शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2017

किस्सों वाली गली है ये - गंगाशरण सिंह


इंतज़ार  का फल मीठा होता है, आज साबित हुआ। हर रोज़ देखती थी कि गंगा शरण जी ने लिखा क्या? मित्रों में चन्द मित्र ऐसे होते हैं जिनकी टिप्पणी विश्वसनीय होती है। आप ऐसे ही मित्र और सजग पाठक हैं। किसी भी लेखक की पुस्तक पर इतनी विस्तृत समीक्षा, उसे किस तरह आंदोलित करती है ये केवल वही समझ सकता है जो इस अनुभव से गुज़र चुका हो। अपने व्यस्तम समय में से आपने इतना समय किताब के लिए चुराया, ये मेरा सौभाग्य है। ऐसे सुहृद मित्र को धन्यवाद कहना बेमानी है।
"रुझान पब्लिकेशन से 2017 में प्रकाशित "बातों वाली गली" वंदना अवस्थी दुबे का पहला कहानी संग्रह है। अलग अलग विषयों के इतने किस्से इस किताब में शामिल हैं कि इसका नाम किस्सों वाली गली भी हो सकता था। विषयों का वैविध्य ये दर्शाता है कि लेखिका के पास जीवन अनुभवों की कमी नही है और वो अपने आसपास की चीजों और घटनाओं को कितनी सजगता से अपने अवचेतन में सहेजती हैं। संग्रह की प्रत्येक कहानी असाधारण नही है किंतु एक गुण हर रचना में मौजूद है और वो है पठनीयता जो किसी भी कहानी का अनिवार्य तत्व है। अधिकांश कहानियों का विषय और प्रस्तुति आश्वस्तिकारक है। जिस नारी विमर्श का ज़िक्र भूमिका में हुआ है उसकी मात्रा भी काफी संतुलित है। कुछ स्वनामधन्य लेखकों/ लेखिकाओं की तरह उनके नारी पात्र न तो हर जगह क्रान्ति का झंडा लेकर खड़े होते हैं और न ही प्रगतिशीलता के नाम पर कहीं भी कपड़े उतारने लगते हैं। ये पात्र एक सीमा तक अनुचित बातों या परिस्थितियों को सहन करते हैं और फिर एक दिन साहस करके अपनी नियति को बदलने के प्रयास में लग जाते हैं।
"नहीं चाहिए आदि को कुछ" एक बच्चे के मनोविज्ञान पर केंद्रित अच्छी कहानी है। गरीब घर का आदि अपनी धनवान दोस्त के सुख सुविधाओं से लैस जीवन को देखकर प्रायः दोनों घरों की तुलना करता रहता है। एक दिन किसी दुर्घटना के कारण उसका पूरा दिन अपने उसी दोस्त के घर बीतता है। अपने घर जैसा स्वच्छन्द वातावरण न पाकर वहाँ के अनुशासित माहौल में शाम होते होते वो ऊब जाता है।
इसी तरह की एक और रोचक कहानी "प्रिया की डायरी" जिसमें प्रिया का पति उसे हमेशा ताना मारता रहता है कि आखिर क्या काम करती है वो दिन भर। पूरे दिन घर को सँभालने में व्यस्त वह गृहिणी एक दिन सबसे पहले अपने लिए नौकरी ढूँढती है और फिर घर के नियमों का नया प्रारूप पति के सामने रख देती है जिनके हिस्से में इतने काम आ जाते हैं कि पहले दिन ही उनकी ट्रेन पटरी से उतर जाती है और बच्चे स्कूल ही नहीं जा पाते हैं ।
"बड़ी हो गयीं हैं ममता जी" एक मार्मिक कहानी है जिसमें घर की इकलौती बहू लम्बी उम्र तक अपनी सास द्वारा हमेशा आवाज या आदेश दिए जाने से कभी कभी झुँझला उठती है। एक दिन रात को खाना खाकर सास सोयीं तो सोती ही रह गयीं। उनके न रहने पर बहू निश्चिन्त अनुभव करती है या नहीं ये आपको कहानी पढ़कर ही मालूम हो सकेगा।
संग्रह के आख़िर में तीन लंबी कहानियाँ हैं जिनकी विषय वस्तु का निर्वाह बड़ी कुशलता और विस्तार से हो सका है।
"डेरा उखड़ने से पहले" एक ऐसे परिवार की कहानी है जहाँ पिता फक्कड़ और निश्चिन्त टाइप के हैं। लड़कियों के विवाह की फ़िक्र न तो पिता को हैं , न स्वार्थी भाइयों को। और सब तो ठिकाने लग जाते हैं पर सरकारी नौकरी कर रही सबसे छोटी आभा के सामने शेष रह जाता है एक अनिश्चित एकाकी जीवन और हमेशा कोई न कोई फायदा उठाते परिवार के लोग। और फिर.....
"शिव बोल मेरी रसना घड़ी घड़ी" धर्मभीरु जनता की भावनाओं का फायदा उठाने वाले ठगों की अनोखी दास्तान है। हमारे समाज का एक काफी बड़ा तबका ऐसा है जो धर्म के नाम पर कहीं लुट सकता है और जरूरत पड़ने पर उन्माद की सीमा भी पार कर सकता है। ऐसा ही एक वर्ग वह भी है जो हर बात में उत्सुक हो ताक झाँक करने को जीवन का आनन्द मानता है। इसी स्वभाव के चलते एक दिन वहाँ के आस्थावान लोग उस उजड़ी हवेली के बेरोजगार मनचलों को साधू मान लेते हैं और फिर उन लफंगों के हाथों लुटने का दौर शुरू हो जाता है।
"बड़ी बाई साहब" नए और पुराने मूल्यों में निरंतर पैदा होते अंतराल और एक सशक्त महिला के सामजिक और पारिवारिक वर्चस्व की मानसिकता को बखूबी बयान करती है।
वंदना जी को इस कहानी संग्रह के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ। उनकी किस्सागोई हर कहानी के साथ बेहतर होती गयी है। उम्मीद करते हैं कि अगला संग्रह बहुत जल्द हमारे सामने होगा।

शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

सहेजना रिश्तों का....

दीपावली
पिछले दिनों मेरी ननद नीतू, और उनके पतिदेव शिशिर अमेरिका से लौटे। गत चार वर्षो से वेहोनोलुलू में थे। तमाम किस्से वहाँ की संस्कृति, लोग और अन्य मसलों पर खूब-खूब चर्चाएँ हुईं। चर्चा के दौरान ही शिशिर ने बताया कि वहां लोगों का सामान जब पुराना हो जाता है तब वे उसे रोड केकिनारे रख देते हैं, फिर वह चाहे साल भर पुराना हो या छह महीने। नया सामान आने के बाद पुराने की विदाई अवश्यम्भावी है। मज़ा ये की ये सामानछोटा-मोटा नहीं बल्कि टीवी , फ्रिज, कम्प्यूटर, लैपटॉप , क्रॉकरी , आदि आदि होता है। वो भी बहुत अच्छी हालत का।

शिशिर ने बताया की रोड के किनारे ये सामान शुक्रवार तक रखा रहता है। इस बीच यदि किसी व्यक्ति को इस सामान में से कुछ चाहिए तो वो उठा के ले जा सकता है। बाकी सामान को शनिवार को आने वाली म्युनिस्पल की गाड़ी डंप कर ले जाती है। टूटे-फूटे सामन की तरह बेरहमी से उठाते हैं और गाड़ी में पटकते जाते हैं। मेरा दिमाग तो चकरा गया। मुझे गोते खाता देख शिशिर ने बड़े प्यार से समझाया, "भाभी वे ऐसा केवल इसलिए करते हैं क्योंकि उनका मानना है की यदि नए मॉडल का टीवी आ गया है तो पुरानेटीवी को रखने से क्या फायदा? केवल जगह ही घेरेगा न वह....फिर भले ही टीवी एक साल पुराना ही क्यों न हो। हर दिन इलेक्ट्रोनिक में नया कुछ होता रहता है। नई तकनीक को आत्मसात करना ही वहां की संस्कृति है।

हमारे यहाँ जैसे नहीं की बीसों साल पुराना कबाड़ भी गले से लगाए बैठे हैं। इसलिए वहां देखिये, कुछ भी पुराना नहीं।कहीं कबाड़ नहीं। आते समय हम ख़ुद अपना सामान रोड के किनारे रख के आए हैं......."

