रविवार, 22 फ़रवरी 2015

क्या पता फिर मिलें, न मिलें....

हर साल फरवरी शुरु होती है और मैं तय कर लेती हूं कि इस बार तो भवानी दादा पर लिखना ही है. लेकिन फरवरी बीतती जाती है. बीस फरवरी आ जाती है और मेरे लिखने का कार्यक्रम अगले साल पर टल जाता है. ऐसा होते-होते तीस बरस गुज़र गये….  इस बार भी एक फरवरी से ही मन बनाये थी. कि इस बार नहीं चूकना है, और लो बीस फरवरी निकल गयी…. L फिर भी हमने ठान लिया था कि अब तो लिखना ही है.
बात १९८३ की है. हम बी.एस.सी. प्रथम वर्ष में थे उस वक्त. मेरी छोटी दीदी का रिश्ता भवानीप्रसाद मिश्र जी के छोटे भाई केशवानन्द मिश्र के सुपुत्र अमित मिश्र के साथ तय हुआ. कोई रस्म नहीं हुई थी लेकिन दोनों परिवार एक दूसरे से मिलकर प्रसन्न थे. मुझे तो ज़्यादा प्रसन्नता भवानी दादा का रिश्तेदार कहलाने में थी J रिश्ता लगभग तय था बस सगाई की रस्म होनी थी. उसके पहले ही केशवानन्द जी की बेटी का रिश्ता तय हो गया सो उन्होंने कहा कि अब बेटी का ब्याह हो जाये फिर उसके बाद सगाई और शादी सब एक साथ कर लेंगे. मेरा परिवार तो पहले ही सोचने के लिये वक्त चाह रहा था. केशवानन्द जी ने अपनी बिटिया की शादी में मेरे पापा से खूब आग्रह किया कि वे पहुंचें ही. लेकिन चूंकि उनके यहां शादी ग्यारह फ़रवरी को थी और ये वक्त पापाजी के विद्यालय छोड़ने का नहीं था. सो उन्होंने मुझे मेरे भाई के साथ भेजने की बात कही.
मुझे पूरा भरोसा था कि इस शादी में भवानी जी जरूर आयेंगे तो मैने भी एक बार में ही हां कह दी. जबकि अजनबी परिवारों में मैं उस वक्त तक बहुत कम घुल-मिल पाती थी.
शादी नरसिंह पुर ( म.प्र.) से होनी थी जो भवानी जी का पैतृक गृह है. मेरा मन तो केवल इसी बात से झूमा जा रहा था कि मैं भवानी जी के पैतृक गृह को देख पाउंगी. दस फरवरी की सुबह हम नरसिंहपुर के लिये बस से निकले तो शाम को चार बजे ठिकाने पर पहुंचे. घर पहुंचने में दिक्कत नहीं हुई. दरवाजे पर पहुंचे ही थे कि किसी ने जोर से अन्दर की तरफ़ मुंह करके आवाज़ लगायी- : अरे देखो तो अमित की ससुराल से मेहमान आये हैं…. ( अभी कोई रस्म न हुई थी फिर भी इतनी आत्मीयता!) अन्दर से दौड़ती हुई दो-तीन लड़कियां आईं जो अमित जी की बहनें थीं. और हमें बड़े प्रेम और आत्मीयता से भीतर ले गयीं. तुरन्त पानी, चाय, नाश्ते का इन्तज़ाम होने लगा.
मेरा मन हो रहा था कि किसी से पूछूं- भवानी दादा आये क्या? लेकिन संकोचवश पूछ नहीं पाई. उम्र भी बहुत कम थी सो संकोच उम्रगत भी था. सब मुझसे बड़े थे वहां. और बहनों के नाम तो भूल गयी मैं केवल शैला दीदी का नाम याद है जिनकी शादी थी. उन्हें कोई बहन मेंहदी लगा रही थी. उस वक्त मेंहदी लगाने वालियां/वाले पार्लर से नहीं आते थे बल्कि घर का ही कोई मेंहदी लगा देते थे.
चाय के साथ शरमाते हुए बिस्किट खा रही थी मैं, जबकि मन रसगुल्ला उठाने का था J  इस खाने-पीने के संकोच ने हमेशा मुझे घाटे में रखा है J तभी देखा अन्दर की तरफ़ से एक बेहद सौम्य 28-30  बरस के आस-पास की महिला बाहर निकलीं..मेरे पास आकर बैठ गयीं. प्यार से मेरी पीठ पर हाथ रखा और बोलीं- मैं नन्दिता हूं, भवानी प्रसाद मिश्र की बेटी” मैं बस उन्हें देखती रह गयी…… कितनी सुन्दर. कितना सौम्य चेहरा! लगा भवानी जी से मिल ली जैसे. मुझे तो जैसे मन चाहा साथ मिल गया. उस घड़ी  से लेकर जितने दिन मैं वहां रही नन्दी जीजी का साथ नहीं छोड़ा.
