शनिवार, 24 नवंबर 2012

चौबीस साला सफ़र........

ये तस्वीर रिसेप्शन के दिन की है ;) जैसा तैयार कर के बिठा दिया, बैठ गये :)

आइने में पीछे मेरी भांजी दीपम दिख रही है.

रिसेप्शन हॉल में ले जाती मेरी बड़ी ननद कल्पना पांडे.

कैसी दहशत होती है, जब सबकी निगाहें आप पर हों....बहुत असहज दिन होता है रिसेप्शन का...

यही हाल उमेश जी का भी रहा होगा :)

जा रही हूं वरने...उमेश जी को :) बायीं तरफ़ मेरी छोटी बहन कनुप्रिया, और दायीं तरफ़ मेरी बड़ी दीदी.

लो, वर लिया ;)

बैठे हैं दोनों चुपचाप :) आज की जोड़ी होती, तो बतिया रही होती :)

दूल्हा-वेश उमेश जी का :)

सिदूर-दान

सात-फेरे :)

:)

शनिवार, 8 सितंबर 2012

हम सब शोकाकुल हैं पाबला जी...



शाम की क्लास ख़त्म होने के बाद रात का खाना खा ही रहे थे कि कुछ मेहमान आ गए. इसी बीच इस्मत का फोन आया, मैं रिसीव नहीं कर पाई. साढे दस बजे मोबाइल पर इस्मत का मैसेज मिला- " पाबला जी के बेटे का इंतक़ाल हो गया...सो सैड..२६ साल का था.."
पढ़ के स्तब्ध रह गयी...उस वक्त मेहमानों को विदा करने गेट पर खड़ी थी, उलटे पैरों अन्दर आई, फेसबुक खोला...तमाम स्टेटस इस्मत की खबर की पुष्टि कर रहे थे.... ललित शर्मा जी ने लिखा था-
"बहुत ही दुखद समाचार है कि बी एस पाबला जी (भिलाई छत्तीसगढ) के पुत्र गुरुप्रीत सिंग पाबला का अक्समात निधन हो गया है। अंतिम यात्रा 9 सितम्बर 2012 को भिलाई रुवां बांधा स्थित उनके निवास स्थान से लगभग 12 बजे प्रारंभ होगी। ईश्वर से मृतात्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं। "
वज्रपात सा हुआ...अभी लखनऊ में ही तो मिले थे हम..कैसे मुस्कुराते-हंसते हंसाते रहे थे पाबला जी..ऐसे इंसान पर इतना बड़ा दुःख??? भगवान् को भी बच्चों को उठाने में कुछ ज्यादा ही आनंद आने लगा है शायद :( :( अभी तक नि:शब्दता की स्थिति में ही हूँ.....ऐसी स्थिति में जबकि एक पिता का जवान बेटा चला गया हो, मैं कैसे कहूं कि धैर्य रखिए पाबला जी?? न, ऐसी औपचारिक सांत्वना नहीं दे सकती मैं...
ईश्वर पाबला जी को दुःख की इस घडी में संबल प्रदान करे. हम सब उनके इस दुःख से व्यथित हैं, उनके साथ हैं....

रविवार, 2 सितंबर 2012

सम्मान समारोह- एक नज़र इधर भी......