अमरीकियों का सामान के प्रति निर्मोह मेरे लालच का कारण बन रहा था....सोच रही थी की काश मैं अमेरिका में होती तो पता नहीं कितना सामान समेट लेती.....
हमरिश्तों को भी तो ऐसे ही सहेजते हैं.....जितना पुराना रिश्ता , उतना मजबूत। हमेशा रिश्तों पर जमी धूल भी पोंछते रहो तो चमक बनी रहती है......फिर ये रिश्ते चाहे सगे हों या पड़ोसी से

शिशिर की बातों से शर्मिंदा होते हुए मैंने भी सोचा की आने दो दीवाली , मैं भी वर्षों से जोड़ा गया कबाड़ बाहर करती हूँ।

अंततः दीवाली भी आ गई। मैंने पूरे जोशो-खरोश से सफाई मुहिम संभाली। माया को ललकारा-" निकालो सब सामान अलमारियों से। पता नहीं कितना कबाड़ भरा पड़ा है । फेंको सब।"

माया ने मेरी बिटिया के कमरे की अलमारियों का सामान निकालना शुरू किया- बहुत से छोटे- बड़े पर्स, अलग-अलग डिजाइनों के बैग, ज्योमेट्री बॉक्स , कुछ बड़े-बड़े पॉलीथिन बैग एहतियात से सहेजे हुए से.....कार्ड बोर्ड के बड़े-बड़े डिब्बे जो सुतली से बंधे हुए थे , जिन्हें निश्चित रूप से कई सालों से मैं ही बांधती आरही हूँ।

माया ने पूछा-" दीदी, आप देखेंगी या सब फ़ेंक देना है?" मन नहीं माना। देखना शुरू किया........लगा यहाँ तो यादें बंधी पड़ीं हैं..................


हर साल मैं विधु ( मेरी बेटी) के तमाम सामान ज़रूरत मंदों को दे देती हूँ। बाई के बच्चों को हर साल ढेरों कपडे,स्कूल बैग, जूते, खिलौने और भी बहुत कुछ, लेकिन तब भी कुछ सामन ऐसा है जो मैं सहेज लेती हूँ।

पहला बण्डल खोला, तो उसमें तमाम वे ड्राइंग निकलीं जो उसने स्कूल के शुरूआती दिनों मेंबनाईं थीं, आड़ी-तिरछी लकीरें जो पहली बार खींचीं थीं......फिर बाँध दिया उसे, ज्यों का त्यों......

दूसरा बण्डल......देशबंधु के दिनों में लिए गए तमाम हस्तियों के साक्षात्कारों वाली डायरियां जिनकी अब कोई उपयोगिता नहीं क्योंकि वे प्रकाशित हो चुके हैं,......तमाम इनविटेशन कार्ड्स....तानसेन समारोह, खजुराहो नृत्योत्सव, अलाउद्दीनखां समारोह.......नाट्य समारोह, आकाशवाणी कंसर्ट, और भी पता नहींक्या-क्या....तीसरा बण्डल.......विधु के किचेन सेट, टी-सेट, बार्बी के कपडे, .............

विधु ने कहा रखे रहनेदो.....रख दिए वापस.....चॉकलेट के डिब्बे, जिन्हें उनकी सुंदरता के कारण रखा गया था, सोच के की किसी काम आयेंगे, जो आज तक किसी काम न आ सके, फिर सहेज दिए मिठाई का एक डिब्बा जो इतना खूबसूरत था , कि न मुझसे तीन साल पहले जब आया थे तब फेंका गया, न आज फेंक सकी।

कुछ देने लायक सामान आज भी दिया, लेकिन जो सहेजा था वो वहीं रह गया.............विधु की अलमारी फिर ज्यों की त्यों सामान से भर गई थी। बस फ़र्क सिर्फ़ इतना था की हर सामान पर से धूल हटा दी गई थी। सब कुछ फिर चमकने लगा था.................