 नन्दी जीजी ने बताया कि भवानी दादा को अभी पेसमेकर लगा है. उनकी तबियत ठीक नहीं है सो शायद न आ पायें. मेरा मन उदास हो गया L फिर सांत्वना दी कि चलो कोई बात नहीं, नन्दी जीजी तो मिल गयीं.
दूसरे दिन सबेरे मैं शैला दीदी के साथ रसोई में बड़े से चूल्हे पर चाय बनवा रही थी. तभी बाहर से शोर उठा-“ अरे दद्दा आ गये….” मैने पूछा- कौन दद्दा? शैला दी बाहर की तरफ़ लपकते हुए बोलीं भवानी दद्दा… मैंने चाय वहीं पटकी और दौड़ पड़ी…
दो लोगों का सहारा ले के भवानी जी चले आ रहे थे. एकदम वैसे ही जैसे तस्वीरों में मैने देखे थे… पीछे को काढे गये बाल, सफ़ेद कुर्ता और पाजामा.  उन्हें आराम से पीछे के कमरे में ले जाया गया. घर बहुत बड़ा था ये वाला. मुझे बार-बार लग रहा था कि पता नहीं उनकी ऐसी तबियत में मैं मुलाकात कर पाउंगी या नहीं L दिन के बारह बज गये थे. भवानी जी का स्नान ध्यान हो गया था. हम सब रसोई में ही बैठे थे गप्पें करते हुए. नन्दी जीजी भवानी जी को दवाई देने गयीं थीं. भवानी जी के कमरे और रसोई के बीच बड़ा सा आंगन था.  तभी देखा, आंगन के दरवाजे पर खड़े भवानी जी पूछ रहे थे- “ भाई वो जो नौगांव से लड़की आई है, कहां है? मुझे मिलवाया क्यों नहीं? भेजो तो जरा उसे .”
मैं मुंह बाये देख रही थी. अकेले जाने की हिम्मत ही नहीं हुई सो शैला दी के साथ गयी उनके कमरे तक.
“अच्छा, तो ये गुड़िया है? आओ बच्चा, बैठो यहां. देखो तो क्या मैच चल रहा है. क्रिकेट पसन्द है न? “
भवानी जी कंधे पर ट्रान्जिस्टर रखे कमेंट्री सुन रहे थे. शायद विश्व कप का ही समय था. क्रिकेट के बेहद शौकीन भवानी जी से कैसे कहती कि मुझे तो ये खेल एकदम पसन्द न  है L
फिर तो मेरे बारे में, परिवार के बारे में, मेरे शौक सबके बारे में इतनी बातें की उन्होंने कि मुझे लगा ही नहीं ये भवानी जी हैं. ये सुन के कि मुझे लिखने पढने का शौक है, प्रसन्न हो गये अपनी जाने कितनी कवितायें सुना डालीं. बीच बीच में मैं टोकती- दद्दा ज्यादा मत बोलिये आपको मना किया है डॉक्टर ने” हंसते हुए कहते- “ अरे बोल लेने दे. क्या जाने फिर मिलें न मिलें”
मेरा अधिकतर समय अब उन्हीं के साथ बीतता. थोड़ी देर को कुछ काम करवाने आई तो आवाज़ देने लगे- अरे वो नौगांव वाली गुड़िया को भेजो न. कहां काम में फंसा लिया बच्ची को” उन्हें मेरा नाम याद नहीं हो पाया था.
अगले दिन हमें वापस आना था. वो इतने संकोच का समय था मेरा कि उनसे उनकी कलम मांगना तो दूर, ऑटोग्राफ़ तक न लिया… L आज का समय होता तो उनका पैन ज़रूर मांग लेती..
हम तेरह फ़रवरी को वापस आये और बीस को खबर मिली भवानी जी नहीं रहे….. मुझे याद आ रही थी उनकी ठहाकेदार हंसी  के साथ कही गयी बात- अरे बोल लेने दे, क्या पता फिर मिलें न मिलें……



रविवार, 1 फ़रवरी 2015

जीवन और मृत्यु के उत्सव का शहर- बनारस..