२७ अगस्त २०१२ को लखनऊ में तस्लीम-परिकल्पना समूह द्वारा आयोजित सम्मान समारोह संपन्न हुआ. सौ से अधिक ब्लॉगरों ने इस समारोह में भाग लिया. सभी सम्मानित ब्लॉगरों को मेरी ओर से हार्दिक बधाई. ब्लोगिंग से जुड़े तमाम लोगों को एक दूसरे से मिलने का मौका मिला, जो अविस्मरणीय है.
राय उमानाथ बलि प्रेक्षागृह में संपन्न यह कार्यक्रम तीन सत्रों में आयोजित होना था, लेकिन पहला सत्र लम्बा खिंच जाने के कारण, दूसरा सत्र अतिसंक्षिप्त हो गया , इसका सीधा असर उन वक्ताओं पर पड़ा, जो दूसरे सत्र में न्यू मीडिया के सामजिक सरोकार विषय पर बोलने वाले थे. सभी वक्ता मौजूद थे, और अपनी तैयारी से ही आये थे, लेकिन उन्हें अपनी बात कहने का मौका नहीं मिल सका. तीसरा सत्र आरम्भ हुआ, और दूसरे सत्र के वक्ता, मुख्य अतिथि, विशेष अतिथि सब श्रोताओं में शामिल दिखाई दिए.
किसी भी आयोजन में खूबियाँ और खामियां होती ही हैं, लेकिन देख रही हूँ, कि इस आयोजन के बाद जितनी भी पोस्टें आयोजन से सम्बंधित आईं, वे कार्यक्रम से जुडी नहीं हैं, बल्कि व्यक्ति विशेष को इंगित करके लिखी जा रही हैं, जो गलत है. किसी पोस्ट में शास्त्री जी के अपमान की बात है, तो किसी में रश्मिप्रभा की अनुपस्थिति के कारणों के कयास लगाए जा रहे हैं. किसी में कार्यक्रम को अंतर्राष्ट्रीय कहने पर आपत्ति है, तो किसी में सीधे शिखा को दोषी बताया जा रहा है. शास्त्री जी का अपमान निश्चित रूप से सम्मान समारोह के आखिर में सम्मानित किये जाने पर हुआ है, लेकिन उन्होंने अपना बड़प्पन क़ायम रखते हुए, इस सम्मान को ग्रहण किया. रश्मिप्रभा जी क्यों नहीं आ सकीं, इस कारण को खुद रश्मि जी से जानने का किसी ने प्रयास किया? नहीं. बस खुद ही उलटे-सीधे कारण गिनाने शुरू कर दिए. पहले सत्र का विशिष्ट अतिथि शिखा को बनाने का फैसला आयोजकों का था, इसमें शास्त्री जी का अपमान कैसे हुआ, मैं समझ नहीं पाई. इस आयोजन की खूबियाँ और खामियां मुझे कुछ इस तरह नज़र आईं-
१- किसी भी क्षेत्र में नए-पुराने लेखकों को सम्मानित किये जाने की परंपरा बहुत पुरानी है, इसका निर्वाह परिकल्पना द्वारा किया जाना सराहनीय है.
२- इस तरह के आयोजन एक-दूसरे से मुलाक़ात का जरिया होते हैं, जो किसी भी क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए ज़रूरी हैं. लखनऊ में भी बहुत से नए/पुराने ब्लॉगर एक दूसरे से मिले.
३-भोजन आदि की अच्छी व्यवस्था की गयी थी. कार्यक्रम स्थल भी सुविधायुक्त था.
४- एक दिवसीय कार्यक्रम में पहला सत्र हमेशा लम्बा खिंच जाता है, लिहाजा आयोजकों को कार्यक्रम दो सत्रों में ही करना चाहिए था, तीसरा सत्र केवल सम्मान-समारोह का होता, तो प्रेक्षागृह आयोजन के समापन तक भरा ही रहता.
५- पहले सत्र के अध्यक्ष और मुख्य अतिथि दोनों ही ब्लोगिंग से पूर्णतया अपरिचित थे, लिहाजा वे इस विषय पर साधिकार कुछ बोल ही नहीं सके. सम्बंधित विषय पर कोई नयी जानकारी मिलना तो दूर की बात है.
६- सम्मान के लिए चयनित लोगों का चुनाव यदि वोटिंग प्रक्रिया से किया गया था, तो आयोजकों का दायित्व था, कि वे प्रत्येक श्रेणी के लिए नामांकित लोगों का विवरण और उन्हें मिलने वाले वोटों की जानकारी क्रमबद्ध तरीके से देते, ताकि पारदर्शिता क़ायम रहती. ऐसा नहीं किये जाने का खामियाजा वे लोग भोग रहे हैं, जिन्होंने सम्मान-प्राप्ति के लिए किसी से कोई अपील की ही नहीं है. बल्कि अपनी योग्यता की दम पर उन्हें सम्मान मिला.
७- दूर-दराज़ से आने वाले ब्लोगरों के रुकने का कोई इंतजाम किया जाना चाहिए था, अगर नहीं भी किया गया था तो इसकी सूचना भी ब्लॉग या फेसबुक पर दी जानी चाहिए थी.
८- किसी भी कार्यक्रम को प्रभावी बनाने का महत्वपूर्ण दायित्व कार्यक्रम के संचालक पर होता है, जो हरीश अरोड़ा जी ने बखूबी निभाया, लेकिन दूसरे सत्र के संचालक महोदय न तो किसी का नाम जानते थे, न ठीक से पढ़ ही पा रहे थे. उच्चारण दोष इस कदर था, कि अर्थ का अनर्थ हुआ जा रहा था.
९- आयोजन को अंतर्राष्ट्रीय की जगह अंतर्राज्यीय नाम दिया जाना चाहिए था, क्योंकि सभी तो हिंदी ब्लोगिंग से जुड़े लोग थे.
ये सब तो हुईं आयोजन की बातें, अब उन पोस्टों की चर्चा जिन पर लोग केवल व्यक्तिगत भड़ास निकाल रहे हैं, वो भी ऐसी भाषा में , कि पढ़ कर खुद के ब्लॉग-जगत से जुड़े होने पर शर्म आ जाए. मुझे उन सभी लिंक्स को यहाँ देने की ज़रुरत नहीं लग रही, क्योंकि आप सब उन्हें पहले ही पढ़ चुके हैं, मैं तो बस ये जानना चाहती हूँ, कि उन पोस्टों में जिस तरह की भाषा का प्रयोग हुआ है, क्या वो शर्मनाक नहीं है? ये सारे लिंक शिवम् मिश्र ने यहाँ
मुझे तो लगता है कि ऐसे किसी सम्मान समारोह से परे, हम सब एक ब्लॉगर मिलन समारोह आयोजित करें, जो परिचय सम्मलेन जैसा हो, सब एक दूसरे से मिलें, एक दूसरे को जाने. व्यर्थ की छीछालेदर हम क्यों नहीं छोड़ पाते??
पुनश्च:-
शुक्ल जी से क्षमाप्रार्थना सहित-
----------------------------------
अपनी पोस्ट में फ़ुरसतिया जी ने लिखा है, कि इस तरह के आयोजन में भोले-भाले ब्लॉगर्स का इस्तेमाल जमावड़े की तरह किया गया, तो मुझे नहीं लगता कि कोई भी ब्लॉगर इतना भोला-भाला है कि अपना इस्तेमाल होने देगा. किसी को भी जबरन पकड़ कर नहीं लाया जाता, सब स्वेच्छा से जाते हैं, जाने के पीछे सब से मुलाक़ात की ललक ही होती है. मैं भी जमावड़े के लिए नहीं गयी थी, बल्कि उन तमाम साथियों से मिलने की इच्छा मुझे वहां ले गयी, जो लम्बे समय से थी.
तस्वीर में आयोजक रवीन्द्र प्रभात जी सपत्नीक सम्मान प्राप्त करते हुए.

रविवार, 19 अगस्त 2012

दर्द की महक और हरकीरत...


