बुधवार, 11 सितंबर 2019

दिमाग़ के दरवाज़े खोलता है- बन्द दरवाज़ों का शहर



पिछले एक साल में बहुत सारी पुस्तकें इकट्ठा हो गयीं, पढ़ने के लिये, और फिर लिखने के लिये. न बहुत पढ़ पाई, सो लिख भी नहीं पाई. अब एक-एक करके पढ़-लिख रही हूं. रश्मि का कहानी-संग्रह, ’बन्द दरवाज़ों का शहर’ प्रकाशित होते ही ऑर्डर कर दिया था. कुछ कहानियां पढ़ भी ली थीं, लेकिन लिखने के लिये कुछ से बात नहीं बनती. पूरा और शब्दश: पढ़ना ज़रूरी होता है. फिर किताब यदि अपनी दोस्त की हो, तो ये शब्दश: पढ़ना मजबूरी नहीं, बल्कि बाखुशी होता है. तो जून के किसी हफ़्ते में मैने कहानी संग्रह पढ़ना चाहा. बुक-शेल्फ़ में देखा, अपनी टेबल पर देखा, अपने ऑफ़िस के कोने-कोने में झांका, मम्मी के कमरे में तलाशा, पूरे घर में एक बार, दो बार, तीन बार...कई बार खोजा. नहीं मिला ’बन्द दरवाज़ों का शहर’......! अब क्या हो? मैने तो पूरी कहानियां पढ़ी ही नहीं अभी...!. इस्मत को फोन लगाया-’ तुम्हें दी क्या रश्मि की किताब? तुम्हारे साथ दिल्ली तो नहीं पहुंच गयी? इस्मत ने इंकार में ज़ोर से सिर हिलाया. बोली, तुमने ज्योति को दी होगी. ज्योति को मैने नहीं दी है, ये मुझे अच्छे से याद था. अब क्या हो? आनन-फानन दोबारा ऑर्डर की गयी किताब. जब आई, उन दिनों इस्मत सतना में ही थीं, और घर पर ही थीं. बाहर से अपना पार्सल ले के लौटी , किताब देखते ही इस्मत बोली-’ दोबारा क्यों मंगवाई? है तो तुम्हारे पास.’ अब हम झल्लाए, - तुम्हें पता तो है मिल नहीं रही. पता नहीं कहां गयी.’ अब इस्मत ने पलट-झल्लाहट दिखाई- ’ ऐसे कैसे नहीं मिल रही? वहां पापाजी के बुक शेल्फ़ पर रखी तो है!’
’हैं....! ले के आओ तो जानें.’
इस्मत उठीं, मम्मी के कमरे में गयीं और ’बन्द दरवाज़ों का शहर’ हिलाते हुए ले आईं. हम दंग!! हमें क्यों न दिखी? हमने तो चार बार ढूंढ़ी थी वहां! खैर, अब दो हो गयी थीं, तो एक इस्मत रानी ने मुस्कुराते हुए अपने बैग के हवाले की, ये कहते हुए- कि ये दूसरी शायद तुमने हमारे लिये ही मंगवा ली. चलो ये भी बढ़िया हुआ.
तो ये तो किस्सा हुआ किताब के गुमने और मिलने का. अब किताब की चर्चा हो जाये.
’बन्द दरवाज़ों का शहर’ रश्मि रविजा की दूसरी कृति है. पहली कृति ’कांच के शामियाने’ थी. महाराष्ट्र साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित इस उपन्यास ने पर्याप्त ख्याति बटोरी, और अब ये कहानी संग्रह भी उसी राह पर है. इस कहानी-संग्रह में कुल बारह कहानियां हैं. कुछ पुरानी हैं, तो कुछ नयी हैं. कुछ लम्बी हैं, तो कुछ छोटी हैं. पहली कहानी ’ चुभन टूटते सपनों के किरचों की, दो बहनों की कहानी है. बड़ी बहन, जिसका ब्याह तब हो गया, जब उसने सपने देखने शुरु भी नहीं किये थे. सपनों के बीच आंखों की मिट्टी में दबे रह गये. लेकिन जब उसे पता चलता है कि उसके ये अनदेखे, अनउपजे सपने, छोटी बहन की आंखों में पनप रहे हैं, बल्कि पौधे का आकार ले चुके हैं तो वो एक अजानी खुशी से भर जाती है. लेकिन जब कहानी के अन्त में वो शादी और प्रेम को लेकर छोटी बहन की व्याख्या सुनती है, तो अवाक रह जाती है. उसे लगता है, जैसे उसके अपने सपने टूट गये हों. छोटी बहन अपने प्रेम के प्रति अचानक क्यों अलग रवैया अपना लेती है, ये आप खुद जानिये, कहानी पढ़ने के बाद.