पिछले दिनों बनारस जाना हुआ. कई दिनों से बनारस के अनुभव लिखना चाह रही थी, लेकिन आज बैठ पाई लिखने. 

अपने गृह नगर के नाम के अलावा इलाहाबाद और बनारस ये दो ऐसे शहर हैं जो मुझे हमेशा  बहुत अपील करते हैं. इन नामों में पता  नहीं क्या है जो मुझे हमेशा  अपनी ओर खींचता है. इलाहाबाद  तो मेरा आना-जाना लगा रहता है, लेकिन बनारस पहले कभी जाना नहीं हुआ था. सो इस बार पुराने साल को विदा करने हम बनारस पहुंच गये.

कड़ाके की ठंड में यात्रा का मज़ा कुछ अलग ही होता है. ये अलग बात है कि हमारी यात्रा रात की ट्रेन से शुरु हो रही थी सो अपनी बर्थ पर पहुंच के हमने चुपचाप बिस्तर बिछाया , और लेट गये. नींद भले ही न आये पर संभ्रांतों की नींद में खलल डालना अभद्रता है, सो कानों में इयर प्लग ठूंसे गाने सुनते रहे.

हमारी ट्रेन एक घंटा चालीस मिनट लेट थी सो सुबह 5:30 की जगह  7:10 पर पहुंचने वाली थी लेकिन आधी रात को ट्रेन ने जो रफ़्तार पकड़ी कि हमें ठीक छह बजे बनारस  स्टेशन पर ला पटका. जबकि हम मना रहे थे कि ट्रेन दो-तीन घंटा लेट हो के पहुंचे. खैर. स्टेशन से बाहर निकले तो घने कोहरे की गिरफ़्त में आ गये. एक हाथ आगे का नहीं दिखाई दे रहा था. और भीड़ इतनी जैसे शाम के छह बजे हों.  

हमने जो होटल बुक किया था उसका चैक इन दिन में दो बजे से था. अतिरिक्त आठ सौ रुपये दे के हम सुबह सात बजे ही अपने रूम में स्थापित हो गये. चाय पी के थोड़ा आराम करके हम दस बजे नहा-धो के तैयार हो गये और सारनाथ के लिये रवाना होने नीचे उतरे. टैक्सी आने में टाइम लग रहा था. तो होटल के ही एक कर्मचारी अजय  ने कहा कि जब तक टैक्सी आ रही है तब तक आप लोग मुगल-टाउन देख आइये. मुझे लगा कोई मुग़ल गार्डन जैसा स्थान होगा. आगे-आगे अजय, और पीछे-पीछे हम दोनों. संकरी गलियों की भूल भुलैया से गुज़रते हुए हम बस चले जा रहे थे.
मैने पूछा-“ अजय मुगल टाउन कब आयेगा?”

 “अरे! यही तो है मुग़ल टाउन…”  मेरी दुविधा को अजय समझ रहे थे. उन्होंने तत्काल अपनी गलती मानी और बोले-
“ इस पूरे स्थान पर बनारसी साड़ियों के कारखाने हैं. अधिकतर पावर लूम पर बनायी जाने वाली साड़ियों के कारखाने हैं. कुछ हैंड लूम वाले भी हैं.”
सुबह का वक्त था, वो भी भीषण सर्द, सो कारीगर पावर लूम पर धागे चढा के चले गये थे. हमने दरवाज़ों की सुराखों और खिड़कियों के अधखुले पल्लों में से झांक के देखा, कैसे खटाखट साड़ियां बन रही हैं… एक साथ कई पावर लूम चल रहे हैं. अलग-अलग रंग और डिज़ाइन बन रही हैं… अद्भुत… अजय ने बताया कि थोड़ी देर में कारखाने खुल जायेंगे तब हम आपको अन्दर कारीगरों से मिलवा देंगे. हम भी वापस चल दिये, हमारी टैक्सी आ गयी थी. असल में यह एक ऑटो था   बनारस में बुक किये गये ऑटो को टैक्सी कहते हैं

