शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

"अलका"- मेघदूत का छायानुवाद


विश्व साहित्य में अनुवाद की श्रृंखला प्राचीन युग से ही गतिशील है. हिन्दी साहित्य में भी अनुवाद विधा को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. इसका श्रेय अनुवाद की गुणवत्ता को ही दिया जा सकता है. देशी-विदेशी बहुत सारी भाषाओं के स्तरीय ग्रंथों के अनुवाद, इधर कुछ वर्षों से हिंदी साहित्य कोष की श्रीवृद्धि कर रहे हैं. इसी क्रम में महाकवि कालिदास कृत "मेघदूत" का "अलका" नाम से गद्यगीत विधा में छायानुवाद अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है. छायानुवादक हैं श्री रामरतन अवस्थी, जो एक प्रतिष्ठित कवि और लेखक हैं.
कालिदास के मेघदूत की भांति "अलका" भी दो खण्डों में विभाजित है. ’पूर्व-मेघदूत’ अर्थात "अलका-पथ" और ’उत्तर-मेघदूत’ अर्थात "अलकापुरी". अनुवादक द्वारा प्राय: छंदश: अनुवाद प्रस्तुत किया गया है. श्री अवस्थी कृत यह अनुवाद अनेक विशेषताओं से मंडित है. हिन्दी साहित्य में अब तक मेघदूत के दो दर्ज़न से अधिक, एक से बढ कर एक अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं, किन्तु "अलका" की बात ही कुछ और है. गद्यगीत विधा में होते हुए भी यह पद्यकाव्य सा आनन्द देता है. गति,यति,लय,रागात्मकता आदि सबकुछ इसमें समाहित है. इसका शब्दशिल्प अद्भुत है. भाषा शैली अनूठी है, एवं शब्द-संयोजन स्तरीय.अनुवाद होते हुए भी यह कृति मूल रचना जैसी प्रतीत होती है. सबसे बड़ी बात- संस्कृत का ज्ञाता न होते हुए भी हिन्दी का पाठक इस कृति "अलका" के पठन-पाठन से वही रसानुभूति पा सकता है, जो एक संस्कृतज्ञ को "मेघदूत" के मूल पाठ से होती है.
अनेक गणमान्य विद्वजनों ने अपने-अपने ढ़ंग से "अलका" पर रोचक प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं. उनमें से कुछेक की संक्षिप्त टिप्पणियां इस प्रकार हैं-
१- "श्री अवस्थी जी ने महाकवि कालिदास के भाव-जगत को छन्दश: जीवित रखते हुए प्रांजल और परिष्कृत भाषा में शब्द सौष्ठव सहित जो रस सम्प्रेषण किया है, वह छायानुवाद को मौलिकता प्रदान कर रहा है." -डॉ. बृजेश दीक्षित, जबलपुर
२- " हिन्दी जगत "अलका" को पलकों के पलका ससम्मान बैठायेगा- उम्मीद है."- हरिविष्णु अवस्थी, टीकमगढ
३- "अलका" में श्री अवस्थी जी ने कालिदास के मिजाज़, उनकी कहन और उनकी उड़ान को बड़ी कुशलतापूर्वक पकड़ा है." - डॉ. चिन्तामणि मिश्र, सतना
४- "श्रेष्ठ कवि की श्रेष्ठ कृति का श्रेष्ठ छायानुवाद है "अलका" - डॉ.गंगाप्रसाद बरसैंया-छतरपुर
५- "महाकवि कालिदास की सुन्दरतम कृति "मेघदूत का सुन्दरतम छायानुवाद कर श्री अवस्थी ने "सुन्दरता कर सुन्दर करहिं’ की उक्ति को चरितार्थ किया है."- डॉ.प्रभुदयाल मिश्र, भोपाल
६-"मेरी दृष्टि में मेघदूत के हिन्दी-अंग्रेज़ी में अभी तक जितने अनुवाद आये हैं, उनमें मुझे वह कमनीय दृष्टि कहीं नहीं मिली जो "अलका" में है.’ - आचार्य दुर्गाचरण शुक्ल, टीकमगढ़
७- ".......अन्त में बस इतना ही कहूंगा कि इसको पढ कर मैं रस-चूर और आनन्द-विभोर हूं" - पं.गुणसागर सत्यार्थी, कुण्डेश्वर
८- "जैसा मधुर,मादक और श्रृंगारपूर्ण वर्णन अवस्थी ने "अलका" के छायानुवाद में किया है, वैसा अन्यंत्र मिलना दुर्लभ है."- डॉ.श्यामबिहारी श्रीवास्तव, दतिया
९- "...अलका में कालिदास की तरह वाग्विदग्धता , अलंकार, गुण-रीति एवं हृदयाल्हादकता है. छायानुवाद की दृष्टि से यह एक श्रेष्ठ कृति है." - आचार्य विबेकानन्द, उरई
१०- " कवि की मौलिक उद्भावनाओं से सज्जित , अलंकृत एवं प्रवाहपूर्ण भाषा से सम्पृक्त इस कृति में कहीं भी दुरूहता या जटिलता को रंच मात्र भी ठहरने का अवसर नहीं दिया गया है."- डॉ.प्रतीक मिश्र, कानपुर
"अलका" का छायानुवाद साहित्य के साथ-साथ शैक्षणिक दृष्टि से भी बहुत उपादेय है. यदि विश्वविद्यालयों , संस्कृत भाषा-संस्थानों एवं राज्यों के शिक्षा-विभागों आदि का समाश्रय इस कृति को मिले तो साहित्य और शिक्षा की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण योगदान होगा.
पुस्तक- "अलका" महाकवि कालिदास कृत मेघदूत का छायानुवाद

