शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

वर्धा संगोष्ठी: दूसरा दिन

नहा-धो के तैयार हुए ही थे, कि पूरी मित्र मंडली घूम-घाम के लौट आई. झटपट नाश्ता हुआ, और सारे लोग एक बस और दो-तीन गाडियों में लद के हबीब तनवीर सभागार पहुंच गये.
सभागार के कॉरीडोर में सामने से ललित शर्मा जी आ रहे थे. एकदम सामने आ के खड़े हो गये, बोले- पहचाना मुझे वंदना जी? अब बोलिये, ललित जी को कौन न पहचान लेगा? उनके साथ ही नागपुर से तशरीफ़ लायीं संध्या शर्मा भी थीं. खूब खुशी हुई उनसे मिल के. खुशी इसलिये भी हुई, कि चलो, महिलाओं की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ. वरना इतने लोगों में हम चार महिलाएं -शकुंतला शर्मा, शशि सोहन शर्मा, रचना त्रिपाठी और मैं ही दिखाई दे रहे थे. मनीषा पांडे सुबह छह बजे पहुंचने वाली थीं, लेकिन उनकी ऐन वक्त पर उनकी आंख लग गयी, और सेवाग्राम स्टेशन निकल गया... आगे किसी स्टेशन से वे वापस सेवाग्राम लौटीं और बारह बजे सभागार पहुंचीं.
यहां आज कार्यक्रम के दूसरे दिन के शेष तीन सत्र सम्पन्न होने थे. दूसरे दिन के पहले सत्र का विषय था-
 " हिंदी ब्लॉगिंग और साहित्य "  मुख्य वक्ता थे- डॉ. अरविंद मिश्र, अविनाश वाचस्पति, डॉ. अशोक मिश्र, डॉ. प्रवीण चोपड़ा, ललित शर्मा, शकुन्तला शर्मा,  और मैं खुद ( यानि वंदना अवस्थी दुबे) थे. इस सत्र के संचालन का ज़िम्मा  इष्टदेव सांकृत्यायन पर था, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया.
यह एक खुली चर्चा थी, जिसमें सभागार में मौजूद छात्र/छात्राएं अपने सवाल पूछ सकते थे. कोई जिज्ञासा सिर उठाए तो उसे शांत करवा सकते थे, लेकिन छात्रों की ओर से जिज्ञासाएं कम ही उठीं.
पहले वक्ता के रूप में बोलते हुए  मेरे भाईजी  डॉ. अरविंद मिश्र ने कहा कि - " ब्लॉगिंग एक विधा है, लिहाजा इसे साहित्य की तमाम विधाओं में शामिल कर एक नयी विधा के रूप में देखा जाये. उन्होंने कुछ लोगों के द्वारा लम्बी-लम्बी पोस्ट लिखने पर भी आपत्ति जताते हुए छोटी पोस्ट लिखने की सलाह दे डाली. ये अलग बात है, कि मिश्र जी द्वारा ब्लॉगिंग को विधा का दर्ज़ा देने की बात का ज़ोरदार विरोध हुआ. कुछ लोग संकोचवश ये कहते भी दिखाई दिये कि- " हां ब्लॉगिंग को  विधा माना जा सकता है,लेकिन इसमें समय लगेगा." हांलांकि ब्लॉग को विधा मानने की बात मेरे गले तो नहीं उतरी. "ब्लॉगिंग-विधा" पर जब जोरदार बहस छिड़ी थी, तभी दर्शक दीर्घा में बैठे हर्ष वर्धन त्रिपाठी ने उठ के सधे हुए शब्दों में ये कहते हुए कि ब्लॉग खुद को अभिव्यक्त करने का माध्यम मात्र है, लिहाजा इसे विधा नहीं माना जा सकता. जैसे अखबार खबरों को छापने का, टीवी कार्यक्रमों का ज़रिया मात्र हैं, वैसे ही ब्लॉग भी एक ज़रिया मात्र है. हर्ष जी के इस दो टूक सम्वाद को जोरदार तालियों का समर्थन मिला. दूसरे वक्ता अपने अविनाश वाचस्पति जी थे. वे अपने बोलने के प्रमुख बिंदु एक कागज़ पर नोट करके लाये थे, ताकि कोई भी महत्वपूर्ण मुद्दा रह न जाये! ठीक भी है. सब पता होना चाहिये कि क्या बोलना है. शुरु में तो अविनाश जी ब्लॉग को विधा मानने की बात पर सहमत होते से नज़र आये, लेकिन फिर बाद में उन्होंने खुद को इस मुद्दे से अलग कर लिया और ब्लॉग और साहित्य के बीच का रिश्ता बताने लगे. उन्होंने अपने ब्लॉगिंग के सफ़र के बारे में भी विस्तार से बताया.