बुद्ध के तमाम स्थान भी मुझे बहुत आकर्षित करते हैं. ये अलग बात है कि यशोधरा और राहुल को छोड़ के जाना मुझे उतना ही नागवार गुज़रता है जितना राम का सीता को वनवास पर भेजना. लेकिन गौतम इस मायने में अच्छे लगते हैं कि उन्होंने यशोधरा को निर्वासित नहीं किया था…लांछित नहीं किया था, सो उनका जीवन अपने बच्चे के साथ राजमहल में ही कट गया. लेकिन सीता?? अरेरेरेरे…… मैं भी कहां-कहां भटकती हूं…
स्टेशन से होटल बहुत दूर नहीं था, और सुबह कोहरा भी बहुत था, सो ऑटो के अगल-बगल कुछ देख न पाये थे. लेकिन अब सूरज निकल आया था, और सारे रास्ते, पूरा अगल-बगल साफ़ नज़र आ रहा था. हमारी ’टैक्सी’ तंग गलियों से होती हुई एक संकरी रोड पर आ गयी थी. पूरे शहर की रोड़ें इतनी संकरी, कि हर पांच मिनट पर जाम लग जाता है. यानि दस मिनट का रास्ता आप ४० मिनट में पूरा कर पायेंगे. रोड के  दोनों ओर से फुटपाथ गायब है. वाहनों के कारण पैदल चलने वालों का चलना मुहाल…

 तंग गलियों, संकरी सड़कों ,  निरंतरता बनाये हुए कचरे के ढेर, आवारा जानवरों के जत्थे के जत्थे..इस सब के वाबजूद बनारस की गलियों में कुछ बहुत अपना सा लग रहा था… गलियां इतनी तंग, कि आप अपना दरवाज़ा खोल के सामने की ओर दो कदम बढायें, तो तीसरे कदम में ही सामने वाले के घर में खड़े दिखाई देंगे  लेकिन तब भी ये गलियां खीझ पैदा नहीं कर रही थीं.

सारनाथ के बारे में सब जानते हैं सो बहुत विवरण की जरूरत मुझे नहीं लगती.  दोपहर तीन बजे हम सारनाथ के मुख्य मन्दिर से बाहर आये. आते ही चाय पीने की इच्छा हुई, उमेश जी की. मुझे भूख लग रही थी. लेकिन दूर-दूर तक खाने-पीने का मामला दिखाई न दे रहा था. बायें हाथ पर चाय के कुछ ढाबे थे, उन्हीं में से एक पर हम भी पहुंचे. स्वादिष्ट गरमागरम चाय, बड़े-बड़े कुल्हड़ों में ली. दो पाव लिये और चाय के साथ खा गये. चाय इतनी अच्छी थी कि मेरे जैसे चाय के प्रति उदासीन भाव रखने वाले व्यक्ति को भी दोबारा चाय पीने की इच्छा हो आई. चाय वाला जैतराम और उसकी पत्नी इतने प्यार से चाय पिला रहे थे कि हम थोड़ी देर उन्हीं से बतियाते बैठे रहे. जैतराम ने ज़िद करके बनारसी पान खिलाया  हम पान नहीं खाते, ये कहने पर भी उसने मीठा पान लगा कर दिया, ये कहते हुए कि बनारस आई हैं और पान न खायें, ऐसा कैसे हो सकता है?

चाय-पान निपटा के हम ऑटो की ओर लपके. ऑटो वाले भैयाजी, जिनका नाम धर्मेन्द्र था, बोले कि आप लोग थोड़ी देर होटल जा के हाथ-मुंह धो के वापस चले चलें ताकि घाट पर समय से पहुंच सकें. हमने अच्छे बच्चों की तरह सिर हिलाया और होटल पहुंच के ठीक दस मिनट बाद ही वापस ऑटो में लद गये. साढे चार बजे हम घाट पर पहुंच गये थे. धर्मेन्द्र भाई हमारे साथ केदार घाट तक आये और नाव तय करवाई. हमारे नाविक थे, पन्द्रह वर्षीय शशि केवट. इतने से बच्चे को देख के उमेश बोले- “ये बच्चा ले जायेगा क्या?” नन्हे नाविक को खुद को बच्चा कहा जाना पसन्द नहीं आया शायद. थोड़ा सा उतरे मुंह से बोला- “ अरे साहब, हम पन्द्रह बरस के हैं. जब ग्यारह बरस के थे तब से नाव चलाना सीखे हैं. एकदम से नाव न खेने लगे हैं. पहले तैरना सिखाया गया, फिर नाव को डूबने/पलटने से बचाना सिखाया गया. और अगर नाव पलट ही जाये, तो सवारियों को बचाना सिखाया गया.” माने हम कच्चे नाविक न हैं    मैने तुरन्त उसका पक्ष लिया और उमेश को समझाइश दी- अरे बहुत होशियार है ये. बड़े अच्छे से घुमायेगा हमें. तुम चिन्ता न करो. “

