हर
साल फरवरी शुरु होती है और मैं तय कर लेती हूं कि इस बार तो भवानी दादा पर लिखना ही
है. लेकिन फरवरी बीतती जाती है. बीस फरवरी आ जाती है और मेरे लिखने का कार्यक्रम अगले
साल पर टल जाता है. ऐसा होते-होते तीस बरस गुज़र गये…. इस बार भी एक फरवरी से ही मन बनाये थी. कि इस बार
नहीं चूकना है, और लो बीस फरवरी निकल गयी…. L फिर भी हमने ठान लिया था कि अब तो लिखना ही है.
बात
१९८३ की है. हम बी.एस.सी. प्रथम वर्ष में थे उस वक्त. मेरी छोटी दीदी का रिश्ता भवानीप्रसाद
मिश्र जी के छोटे भाई केशवानन्द मिश्र के सुपुत्र अमित मिश्र के साथ तय हुआ. कोई रस्म
नहीं हुई थी लेकिन दोनों परिवार एक दूसरे से मिलकर प्रसन्न थे. मुझे तो ज़्यादा प्रसन्नता
भवानी दादा का रिश्तेदार कहलाने में थी J रिश्ता लगभग तय था बस सगाई की रस्म होनी थी. उसके
पहले ही केशवानन्द जी की बेटी का रिश्ता तय हो गया सो उन्होंने कहा कि अब बेटी का ब्याह
हो जाये फिर उसके बाद सगाई और शादी सब एक साथ कर लेंगे. मेरा परिवार तो पहले ही सोचने
के लिये वक्त चाह रहा था. केशवानन्द जी ने अपनी बिटिया की शादी में मेरे पापा से खूब
आग्रह किया कि वे पहुंचें ही. लेकिन चूंकि उनके यहां शादी ग्यारह फ़रवरी को थी और ये
वक्त पापाजी के विद्यालय छोड़ने का नहीं था. सो उन्होंने मुझे मेरे भाई के साथ भेजने
की बात कही.
मुझे
पूरा भरोसा था कि इस शादी में भवानी जी जरूर आयेंगे तो मैने भी एक बार में ही हां कह
दी. जबकि अजनबी परिवारों में मैं उस वक्त तक बहुत कम घुल-मिल पाती थी.
शादी
नरसिंह पुर ( म.प्र.) से होनी थी जो भवानी जी का पैतृक गृह है. मेरा मन तो केवल इसी
बात से झूमा जा रहा था कि मैं भवानी जी के पैतृक गृह को देख पाउंगी. दस फरवरी की सुबह
हम नरसिंहपुर के लिये बस से निकले तो शाम को चार बजे ठिकाने पर पहुंचे. घर पहुंचने
में दिक्कत नहीं हुई. दरवाजे पर पहुंचे ही थे कि किसी ने जोर से अन्दर की तरफ़ मुंह
करके आवाज़ लगायी- : अरे देखो तो अमित की ससुराल से मेहमान आये हैं…. ( अभी कोई रस्म
न हुई थी फिर भी इतनी आत्मीयता!) अन्दर से दौड़ती हुई दो-तीन लड़कियां आईं जो अमित जी
की बहनें थीं. और हमें बड़े प्रेम और आत्मीयता से भीतर ले गयीं. तुरन्त पानी, चाय, नाश्ते
का इन्तज़ाम होने लगा.
मेरा
मन हो रहा था कि किसी से पूछूं- भवानी दादा आये क्या? लेकिन संकोचवश पूछ नहीं पाई.
उम्र भी बहुत कम थी सो संकोच उम्रगत भी था. सब मुझसे बड़े थे वहां. और बहनों के नाम
तो भूल गयी मैं केवल शैला दीदी का नाम याद है जिनकी शादी थी. उन्हें कोई बहन मेंहदी
लगा रही थी. उस वक्त मेंहदी लगाने वालियां/वाले पार्लर से नहीं आते थे बल्कि घर का
ही कोई मेंहदी लगा देते थे.
चाय
के साथ शरमाते हुए बिस्किट खा रही थी मैं, जबकि मन रसगुल्ला उठाने का था J इस खाने-पीने के संकोच ने हमेशा मुझे घाटे में रखा
है J तभी देखा अन्दर की तरफ़ से एक
बेहद सौम्य 28-30 बरस के आस-पास की महिला बाहर
निकलीं..मेरे पास आकर बैठ गयीं. प्यार से मेरी पीठ पर हाथ रखा और बोलीं- मैं नन्दिता
हूं, भवानी प्रसाद मिश्र की बेटी” मैं बस उन्हें देखती रह गयी…… कितनी सुन्दर. कितना
सौम्य चेहरा! लगा भवानी जी से मिल ली जैसे. मुझे तो जैसे मन चाहा साथ मिल गया. उस घड़ी
से लेकर जितने दिन मैं वहां रही नन्दी जीजी
का साथ नहीं छोड़ा.