अविनाश जी के बाद डॉ. अशोक मिश्र  ने अपने ब्लॉगिंग के लम्बे अनुभवों की चर्चा की. उन्होंने अखबारों  द्वारा अपनायी जा रही लेखक-रणनीति की भी चर्चा की कि किस तरह सम्पादक अपने पसंदीदा लेखकों को छापते हैं, और नये लेखक बहुत अच्छा लिखने के बाद भी नहीं छप पाते. अशोक जी कि इस बात का मैं तुरन्त खंडन करना चाहती थी, लेकिन दूसरे काम में व्यस्त होने के कारण नहीं कर पायी. उनकी ये बात मेरे गले नहीं उतरी. कारण, मैनेखुद बारह वर्षों तक उस समय के प्रदेश के एक प्रमुख समाचार पत्र में साहित्य सम्पादक का पद सम्हाला है, और पता नहीं कितने नये लेखकों को हर हफ़्ते छापा है, बिना किसी परिचय के. उनकी रचनाएं ही उनके प्रकाशन का कारण होती थीं. हो सकता है कि अब सम्पादकों में ऐसा पक्षपात का भाव ज़्यादा आ गया हो, या उस वक्त भी रहा होगा, लेकिन सबको एक साथ नहीं घसीटा जा सकता.
डॉ. प्रवीण चोपड़ा  ने अपने विज्ञान ब्लॉग के बारे में जानकारी दी और बताया कि किस प्रकार उनके ब्लॉग से हिंदी में तमाम रोगों की जानकारियां नेट पर इकट्ठी हो रहीं.
मुम्बई से आये मनीष       ने बताया कि उन्होंने कितनी उपयोगी शैक्षिक सामग्री ब्लॉग के ज़रिये हिंदी में उपलब्ध करायी है, कि आज तमाम शोधार्थी उस सामग्री को  रिफ़रेंस के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं. उन्होंने ये भी सलाह दी कि, जब भी कोई ब्लॉग या कोई विद्यार्थी किसी सामग्री का इस्तेमाल करे तो उसका लिंक जरूर दे.
दुर्ग से आई शकुन्तला शर्मा ने हिंदी साहित्य के रसों और ब्लॉग पर उपलब्ध रसों की बढिया तुलना की. जीवन के चार रसों की भी उन्होंने सुन्दर व्याख्या की. अपनी बात का अन्त उन्होंने स्वयं की एक छोटी सी कविता से की, जो इस संगोष्ठी के लिये उन्होंने खास तौर से लिखी थी. शकुन्तला जी के बाद ललित शर्मा जी ने ब्लॉग, उस पर लिखा जा रहा साहित्य और खुद की ब्लॉग यात्रा का ब्यौरा दिया.
इस सत्र का समापन मेरे मुखारविंद से हुआ.
दूसरे सत्र में विद्यार्थियों को तमाम तकनीकी जानकारियां दी गयीं. विकीपीडिया, उसकी उपयोगिता, उसका सम्पादन जैसे तमाम गुर सिखाये गये.
तीसरे और समापन सत्र का संचालन सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी ने किया. इस सत्र  में मनीषा पांडे ने जेंडर की समस्या को उठाया. हालांकि ये प्रस्तावित विषय नहीं था. स्त्री-विमर्श का स्थान भी नहीं था, तब भी उन्होंने अपनी बात कही और सटीक तरीके से रखने की कोशिश की. उनका कहना था कि उन्हें यहां की छात्राओं से ये जान के बड़ा अचरज हो रहा है कि यहां हॉस्टल से दस बजे के बाद लड़कियां बाहर नहीं घूम सकतीं! .............. मुझे मनीषा जी के इस अचरज पर बेहद अचरज हुआ कि क्या वे इस देश की विषम परिस्थियों को नहीं जानतीं? दिन दहाड़े बच्चियों के साथ दुष्कर्म हो रहे, तो रात दस बजे के बाद विश्वविद्यालय परिसर में कोई घटना घट जाये तो कौन ज़िम्मेदार होगा? अभिभावक उस वक्त नारी मुक्ति का नारा तो नहीं ही लगायेंगे, विश्वविद्यालय प्रबन्धन मुफ़्त में लापरवाह घोषित हो जायेगा......
कार्यक्रम के अन्त में कुलपति विभूति नारायण राय ने सार गर्भित भाषण दिया. सबसे महत्वपूर्ण घोषणा उन्होंने की ब्लॉग एग्रीगेटर बनाये जाने की, जिसकी मियाद पन्द्रह अक्टूबर २०१३ तय की गयी है.
तो इस सत्र के समापन के साथ ही हम सब गाड़ियों में लद के फिर नागार्जुन सराय के हो लिये......
( पिक्चर अभी बाकी है दोस्त..... )