बैठ गये हम दोनों नाव में. शुरु हुई हमारी घाट-यात्रा……………तीन सौ चालीस घाट…ढाई घंटा….. इसी नाव से हम काशी विश्वनाथ जी के दर्शन और शाम की गंगा आरती के भी दर्शन करने वाले थे.  छह बजे शशि हमें ललिता घाट पर ले आया और बोला- साब, अभी विश्वनाथ जी के दर्शन करना सबसे बढिया है. फिर आरती शुरु हो जायेगी. हम फटाफट नाव से उतरे और शशि के पीछे लग लिये. पता नहीं कितनी सीढियां चढते, उतरते, सुरंगों में घुसते हम एक गली में पहुंचे. 

यहां प्रसाद की एक दुकान पर हमारे मोबाइल/कैमरे/ जूते / पर्स सब लॉक करवाया गया और हमें आगे की गली तक यानि विश्वनाथ जी के दर तक शशि छोड़ आया.  यहां पहुंचने की गलियां इतनी तंग हैं कि एक बार में दो लोगों का भी एक साथ चलना मुश्किल होता है. पानी और दूध जैसे पदार्थों ने इस गली को ज़बर्दस्त चिकना कर दिया है. कहीं-कहीं मैट बिछा हुआ मिला लेकिन अधिकतर जगह चिकनी ज़मीन या मिट्टी में समाया हुआ मैट ही मिला. मंदिर के मुख्य द्वार से भीड़ का रेला धंसा चला जा रहा था. मैने उमेश को कहा था कि अगर दम घोंटू भीड़ हुई तो मैं अन्दर  नहीं जाऊंगी. ऐसी अंध भक्ति मुझे कभी उद्वेलित नहीं कर पाई है कि भीड़ में कुचलते हुये मैं भगवान के दर्शन के लिये पहुंचूं. खैर हम अन्दर पहुंचे. हमारे आगे-आगे जाने वाली भीड़ थोड़ी देर में छंट गयी. हम जब मंदिर के अन्दर पहुंचे तो लगा जैसे शिव जी मुस्कराते हुये हमारे ही इंतजार में बैठे थे.
हमने  पूरे श्रद्धा भाव और मनोयोग से बेल-पत्र, फूल और प्रसाद चढाया. मैने अपना मन भक्ति भाव से भरने की कोशिश की, लेकिन बेकार. फूल चढाते हुए भी मेरा मन शिव जी से कह रहा था- “कहां बैठे हो महाराज? “चारों तरफ़ भारी अव्यवस्था है. बाहर पहुंच मार्ग गन्दगी से अटा पड़ा है और लोगों को नंगे पांव यहां तक आना पड़ता है. पैर मिट्टी में सन जाते हैं और मन्दिर में बह रहे पानी के साथ कीचड़ बनाते हैं. मन्दिर तक पहुंचने वाली गलियों को तो किसी भी प्रकार चौड़ा नहीं किया जा सकता, पर इन गलियों में पेबर ब्लॉक्स लगा कर इन्हें साफ़-सुथरा तो बनाया जा सकता है न? मन्दिर के अन्दर भी दर्शनार्थियों को लाइन में लगे रहने के लिये रेलिंग्स क्यों नहीं लगायी गयीं?  अन्दर सब दर्शन के लिये ऐसे टूटे पड़ रहे थे कि अगर इसी घड़ी सबने दर्शन न किये तो फिर कभी न कर पायेंगे  मन्दिर के अन्दर घुसते ही गुरुद्वारों की तर्ज़ पर पैर धोने की व्यवस्था होनी चाहिये ताकि लम्बा पहुंच मार्ग तय कर कीचड़ से सने पैर भगवान तक न पहुंचें. काशी विश्वनाथ विश्व प्रसिद्ध और अत्यंत सिद्ध स्थल माना जाता है. व्यवस्थायें बहुत जरूरी हैं यहां.



मन्दिर से निकल कर जब हम वापस ललिता घाट पहुंचे तो आरती की तैयारियां शुरु हो गयी थीं. ललिता घाट से सटा हुआ है मणिकर्णिका घाट…बहुत सुना था इस घाट के बारे में. लेकिन सुनने और देखने में कितना फ़र्क़ होता है ये देख के जाना. जब हम शिव जी के दर्शन कर ललिता घाट पर लौटे तो वहां सैकड़ों गरीब बैठे खाना खा रहे थे. एक साथ बहुत सारे लोग खिला रहे थे. लग रहा था जैसे कई परिवार मिल के खिला रहे हो. पूछा तो पता चला ये मृत्यु भोज चल रहा है. मत्यु भोज!! क्यों? “क्यों क्या? ये बगल का मणिकर्णिका घाट नहीं देखा क्या? यहां 108 लाशें एक साथ जलती हैं.