पुस्तक : दर्द की महक
लेखिका : हरकीरत 'हीर'
प्रकाशक : हिन्दीयुग्म
१,जियासराय , हौजखास,
नयी दिल्ली.
मूल्य : २२५ रुपये
फ्लिपकार्ट पर पुस्तक खरीदने के लिए यहाँ जाएँ-

सबसे पहले हरकीरत जी से क्षमायाचना सहित............पुस्तक मिले लगभग एक महीना हो रहा है, और मैं इतने विलम्ब से समीक्षा लिख रही हूँ :( बहाना वही घिसा-पिटा व्यस्तता का ,कोई नया बहाना मिला ही नहीं )
उम्मीद है हरकीरत जी क्षमा करेंगीं...
न कभी हीर ने
न कभी रांझे ने
अपने वक्त के कागज़ पर
अपना नाम लिखा था
फिर भी लोग आज तक
न हीर का नाम भूले
न रांझे का
बस दर्द महकने लगता है...इमरोज़ की इस नज़्म के साथ, गोया अमृता-इमरोज़ की दास्ताँ लिखी जा रही हो...गोया इमरोज़ का दर्द परवान चढ़ा हो... हरकीरत जी उन सौभाग्यशालियों में हैं, जिन्हें इमरोज़ साहब का स्नेह मिला है, उनकी नज्मों को तो यूं महकना ही था.
इमरोज़ साहब की इस नज़्म के तले हरकीरत जी ने पूरा दर्द का संसार ही रच डाला है. स्त्रियों का दर्द, प्रेयसी का दर्द, पत्नी का दर्द..... ख़ुशी का दर्द और आंसुओं का दर्द.... कभी मीठा, तो कभी कसैला.. लगा सचमुच कितने दर्द झेलती है औरत??? हर दर्द की टीस महसूस होने लगी..
"एक ख़त इमरोज़ जी के नाम" से शुरू होने वाली नज्मों का काफिला पृष्ठ दर पृष्ठ आगे बढ़ने लगा...
मौत की मुस्कराहट, फासलों की रातें से होते हुए निगाहें "टांक लेने दे उसे मोहब्बत के पैरहन पर इश्क का बटन "
पर अटक गयीं...कितनी खूबसूरती से हरकीरत जी ने सच बयां कर दिया-
रब्ब!
ये औरत को ब्याहने वाले लोग
क्यों देते चिन हैं उसे दीवारों में?
पढ़ते हुए धक् से रह गयी!! हाँ सही तो है!!! कितनी ही औरतों का सच है ये...
शब्द-यात्रा फिर शुरू होती है..लाशें, इससे पहले कि शब्द धुल जाएँ, सुन अमृता......., तलाक, शीरीं-फरहाद, से होती हुई निगाह फिर अटकती है "अस्पताल से" पर-
अल्लाह!
रात कफ़न लिए खड़ी है
और ऐसे में नव वर्ष
द्वार पर दस्तक दे रहा है...
चकित हूँ. नज्मों को आत्मसात करता दिल-दिमाग हरकीरत की लेखनी के आगे झुका जा रहा है.....
नज़्म "तुम भी जलाना इक शमा...." के परिचय में लिखती हैं-
"आज इमरोज़ जी का एक प्यारा सा ख़त नज़्म के रूप में मिला....हर बार एक ही आग्रह- कवि या लेखक कभी हकीर नहीं नहीं हुआ करते...और रख देते एक तड़पती रूह का नाम "हीर"....सोचती हूँ, उम्र भर की तलाश में एक यही नाम तो कम पाई हूँ..तो क्यों न हीर हो जाऊं! "
हीर हो जाऊं ??? तुम हीर ही हो हरकीरत....इतना दर्द तो बस हीर के अंतस में ही समाहित हो सकता है...बहुत खूबसूरती से इमरोज़ के दर्द को उकेरती हुई हरकीरत लिखती हैं-
इमरोज़
तेरे हाथों की छुअन
तेरी नज्मों की सतरों में
सांस ले रही है
और इन्हें छूकर मैंने
जी लिए हैं वे तमाम अहसास
जो बरसों तूने गुज़ारे थे
अपनी पीठ पर.
( आपको याद दिला दूँ, कि इमरोज़ के पीछे बैठ कर, उनकी पीठ पर भी अमृता, साहिर का ही नाम लिखा करतीं थीं)
पुस्तक में एक से बढ़कर एक नज्में हैं. और कशिश ऐसी, कि एक बार पढना शुरू करके, उसे बीच में नहीं छोड़ सकते आप. मैंने एक बैठक में ही पूरी किताब पढी!! किताब के अंत में इमरोज़ की इक नज़्म हीर के लिए है.-
मुहब्बत के रंग में डूबा
हर दिल, हीर भी है
और रांझा भी.
इस पुस्तक की जो खासियत है, वो ये कि सभी नज्मों के पहले उनके सृजन का दर्द बहुत खूबसूरती से बयान किया गया है. नज़्म के अंत में ब्लॉग पर आईं चुनिन्दा टिप्पणियों को भी स्थान मिला है, जिसकी वजह से पुस्तक की खूबसूरती तो बढी है, नया प्रयोग भी लोगों के सामने आया. पुस्तक का मूल्य २२५ रुपये है, जो ठीक ही है. सजिल्द पुस्तकों की कीमत पेपरबैक से अधिक होती ही है. कवर-पृष्ठ सुन्दर है, लेकिन एक कमी जो मुझे खटकी, वो ये कि लेखिका का नाम ऊपर है और पुस्तक का नीचे. मेरे ख़याल से पुस्तक का नाम ऊपर होना चाहिए था. पुस्तक की प्रिंटिंग बहुत अच्छी है. प्रूफ की गलतियाँ भी नहीं हैं, लिहाजा हिन्दीयुग्म और हरकीरत जी दोनों ही बधाई के पात्र हैं.
मेरी ओर से ईद का ये तोहफा कैसा लगा? बताएँगे न?