अनुवादक- रामरतन अवस्थी
प्रकाशक- आस्था प्रकाशन, बी-११६, लोहियानगर, पटना (बिहार)
मूल्य- 101 रुपये मात्र

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

डायचे वेले, नारी और रचना जी...

12 दिसम्बर 2008 को में मैने अपना ब्लॉग , फ़ुरसतिया  जी की सलाह पर बनाया. तब ब्लॉग्स के बारे में बहुत कुछ जानती नहीं थी. जो टिप्पणियां आईं, उन्हीं के सहारे दूसरे ब्लॉग्स तक पहुंची. राह बनती गयी, और तमाम ब्लॉग परत दर परत खुलते गये, मेरी निगाह के सामने. रोज़ नये लोगों को पढने की इच्छा होती. उस वक्त "चिट्ठाजगत" अस्तित्व में था, सो नये बनने वाले चिट्ठों की खबर भी मिल जाती थी. ब्लॉग्स को पढने के क्रम में एक ब्लॉग बराबर मेरी नज़र में आ रहा था, वो था " नारी " ब्लॉग.
अलग-अलग जगहों पर रचना जी के तीखे कमेंट्स पढे. कई बार सही लगा उनका तीखापन, तो कई बार खीझ भी हुई. सारे पुरुषों को एक लाइन में खड़ा करना भी अच्छा नहीं लगा. कई बार उनकी टिप्पणी के विरोध में लिखा मैंने. या यूं कहूं, कि अपना नज़रिया रखा मैने. लगभग तीन साल पहले, जीमेल पर मैं अपनी हरी बत्ती जला के कुछ काम-धाम कर रही थी. अचानक रचना जी का चैट बॉक्स खुला, आते ही सीधा सवाल दागा उन्होंने-
" आप मुझसे नाराज़ क्यों रहती हैं? "
मैं थोड़ा अचकचाई. याद आया कि कुछ दिन पहले ही रचना जी के किसी कमेंट के लगभग विरोध में मैने कमेंट किया था :) खैर, उस दिन मैने अपनी बात साफ़ की, कि मैं जानबूझ कर उनका विरोध नहीं करती, बल्कि कोई बात अगर मुझे गलत लगती है, तो वो किसी ने भी कही हो, विरोध जता देती हूं, और भूल जाती हूं, बस्स. उस दिन थोड़ी देर तक बात हुई. उसी दिन रचना जी ने कहा-
"मैं चाहती हूं, कि आप "नारी" ब्लॉग में शामिल हों. क्या आप शामिल होना चाहेंगीं? मैं सदस्यता के लिये इन्विटेशन भेज रही हूं."
और मैं भी महिलाओं के इस अनूठे ब्लॉग की सदस्या हो गयी.
बाद में भी ऐसे कई मौके आये, जब मेरी रचना जी के साथ सहमति/असहमति बनती रही. पिछले दिनों अपनी भांजी की अस्वस्थता के चलते मैं परेशान थी.आर.अनुराधा से सम्पर्क करना चाहती थी. एक मित्र ने बताया कि आर.अनुराधा , रचना जी की मित्र हैं. मैने तुरन्त रचना जी को मेल किया. अगले दिन ही रचना जी ने मुझे आर.अनुराधा का नम्बर मेल किया. अपना नम्बर भी दिया और मुम्बई के कई वरिष्ठ चिकित्सकों के नम्बर भी दिये, कि अगर मुझे जरूरत पड़े, तो मैं सम्पर्क कर लूं. 
मेल के इस आदान-प्रदान के पहले मेरी रचना जी से केवल ब्लॉग को लेकर ही बातचीत होती रही है. व्यक्तिगत बातचीत का ये पहला मौका था. आनन-फानन उनके द्वारा की गयी मदद ने मेरे सामने उनका एक दूसरा ही रूप पेश किया. उन्होंने न केवल हौसला बढाने वाले मेल किये, बल्कि फोन करके भी दो-तीन बार मेरी भांजी का हाल-चाल पूछा. 
इस घटना का ज़िक्र करने के पीछे मेरा मक़सद केवल इतना है, कि जिस महिला को हम केवल तेज़-तर्रार, विरोधी खेमे की, केवल नारीवादी महिला के रूप में जानते  हैं, उसका एक रूप ये भी है. रचना जी के व्यक्तित्व की चर्चा करने के पीछे मेरा मक़सद वोट बटोरने का नहीं है.  एक और रूप है उनका, दृढनिश्चयी होने का. कितने ही नाम हैं इस ब्लॉग-जगत में, जो सिर्फ़ और सिर्फ़ रचना जी का विरोध करना जानते हैं. उनके बारे में क्या कुछ नहीं लिखा इन मानुभावों ने? आप सब जानते हैं उन लोगों को, सो मुझे नाम लेने की ज़रूरत नहीं है. ऐसे लोगों के बीच उनका दृढता के साथ खड़ा रहना, मुक़ाबला करना काबिलेतारीफ़ है. वरना तमाम महिलाएं तो अपने नारीत्व को समेटे, उन पोस्टों की तरफ़ से जान के भी अनजान ही बनी रहना चाहती हैं, जहां रचना जी के लिये खुल्लमखुल्ला अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल हुआ होता है. उस जगह पर रचना जी अकेले मोर्चा ले रही होती हैं.