सोमवार, 23 सितंबर 2013

अविस्मरणीय वर्धा-यात्रा.

आज सुबह वर्धा से लौटी. पिछले दो दिनों की अविस्मरणीय यादें साथ ले के.
एक महीने पहले ही वर्धा जाने का रिज़र्वेशन करवा लिया था, लेकिन लौटने का टिकट और जाने का भी, दोनों ही वेटिंग में थे. १९ को निकलना था और टिकट १८ की शाम तक कन्फ़र्म नहीं.... सिद्धार्थ जी को बताया तो बोले, आ जाइये यहां प्रवीण जी ( प्रवीण पांडे) इंतज़ाम करेंगे. मन अब भी संकोच में था. पहली बार प्रवीण जी मिलेंगे और हम अपना काम ले के हाज़िर हों... मामला कुछ जम नहीं रहा था.
इसी ऊहापोह में १९ की ट्रेन निकल गयी जो बडे सबेरे थी. मन बहुत उदास था. वादा करके मुकर जाने की तक़लीफ़ उससे कहीं ज़्यादा थी. दिन उदासी में बीता, शाम को अपनी क्लास में गयी. ठीक सात बजे वर्धा से फोन आया- " मैम, आपकी गाड़ी कहां पहुंची अभी? मैं गाड़ी ले के आ रहा हूं." अब तो घड़ों पानी पड़ गया मेरे ऊपर. किसी प्रकार कहा- " मैं कल पहुंच रही हूं." क्लास जल्दी छोड़ दी. नीचे आ के उमेश जी से कहा कि मैं कितना खराब महसूस कर रही हूं. उमेश जी जैसे दरियादिल इंसान तत्काल बोले- " कोई बात नहीं, हम सुबह निकलते हैं इटारसी तक, ट्रेन में बर्थ मिल जायेगी, अगर तुम हिम्मत कर सको, तो चलो."
मैं तो ठहरी जन्मजात हिम्मती... फटाफट कपड़े बैग में रक्खे, और सुबह का इंतज़ार शुरु.
अगले दिन राजेन्द्रनगर-कुर्ला एक्सप्रेस पकड़ी, टीसी ने एसी थ्री में बर्थ भी दे दी. अब और क्या चाहिये? आराम से इटारसी पहुंचे. वहां से सेवाग्राम के लिये ट्रेन पकड़नी थी. केरला एक्सप्रेस का समय था लेकिन उसके विलम्ब से आने की सूचना मिली, सो हम साढ़े ग्यारह बजे राप्ती-सागर एक्सप्रेस में चढ गये. यहां भी किस्मत साथ दे गयी और एसी में बर्थ मिल गयी :)
