१०- लोकपाल को किसी जज, नेता या अफसर के खिलाफ जांच करने और मुकदमा चलाने के लिए पूरी शक्ति और व्यवस्था होगी।

जस्टिस संतोष हेगड़े, प्रशांत भूषण, सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल ने यह बिल जनता के साथ विचार विमर्श के बाद तैयार किया है।

अब ज़रा सरकारी लोकपाल विधेयक और जनलोकपाल विधेयक के बीच का अन्तर भी जान लें-


सरकारी लोकपाल विधेयकजनलोकपाल विधेयक
सरकारी लोकपाल के पास भ्रष्टाचार के मामलों पर खुद या आम लोगों की शिकायत पर सीधे कार्रवाई शुरू करने का अधिकार नहीं होगा।प्रस्तावित जनलोकपाल बिल के तहत लोकपाल खुद किसी भी मामले की जाँच शुरू करने का अधिकार रखता है।
सरकारी विधेयक में लोकपाल केवल परामर्शदात्री संस्था बन कर रह जाएगी।जनलोकपाल सशक्त संस्था होगी।
सरकारी विधेयक में लोकपाल के पास पुलिस शक्ति नहीं होगी।जनलोकपाल न केवल प्राथमिकी दर्ज करा पाएगा बल्कि उसके पास पुलिस फोर्स भी होगी।
सरकारी विधेयक में लोकपाल का अधिकार क्षेत्र सांसद, मंत्री और प्रधानमंत्री तक सीमित रहेगा।जनलोकपाल के दायरे में प्रधानमत्री समेत नेता, अधिकारी, न्यायाधीश सभी आएँगे।
लोकपाल में तीन सदस्य होंगे जो सभी सेवानिवृत्त न्यायाधीश होंगे।जनलोकपाल में 10 सदस्य होंगे और इसका एक अध्यक्ष होगा। चार की कानूनी पृष्टभूमि होगी। बाक़ी का चयन किसी भी क्षेत्र से होगा।
सरकार द्वारा प्रस्तावित लोकपाल को नियुक्त करने वाली समिति में उपराष्ट्रपति। प्रधानमंत्री, दोनो सदनों के नेता, दोनों सदनों के विपक्ष के नेता, कानून और गृहमंत्री होंगे।प्रस्तावित जनलोकपाल बिल में न्यायिक क्षेत्र के लोग, मुख्य चुनाव आयुक्त, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, भारतीय मूल के नोबेल और मैगासेसे पुरस्कार के विजेता चयन करेंगे।
सरकारी लोकपाल विधेयक में दोषी को छह से सात महीने की सजा हो सकती है और घोटाले के धन को वापिस लेने का कोई प्रावधान नहीं है।जनलोकपाल बिल में कम से कम पाँच साल और अधिकतम उम्र कैद की सजा हो सकती है। साथ ही दोषियों से घोटाले के धन की भरपाई का भी प्रावधान है।
Hindustan Times, Times of India, नवभारत टाइम्स से साभार.

रविवार, 7 अगस्त 2011

न लिखने का बहाना.....

लम्बा समय हुआ, कुछ लिखे हुए.
लिखने और न लिखने के बीच का अन्तराल जब लम्बा हो जाता है, तो कुछ भी लिखने की इच्छा ही खत्म हो जाती है.
कम से कम मेरे साथ ऐसा ही होता है. ढाई महीने से कुछ भी नहीं लिखा, तो अब लगता है , कि मेरे पास कुछ लिखने के लिये है ही नहीं. आज सोचा कुछ लिखूं, तो पता नहीं कब से बैठी हूं, की-बोर्ड पर हाथ धरे :(
आज मित्र-दिवस है, कई ब्लॉग्स पर इस दिन से जुड़ी अच्छी पोस्टें पढने को मिली. खुद भी सोचा, इसी पर लिखा जाये. लेकिन न! दिमाग़ ने मना कर दिया :(
बचपन के तमाम दोस्तों के चेहरे याद आये........लेकिन फिर सब गड्ड-मड्ड हो गये.
कॉलेज के तमाम दोस्त याद आये.... लेकिन कोई खास वाक़या याद नहीं आया :(
सामाजिक-राजनैतिक खबरें उछल-उछल के अपना चेहरा दिखाने लगीं, कि लो , मुझ पर लिखो, लेकिन दिमाग़ ने इन्कार में ही हिलते रहने की ठान ली थी, सो लगा कि इन सब मुद्दों पर बहुत लिखा जा चुका है, अब हम क्या नया लिख लेंगे?
विधु बहुत देर से ताड़ रही थी, कि मैं कम्प्यूटर भी घेरे हूं, और लिख भी नहीं रही, सो मेरी डायरी उठा लाई. बोली-" लो कोई कहानी ही टाइप कर के सेव कर दो" :)
डायरी उलट-पलट के देखी. कुछ टाइप करने का मन नहीं हुआ.
ऐसी उदासीनता तो कभी छाई ही नहीं मुझ पर!!
व्यस्तता का रोना नहीं रोया जा सकता. सब व्यस्त हैं, लेकिन लिख भी रहे हैं. ये तो मेरी अपनी ही कमी है :(
खैर.........
लिखती हूं जल्दी ही कोई संस्मरण :) :)
फिलहाल विदा, तब तक के लिये, जब तक कुछ लिखने का मन न बन जाये.
मित्रता-दिवस की अनंत शुभकामनाएं.