रविवार, 22 जुलाई 2012

काका भी चले गये............... :(

काका भी चले गये................ :(
अगर याद करूं, तो ऐसा एकदम नहीं है कि राजेश खन्ना के जीवित रहते हुए मैने उन्हें बहुत याद किया हो, लेकिन जब वो गये, तो पिछले दो-तीन दिन बस उन्हीं को याद किया. उनके बहाने एक बार फिर बचपन के गलियारे में झांक आई :)
फ़िल्मों या फिल्मी कलाकारों में मेरी बचपन में कोई दिलचस्पी नहीं थी, शायद अधिकतर बच्चों की नहीं होती है :) लेकिन मुझे तो फ़िल्म देखने जाना भी बोझ सा लगता था, और जबरिया थोपी गयी मैं, दीदी को बोझ लगती थी :) चार-पांच साल की बच्ची को फ़िल्मों से लगाव होना भी नहीं चाहिये :) खैर हम दोनों के इस संकट को दीदी बड़ी आसानी से दूर कर देती थीं. उधर दीदी की सहेलियों के साथ मैटिनी शो देखने की तैयारी हो, इधर मुझे साथ ले जाने का मम्मी का फ़रमान जारी हो जाता :( मुझसे पूछने की ज़रूरत ही किसे थी कि मुझे जाना है या नहीं ? :( तैयार होने के बाद दीदी मुझसे कहतीं- "अगर तुम पिक्चर न जाओ, तो हम तुम्हें पांच पैसे देंगे " मुझे जैसे मुंहमांगी मुराद मिल जाती :) जाने का मन तो वैसे भी नहीं था, रिश्वत फ़्री में मिल गयी :)
फ़िल्में देखने से ज़्यादा रस मुझे दीदी के द्वारा फिल्म की स्टोरी सुनाने में आता था. मोहल्ले के तमाम बच्चों, और उनकी वे सहेलियां जो फ़िल्म देखने नहीं जा पायीं थीं, बाद में दीदी से स्टोरी सुनतीं ( पहले "स्टोरी" का मतलब केवल फ़िल्म की कहानी ही माना जाता था :) दीदी भी एक-एक सीन एक्टिंग सहित सुनातीं. जहां गाने होते, वहां बाक़ायदा गीत गाया जाता.
फ़िल्मी कलाकारों के नाम भी मैने दीदी के मुंह से ही सुने थे, और लगभग रट से गये थे. दीदी का पिक्चर जाना मेरे लिये आम बात थी. लेकिन एक दिन उन्हें अपनी सहेली से गम्भीर चर्चा करते सुना- चर्चा का मजमून ये था, कि उस वक्त जो फ़िल्म मोहन टॉकीज़ में लगी थी, उसका टिकट बढा के डेढ रुपया कर दिया गया था. पिक्चर थी- "आराधना" अब फ़िल्म देखना तो और भी जरूरी हो गया था. आखिर क्या है इसमें ऐसा, जो टिकट बढा दी गयी?? ऐसा कर रहे हैं जैसे अठन्नी की कोई कीमत ही न हो?? खैर दीदी लोग फ़िल्म देखने गयीं, और लौटी तो जैसे अपने आप में नहीं थीं. केवल और केवल फ़िल्म के हीरो की चर्चा.... हां मुझे बीच में बता दिया गया कि फ़िल्म में हीरोइन का नाम वंदना था. हांलांकि ये बताने की ज़रूरत नहीं थी, लेकिन शायद फ़िल्म में हमारे परिवार के सदस्य का नाम था, ये गौरव की बात थी, सो बताया गया :p . उसी समय मैने जाना कि फ़िल्म के जिस हीरो की चर्चा खत्म ही नहीं हो रही उसका नाम ’राजेश खन्ना’ है.
बाद में मैने देखा कि राजेश खन्ना की कोई भी फ़िल्म दीदी लोगों से नहीं छूट रही. अखबारों और माधुरी या धर्मयुग के फ़िल्मी पन्ने से राजेश खन्ना की तस्वीरें काटी जा रही हैं. ’चिंगारी कोई भड़के... तो सावन उसे बुझाये..’ गीत गाते हुए राजेश खन्ना कितने सुन्दर लग रहे थे बताया जा रहा है..... ’चल-चल-चल मेरे हाथी...." बिनाका गीतमाला की आखिरी पायदान पर....बिनाका सरताज़ गीत कितनी दूर तक सुनाई दे रहा है, ये जानने के लिये मुझे दौड़ाया जा रहा है....मैं दौड़ रही हूं, आखिर दीदी ने कोई काम बताया है, कितना गर्वित महसूस कर रही हूं :)
दीदी ने कहा सबसे अच्छा हीरो- राजेश खन्ना
मैने मान लिया कि इससे अच्छा कोई और हो ही नहीं सकता. अगली बार अपनी किसी दोस्त से कहती पायी गयी- सबसे अच्छा हीरो-राजेश खन्ना :) वो समय बड़ों को कॉपी करने का समय था ताकि हम भी बड़े दिख सकें :) जो दीदी ने कह दिया, ब्रह्म-वाक्य हो गया :)
तो वो राजेश खन्ना, जिन्हें देखे बिना मैं कहती थी- सबसे अच्छा हीरो- ’राजेश खन्ना’ अब चले गये हैं.... अपने तमाम चाहने वालों को उदास करके... विनम्र श्रद्धान्जलि.
बचपन में और भाई-बहनों को घर में छोड़, बाज़ार या पिक्चर ले जाया जाना कितना वीआईपी अहसास देता है न? मेरे एक कंजूस चाचा हमें कहीं नहीं ले जाते थे. फ़िल्म लगी थी ’ जय संतोषी मां’ चाचा देखने जा रहे थे, मुझसे पूछा बस ऐसे ही और मैं तैयार. टॉकीज़ में चाचा ने टिकट ली, हमने फ़िल्म देखी...बहुत खुश हो मैं घर लौटी . सबको चहकते हुए बताया-
" घनश्याम चाचा सबसे अच्छे हैं, एकदम आगे बिठा के पिक्चर दिखाई........... :) :) :)