जर्मनी संस्था- " डायचे-वेले" ने सर्वश्रेष्ठ ब्लॉग ( हिंदी) श्रेणी में " नारी ब्लॉग को नामांकित किया है. यहां मैं इस बहस में पड़े बिना कि "नारी" की भाषा परिष्कृत नहीं है, या नारी पर रचना जी का एकाधिकार है, या "नारी" सर्वश्रेष्ठ कहलाने लायक नहीं, "नारी ब्लॉग" को बस एक आवाज़ कहना चाहूंगी. "नारी" ब्लॉग ने हमेशा महिलाओं के हित में आवाज़ उठाई है. महिलाओं को उनके अधिकारों के प्रति सचेत किया है. हां, इस ब्लॉग को इसलिये भी वोट देना चाहूंगी, कि ये महिलाओं का ब्लॉग है, और मैं चाहूंगी कि एक महिला ब्लॉगर इस सम्मान की हक़दार बने.
तो मेरी आप सबसे अपील है, कि अगर आप महिलाओं के उत्थान के पक्षधर हैं, उन्हें बराबरी का दर्ज़ा देने की बात करते हैं, उनका सम्मान करते हैं, तो अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर " नारी" को वोट देकर उसे इस दौड़ में आगे रक्खें. आभार. नीचे दिये गये लिंक पर जा के आप नारी को वोट कर सकते हैं. इसके अलावा आप अपने फेसबुक अकाउंट और ब्लॉग-यूआरएल के ज़रिये भी वोटिंग का महत्वपूर्ण हिस्सा बन सकते हैं. एक बार फिर आभार आप सबका.

https://thebobs.com/english/category/2013/best-blog-hindi-2013/



रविवार, 14 अप्रैल 2013

गरमियां, उबले बेर और बूढी अम्मां....

