गुरुवार, 14 मई 2009

परिवार-दिवस.....!!

तमाम दिवसों को मनाने की परम्परा के तहत आज विश्व परिवार दिवस है। हालांकि भारत में इस प्रकार के दिवसों की उपयोगिता मेरी समझ में नहीं आती क्योंकि हमारे यहाँ परिवार, माँ ,पिता या दोस्तों को भूलने की परम्परा नहीं है। फिर भी जब हम ये दिवस मना ही रहे हैं, तो फिर इन पर चर्चा भी ज़रूरी है।
परिवार दिवस....यानि ये याद दिलाने का दिन हमारा परिवार भी है। परिवार की बात चली तो याद आया की हमारे यहाँ संयुक्त परिवार की कितनी पुरानी परम्परा है, जो अब कई कारणों से छिन्न-भिन्न हो रही है।संयुक्त परिवार यानि दादी -दादा , चाचा-चाची (कई चाचा- चाचियाँ) और ख़ुद के माँ-पिता । घर में बड़े की बात की सुनवाई और किसी को आपत्ति नहीं। धीरे-धीरे समय बदला , लोग बाहर नौकरी पर जाने लगे , जाते पहले भी थे पर अधिकाँश परिवार पीछे ही छोड़ जाते थे, अब अपना-अपना व्यक्तिगत परिवार साथ ले जाने लगे। बाहर रहते परिवार घर के बड़ों की बंदिशों से दूर हो गए। उन्हें आज़ादी अच्छी लगने लगी। सबको अच्छी लगती है। लेकिन इस आज़ादी ने संयुक्त परिवार की गरिमा पर ग्रहण लगाना शुरू किया। अब तो महानगरों में नाम मात्र के संयुक्त परिवार होंगे, जो हैं भी वे मियां - बीबी अपनी नौकरी के स्वार्थ के चलते किसी बड़े को साथ में रखते हैं।
अब एकल परिवार। ये तो माशाल्लाह ही हैं। मियां-बीबी दोनों अपने आप को तुर्रम खां समझते हैं इसी ईगो के चलता रोज़ की बहसें बड़ी लडाइयों का रूप ले लेतीं हैं। पुरूष-प्रधान समाज में महिला घर के लिए आर्थिक , शारीरिक और मानसिक रूप से कितना भी करे, उसे कभी भी ये तारीफ नहीं मिल सकती की उसने घर के लिए कुछ किया। बल्कि उसके हर काम को शक की निगाह से देखने की पुरुषों ने आदत ही बना ली है। हो सकता है, की मेरे कुछ ब्लौगर बंधू मेरी बात से सहमत न हों, लेकिन ये इतना बड़ा सच है, जिसे हर महिला ने झेला है, या झेल रही है। बाहर कितने भी बड़े पद पर रहने के बावजूद घर में उसे निश्चित रूप से अपमानित होना ही पड़ता है। इसके पीछे पुरूष का अपना आहत स्वाभिमान ही है, जो पत्नी की योग्यताओं को स्वीकार नही करना चाहता। लिहाज़ा असर बच्चों पर पड़ता है, और एकल परिवार की अवधारणा यहाँ ध्वस्त होती दिखाई देती है। ऐसे में कहाँ का परिवार और कहाँ का परिवार-दिवस!

रविवार, 10 मई 2009

"माँ" तेरे कितने नाम....


शिशु के शुरूआती शब्द म, या मा जैसे होते हैं, इसीलिए अधिकांश भाषाओँ में "माँ" के लिए प्रयुक्त शब्दों में म की ध्वनि निकलती है। आइये जाने तमाम भाषाओँ में "माँ" को किस-किस तरह से पुकारा जाता है-



  • अफ्रीका- मोइदर, माँ

  • अरब - अम

  • अल्बेनिया- मेमे, नेने, बरिम

  • आयरिश- मदेर

  • बुल्गारिया- माज्का

  • जर्मन- मदर

  • मंगोलियन-इह

  • उर्दू - अम्मी

  • इटली - माद्रे, मम्मा

  • ब्राजील, पुर्तगाल- माई

  • बेलारूस - मैत्का

  • ग्रीक - माना

  • हंगरी - अन्य, फु

  • इंडोनेशिया - इन्दक, इबु

  • जापान - ओकासन , हाहा

  • रोमानिया - मामा , माइका

  • रूस - मेट

  • स्वीडन - ममा , मोर मोरसा

  • युक्रेन - माती

  • भारत- माँ , माता, अम्मा, मैया
(दैनिक भास्कर से साभार )

सोमवार, 4 मई 2009

क्या कूप-मंडूक हैं हम?

