रविवार, 24 मार्च 2013

चमक रही है परों में उड़ान की खुश्बू....


" चमक रही है परों में उड़ान की खुश्बू,
बुला रही है बहुत आसमान की खुश्बू."

दंग रह गयी!!!!!!!

" नेह की नज़रों से मुझको
ऐसे देखा आपने,
मन पखेरू उड़ चला फिर,
आसमाँ को नापने."

फिर उड़ान!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
" जो पास होते हैं, वही जब दूर जाते हैं,
तन्हाई में
हमें अक्सर वही तो याद आते हैं."
हां, सही तो है.

पिछले दिनों रंजू की किताब " कुछ मेरी कलम से" पढी, तो लगा, एकदम यही तो मैं कहना चाह रही थी! अब सुनीता की किताब " मन पखेरू उड़ चला फिर" हाथ में है, तो लग रहा है, सुनीता को कैसे मालूम मेरे दिल की बात????
ये कविताई भी न, जो न करवाए . भावों के सागर में सुनीता ऐसे गोते लगाती हैं कि पता ही नहीं चलता कब भावान्तर हो गया!!! कभी खूब खुश नज़र आती हैं तो कभी लगता है उफ़्फ़्फ़!!!! इतना दर्द???
पुस्तक में अपनी बात कहते हुए सुनीता लिखती हैं-
ख्वाब कब याद रहते हैं! मगर कुछ ख्वाब जागती आंखों से देखे जाते हैं. जिन्हें मैं हर रोज़ देखती थी और जानबूझ कर क्रमश: लगा देती थी कि कल फिर से बुनूंगी यही ख्वाब "
पढ के लगा, सम्वेदनाएं कितनी एक जैसी होती हैं, और इच्छाएं भी  
"पंछी तुम कैसे गाते हो" कविता में सुनीता पूछती हैं-
"पंछी तुम कैसे गाते हो?
अपने सारे संघर्षों में तुम
कैसे गीत सुनाते हो"
कौन जाने सुनीता!! वे हमेशा गाते भी हैं, या उनका रुदन भी हमें गीत लगता है??
सुनीता की अधिकांश कवितायें प्रेमाकुल, प्रेम विह्वल या फिर परिपूर्ण प्रेम की हैं. कुछ कविताओं में उन्होंने संदेश भी दिये हैं. मसलन जनगीत में उन्होंने कई इतिहास पुरुषों/स्त्रियों को याद किया है. वर्तमान सामाजिक विसंगतियों पर चिन्ता भी ज़ाहिर की है. देखें-
"इक नारी फिर से छली गयी
पत्थर बनने को मजबूर हुई.
एक पुरुष के साहस से
आकुलता मन की दूर हुई."
तमाम युगस्त्रियों का यशोगान इस कविता में है. जिसमें तारामती, अहिल्या, कुंती, सीता, द्रौपदी, आदि का ज़िक्र करते हुए आज की औरत के लिये वे कहती हैं-
" जिस देश में नारी की इज़्ज़त 
"मां" कह के संवारी जाती है.
उस देश में पैदा होने के
पहले वो मारी जाती है."
बेटी का दर्द एक और कविता में देखें-
" कहा था एक दिन तुमने
पराई अमानत है
ये बच्ची
तभी से आजतक माँ
मैं अपना घर ढूंढती हूं."
इस पुस्तक की भूमिका लिखते हुए आनंद कृष्ण लिखते हैं-
 "सुनीता का रचना संसार बहुत व्यापक है. उनकी कविताएं उनके जैसी ही मुखर हैं और अपने पाठकों व श्रोताओं से सक्रिय व सीधा सम्वाद करती हैं. कविताओं की यह बहिर्मुखी प्रवृत्ति एक ओर उन्हें एकान्तिक अवसाद से बचाती है और दूसरी ओर अपनी कहन को बिना किसी लाग-लपेट के अपने पाठकों को सीधा संप्रेषित कर देती है."
मन आनन्द कृष्ण की बात से सहमत हो जाने का है मेरा तो .....
तमाम कविताएं पढ के एक बात जो खुल के सामने आ रही थी वो था कविताओं का सीधापन. कोई बनावट नहीं. नई कविता जैसी उलझन नहीं. जो बात मन में आई, सो कह दी सीधे-सीधे.
कई कविताओं में विषय की पुनरावृत्ति हुई है, भाव भी लगभग वही थे, सो असमंजस हुआ कि यही कविता दोबारा पढ रही हूं क्या?
" एक अजनबी अपना सा  क्यूं लगने लगा,
क्यूं कोई दिल में आज मेरे धड़कने लगा"