दूसरी कहानी है- ’अनकहा सच’ ये ऐसे साथियों की कहानी है, जो बचपन से साथ हैं, एक दूसरे को पसन्द करते हैं, लेकिन ज़ाहिर कोई नहीं करता. बाद में क्या होता है, इस रोचक कहानी में, ये आप खुद पढ़ें. तीसरी कहानी-’पराग... तुम भी’ ये भी प्रेमकथा है. ऐसी प्रेम कहानी, जिसमें साथ पढ़ने वाला जोड़ा साथ जीने-मरने के सपने संजोता है. कथा की नायिका पल्लवी पहले नौकरी पा जाती है, जबकि नौकरी के लिये संघर्ष करता पराग जब मुम्बई में जॉब पाता है तो पल्लवी को नौकरी छोड़ने की बात जिस आसानी से कह देता है, वो रवैया पल्लवी के गले नहीं उतरता. आम पुरुष मानसिकता को बखूबी दर्शाती है ये कहानी. चौथी कहानी है- ’दुष्चक्र’ ये कहानी एक ऐसे मेधावी लड़के की कहानी है जो नशे की लत का शिकार हो जाता है. किशोरवय से ही गलत संगत में पड़ के बच्चे किस तरह भयानक रास्ता अपना लेते हैं, और ज़िन्दगी किस तरह दिशाहीन हो जाती है, इन सारे भावों को समेटे है ये कहानी.
कहानी-संग्रह की शीर्षक कथा है- ’बन्द दरवाज़ों का शहर’. ये कहानी पता नहीं कितनी, एकाकी रह जाने वाली महिलाओं की कहानी है. उस महानगरीय एकाकीपन की कहानी, जहां घर में बस सुबह आठ बजे तक ही अहबड़-तबड़ मचती है, जब तक घर का पुरुष काम पर निकल नहीं जाता. उसके बाद औरत का एकाकीपन शुरु होता है, जो खत्म ही नहीं होता, पति के घर लौटने के बाद भी. क्योंकि पति के पास समय ही नहीं, जो पत्नी को दे सके. ऐसे में किसी के द्वारा ज़रा सा भी ध्यान देना, आकर्षण का कारण बन जाता है. लेकिन मध्यमवर्गीय मानसिकता इस भाव को भी किस तरह लेती है, पढ़ियेगा कहानी में. बहुत सार्थक कथा है ये. ’कशमकश’ एक ऐसे युवा की कहानी है जो अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद बेरोज़गार है. घर वालों के सपने साकार न कर पाने का दंश किस क़दर कच्गोटता है बेरोज़गार लड़कों को, ये इस कहानी को पढ़ के बखूबी महसूस किया जा सकता है. ’खामोश इल्तिज़ा’ तन्वी नाम की एक ऐसी लड़की की कहानी है, जिसने ज़िन्दगी में इतने धोखे खाये हैं, कि अब उसे बहुत जल्दी किसी पर भरोसा नहीं होता. पति से अलग होने के बाद जब सचिन ने उसके जीवन में दस्तक दी, तो तन्वी ने जानबूझ के दरवाज़े बन्द ही रखने चाहे. ये दरवाज़े खुले, या बन्द ही रहे, जानिये इस कहानी को पढ़ के.
              संग्रह की अन्य कहानियां – पहचान तो थी, पहचाना नहीं था, होंठिओं से आंखों तक का सफ़र, दुख सबके मश्तरक, पर हौसले जुदा भी एकदम अलग विषयों पर लिखी गयीं बेहतरीन कहानियां हैं. रश्मि की शैली बिल्कुल सहज और भाषा सरल है, इसलिये कहानियां हर तरह का पाठक वर्ग पसन्द करेगा. कहानियों के विषय भी आम जीवन से जुड़े हैं सो वे भी पाठक वर्ग को अपने बीच की ही लगती हैं. कहानी की सबसे बड़ी शर्त होती है उसकी पठनीयता. यदि कहानी खुद को पूरा पढ़ने के लिये मजबूर करे, तो समझिये, लेखन में भरपूर पठनीयता ह और यही विशेषता है एक कथाकार की, जो रश्मि के पास मौजूद है. अनुज्ञा बुक्स-दिल्ली से प्रकाशित. 180 पृष्ठ के इस संग्रह की कीमत 225 रुपये है. पुस्तक का कवर पेज़ आकर्षक है. सबसे बड़ी बात, पुस्तक में कहीं भी प्रकाशकीय ग़लतियां नहीं हैं. ये बहुत बड़ी बात है.  इस पुस्तक के लिये लेखिका- रश्मि रविजा और प्रकाशक को हार्दिक बधाई.    .