नन्दी जीजी ने बताया कि भवानी दादा को अभी पेसमेकर
लगा है. उनकी तबियत ठीक नहीं है सो शायद न आ पायें. मेरा मन उदास हो गया L फिर सांत्वना दी कि चलो कोई
बात नहीं, नन्दी जीजी तो मिल गयीं.
दूसरे
दिन सबेरे मैं शैला दीदी के साथ रसोई में बड़े से चूल्हे पर चाय बनवा रही थी. तभी बाहर
से शोर उठा-“ अरे दद्दा आ गये….” मैने पूछा- कौन दद्दा? शैला दी बाहर की तरफ़ लपकते
हुए बोलीं भवानी दद्दा… मैंने चाय वहीं पटकी और दौड़ पड़ी…
दो
लोगों का सहारा ले के भवानी जी चले आ रहे थे. एकदम वैसे ही जैसे तस्वीरों में मैने
देखे थे… पीछे को काढे गये बाल, सफ़ेद कुर्ता और पाजामा. उन्हें आराम से पीछे के कमरे में ले जाया गया. घर
बहुत बड़ा था ये वाला. मुझे बार-बार लग रहा था कि पता नहीं उनकी ऐसी तबियत में मैं मुलाकात
कर पाउंगी या नहीं L
दिन के बारह बज गये थे. भवानी जी का स्नान ध्यान हो गया था. हम सब रसोई में ही बैठे
थे गप्पें करते हुए. नन्दी जीजी भवानी जी को दवाई देने गयीं थीं. भवानी जी के कमरे
और रसोई के बीच बड़ा सा आंगन था. तभी देखा,
आंगन के दरवाजे पर खड़े भवानी जी पूछ रहे थे- “ भाई वो जो नौगांव से लड़की आई है, कहां
है? मुझे मिलवाया क्यों नहीं? भेजो तो जरा उसे .”
मैं
मुंह बाये देख रही थी. अकेले जाने की हिम्मत ही नहीं हुई सो शैला दी के साथ गयी उनके
कमरे तक.
“अच्छा,
तो ये गुड़िया है? आओ बच्चा, बैठो यहां. देखो तो क्या मैच चल रहा है. क्रिकेट पसन्द
है न? “
भवानी
जी कंधे पर ट्रान्जिस्टर रखे कमेंट्री सुन रहे थे. शायद विश्व कप का ही समय था. क्रिकेट
के बेहद शौकीन भवानी जी से कैसे कहती कि मुझे तो ये खेल एकदम पसन्द न है L
फिर
तो मेरे बारे में, परिवार के बारे में, मेरे शौक सबके बारे में इतनी बातें की उन्होंने
कि मुझे लगा ही नहीं ये भवानी जी हैं. ये सुन के कि मुझे लिखने पढने का शौक है, प्रसन्न
हो गये अपनी जाने कितनी कवितायें सुना डालीं. बीच बीच में मैं टोकती- दद्दा ज्यादा
मत बोलिये आपको मना किया है डॉक्टर ने” हंसते हुए कहते- “ अरे बोल लेने दे. क्या जाने
फिर मिलें न मिलें”
मेरा
अधिकतर समय अब उन्हीं के साथ बीतता. थोड़ी देर को कुछ काम करवाने आई तो आवाज़ देने लगे-
अरे वो नौगांव वाली गुड़िया को भेजो न. कहां काम में फंसा लिया बच्ची को” उन्हें मेरा
नाम याद नहीं हो पाया था.
अगले
दिन हमें वापस आना था. वो इतने संकोच का समय था मेरा कि उनसे उनकी कलम मांगना तो दूर,
ऑटोग्राफ़ तक न लिया… L
आज का समय होता तो उनका पैन ज़रूर मांग लेती..
हम
तेरह फ़रवरी को वापस आये और बीस को खबर मिली भवानी जी नहीं रहे….. मुझे याद आ रही थी
उनकी ठहाकेदार हंसी के साथ कही गयी बात- अरे
बोल लेने दे, क्या पता फिर मिलें न मिलें……