" ये कौन है जो चुपके से मुस्कुराया है,
तेरा चेहरा है या चांद निकल आया है"

मेरा फोटो
जैसे गीत लिखते समय कवियित्री के मनोभाव निश्चित रूप से एक जैसे रहे होंगे
सुनीता की भाषा में अनेक स्थान पर पारम्परिक कविता की भाषा के दर्शन होते हैं, जो आज के कवियों की भाषा से नदारद हैं.

 कविताओं की भाषा अत्यंत सरल और सहज है. नई कविता को पढने के बाद सुनीता की कविताएं सुकून सा देती हैं.
सुनीता बहुत अच्छी कवियित्री हैं. उनका अपना एक मकाम है काव्य-जगत में. निश्चित रूप से उन्हें जीवन के अन्य रंगों और अन्यान्य भावों पर भी सृजन करना होगा, तभी उनका रचना संसार व्यापक और बहिर्मुखी हो सकेगा
सुनीता की इस पुस्तक में कुल 127 कविताएं संगृहीत हैं. 150 पृष्ठ की इस पुस्तक का मूल्य 195 रुपये मात्र है. ये पुस्तक मैने खरीदनी चाही, लेकिन सुनीता ने साग्रह भेंट कर दी. अब उनकी अगली  पुस्तक निश्चित रूप से खरीद के पढूंगी 
  हिंद-युग्म से प्रकाशित इस पुस्तक का कवर पेज़ विजेन्द्र एस बिज़ ने तैयार किया है. पुस्तक के भीतर चंद कविताओं पर भी उन्होंने रेखाचित्र उकेरे हैं, जो सुन्दर है. पुस्तक की प्रिंटिंग साफ़-सुथरी है. शैलेश भारतवासी निश्चित रूप से बहुत जल्द प्रकाशकों की भीड़ में अपना मकाम सुनिश्चित कर लेंगे.

शानदार कविताओं से सजी इस पुस्तक के प्रकाशन पर सुनीता जी को अनेकानेक शुभकामनाएं...वे लगातार लिखें, लिखें, खूब यश कमाएं. आभार
पुस्तक: "मन पखेरू उड़ चला फिर"
लेखिका: सुनीता शानू
प्रकाशक: हिंद-युग्म१, जियासराय, हौजखास, नई दिल्ली-110016
मूल्य: 195 रुपये मात्र

रविवार, 10 मार्च 2013

कुछ मेरी कलम से और रंजू......