मंगलवार, 6 अगस्त 2019

लन्दन की सैर कराती है-’देशी चश्मे से लन्दन डायरी


उत्सवी रंग में रंगा लंदन, इन दिनों पूरी तरह से एशियाई त्यौहारमयी हो जाता है. अपनी-अपनी पहचान और संस्कृति को बचाए रखने के पक्षधर लंदनवासी भारतीयों की श्रद्धा चरम पर नज़र आती है. रस्मो-रिवाज़ को पर्म्परागत तरीक़े से निभाने की इच्छा सर्वोपरि दिखाई देती है. परन्तु, इस सबके बावजूद कहीं कोई अप्रिय घटना नहीं घटती. भारी जनसमूह होने के बावजूद, कहीं किसी भी परिसर में कोई आहत नहीं होता. कहीं भी किसी की वजह से अन्य नागरिकों को कोई परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता. गरबा हो या दुर्गा पूजा, भजनों या संगीत की आवाज़ भी, मजाल है जो उस कक्ष या परिसर से बाहर तक आ जाये. कहीं कोई लाउड स्पीकर नहीं लगाये जाते. ईद हो या रोज़े, सुबह चार बजे अजान के नाम पर पूरे शहर को नहीं जगाया जाता. उत्सव मनाने कोई समय सीमा तय नहीं, पटाखे खरीदने बेचने, छुड़ाने पर कोई प्रतिबंध नहीं, परन्तु बाकी नागरिकों के सुकून और व्यवस्था का पूरा खयाल रखा जाता है. इसमें लंदन पुलिस से लेकर आम नागरिक तक सभी अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हैं.’ 
                                  ये हिस्सा है हमारी प्यारी दोस्त शिखा वार्ष्णेय की किताब ’ देशी चश्मे से लन्दन डायरी’ का. इस हिस्से को पढ़ते हुए मै हिन्दुस्तान में भी ऐसी ही व्यवस्था की कल्पना करने लगी....! शिखा वार्ष्णेय किसी के लिये भी अन्जाना नाम नहीं है. शिखा से मेरा परिचय ब्लॉग के माध्यम हुआ, इस आभासी दुनिया में, और उसके बाद तो लगातार, साल दर साल उनसे नेह का नाता जुड़ता गया, दोस्ती पक्की होती गयी उधर उनका लेखन भी परवान चढ़ता रहा. पहले ’स्मृतियों में रूस’ ( यात्रा संस्मरण) फिर ’मन के प्रतिबिम्ब, (कविता संग्रह) का प्रकाशन हुआ. इन प्रकाशनों के साथ ही पुरस्कारों का सिलसिला भी शुरु हुआ जो कभी उनकी पत्रकारिता पर कभी पुस्तकों पर तो कभी ब्लॉगिंग पर मिलते रहे. ,देशी चश्मे से लन्दन डायरी’ उनकी हालिया पुस्तक है. पुस्तक में उन आलेखों का संकलन है, जो उन्होंने लन्दन से भारतीय समाचार पत्रों के लिये लिखे थे. ये आलेख सन २०१२ से २०१५ के बीच दैनिक जागरण (राष्ट्रीय)और नवभारत के पाक्षिक और साप्ताहिक स्तम्भों में प्रकाशित होते रहे हैं. इन आलेखों में लन्दन की ऐसी छोटी-छोटी झांकियां देखने को मिलती हैं, जो आमतौर पर किसी बड़े ग्रंथ में नहीं मिलेंगीं.