गरमियाँ शुरू हो गयीं , 
और शुरू हो गया यादों का सिलसिला .... 
आप कहेंगे की गरमियों का यादों से क्या सम्बन्ध ? अरे सम्बन्ध है भाई 
बचपन से लेकर अभी बुढापे तक, केवल गरमियों में ही छुट्टियाँ मिल पा रहीं हैं मुझे  तो यादों का सीधा सम्बन्ध हुआ न गरमियों से 
लेकिन कमाल ये है , कि  यादें बस बचपन की ही साथ हैं। बचपन बीते पता नहीं कितने बरस हुए , लेकिन यादें ऐसे ताज़ा हैं जैसे कल की ही  बात हो 
                                                                                                       जब हम छोटे थे, स्कूल में पढ़ते थे , तब सारी परीक्षाएं अप्रैल में होती थीं तीस अप्रैल को रिज़ल्ट , और फिर पूरे दो महीने की छुट्टियाँ . स्कूल खुलता था सीधे जुलाई में . छुट्टियाँ शुरू हों, उसके कुछ पहले ही हमारे ताऊ जी का फरमान आ जाता था अपने गाँव पहुँचाने का , लेकिन उनके देहांत के बाद कुछ सालों तक तो गाँव जाना होता रहा और फिर सब अपने-अपने तरीके से छुट्टियाँ मनाने लगे . अब हम लोग भी छुट्टियों में एकदम एक मई को ही नहीं निकल पड़ते थे . चूंकि हमारी मम्मी भी टीचर थीं , सो उन्हें भी छुट्टियाँ होने के बाद घर की  तमाम व्यवस्थाएं करनी होती थीं मसलन साल भर के अनाज, मसाले रखवाना. आम का अचार बनाना वगैरह-वगैरह . अब मम्मी ये सारे काम निपटाने के बाद ही नाना के यहाँ जाती थीं . तब तक हम सब नौगाँव में ही धमाचौकड़ी मचाते थे.  
यूं तो गरमियाँ मुझे कभी अच्छी नहीं लगीं , लेकिन उन दिनों इस मौसम के अलग ही मज़े थे. कच्ची अमियाँ , सूखे बेर, उबले बेर, बिरचुन , पकी इमली, लाल वाली बरफ , मलाई वाली बरफ , कुल्फी , बरफ का गोला ,  शाम को आई-स्पाई , सितौलिया , नमकपाला , और भी पता नहीं क्या-क्या .......
पिछले दिनों पके लाल-लाल बेर मैंने भी सुखाये. आज छुट्टी थी, तो उन सूखे बेरों को कुकर में उबाला और एकदम वैसा ही बनाया जैसा हमारी एक  बूढ़ी अम्मा बेचती थी . सुबह से लगातार उन्हीं बूढ़ी अम्मा की याद आ रही थी तो सोचा की आप सबसे भी अपनी याद को बाँट लूं . ठीक किया न?