सुबह छह बजे की जगह हमारी ट्रेन साढ़े सात बजे सेवाग्राम पहुंची. सिद्धार्थ जी का फोन आया कि हम सब सेवाग्राम घूमने जा रहे हैं बस से, तो आप लोग भी स्टेशन से ही हमारे साथ हों लें, ताकि ज्यादा समय साथ में गुज़ार सकें. अन्दर रेसीव करने के लिये गाड़ी खड़ी थी, और स्टेशन के बाहर सिद्धार्थ जी बस लिये खड़े थे :) खैर हमने बस के दरवाज़े पर पहुंच के सबसे माफ़ी मांगी, देर से आने के लिये और अब साथ में सेवाग्राम न जा पाने के लिये भी. असल में दो दिन का भागमभाग सफ़र करके तुरन्त नहाने का मन कर रहा था. ब्रश-फ्रश कुछ न किया था, सो सीधे गेस्ट हाउस जाना ही ठीक लगा.
एकदम हरे-भरे रास्ते के बीच से गुज़र के हमारी गाड़ी विश्वविद्यालय पहुंची...हरियाली  देख के ही मन प्रसन्न हो गया. गेस्ट हाउस " नागार्जुन-सराय" देख के प्रसन्नता दोगुनी हो गयी. दरवाज़े पे पहुंचे तो वो हमें देख के अपनेई आप खुल गया. बेचारा! ज़बरदस्त कवायद कर रहा था, बार-बार खुलना-बन्द होना.... उमेश जी को उस पर तरस आने लगा था बाद में :) .
 209 नम्बर का कमरा हमारा इन्तज़ार कर  रहा था. शानदार कमरा, सभी सुविधाओं से युक्त. चाय पी के फटाफट नहाने घुसे . तैयार हो ही रहे थे कि नाश्ता लगने की खबर आ गयी. ( अब बाकी कल )
बाबा नागार्जुन की शानदार प्रतिमा लॉन के बीच में.

सिद्धार्थ जी, रचना त्रिपाठी और मैं.

डॉ. शशि शर्मा, मैं, सिद्धार्थ जी और कार्तिकेय मिश्र

सिद्धार्थ जी को देख के कोई भी कह देगा कि संयोजक वही हैं :)

ये है नागार्जुन सराय... जहां हम सब ठहरे.

शनिवार, 21 सितंबर 2013

’हिंदी ब्लॉगिंग और सोशल मीडिया’ राष्ट्रीय संगोष्ठी सम्पन्न


वर्धा. २० सितम्बर २०१३.
महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में ’हिंदी ब्लॉगिंग और सोशल मीडिया विषय पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला एवं संगोष्ठी का आज शानदार समापन हुआ. संगोष्ठी गहमागहमी भरे माहौल में सम्पन्न हुई. सम्बंधित विषय पर विश्वविद्यालय के कुलपति श्री विभूति नारायण राय ने  कार्यक्रम का समापन भाषण दिया. विस्तृत विवरण जल्द ही पोस्ट करूंगी, फिलहाल इन तस्वीरों को देख कर ही सब्र करें.

महात्मा गांधी अन्तररष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
हबीब तनवीर सभागार
कुलपति महोदय के साथ सभी आमंत्रित ब्लॉगर
सिद्धार्थ जी बेचारे, काम के बोझ के मारे...........