रविवार, 8 जुलाई 2012

मैं कब का जा चुका हूँ सदाएं मुझे न दो .....

१३ जून २०१२
१४ जून २०१२ को मेरी भांजी की शादी थी. ये शादी सतना से हुई, सो तमाम ज़िम्मेदारियां मेरे और उमेश जी के कंधों पर थीं ( उमेश जी के कंधे तो काफ़ी मजबूत हैं, लेकिन मेरे....? ) ख़ैर, शादी बड़ी धूम-धाम और बिना किसी व्यवधान के सम्पन्न हुई. १३ जून को हमारे यहां संगीत-सभा थी. आम तौर पर शादियों में महिला-संगीत का रिवाज़ है, लेकिन हमारे यहां यह संगीत-सभा की तरह होती है जिसमें महिला, पुरुष या बच्चों को वर्गीकृत नहीं किया जाता बल्कि सभी लोग इसमें भाग लेते हैं लिहाजा माहौल बहुत खुशनुमा हो जाता है.
शादी के लिये अपने सभी मेहमानों के रुकने का इंतज़ाम सदगुरु रिज़ॉर्ट में किया गया था, जो शहर से १० कि.मी. दूर था. काम, मेहमान और भागदौड़ के चलते देश-दुनिया की खबरों से लगभग दूर ही थी. संगीत वाले दिन बच्चों-बड़ों के नाच-गाने के बाद साढे दस बजे जब ग़ज़ल- संध्या (संध्या..??? ) आरम्भ हुई तो हमारे मामा जी ने सूचना देते हुए अनाउंसमेंट किया-
" आज ग़ज़ल सम्राट मेंहदी हसन साहब नहीं रहे, तो ये शाम उन्हीं के नाम...."
मैं स्तब्ध!
बहुत छोटी थी, तब से लेकर आज तक केवल एक ही गायक मेरा पसंदीदा था, और वो थे मेंहदी हसन साहब. लम्बे समय से बीमार चल रहे मेंहदी साहब के बारे में कभी भी ऐसी खबर आ सकती है, ये अंदाज़ा तो मुझे भी था, लेकिन सच मानिये, उनकी बीमारी की खबर जब भी पढती थी, मैं मन ही मन उनके कभी न जाने की दुआएं करने लगती थी. बहुत मन था उनसे मिलने का लेकिन नहीं मिल सकी .
सोचा था कि इस बार अगर वे इलाज़ के सिलसिले में हिन्दुस्तान आये, तो मैं उनसे मिलने ज़रूर जाउंगी, लेकिन वे आये ही नहीं.
मेंहदी साहब को मैने तब से जाना, जब मैं छह साल की रही होउंगी. मेरी बड़ी
दीदी रेडियो की ऐसी दीवानी कि खाना बनाते, खाते, सफ़ाई करते, यहां तक कि पढते हुए भी रेडियो सुनती रहतीं. दुनियां भर के स्टेशन उन्हें मालूम थे. रात को जब उर्दू सर्विस का फ़रमाइशी कार्यक्रम खत्म होता तो रेडियो पाकिस्तान शुरु हो जाता. उद्घोषक की दानेदार आवाज़ कानों में पड़ती-
" हम रेडियो पाकिस्तान/मुल्तान/करांची से बोल रहे हैं ..... पेशेखिदमत है फ़िल्मी
नग़मों का फ़रमायशी कार्यक्रम.. ग़ुलदस्ता....
"...अब जिस खूबसूरत नग़में को हम पेश कर रहे हैं उसे आवाज़ दी है मेंहदी हसन ने..."
बस. तभी से मेंहदी हसन साहब का नाम मेरी ज़ुबान पर और आवाज़ कानों में घर कर गयी. उस वक़्त वे पाकिस्तानी फ़िल्मों के लिये गाया करते थे. " देख तू दिल कि जां से उठता है, ये धुआं सा कहां से उठता है..."
" रफ़्ता-रफ़्ता वो मेरे हस्ती के सामां हो गये....." और "प्यार भरे दो शर्मीले नैन....." लगभग रोज़ ही रेडियो पर आते थे. पाकिस्तानी ग़ायको में मुझे बस तीन चार नाम ही सुनाई देते थे जिनमें से याद
केवल दो रह गये - मेंहदी हसन, और नाहिद अख्तर.
छह साल की उम्र में जो दीवानगी मेंहदी साहब की आवाज़ के लिये मेरे दिल में थी वही आज भी है. मेरे कानों को कोई और जंचता ही नहीं.
सोचती थी कि मेंहदी साहब के निधन की खबर का दिन कितना भारी गुज़रेगा ..............
लेकिन उनके जाने के दिन हमारे यहां उत्सव का माहौल था ...... फिर भी मन में ये तसल्ली थी, कि हम उस महान गायक को उसके ही लायक, सुरसिक्त , सच्ची श्रद्धान्जलि दे रहे है.
लम्बे समय से बीमार मेंहदी साहब को जाना तो था ही १२ साल से तक़लीफ़ झेल रहे हसन साहब को भी शायद तक़लीफ़ों से मुक्ति मिली. लेकिन कितना अटपटा लगता है ये सुनना कि दो साल से उस गायक की आवाज़ बन्द थी, जिसने कभी काम के दौरान भी अपने सुर बन्द नहीं किये.....?
१३ जून की रात हमने भी उन्हें श्रद्धान्जलि स्वरूप अपने घर की संगीत-निशा समर्पित की.
उनके निधन की खबर के बाद ऐसा एक दिन भी नहीं था, जब मैने उन्हें याद न किया हो, आज उनकी याद को यहां बांटने का मौका मिल ही गया. इस महान गायक को विनम्र श्रद्धान्जलि.
( नीचे तस्वीर में मेरी छोटी दीदी अर्चना और मेरा भाई धनन्जय, ये दोनों शास्त्रीय और सुगम संगीत के बहुत अच्छे गायक है.)