रंजू की किताब मुझे लगभग बीस दिन पहले मिल गयी थी.....
सपरिवार पाठ भी हो गया. लेकिन "कुछ मेरी कलम से’ के बारे में लिखने आज बैठी हूं. उम्मीद है रंजू माफ़ कर देगी ...बल्कि कर ही दिया होगा 
अपने किसी की किताब मिलने पर मैं उसे बहुत देर तक हाथ में लेकर बैठी रह जाती हूं... बहुत अपना सा अहसास होता है. रंजू की किताब के साथ भी ऐसा ही हुआ  कितनी देर तक तो बस कवर ही देखती रही.
जब भी कवितायें पढती हूं तो चमत्कृत होती हूं. समझ में ही नहीं आता कि कवि/कवियित्री कैसे इतने गहरे भाव चंद शब्दों में भर देते हैं?
रंजू की कवितायें भी चमत्कृत करती हैं. कई कविताएं तो बार-बार पढने का मन करता है, पढी भी हैं.  कुल इक्यासी (81) कविताओं से सजी इस पुस्तक की पहली कविता है- कहा-सुना. चार मुक्तक हैं. अद्भुत हैं. आप भी देखें-
कहा मैने
वर्षा की पहली बूंदें
सिहरन भर देती हैं
रोम-रोम में
सुना उसने
इस टपकती छत को
तेज़ बारिश से पहले ही
जोड़ना होगा.
कैसा गम्भीर जीवन-दर्शन!! एक ही मुक्तक कितनी खूबसूरती से दो अलग-अलग भावों को व्यक्त कर रहा है...
आगे बढती हूं. "सजे हुए रिश्ते" पर निगाह अटक जाती है. 
अजीब है यह मन
गुलदस्ते में सजे
इन नकली फूलों को यूँ
रोज़ दुलारता है
और उस पर जमी धूल को
इस गहराई से पोंछता है
कि शायद कभी यूं
छूने भर से जी उठे
ठीक वैसे ही जैसे
मेरे तुम्हारे बीच के मुरझाए हुए
लेकिन सजे हुए रिश्ते.
चांद कवियों का हमेशा से दुलारा रहा है. चांद का  शायद सबसे ज़्यादा इस्तेमाल कवियों ने ही किया है. कभी-कभी तो लगता है कि कहीं चांद अपना अन्धाधुंध इस्तेमाल देख कर गुस्साया धरती पर ही न उतर आये कवियों से रॉयल्टी वसूलने  
रंजू ने भी चांद के कई रूप उकेरे हैं. चांद कुछ कहता है, तन्हा चांद, भीगा चांद, अमावस का चांद, पूर्णिमा का चांद, गोल चांद, यहां तक कि  आवारा चांद भी 
चांद की बतकही देखिये तो-
कहा था उसने
चांदनी रात के साये में
तनिक रुको
अभी मुड़् कर आता हूं मैं
तब से 
भोर के तारे को 
मैने उसके इन्तज़ार में
रोक कर रखा है.
कमाल है न?  पता नहीं कैसे तमाम बातों को इतना खूबसूरत रूप दे देते हैं कवि??
रंजू की कविताओं में जीवन के तमाम रंग बिखरे पड़े हैं. कहीं उदासी है तो पलक झपकते ही खुशियों से सराबोर कर देंगी. कहीं विरह है तो कहीं मिलन का खूबसूरत गीत.. कहीं जीवन दर्शन तो कहीं भोले शिशु सी जिज्ञासा. कहीं आशा है तो कहीं घोर निराशा भी. 

देखिये-
आसान है देह से
देह की भाषा समझना
पर कभी नहीं छुआ
तुमने मेरी
आत्मा के उस अन्तर्मन को
क्योंकि तुम्हारी पाषाण देह में
वह अन्तर्मन
कहीं मौजूद था ही नहीं.
कविता लिखने की प्रक्रिया को रंजू कुछ इस तरह व्यक्त करती हैं-
कविता में उतरे
ये अहसास
ज़िन्दगी की टूटी हुई कांच की किरचें हैं
जिन्हें महसूस करके
मैं लफ़्ज़ों में ढाल देती हूं.
कविता के ज़रिये अपने भावों को इतनी खूबसूरती से व्यक्त करना आसान नहीं होता निश्चित रूप से ये ईश्वर प्रदत्त वो गुण है जो सबके पास नहीं होता और ये गुण रंजू की शख्सियत में रचा-बसा है. कविताओं को पढते हुए तमाम सम्वेदनाओं से पाठक गुज़रता है जिनके गलियारे कवियत्री की थाती हैं. हम जो कहना चाह रहे हैं, वो ठीक उसी रूप में पाठक ग्रहण करे ये कवि/कवियित्री की सम्प्रेषण क्षमता का द्योतक है और " कुछ मेरी कलम से" इस परीक्षा में खरा उतरा है. 
हिन्द-युग्म द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक की छपाई और कवर पृष्ठ शानदार है.कवर पेज़ की पृष्ठभूमि में रंजू की तस्वीर छाया रूप में अपनी सम्पूर्ण उपस्थिति का अहसास करा रही है, ऐसे में यदि हिन्दयुग्म समापदक चाहते तो उसी तस्वीर का थम्बनेल न लगाते तो कवर पृष्ठ और भी खूबसूरत लगता. ऐसा मुझे लगता है, प्रकाशक और लेखिका मेरी राय से सहमत हों, ज़रूरी नहीं. प्रकाशक बधाई के पात्र हैं. पुस्तक की कीमत 150 रुपये है और यह अन्तर्जाल पर क्रय हेतु उपलब्ध है. 
पुस्तक- कुछ मेरी कलम से
लेखिका- रंजू भाटिया
प्रकाशक- हिन्द-युग्म
जिया सराय, हौज खास, नई दिल्ली-16
कीमत- 150 रुपये मात्र