लन्दन की जीवन शैली को शिखा ने इतने रोचक तरीके से लिखा है, कि पढ़ते हुए पाठक खुद भी लन्दन की गलियों में, उत्सवों में, बसों में हर जगह साथ-साथ चलने लगता  है. लन्दन की चुनाव प्रक्रिया के बारे में शिखा लिखती हैं- ’दीवारें साफ़-सुथरीं, लाउड स्पीकर का कोई शोर नहीं, कोई सेलेब्रिटी प्रचार में नहीं लगा हुआ, सड़कों पर भीड़ नहीं, कहीं कोई मुन्नी बदनाम हुई या  शीला की जवानी पर पैरोडी नहीं सुनाई दे रही.’ तब याद आता है हिन्दुस्तानी चुनाव!! उफ़्फ़!! स्कूल बस के बारे में लिखते हुए शिखा ने कहा- कि स्कूल बस का कोई प्रावधान ही नहीं. हर इलाके के अपने स्कूल होते हैं, और उस स्थान के बच्चों को वहीं पढ़ाने की अनिवार्यता भी. ये स्कूल बच्चों के लिये पैदल-पहुंच के होते हैं. हिन्दुस्तान में तो शहर के एक छोर पर आप रहते हैं और पच्चीस किमी दूर बच्चे का स्कूल होता है. सुबह छह बजे निकला बच्चा, आठ बजे स्कूल पहुंचता है.  
’हॉर्न संस्कृति’ पढ़ते हुए मुझे हिन्दुस्तान का ट्रैफ़िक याद आता रहा. शुरुआत हुई, तो लगा काश! यहां भी लन्दन जैसी व्यवस्था होती, हॉर्न बजाने पर ज़ुर्माने की, लेकिन आलेख खत्म होते होते पाया कि लन्दन में भी अब लोग हॉर्न का पर्याप्त इस्तेमाल कर रहे. तो क्या वहां ज़ुर्माने का प्रावधान समाप्त हो गया?
’देशी चश्मे से लन्दन डायरी, ऐसी ही छोटी छोटी रोज़मर्रा से जुड़ी बातों का खूबसूरत दस्तावेज़ है, जो पाठक को सीधे लन्दन से जोड़ता है. बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बेबाक शैली में शिखा ने लन्दन की अच्छाइयों/बुराइयों सब पर बराबर नज़र डाली है. तो अब यदि आप लन्दन के बारे में जानना चाहते हैं तो शिखा वार्ष्णेय की ये पुस्तक अवश्य पढ़ें. मेरा दावा है, आप निराश नहीं होंगे. इन रोचक आलेखों को समेट कर पुस्तक रूप दिया है समय साक्ष्य प्रकाशन-देहरादून ने. किताब की छपाई अच्छी है. बाइंडिंग से थोड़ी शिक़ायत है, क्योंकि पढ़ते हुए, आगे के पेज़, पुस्तक का साथ छोड़ने लगे हैं. शीतल माहेश्वरी द्वारा बनाया गया कवर पृष्ठ आकर्षक है. पुस्तक की कीमत भी बहुत वाज़िब है- मात्र दो सौ रुपये. प्रिंटिंग बढ़िया है. प्रूफ़ की ग़लतियां भी न के बराबर हैं. तो लेखिका, और प्रकाशक को इस बेहतरीन पुस्तक के प्रकाशन हेतु खूब बधाई.
पुस्तक: देशी चश्मे से लन्दन डायरी
लेखिका: शिखा वार्ष्णेय
प्रकाशक: समय साक्ष्य प्रकाशन
15 फ़ालतू लाइन, देहरादून-248001
ISBN :978-93-88165-18-1
मूल्य- 200 रुपये मात्र
               