 उन्ही के परिवार वाले दाह कर्म करने के बाद यहीं मृत्यु भोज दे कर फ़ुर्सत हो जाते हैं. घाट की सीढियों पर खड़े हो के बायीं तरफ़ देखा, नीचे से लेकर तिमंजिले तक लाशें जल रहीं थीं... ऊंची-ऊंची लपटें ऊपर तक पहुंचने की कोशिश में हों.. अब दायीं तरफ़ सिर घुमाया तो पानी में बने ऊंचे से मंच पर सात युवा पुजारी पीली धोती पहने, हाथ में शंख लिये जीवन का विजय घोष करने को तैयार थे.. लोबाल का धुंआ चारों तरफ़ अपनी पहुंच बना रहा था. चिताओं की लपटों से उठता धुंआ और लोबान का धुंआ आसमान के जाकर एकाकार हो गया था... लाशों की चिरायंध अब लोबान की गंध में तब्दील हो गयी थी.


हम नाव पर सवार हो गये थे. सामने ललिता घाट पर और उससे जरा आगे दशश्वमेध घाट पर भव्य आरती शुरु हो गयी थी.  मंच पर एक साथ दस-दस पुजारी पीतम्बर पहने नंगे बदन  ऊंची-ऊंची लौ उठाती आरतियों से गंगा की आरती कर रहे थे. मेरा ध्यान आरती पर कम, चिताओं की लपट पर ज़्यादा था… मन कैसा-कैसा तो हो रहा था. आरतियों की लौ…चिताओं की लपट और दोनों की गंगा में बनती समान आकृतियां…  मणिकर्णिका घाट के अगल-बगल, पीछे सब तरफ़ ऊंची अट्टालिकाएं. सबके खिड़की दरवाजे घाट की तरफ़.  शशि केवट से पूछा- यहां जो लोग रहते हैं उन्हें तो रोज़ इतने अन्तिम संस्कार देखने पड़ते होंगे…बुरा लगता होगा न…” अरे काहे का बुरा? तर गये ये सब, जो यहां जले. और जो लोग रहते हैं इस घाट पे उन्हें तो आदत  हो गयी है. अगर कुछ कम लाशें जलें तो शायद उन्हें अटपटा लगे. और जानती हैं, कभी-कभी तो दिन भर में पांच सौ से लेकर सात सौ तक लाशें भी जली हैं. मान लीजिये कि 108  से कम तो जलाने का नियम ही नई है. "मैंने फ़ोटो खींची तो शशि ने मना किया-’ न मैडम जी, यहां की फोटो नहीं खींची जाती. अब खींच ली तो कोई बात नहीं.



नाव मणिकर्णिका घाट के सामने से जा रही है…. .. लम्बा-चौड़ा घाट..पूरे घाट पर जगह-जगह बनी चिताएं..जलती चिताएं. कुछ चिताएं अकेली ही जल रही हैं… कोई अपना न बचा उनके पास…कुछ अकेली लाशों को घाट के भिखारी ताप रहे हैं. लाशों की आग उनके लिये अलाव का काम करती है. एक चिता से चिटख के जलती हुई लकड़ी थोड़ी दूर जा गिरी, तो भिखारी बच्चों/गरीब बच्चों की टोली ने उससे खेलना शुरु कर दिया है….. घाट पर होती भव्य आरती..आरती के स्वर सब विस्मृत से हो गये हैं मुझे.. कुछ नहीं दिखाई दे रहा..कुछ नहीं सुनाई दे रहा…सिवाय जलती चिताओं के..चिताओं की आग से खेलते बच्चों के … जीवन और मृत्यु के उत्सव का शहर है बनारस…   मौत अब यहां  किसी को झकझोरती नहीं. गंगा में झिलमिलाती चिताओं की लपटें जैसे बहुत कुछ छीने ले रही थीं… बहुत कुछ छूट रहा था लहरों के साथ-साथ… पानी पर बनती आकृतियां जैसे आमंत्रित सा कर रही थीं खुद में समा जाने को….
अब और नहीं लिख पाउंगी. अद्भुत है बनारस……. याद रहेगा हमेशा.