रविवार, 11 अगस्त 2013

नागपंचमी और मेरा गुमना....

आज नागपंचमी है. अब  आप कहेंगे,  हर साल होती है, उसमें क्या?
अरे भाई , उसी में तो है सब.
बचपन में मैं इसी त्यौहार को तो गुमी थी न! फिर कैसे न याद रहे ये दिन? हुंह 
आप को तो ये भी नहीं पता कि कैसे गुमी थी  अब सुन ही लीजिये किस्सा , हुंकारा भरते जाइयेगा 
बहुत पुरानी बात है......... लगभग सात साल की थी मैं. उस समय सात साल के बच्चे आज के तीन साल के बच्चे की समझ के होते थे , है कि नहीं? बच्चों को गली-मोहल्ले में जाने की इजाज़त हमारे घर में थी नहीं, सो हम घर के भीतर के ही रास्ते बेहतर जानते थे.
 उस दिन नाग पंचमी थी. इस त्यौहार पर घर में दीवार पर नागों की तस्वीर बनायी जाती है, और खीर-पूड़ी बना के नाग की पूजा की जाती है. तो हमारी मम्मी भी पूजा की तैयारी कर रही थीं. तभी एक संपेरा आया जिसकी पिटारियों में दो बड़े-बड़े नाग और दो नागिने थीं. उस उम्र में इत्ते लम्बे नाग मैने पहली बार देखे थे. इन नागों के अलावा झोले में एक डिब्बे में तमाम काले-लाल-पीले  बिच्छू भी थे उसके पास जिन्हें निकालने से मेरी मम्मी ने मना कर दिया. उन्हें डर था कि कहीं कोई बिच्छू घर में न घुस जाये . डर तो उन्हें नागों से भी लग रहा था तो मुझे ठीक से देखने भी नहीं दिया 
बहुत मन था मेरा उस डिब्बे में बन्द जन्तुओं को देखने का. अब जैसे ही संपेरा अपनी पिटारियां समेट गेट से बाहर हुआ, मैं भी अपनी दोस्त गुड्डो ( नीलम श्रीवास्तव) का हाथ पकड़े उसके पीछे-पीछे  चल दी.
आगे जिस घर के सामने संपेरा रुकता, हम भी रुक जाते, वो आगे बढता, हम भी साथ में चल देते. चलते-चलते मुझे याद ही नहीं कब गुड्डो का हाथ छूट गया.....
याद थे तो बस लम्बे-लम्बे नाग.......... लाल-पीले-काले बिच्छू.... कैसे अपना डंक चला रहे थे!! नाग कैसे अपनी जीभ लपलपा रहा था..और नागिनें पता नहीं क्यों ज़्यादा नहीं फुंफकार रही थीं... मेरा मन था उन्हें भी गुस्से में संपेरे की बीन पर अपना फन पटकते देखने की..... संपेरे ने कहा था कि उसके पास और भी तमाम चीज़ें हैं दिखाने के लिये, बस, उन्हीं चीज़ों को देखने की ललक मुझे पता नहीं कहां तक ले गयी. जब घर से बहुत दूर आ गयी, तब अचानक खयाल आया कि गुड्डो कहां गयी? मैने आवाज़ लगायी, लोगों की भीड़ में ढूंढने की कोशिश की, लेकिन वो होती तब न मिलती! मैं वहीं रुक गयी. मुझे ठीक-ठीक पता ही नहीं था कि मैं घर से कितनी दूर आ गयी हूं  ये भी नहीं जानती थी कि अब घर कैसे पहुंचूंगी?  जिस जगह पहुंच गयी थी वहां से घर भी बहुत कम दिखाई दे रहे थे, सीधी सपाट रोड.. बस थोड़ी दूर पर एक पुलिया सी बनी थी, जहां से एक अन्य रोड मुड़ रही थी. मैं उसी पर बैठ गयी. धूप तेज हो रही थी, और मुझे रोना आ रहा था. मन ही मन कह रही थी कि बस एक बार घर पहुंच जाऊं, फिर कभी बिच्छू की तरफ़ देखूंगी तक नहीं........ 
थोड़ी ही देर हुई होगी, कि वहां से एक दूधवाला निकला, मुझे अकेली देख के रुक गया बोला-
" यहां क्यों बैठी हो? किसकी बेटी हो?"
मेरा रोना शुरु हो गया.. किसी तरह कहा- " अवस्थी जी की "
उस दिन पता चला कि मेरे पापा का नाम सब जानते हैं. दूध वाला बोला चलो घर पहुंचा देता हूं. अवस्थी जी मेरे गुरुजी हैं.
उसकी सायकिल के पीछे दूध के बड़े-बड़े डब्बे बंधे थे, आगे हैंडल पर भी तमाम डब्बे टंगे थे, और उन्हीं के बीच मैं  सायकिल के डंडे पर बैठ के घर पहुंच गयी. मुश्किल से पांच मिनट लगे पहुंचने में तब याद आया कि अरे! मेरा घर तो अगले ही मोड़ पर था! .
घर में सब परेशान! मम्मी बाहर बाउंड्री में ही मिल गयीं, पापा मुझे ढूंढने निकल चुके थे, छोटी दीदी गुड्डो के यहां ढूंढ के वापस आ गयी थीं, बड़ी दीदी मुकेश के यहां पता कर चुकी थीं 
घर पहुंचते ही छोटी दीदी टूट पड़ी -
कहां चली गयी थीं?
क्यों चली गयी थीं? गुड्डो के साथ क्यों नहीं लौटीं? मुकेश नहीं गया, तुम क्यों गयीं? गली के आवारा बच्चों की तरह मुंह उठाया और चल दी संपेरे के साथ? अच्छे घरों के बच्चे ऐसे रोड पर घूमते हैं क्या?
बस मम्मी ने कुछ नहीं कहा. बोलीं-
" बेटा, आइंदा बिना बताये कहीं नहीं जाना है, संपेरे के पीछे तो एकदम नहीं, वरना वो तुम्हें नाग बना के पिटारे में रख लेगा"
उफ़्फ़्फ़्फ़....... मेरा नन्हा मन सोचने लगा कि वे दोनों नागिने बच्चियां ही थीं क्या???? कित्ता बची मैं आज!!!
वो दिन था और आज का दिन है, संपेरों से मुझे बहुत डर लगता है