सोमवार, 24 अगस्त 2020

अटकन-चटकन: कुछ प्रतिक्रियाएं


"लोहे का घर " फेम  Devendra Kumar Pandey जी मेरे ब्लॉगर साथी हैं। फेसबुक पर भी एक बात देवेंद्र भैया और मेरी कॉमन है, वो ये कि हम दोनों ही रेल यात्राएं लिखने के शौक़ीन हैं। देवेंद्र जी ने इतना कुछ लिख दिया अटकन चटकन के बारे में, कि मन प्रसन्न हो गया। आप भी पढ़ें-
अटकन-चटकन
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वंदना अवस्थी दुबे जी का नया उपन्यास अटकन चटकन घर मे आए भी कई दिन हो गए लेकिन पढ़ने का मौका वैसे ही नहीं मिल रहा था जैसे और बहुत सी पुस्तकें उत्साह में मंगा तो ली गईं मगर धरी की धरी रह गईं। इसके नाम मे इतना आकर्षण था कि घर से ले आया और सामने मेज पर रख दिया। पक्का मन बना लिया था कि इसे तो पढ़ना ही है। देखें अटकन चटकन है क्या बला? 

आज दिन में मौका मिला तो अनमने भाव से पढ़ना शुरू किया। शुरुआत के कुछ पृष्ठ पढ़ने के बाद से ही जो इस पुस्तक की कहानी ने अटकाया कि तब तक नहीं छूटा जब तक पूरा पढ़ नहीं लिया। जब आदमी की सांस अटक जाती है तो उसे अंतिम समय दही, गंगाजल चटा दिया जाता है। सोच रहा था, यही कुछ अर्थ लिए होगा इस शीर्षक का लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं निकला। हाँ, पूरे समय सांस अपनी ही अटकी रही और आई तब जब मैने इसे दीमक की तरह पूरा चाट नहीं लिया।

लगभग अस्सी पृष्ठों का यह लघु उपन्यास दो बहनों सुमित्रा जी और कुंती के इर्द-गिर्द घूमता रहता है। ग्रामीण परिवेश, देशज शब्द और कसे संवादों ने इस कहानी को इतना रोचक बना दिया है कि पाठक एक ही बैठकी में इसे खतम कर देना चाहता है।

दो सगी बहनों में एक मंथरा(कुंती) है तो दूसरी सावित्री। मजे की बात यह है कि सावित्री जानती है कि यह मंथरा है, मंथरा जानती है कि यह सावित्री है मगर तमाम षड्यंत्रों के बाद भी जीवन पर्यंत दोनो में प्रेम भी बना रहता है! पढ़ने के बाद लगता है इस कहानी का नाम अटकन-चटकन के बजाय उलझन-सुलझन होना चाहिए था। एक बहन जीवन के मंझे को उलझाती है दूसरी बहन उसे यत्न कर सुलझाती है। 

ग्रामीण परिवेश से उठाकर परिवारों के शहरी पलायन और अंत में गाँव के घर का, बूढ़े बरगद की तरह एकाकी रह जाने की घर-घर की दर्द भरी कहानी को बड़े अनूठे अंदाज में प्रस्तुत करने में सफल रही हैं लेखिका। 

उपन्यास में कहीं-कहीं प्रचलित सीरियल के बकवास षड्यंत्रों की झलक भी दिखती है लेकिन कहानी के बीच ही सीधे पाठकों से संवाद कर, बड़ी साफगोई से लेखिका इस आलोचना से बच निकलने का प्रयास करती दिखती हैं। इस उपन्यास के मुख्य पात्र महिलाएं होने के कारण इसमें महिलाओं की खिचड़ी ही ज्यादा पकाई गई है। पुरुषों को दाल गलाने का मौका ही नहीं मिला है। 