रविवार, 2 जून 2019

आम जीवन का आइना है-क़र्ज़ा वसूली


आम जीवन का आइना है: क़र्ज़ा वसूली

गिरिजा कुलश्रेष्ठ..... ये नाम मेरे लिये नया नहीं था. उन्हें जानती थी, उनकी लेखनी के ज़रिये. पहचानती थी, उनकी आवाज़ के ज़रिये लेकिन मुलाक़ात नहीं हुई थी. 
तीन साल पहले,अप्रैल के आखिरी दिन थे वे जब हम ग्वालियर गये, एक शादी में. गिरिजा जी का फोन आया कि वे आ रही हैं, मिलने. चिलचिलाती धूप में गिरिजा जी का आना, उनकी सरलता का परिचायक था. वे खुद जितनी सौम्य हैं, उनकी लेखनी भी उतनी ही सहज-सौम्य है. बड़ी-बड़ी बात वे जिस सहजता से कह जाती हैं, चकित होने को मजबूर करती हैं. बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुआ उनका कहानी संग्रह- ’कर्ज़ा-वसूली’ उनकी मजबूत लेखनी और प्रखर सोच का नतीजा है.
’कर्ज़ा-वसूली’ में कुल तेरह कहानियां हैं. सभी कहानियां अलग रंग और अलग माहौल की हैं. पहली कहानी- अपने अपने कारावास’ एक ऐसी लड़की की कहानी है जो संगीत में रुचि रखती है, लेकिन परिस्थितियां उसके इस शौक़ को लगभग समाप्तप्राय कर देती हैं. शादी के बाद मध्यमवर्गीय लड़कियां किस तरह खुद को समेट लेती हैं, बहुत सुन्दर चित्रण इस कहानी में मिलता है. दूसरी कहानी ’साहब के यहां तो....! बिल्कुल अलग ही मिजाज़ की कहानी है. गिरिजा जी ने विद्यालय में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को कितने नज़दीक से देखा है, ये इस कहानी से साबित होता है. रसीदन जो स्कूल के काम में पिस रही है, इमरती, जो कि शिक्षा मंत्री के बंगले पर काम करती है, जबकि है वो भी स्कूल की ही चपरासी की क़िस्मत से बड़ा रश्क़ करती है. लेकिन जब उसे इमरती के काम की असलियत का पता चलता है तो.... आगे आप खुद ही पढ़ लें इस ज़बर्दस्त कहानी को.
तीसरी कहानी है ’कर्ज़ा-वसूली. इस कहानी को पढ़ते हुए मुझे प्रेम्चंद जी की कहानियों का मज़ा मिला. ये कहानी गांव के एक छोटे किसान रामनाथ और व्यापारी बौहरे जी के इर्द-गिर्द बुनी गयी है. रामनाथ द्वारा कर्ज़ा लेना, और फ़िर उसे न चुकाना, बौहरे जी की बौखलाहट, लेकिन सहृदयता के साथ, जो अन्त तक बनी रही. कहानी बहुत जीवंत सम्वादों में रची-बसी है. ऐसा लगता है जैसे इस कहानी को खुद गिरिजा जी ने जिया है. बहुत शानदार कहानी है ये. चौथी कहानी ’उर्मि नईं तो नहीं है घर में..’ सेवानिवृत मास्टर माणिकलाल की उपेक्षित ज़िन्दगी को बखूबी उभारती है. शपथपत्र कहानी एक कर्मचारी की व्यथा को दिखाती सशक्त रचना है. किस प्रकार उसे अपने ही जीपीएफ़ के पैसों के लिये भटकना पड़ता है. किसोरीलाल की व्यथा उन तमाम कर्मचारियों की व्यथा है जो बाबुओं के चंगुल में फंस चुके हैं. एक मां और बेटे की बहुत जीवंत कहानी है ’पहली रचना’. इस कहानी को पढ़ते हुए सालों पहले का मुझे वो समाचार याद आया, जिसमें एक बच्चा ग़लती से स्कूल की कक्षा में बन्द हो गया, जबकि अगले दिन से ही लम्बी छुट्टियां होने वाली थीं. जब कमरा खोला गया तो बच्चा मर चुका था, और उसने पूरे फ़र्श पर, दीवारों पर चौक से लिखा था, मम्मी मुझे भूख लगी है, मम्मी मुझे प्यास लगी है....! हृदय विदारक थी ये घटना, उसी तरह हृदय विदारक है ये कहानी भी. ’उसके लायक़’ कहानी, सरिता नाम की एक ऐसी लड़की की कथा है, जो ठेठ ग्रामीण इलाके से उठ कर शहर के स्कूल में पढ़ने आई, जहां सब उसका मज़ाक उड़ाते थे. एक दिन ऐसा भी आया जब सबको धता बताती यही लड़की प्रोफ़ेसर हो गयी, जबकि बाकी बड़े घर के बच्चे अभी तक रोज़गार की तलाश में ही थे.
संग्रह में ’एक मौत का विश्लेषण’, ’नामुराद’, ब्लंडर मिस्टेक’, ’व्यर्थ ही’, पियक्कड़’, सामने वाला दरवाज़ा जैसी अन्य बेहतरीन कहानियां भी हैं, जिन्हें आप पढ़ेंगे तो हर बार चकित होंगे. बहुत व्यापक दृष्टिकोण है गिरिजा जी का, और बेहद सूक्ष्म अवलोकन भी. सभी कहानियां अपने आस-पास घटती सी लगती हैं. पाठक कहानी के साथ पूरी तरह जुड़ जाता है. इतने बेहतरीन लेखन के लिये गिरिजा जी को बधाई और शुभकामनाएं कि वे लगातार लिखती रहें और हम उनके अनेक संग्रह पढते रहें.
ये संग्रह बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित हुआ है. छपाई बेहतरीन है. सबसे बड़ी बात, अशुद्धियां नहीं हैं, पूरे संग्रह में, जो कि प्रिंटिंग की एक सबसे बड़ी समस्या होती है. कवर पृष्ठ शानदार है. पुस्तक का मूल्य १७५ रुपये है. इस संग्रह को आप ज़रूर पढ़ें. एक बार फ़िर लेखिका, प्रकाशक को बधाई.
पुस्तक: कर्ज़ा वसूली
लेखिका: गिरिजा कुलश्रेष्ठ
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन, जयपुर
ISBN: 978-93-87078-96-3
मूल्य: १७५ रुपये मात्र