मन में कोई शर्मिंदगी भी नहीं थी, कबाड़ न फेंक पाने की। पता नहीं क्यों सामान सहेजते-सहेजते मुझे रिश्ते याद आने लगे.....................

हमरिश्तों को भी तो ऐसे ही सहेजते हैं.....जितना पुराना रिश्ता , उतना मजबूत। हमेशा रिश्तों पर जमी धूल भी पोंछते रहो तो चमक बनी रहती है......फिर ये रिश्ते चाहे सगे हों या पड़ोसी से.....लगा ये विदेशी क्या जाने सहेजना ...... न सामान सहेज पाते हैं न रिश्ते......

"दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं "

बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

बहुत कुछ देने में सक्षम है- “बातों वाली गली”

बातों वाली नाम से वन्दना अवस्थी दुबे की कहानियों का संकलन पंक्ति-पंक्ति, अक्षर-अक्षर द्योपांत पढ़ा. कहानियां यदि स्वयं में इक्कीस नहीं, तो उन्नीस भी नहीं. पक्की बीस बैठती हैं. निश्चय ही यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि लेखिका भाषा की एक कुशल जादूगर है. हमारे जीवन की रोज़मर्रा की साधारण सी बातें/घटनाएं भाषायी जादू के प्रभाव में किस निपुणता से विस्तार पा के कहानी का रूप लेती हैं, इसकी प्रशंसा करनी ही पड़ेगी.
कहानी की भी तो अपनी लम्बी कहानी है. जो कभी सिर्फ़ कही और सुनी जाने वाली स्वयं में एक विधा थी और लोकरंजन करती थी ; कालान्तर में यह विधा कथ्य से पठ्य तक चल कर आई है जिसे उसकी उंगली पकड़ कर चलना सिखाया प्रेमचंद, मंटो, कृष्नचन्दर ने. इतना ही नहीं, सिर्फ़ मनोरंजन करने वाले एक सीमित दायरे से भी उसे बाहर निकाल कर जन हितार्थ संदेशवाहिनी भीबना दिया. हां, तब में और अब में एक साम्य मैं आज भी देखता हूं, और वह है भाषायी कशीदाकारी से ठीक वैसा ही विस्तार देना जैसे रबर को कितना भी खींचो वह अटूट बढ़ती चली जाती है. किस्सागोई भी रबर की तरह खींचकर पूरी रात सुनने वालों को एकाग्र बांध कर रखती थी, तो आज भाषा की जादुई कशीदाकारी भी पाठक का टाइमपास वगैर किसी बोरियत के करा ही देती है. यही कला है और वन्दना को कुशल कथाकार कहना अनुचित नहीं है. क्यों अनुचित नहीं है? इसे जानने के लिये इन कहानियों की भाषा पर दृष्ट डालें-
बातों वाली गली की कहानियां न तो संस्कृतनिष्ठ भाषा की दुरूहता से पाठक को प्रभावित करती हैं, और न ही उसमें भाषा का किंचित कोई दारिद्र्य ही दिखाई देता है. वह तो साधारण बोलचाल की ऐसी हिन्दी है जिसमें लोक कहावतें और मुहावरे सहज ही उसका सौंदर्य बढ़ा देते हैं. मुहावरे भी बलात ठूंसे नहीं गये , सहज ही भाषा में ऐसे घुल गये जैसे दूध में पानी. जैसे- पहली कहानी –’ अलग अलग दायरे’ में देखें- ...उफ़! सारी इज़्ज़त धुलवा कर ही दम लेंगे... इज़्ज़त धुल जाना, दम लेना जैसे मुहावरे कितनी स्वाभाविकता से समरस हुए हैं जो भाषा में चार चांद लगा रहे हैं. यह कौशल प्रत्येक कहानी में यथास्थान देखा जा सकता है. भाषा में  आंचलिक प्रभाव से जो सोंधी सुगन्ध आती है, वह स्वयं में विशिष्ट है. कहानी अहसास में घर की बड़ी बहू को ’बड़की’ सम्बोधन रस घोलता है- .....