उपन्यास का अंत संयुक्त परिवार के विघटन के बाद एकाकी बचे पात्र को जीने का सही मार्ग इस अंदाज में दिखाता है कि हृदय को छू जाता है। कुल मिलाकर शुरुआत से अंत तक उपन्यास पाठक को बांधे रखने में सफल होता है। मैं वंदना अवस्थी दुबे जी को उनकी इस सफल कृति के लिए तहे दिल से बधाई देता हूँ।
#अटकनचटकन


Anoushka Shukla Pandey वैसे तो हमारी भांजी हैं लेकिन ऐसे वो डॉक्टर है और बहुत प्यारी कविताएं भी लिखती है। इतने सरल-सहज और विनम्र बच्चे बहुत कम होते हैं । पढ़ने की शौक़ीन हमारी बिट्टू ने अपनी पीजी की तैयारी के बीच अटकन चटकन पढा और लिखा भी। आप भी देखें-
अटकन चटकन
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मेरी प्यारी रेखा मौसी, जो कि एक वरिष्ठ साहित्यकार हैं, उनकी पुस्तक के लिए मुझ अज्ञानी का कुछ कहना तो सूरज को दीया दिखाने जैसा ही है...!
यही कह सकती हूँ कि जब एक बार पढ़ने बैठी, तो पढ़ती ही चली गयी और समय का भान न रहा! 
सभी किरदारों को अपना सा महसूस किया। मनुष्य की बड़ी से बड़ी और महीन से महीन सम्वेदना को जैसे किसी कैनवास पर रंग दिया गया हो...!
चरित्र चित्रण तो इतना सुंदर मानो सभी किरदारों आप जीवन मे कब्जी मिले हों!  और कहानी मन में भीतर तक धंस जाने वाली!!
आजकल के अजीबोग़रीब माहौल में यदि आप कुछ पल किसी कहानी की सरलता में बंध जाना चाहते हैं , तो ज़रूर पढ़ें ये बेजोड़ पुस्तक।
#अटकनचटकन

अटकन-चटकन: कुछ प्रतिक्रियाएं

अपनी किताब की प्रशंसा , अपनी ही वॉल पर, खुद के द्वारा पोस्ट करने में सकुचाहट तो होती है, लेकिन फिर आप सब तक वो रिव्यू कैसे पहुंचे, जो केवल मुझे मिला हो? फिर किताब का पहला रिव्यू एक अलग ही महत्व रखता है। Shaily Ojha मेरी भांजी है, मोटिवेशनल स्पीकर है और सकारात्मकता से भरी एक ऐसी शख़्सियत है, जिसका साथ हमेशा खुशनुमा अहसास से भर देता है। आज शैली का छोटा सा, प्यारा सा रिव्यू मिला तो मैंने झट से Rashmi Ravija की तर्ज़ पे उससे फ़ोटो भी मांग ली, किताब सहित। आप भी देखें, क्या लिखा शैली ने-

"अटकन चटकन"

किताबें पढ़ना पसंद है मुझे, पर अपने पसंद के विषय पढ़ते पढ़ते हिन्दी की किताबें कम ही हाथ में आती हैं। बहुत दिनों बाद एक किताब हाथ में आयी। पहली चीज़ जिसने आकर्षित किया वह है इसका नाम 😊 पढ़ना शुरू किया तो बस रुक ना पायी। हर चित्र जैसे आंखों के सामने से गुज़र रहा हो। चरित्र चित्रण तो ऐसा कमाल का, कि आप अपने जीवन से जोड़ लेंगे उन्हें जाने अनजाने। इंसान का स्वभाव ही उसका सबसे बड़ा मित्र और सबसे बड़ा शत्रु है इस बात को लेखिका ने बड़ी खूबसूरती, सरलता और प्यार से दर्शाया है। वंदना अवस्थी दुबे जी को इस कथा के लिए बहुत बधाई।



डॉ शीला नायक ( Sheela Nayak ) महाराजा महाविद्यालय छतरपुर में संस्कृत विभाग की विभागाध्यक्ष हैं। अटकन चटकन मंगवाना, फिर उसे पढ़ना ... फिर उस पर अपनी टिप्पणी देना....!
अब और क्या चाहिए हमें?