तो उन दिनों गरमियों की दोपहर में हमें  सबसे ज्यादा इंतज़ार  बेर वाली अम्मा का रहता था . दोपहर में मम्मी सोने गयीं और हम सब दबे पाँव दूसरे कमरे में , जो एकदम बाहर की तरफ था . असल में मेरी मम्मी फेरीवालों से लेकर कोई भी चीज़ खाना  पसंद नहीं करती थीं। फिर उबले बेर??? राम-राम. गंदे पानी में उबाले होंगे कीड़े वाले होंगे, गन्दी जगह से इकट्ठे किये होंगे , बिना धोये उबले होंगे जैसे तमाम जायज कारण होते थे उनके पास .  बेर वाली अम्मा भी शायद जानती थी कि उसे किस समय बेर बेचने निकलना चाहिए 
दीदी लोग बातें कर रही होतीं , लेकिन कान  सड़क की तरफ होते . मुझे खासतौर से कह दिया जाता कि आवाज़ सुने रहना , और मेरे कान एक-एक हाथ लम्बे हो जाते  
दूर से आवाज़ सुनाई देती -
' ले लो बे sssssssssर . उबले मीठे बेर ले लो sssssss .  "
कभी -कभी तो बेर वाली अम्मा के आवाज़ दिए बिना ही मुझे आवाज़ सुनाई देने लगती।  कान बजने लगे थे मेरे 
जब बेर वाली अम्मा आ जाती तो जल्दी से उसे बाउंड्री के अन्दर कर लिया जाता। फटाफट बेर के पत्ते बनवाये जाने लगते. पलाश के धुले बड़े-बड़े पत्ते टोकरी में एक और सजाये रहती थी अम्मा .उन्हीं पर रख के बेर देती थी और जब तक बेर सजाये जाते , तब तक किलो भर पानी मेरे मुंह में आ जाता. पता नहीं कितनी बार गटकना पड़ता .गटकते हुए दीदियों की तरफ चोरी से देख लेती , कि  कहीं वे देख तो नहीं रहीं वरना छोटी दीदी तो डपट ही देंगी - लालची कहीं की ...
तो अम्मा बड़े जतन  से ताज़े हरे पत्ते का पानी पोंछती , उस पर अंदाज़ से बेर रखती , क्या मजाल  की किसी भी पत्ते में बेर कम ज्यादा हो जाएँ 
 कला नमक छिड़कती , लाल मिर्च छिड़की जाती , और फिर सजा हुआ पत्ता आगे बढाती .....आह ...क्या स्वाद ....
बेर की टोकरी में ही अम्मा एक तरफ एक अलग थैला बाँध के रखे रहती थी , जिसमें बिरचुन  होता था . बिरचुन, यानि सूखे बेरों को महीन पीस के बनाया गया पाउडर . ये भी बड़ा स्वादिष्ट होता है . खट्टा-मीठा . मैं जब भी इसे चम्मच  ( जो की पत्ते से ही बनायीं जाती थी ) से मुंह में रखती , बड़ी दीदी मुझसे " फूफा " बोलने को कहतीं  मैं बोलती , और पूरा बिरचुन बाहर  . 
बेर-बिरचुन सब खा के पत्ते समेटे जाते , घर से इतनी दूर उन्हें फेंका जाता कि हवा से भी उड़ के घर की बाउंड्री न लांघ सकें .  
और फिर सब बच्चे दबे पाँव अन्दर दाखिल . अपनी- अपनी कहानियों की  किताबों पर झुके  हुए 
मुझे लगता है की हमारे समय के लोगों के पास बचपन की तमाम रोचक यादें हैं, जो आज के बच्चों को कहानियों सी लगती हैं। क्या आज के बच्चे भी हमारे जैसा बचपन जीना चाहते होंगे??