बड़की, परछन का थाल तैयार किया या नहीं? दरवाज़े पर दुल्हन आ जायेगी तब करोगी?....” परछन जैसे ठेठ शब्द देखते ही लगता है कि हमारी सभी आंचलिक बोलियां हिन्दी को समृद्ध बनाती हैं. इसी प्रकार से ’करत-करत अभ्यास के..’  में पात्र के यथानुसार भाषा का प्रयोग उल्लेखनीय है. सद्पात्र की हिन्दी जितनी शुद्ध तो असद्पात्र की हिन्दी आंचलिकता से नगरीय बनाने का विफ़ल प्रयास भी देखते ही बनता है- ..... फुल्ली के पापा काल बिहान भये गिर गये रहे अम्माजी. एतना मना करते हैं उनें, सुन्तई नईं हैं..... बघेली और बुन्देली की मिली जुली मिठास कितनी सहजता से हिन्दी को यह रूप दे रहा है. हिन्दी में आंचलिकता का रस घोलना आज नई बात नहीं है, फणीश्वरनाथ रेणु से भी पहले हिन्दी को उंगली पकड़कर चलना सिखाने वाले मैथिलीशरण गुप्त की यह विरासत है-
.......अंचल पट कटि में खोंस कछोटा मारे,
    सीता माता आज नई धज धारे.......
आंचलिक बोलियों ने अपने शब्द रूपी दूध पिलाकर हिन्दी का पोषण किया है. वे हिब्न्दी की मातहत नहीं, निश्चय ही धाय माताएं हैं जो आज भी हिन्दी को पोषित कर रहीं हैं. वन्दना की सद्य:कहानियां उसका प्रमाण है.
संकलन की कहानियों की कथावस्तु में बाल मनोविज्ञान है, सहजता व एकदम स्वाभाविकता है जो संकलन की छोटी से छोटी कहानी से लेकर बड़ी से बड़ी कहानी को एक से बढ़कर एक बना देती है. कहानी नहीं चाहिये आदि को कुछ में जो बाल मनोविज्ञान है, वह स्वयं में अद्भुत है. एक विपन्न परिवार का बालक जिसका नाम आदि है, वह एक सम्पन्न परिवार में आता-जाता रहता है. सम्पन्नता के वैभव की चकाचौंध उसके विपन्नता के तिमिर में बालपन में जो प्रभाव डालती है वह इस कहानी के एक-एक सम्वाद को जीवंत बना देता है. – मौली दी के बगीचे में पैसों का पेड़ लगा है क्या? ज़रूर लगा होगा. उसी से तोड़ तोड़ के सामान खरीदते होंगे.... , ..... आदि को लगता है काश! मौली की मम्मी उसकी मम्मी होतीं!..... इसी प्रकार बड़ी-बड़ी कहानियां भी रोचक हैं. नारी विमर्श से भरपूर हैं. इतनी मार्मिक कि हृदय को छू जाती हैं.-
बड़ी बाईसाब हो या शिव बोल मेरी रसना घड़ी-घड़ी या फिर डेरा उखड़ने से पहले, देशकाल की वर्तमान परिस्थियों में ये कहानियां राहत के साथ पथ प्रदर्शन करने में सक्षम हैं. मुझे बड़ी बाईसाब ने अधिक प्रभावित करके झकझोर दिया है. लाड़-प्यार में पाल-पोसकर जिस हृदय के टुकड़े को आज का आदमी विवाह करके विदा करता है तो बेटी के भावी जीवन में सुख की अपेक्षा करता है. उसके लिये वह अपनी हैसियत से भी बढ़कर दान दहेज देता है. तो क्या पैसे से सुख शान्ति खरीदी जा सकती है? इस कहानी ने हमारी आंखें खोल दी हैं. कि पैसे से सुख शान्ति खरीदी नहीं जा सकती. ऐसी मार्मिक कहानियां हृदय को छू जाने वाली हैं. ऐसी कहानियां लिखकर वन्दना ने इस धरती का, हम सबका मान बढ़ाया है. वन्दना को असीम आशीर्वाद,
गुणसागर सत्यार्थी

कुण्डेश्वर, टीकमगढ़-म.प्र.