शनिवार, 12 मई 2012

मेरी मां....

हमारे देश में मातृ-दिवस मनाये जाने की सार्थकता मुझे समझ में नहीं आती, क्योंकि यहां तो हर दिन
मातृ-दिवस सा है...फिर भी अब जब हम इसे मनाते ही हैं, तो इसी बहाने उन्हें प्रणाम.......



युग दृष्टि से साभार

तस्वीर- उमेश दुबे

रविवार, 8 अप्रैल 2012

ख्वाब था या खयाल था क्या था......

स्वप्न रहस्य -सतीश सक्सेना.... अभी दो दिन पहले ही सतीश सक्सेना जी की ये पोस्ट पढी. तमाम टिप्पणियां भी पढ़ीं. अधिकांश लोग सपने की बात पर ध्यान न देने की सलाह दे रहे हैं. सतीश जी के सपने की मौज भी ली जा रही है भई क्यों न लें! मित्र-गण हैं, हक़ बनता है मौज लेने का .
लेकिन जानते हैं, मैं सतीश जी को ये नहीं कह पाई कि वे इस सपने को केवल सपना ही मानें. सपने से जुड़ा अपना अनुभव सुनाऊँ न? दो घटनाएं हैं. सो दोनों ही झेल लीजिये -
बात बहुत पुरानी है . एक सपना जिसमें मैं सपने में भी सो रही होती थी और मेरा बायाँ हाथ पलंग से नीचे लटक रहा होता था . एक चांदी जैसे रंग का, चमकदार , लगभग दो फुट लम्बा सांप आता और मेरे हाथ को डस लेता. बस, इतना होते ही मेरी नींद खुल जाती. यह सपना मुझे तब आना शुरू हुआ जब मैं आठवीं कक्षा में पढ़ती थी. हफ्ते में एक या दो बार यह सपना मुझे आता ही था. मेरे इस सपने के बारे में घर में सब जानते थे. चऊआं-मऊआं भी जानती थीं, जिनका ज़िक्र अभी करूंगी
मैं बी.एससी. के अंतिम वर्ष में थी. सर्दियों के दिन थे. मैं अपने घर की बाउंड्री में, धूप में बैठ के पढ़ रही थी. मेरे ही घर के ठीक बगल वाले हिस्से में रहने वाले भूमित्र शुक्ल अंकल की बेटी मऊआँ ( निधि शर्मा जो अब सिंगापुर में है) बहुत ज़ोर से चिल्लाई-
" रेखा दीदीssssss.....पैर ऊपर करो, पता नहीं सांप जैसा क्या है वहां........"
मैंने घबरा के पैर ऊपर किये नीचे निगाह गयी तो देखती हूँ, कि ठीक वही सांप जो मेरे सपने में आता था, उतना ही लम्बा मेरी चप्पलों के पास बैठा है....पैर ऊपर न उठाती तो पैरों के पास...... सिहर गयी एकदम..लगा जैसे मेरा हाथ डसने को बैठा है... लेकिन मऊआँ का शोर सुन के शुक्ल आंटी, उसकी बहन चऊआँ ( रूचि शुक्ल) मेरे मम्मी-पापा , बहनें सब बाहर आ गए थे, आहट पा के सांप सामने वाले गेट से बाहर निकला जहाँ मोहल्ले के वीर योद्धा टाइप लड़के पहले ही जमा हो गए थे उसे मारने की ताक में .
तेज़ी से सरसराते सफ़ेद चांदी जैसे चमकदार सांप को उन लड़कों ने घेर के मार डाला. पता नहीं क्यों उसका मारा जाना मुझे अच्छा नहीं लगा, लेकिन उसके बाद उस सांप का सपना आना बंद हो गया.
मुझे नहीं पता कि वो क्यों आया था? उस सपने का क्या मतलब था? मैंने बहुत सोचने की कोशिश भी नहीं की. मेरी मम्मी ने कहा-
" भूल जाओ, सपना था. तुम तमाम कहानियां पढ़ती रहती हो, इसलिए आता होगा ऐसा सपना."
मैंने मान लिया . लेकिन उस सांप का आना? खैर उसे भी संयोग मान लिया.
दूसरी घटना जिसे मैं आज तक सपना भी नहीं मान पाई-
३१ जुलाई १९९९ को मेरे श्वसुर जी का देहांत हुआ. मेरे ऊपर उनका अगाध स्नेह था .विश्वास भी. उनके देहांत के बाद सितम्बर में मैं नौगाँव गयी थी. जिस दिन मुझे सतना वापस आना था, उस रात मुझे सपना आया कि पापा नौगाँव वाले घर में आये, सपने में भी मुझे पता था कि वे अब नहीं हैं. आ के कमरे में पड़े तखत पर बैठे और बोले कि- मेरी जी.पी. एफ़. वाली फ़ाइल हरे बॉक्स में है. फ़ाइल पीले रंग की है और उस पर ऊपर लिखा है-" जी.पी.एफ़. संबंधी कागज़ात".
चौंक कर मेरी नींद खुल गयी, देखा पसीने से नहाई हुई हूँ....देर तक पापा के वहां होने का अहसास होता रहा. सुबह मम्मी और बहनों को भी ये सपना सुनाया. सतना आते-आते सपना ध्यान से उतर गया, पता नहीं कैसे. अक्टूबर में उमेश जी के मामा श्री शालिग्राम शुक्ल और मामी आये. हम सब खाना खा रहे थे. तभी एक फोन आया, अम्मा फोन पर जवाब दे रही थीं - " हमने पूरे घर में फ़ाइल ढूंढ ली, मिली ही नहीं . एक बार फिर कोशिश करते हैं. " मेरे पूछने पर अम्माँ ने बताया कि पापा की जीपीएफ वाली फ़ाइल नहीं मिल रही. मुझे अचानक ही अपना सपना याद आ गया. मैंने बस यूं ही हँसते हुए सपना सुनाया. उमेश जी बोले कि जब फ़ाइल कहीं नहीं मिली, तो क्यों न हरा बॉक्स ही ढूँढा जाए? अब नए सिरे से हरे बॉक्स की ढूंढ मचाई गयी. एक हरे रंग का बॉक्स उस स्टोर-रूम में मिला, जहाँ केवल कबाड़ भरा है. बॉक्स खोला और आश्चर्य!!!!!
ऊपर ही पीले रंग की फ़ाइल रखी थी, जिस पर लिखा था " जीपीएफ सम्बन्धी कागज़ात".
इस सपने को मैं कभी सपना मान ही नहीं पाई.
आप ये न सोचें कि मैं अंध-विश्वास को बढ़ावा दे रही हूँ. मैं खुद कभी सपनों को सच नहीं मानती थी. आज भी मेरा मानना है, कि सपने हमारे अवचेतन का ही प्रतिफल होते हैं. लेकिन यदि कोई सपना बार-बार आये तो उसे केवल सपना नहीं कहना चाहिए. अंध विश्वास और विश्वास के बीच का फ़र्क मैं बखूबी समझती हूँ. इसलिए मुझ पर अंध-विश्वासी का तमगा लगाए बगैर अपनी राय दें.
जो घटना मेरे साथ घटी, उसे मैं सिरे से कैसे नकार दूँ?
( ऊपर वाला चित्र मेरे नौगांव वाले घर का है, इसी गेट से होकर चांदी जैसा सांप निकल के भागा था.)