अटकन-चटकन
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सबसे पहले तो उपन्यास का शीर्षक ही आकर्षक है | पाठक को जिज्ञासा बनी रहती है कि अटकन-चटकन से क्या तात्पर्य है | मैंने बचपन में खेलते खेलते ये बात सुनी थी कि अटक न-चटकन चार चपेटन....इस प्रकार यह शीर्षक बहुत ही प्यारा है |

उपन्यास की प्रमुख पात्र सुमित्रा जी बड़े घर की बेटी हैं और उन्होंने ये संस्कार बखूबी अपनी ससुराल में निर्वहन किये | सुमित्रा जी धैर्य की मूर्ती हैं , उनकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है | वहीँ कुंती का चरित्र पढ़कर बड़ी नाराज़गी उभरती है कि सगी बहन किस स्तर तक गिर सकती है, कुंती जैसी स्त्रियां ही कुल का संहार करने वाली होती हैं | उपन्यास का पढ़ना पाठक को निरंतर बाँध कर रखता है | एक चलचित्र की तरह पाठक उसी में खो जाता है | उपन्यास के माध्यम से लेखिका जी ने उस समाज का चित्रण किया है जहां स्त्रियों की शिक्षा उनकी दशा पर ध्यान नहीं दिया जाता था | उपन्यास का अंत सुखद है जो की पाठक को आनंद की अनुभूति कराता है | लेखिका को यथार्थ चित्रण के लिए बहुत बहुत बधाई |💐💐💐




हमारी छोटी दीदी यानी Archana Awasthi ने सम्भवतः सबसे पहले "अटकन-चटकन" पढ़ा, लेकिन टिप्पणी आज आई। उनकी व्यस्तताएं जानते हैं हम, सो कोई शिक़ायत नहीं। 😊 बहुत धन्यवाद छोटी, इतनी प्यारी टिप्पणी के लिए। 💐💐

अटकन-चटकन
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सर्वप्रथम उपन्यास का शीर्षक और पुस्तक का आवरण अपनी तरफ़ आकर्षित करता है. उपन्यास की मुख्य-पात्र सुमित्रा की सरलता और कुन्ती की कुटिलता, कुन्ती का हृदय परिवर्तन होना तथा इस बीच का घटना-क्रम बराबर पाठक की उत्सुकता को बनाये रखता है. ग्रामीण-परिवेश और बुन्देली-भाषा का प्रयोग उस अंचल को चलचित्र की भाँति हमारे सम्मुख ले आते हैं. लेखिका वन्दना अवस्थी दुबे का उपन्यास यथार्थ-चित्रण-सा बन पड़ा है, उन्हें ढेर सारी शुभकामनाएं और अमित बधाइयां...

--अर्चना
#अटकनचटकन


Dev Shrivastava, यानी संजय श्रीवास्तव के बचपन के कुछ साल नौगाँव में बीते। पापाजी के शिष्य हैं। बेहद शिष्ट और नम्र स्वभाव के देव उतने ही सरल भी हैं। आज किताब मिली और आज ही पढ़ डाली। इस स्नेह पर धन्यवाद कह के पानी नहीं फेरेंगे हम।
अटकन-चटकन
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दीदी,आज जैसे ही ,"अटकन चटकन " कोरियर से आई , मन खुश हो गया , पूरे समय उपन्यास को पढ़ते समय कभी सुमित्रा का चरित्र आंखो के सामने आता तो कभी कुंती का,दोनों ही चरित्र अपने आस पास ही घूम रहे थे।तिवारी जी के इतने बड़े परिवार में एक एक पात्र जाना पहचाना लग रहा था। बहुत ही खूबसूरती से सारे पात्रों को आपने गढ़ा है।शुरू किया तो छोड़ने का मन ही नहीं किया।बीच में पारंपरिक बुन्देली भी पढ़ने को मिली । इतना सुंदर और सरल उपन्यास लिखने के लिए बहुत बहुत बधाई आपको ।😊👏👏🙏👍👍👍🙏

#अटकनचटकन