रविवार, 1 अक्तूबर 2017

बातों वाली गली में निवास करती सशक्त एवं शालीन स्त्री: राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर



बातों वाली गली में टहलते हुए अपने आसपास का माहौल ही नजर आया. जिस तरह से रोज ही जो निश्चित सी दिनचर्या लोगों की दिखाई देती है, कुछ-कुछ वैसी ही बातों वाली गली के लोगों की दिखी. लघुकथा जैसे छोटे कलेवर में विस्तृत फलक दिखाई दिया. वंदना जी अपने बचपन से लेकर अद्यतन लेखकीय कर्म से लगातार सम्बद्ध रही हैं. विज्ञान की नींव पर उन्होंने जिस तरह से भाषाओं की, पुरातत्व की, साहित्य की, पत्रकारिता की बुलंद इमारत बनाई वो प्रशंसनीय है. इसी का परिणाम बातों वाली गली से गुजरते हुए दिखाई भी देता है. बहुत ही सामान्य सी भाषा में वे कहानियों के माध्यम से समाज की वास्तविकता को सामने रखती नजर आती हैं. जो पाठक उनके ब्लॉग अथवा सोशल मीडिया पर उनके लेखन से परिचित होगा उसके लिए समझना मुश्किल न रहा होगा कि बातों वाली गली में किस तरह की बातें हो रही होंगी. उनकी एकाधिक कहानियों को छोड़ दिया जाये तो सभी कहानियों के केंद्र में स्त्री रही है. वे स्त्री के आगे बढ़ने की बात भी करती हैं, स्त्री की उम्र की बात भी करती हैं, स्त्री के सशक्त होने के निर्णय की बात भी करती हैं, स्त्री के अपने आपको जागृत होने की बात भी करती हैं मगर किसी भी रूप में स्त्री के सशक्त होने में वर्तमान जैसा अशालीन सशक्तिकरण नहीं दिखाई दिया. वास्तविक रूप में देखा जाये तो किसी भी स्त्री का सशक्त होना इसी में संदर्भित है कि वह किस तरह से अपने आपको शालीन बनाते हुए न केवल खुद को सशक्त करे वरन परिवार को भी सशक्त करे.

स्त्री के चरित्र को विस्तार देते हुए वे परिवार की संकल्पना को सहेजना नहीं भूलती हैं. वे यदि बड़की बहू को अगले दिन से अपनी स्वतंत्रता पाने का विश्वास जगाती हैं तो कहीं से भी सास-बहू जैसा टकराव नहीं दिखाती हैं. वे प्रौढ़ावस्था की दुल्हिन को अपने वृद्ध सास के प्रति मन ही मन रोष व्यक्त करता अवश्य दिखाती हैं मगर उसी सास की अनुपस्थिति में दुल्हिन खुद को किसी सूनेपन से घिरा पाती है. उम्र के एक पड़ाव पर आकर यदि सादगी को स्वीकारने वाली माँ भी है जो अंततः अपने बच्चों के निर्णय को ही सराहती दिखती है. अपने बालों को लहराने का स्वतंत्र निर्णय कर उद्दंड हवा का विरोध करना रहा हो, अपनी नई पत्रकार सहयोगी के लिए नए रूप में आती शैव्या हो, लड़कियों को प्रदर्शनी की वस्तु बनाने का विरोध कर दो-टूक कहने वाली नीरा हो, घर-परिवार के लिए स्त्री का महत्त्व समझाती प्रिया हो या फिर अपनी दकियानूसी सास को उसी की बेटी के साथ मिलकर यथार्थ से परिचय कराती निधि हो सभी नारी पात्र स्त्री-सशक्तिकरण का सशक्त परिचायक बनते हैं मगर कहीं भी जीवन-मूल्यों के साथ टकराव नहीं है, कहीं भी संस्कारो के साथ खिलवाड़ नहीं है, कहीं भी परिवार का विखंडन नहीं है.