शनिवार, 31 मार्च 2012

कमलाप्रसाद स्मृति समारोह- झलकियां

गत २५ मार्च २०१२ को डॉ. कमलाप्रसाद की पुण्यतिथि के अवसर पर सतना में स्मृति-समारोह आयोजित किया गया. आप भी शामिल हों, इन चित्रमय झलकियों के साथ.... तस्वीरों में क्रमश: डॉ. अजय तिवारी, महेश कटारे, डॉ. काशीनाथ सिंह, कमलाप्रसाद जी की बेटियां और पत्नी श्रीमती रामकली पांडे, दिव्या जैन, डॉ. शबाना शबनम, प्रदीप चौबे, नरेन्द्र सक्सेना, दिनेश कुशवाह, कथाकार अनुज, और हरीश धवन.

मुख्य अतिथियों के इन्तज़ार में कुर्सियां

उद्घाटन सत्र में सम्बोधित करते डॉ. अजय तिवारी दूसरे सत्र में मंचासीन प्रसिद्ध कथाकार महेश कटारे और डॉ. काशीनाथ सिंह. दूसरा सत्र संस्मरण-सत्र था. ज़ाहिर है, कई बार सबकी आंखें नम हुई होंगीं. पहले सत्र की लम्बाई नियत अवधि से कुछ ज़्यादा ही हो गयी थी , सो दूसरे सत्र की समयावधि में कटौती करनी पड़ी. पहले सत्र का विषय था- प्रगतिशीलता की अवधारणा. स्मृति समारोह में इस विषय की उपयोगिता मुझे समझ में नहीं आई.














कार्यक्रम में कमलाप्रसाद जी का पूरा परिवार सुबह से रात तक उपस्थित रहा. चिन्ता आंटी की थी, जो इस उमर में भी पूरे समय कुर्सी पर बैठी रहीं, और जिनके मन की व्यथा हम सब समझ रहे थे.












तीसरे सत्र में काव्यगोष्ठी के ठीक पहले मेरे रंगमंच के साथी हरीश धवन की एकल नाट्य-प्रस्तुति थी. ऊपर उसी नाटिका का दृश्य. हरीश धवन की नाटिका का दृश्य-संयोजन किया उनकी पत्नी डॉ. दिव्या जैन धवन ने, जो खुद भी रंगमंच की बहुत बेहतरीन कलाकार हैं. एक अन्य चित्र में दिव्या, शबाना जी और मैं दिखाई दे रहे हैं. शबाना जी रोहतक से आयी थीं. वे रोहतक विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी की प्राध्यापक हैं और बहुत सुन्दर कविताएं लिखती हैं. एक चित्र में काशीनाथ जी के साथ मैं हूं, और दूसरे में श्रीमती डॉ. कमलाप्रसाद यानि आंटी के साथ मैं हूं. नीचे कवि नरेन्द्र सक्सेना और कथाकार अनुज दिखाई दे रहे हैं जो बनारस और ग्वालियर से आये थे. डॉ. नामवर सिंह और डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी अस्वस्थता की वजह से कार्यक्रम में शिरकत नहीं कर सके.