नवम्बर माह की बात है, मेरी परिचित एक सुदर्शना युवती, जो हमेशा ही अपने हर मसलों को मेरे पास लाती रही है, और यथासंभव उसके मसलों को मैंने सुलझाया भी है, लिहाज़ा उसका प्रेम मेरे प्रति कुछ ज़्यादा ही था। एक दिन उसने बताया की वह एक लड़के को पसंद करती है, और उसी से शादी भी करना चाहती है। उसने बताया की लड़के का पहले से उसके घर में आना-जाना है, और उसके ( लड़की के) घर वाले लड़के को खूब पसंद करते हैं। लड़का उन्ही की जाति का भी है। मैंने कहा फिर क्या दिक्कत है? हमारे यहाँ अभी भी तयशुदा विवाहों में अंतरजातीय विवाह का चलन नहीं हो पाया है, खास तौर पर सतना जैसे मध्यमवर्गीय मानसिकता वाले शहर में तो बिल्कुल भी नहीं। प्रेम विवाह अब घरेलू स्वीकृति पा जाते हैं, यदि दोनों की जाति समान है तो। लिहाज़ा इस रिश्ते में मुझे कोई अड़चन दिखाई नहीं दी। लेकिन लड़की खासी परेशान थी। उसका कहना था की उसके पापा एक गोत्र विशेष के ब्राहमणों में ही शादी करते हैं, और ये लड़का उस गोत्र का नहीं है।
अब मैं यहाँ लड़के का उल्लेख करना ज़रूरी समझती हूँ, यह लड़का उच्च शिक्षा प्राप्त एक बेहद कुलीन परिवार का बेटा है, जिसके पिता शहर के श्रेष्ठ वकीलों में शामिल हैं। ख़ुद भी अपने व्यसाय में संलग्न है, और अच्छा-खासा कमाता है। यानी एक धनाड्य और सुसंस्कृत परिवार से ताल्लुक रखता है। इस मसले पर पहले तो मैंने लड़के की राय ली बाद में लड़की के पिता को समझाइश देने की सोची । इस बीच लड़के ने अपने घर में बात करली और माँ -पिता को राजी भी कर लिया। लेकिन जब लड़की के पिता से मैं मिली तो उनका रूप देखने लायक था। किसी भी कीमत पर वे इस शादी के लिए तैयार नहीं थे। उनका कहना था की वे भले ही एक बेरोजगार और अनपढ़ से शादी कर देंगे, लेकिन अपने गोत्र से बाहर नहीं जायेंगे। लाख समझाने पर भी बात उनकी समझ में नहीं आई और आनन फानन उन्होंने एक लड़का ढूँढा शादी निपटा दी।
समझ में नहीं आता की इस प्रकार अपनी जिद पूरी करके वे क्या साबित करना चाहते हैं? आज दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई और हम अभी तक गोत्र के जाल में ही उलझे हुए हैं!! जातियों का यह वर्गीकरण और उनका बड़प्पन नापने का ये पैमाना मुझे कभी समझ में ही नहीं आया। इतना कुलीन घर-वर छोड़ उनहोंने एक अत्यन्त साधारण परिवार , जो अभी भी सतना जिले के सुदूरवर्ती देहाती इलाके में रहता है, में कर दी। अपनी बेटी को होने वाली तमाम दिक्कतों को भी नज़रंदाज़ कर दिया।

आज भी ऐसे अनेक परिवार हैं, जो पुरानी और ऐसी परम्पराओं में जकडे हुए हैं जिन्हें तोड़ने की पहल होनी ही चाहिए। समान जाति में विवाह करना भले ही अनिवार्यता हो, मगर उसमें भी जाति का गोत्र आदि की अनिवार्यता अवश्य ख़त्म की जानी चाहिए। परिवार संस्कारी और कुलीन है, तो वह बड़ा है। केवल पैसे या जाति विशेष का होने से बड़े होने की पदवी नहीं मिल जाती। बड़ा तो इंसान अपने कर्मों से होता है। क्या इस प्रकार के बंधन कभी टूट पायेंगे?