यद्यपि वंदना जी की कहानियों में कहानी की वो नाटकीयता नहीं देखने को मिलती अक्सर कहानी लिखने वाले जिसकी वकालत करते दिखाई देते हैं तथापि उनकी कहानियाँ सादगी के साथ अपना विस्तार करती हैं, अपने नारी-चरित्रों का विकास करती हैं. उन्होंने बहुत ही सहज शब्दों में, आम बोलचाल की भाषा में, जिस तरह से एक आम व्यक्ति रोजमर्रा में जिस तरह की शब्दावली प्रयोग में लाता है, उसी का प्रयोग करके कहानियों में एक तरह का अपनापन घोला है.  इस अपनेपन में पाठक कहानियों की नाटकीयता को विस्मृत कर जाता है और खुद को कहानियों के बजाय उसके वातावरण में समाहित कर जाता है, उस वातावरण के साथ तादाम्य स्थापित कर जाता है. यही किसी भी रचना की सफलता होती है कि पाठक उसके साथ खुद को न केवल जोड़ ले बल्कि उसके वातावरण को महसूस भी करने लगे. उनकी कहानियों को पढ़ते हुए शब्द-शब्द आगे बढ़ते जाने पर उसकी सहजता से ऐसा लगता है जैसे कि ये सब कहीं न कहीं हम लोग अपने आसपास देख रहे हैं.

वर्तमान में जिस तरह से कहानियों में तरह-तरह के प्रयोग किये जा रहे हैं, उनमें जबरन नाटकीयता, मनोवैज्ञानिकता, आधुनिकता का समावेश किया जा रहा है वो वंदना जी की कहानियों में देखने को नहीं मिलता है. इसके अलावा शाब्दिक क्लिष्टता, शब्दों, वाक्यों को जबरिया ओढ़ाई गई आलंकारिकता भी यहाँ देखने को नहीं मिलती. लेखिका ने अपनी सादगी की तरह ही अपनी कहानियों को, अपने पात्रों को सादगी प्रदान की है. सादगी के आँचल में लिपटी बातों वाली गली में विचरण करने के बाद जब पाठक खुद को दूसरे मुहाने पर खड़ा पाता है, तब उसकी तन्द्रा टूटती है कि अरे! वो गली से बाहर आ गया. यद्यपि एकधिक जगह पर मुद्रण त्रुटि देखने को मिली, जो कहानियों की यात्रा में कहीं-कहीं अवरोधक अवश्य बनती है तथापि कहानी संग्रह वाकई संग्रह के योग्य है.

बचपन में जबकि खेल-खिलौनों से खेलने के दिन होते हैं तब लेखिका कहानियों से, कलम से, कागज से खेल रही थी तो ज़ाहिर है कि उनकी वैचारिकता से साहित्य की अनेक विधाओं को बहुत कुछ मिलना है. यह तब और भी प्रामाणिक सिद्ध होता है जबकि पहला संग्रह उन्होंने लिखना सिखाने वाले अपने पापा को समर्पित किया है. निश्चित ही वंदना जी कलम और वैचारिकता को विस्तार देते हुए गली से बाहर नगर, देश, परदेश तक अपने पाठकों को ले जाएँगी.

समीक्षक : डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
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कृति : बातों वाली गली (कहानी संग्रह)
लेखिका : वन्दना अवस्थी दुबे
प्रकाशक : रुझान पब्लिकेशन्सजयपुर
संस्करण : प्रथम, 2017
ISBN : 9788193322734
मूल्य : 150 रुपये मात्र