शुक्रवार, 16 मार्च 2012

इस्मत की क़लम से.........

भारत के कई हिस्सों में बेटी के विवाह के समय एक कुप्रथा प्रचलित है, वर-पक्ष के प्रत्येक सदस्य के वधु के पिता द्वारा चरण-स्पर्श. मैं बुन्देलखंड की हूं और वहां ये प्रथा चलन में है. जब भी ऐसा दृश्य देखती हूं मन अवसाद-ग्रस्त हो जाता है. पिछले दिनों मेरी परम मित्र इस्मत ज़ैदी भी एक शादी में गयीं और इस रस्म से दो-चार हुईं. पढिये उनकी व्यथा, उन्हीं की क़लम से-
कब जागेंगे युवा?????
सारे मौसमों की तरह शादियों का भी एक मौसम होता है और उन दिनों घरों में निमंत्रण पत्रों की बहार सी आ जाती है , हमारे यहाँ भी ऐसा ही होता है ,पिछले कुछ दिनों में शादियों के कई निमंत्रण आए लेकिन सब से आवश्यक निमंत्रण था सौम्या का था,बहुत प्यारी सी बिटिया
जिस से हमारी मुलाक़ात ६-७ वर्ष पूर्व हुई थी पहली ही मुलाक़ात में उस ने हमें प्रभावित किया लेकिन कुछ व्यस्तताओं के कारण हमारी मुलाक़ात फ़ोन तक ही सीमित हो कर रह गई थीं I उस दिन उस की शादी का कार्ड मिला तो एक ख़ुशी का एहसास हुआ कि बिटिया इतनी बड़ी हो गई I
ख़ैर शादी के कई दिन पूर्व ही पतिदेव द्वारा मुझे समय पर तैयार रहने का आदेश दे दिया गया था और मैंने भी आज्ञा का पालन बड़ी तत्परता से किया तथा निश्चित समय पर हम विवाह स्थल पर पहुँच गए I थोड़ी देर पश्चात जयमाल की रस्म संपन्न हुई और दुल्हन अपने दूल्हा के साथ वहीं मंच पर वर-वधु के लिये लगी
कुर्सियों पर विराजमान हो गई I मन अत्यंत प्रसन्न था कि बिटिया को उस का जीवन साथी मिल गया ,दुल्हन की सुंदरता को निहारते -निहारते मेरी दृष्टि जिस दृश्य पर अटक कर रह गई उस ने मुझे अवसादग्रस्त और क्षुब्ध कर दिया ,लड़की के पिता अपने दामाद के पैर धुला रहे थे ,इतना ही नहीं वह वृद्ध सज्जन सभी बारातियों के पैर छू रहे थे , बिना छोटे -बड़े का अंतर किये हुए और उसके बाद लगातार उन के समक्ष हाथ जोड़ कर खड़े रहे .उन के चेहरे पर फैली निरीहता ने मुझे झिंझोड़ कर रख दिया ,,,, माना कि उन्होंने आदर-सत्कार ,आवभगत ,आतिथ्य आदि को ध्यान में रखकर पैर छुए होंगे तो क्या उस समय ये दूल्हे और बारातियों का कर्तव्य नहीं था कि वे उन्हें पैर छूने से रोकते और ससम्मान गले लगा लेते ? यदि यहाँ पर दामाद और उस के घर वाले अतिथि थे तो उन के घर पर वधु के घर वाले भी तो अतिथि ही होंगे ,तो क्या उस समय लड़के के पिता अपने समधी का पैर छुएंगे ?? नहीं न ,तो फिर एक लड़की का पिता इतना निरीह क्यों हो जाए ??
मैं सोचने लगी कि जिस दृश्य को देखकर मुझे इतनी पीड़ा हो रही है उसे देखकर दुल्हन और उस की माँ पर क्या बीत रही होगी ?हाथ जोड़े , मस्तक झुकाए हुए वो पिता एक अपराधी की तरह क्यों खड़ा रहे जबकि अपने जीवन की अमूल्य निधि वह दूल्हे और उस के परिवार को सौंप रहा है ,वह अपने घर का उजाला उन के घर में रौशनी फैलाने के लिये भेज रहा है ?
मन में अंतर्द्वंद सा चल रहा था कि हमारा समाज तो अब बदल रहा है ,जहाँ लड़कियाँ सारे काम कर रही हैं यहाँ तक कि माता-पिता को मुखाग्नि देने तक का अधिकार भी उन्हें प्राप्त है तो वहाँ ये सब आख़िर कब तक चलेगा ?
मुझे मालूम है कि ये विषय नया नहीं है लेकिन मेरी व्यथा ने मुझे लिखने के लिये विवश कर दिया ,,,,इस कुप्रथा का अंत करने के लिये किसी राजा राम मोहन रॉय का इंतेज़ार करने के स्थान पर हमारे युवाओं को आगे आना होगा I जब वे अपने पिता समान श्वसुर को भी वही आदर-सम्मान देंगे जो अपने पिता को देते हैं तो इस समस्या का समाधान स्वयं ही निकल आएगा .ये बात पूरे युवा वर्ग के लिये कही गई है चाहे वो लड़का हो या लड़की,,,,और जिस दिन युवा वर्ग ने ये झंडा अपने हाथों में उठा लिया उस दिन इस कुप्रथा का अंत निश्चित है I