रविवार, 19 अगस्त 2012

दर्द की महक और हरकीरत...


पुस्तक : दर्द की महक
लेखिका : हरकीरत 'हीर'
प्रकाशक : हिन्दीयुग्म
१,जियासराय , हौजखास,
नयी दिल्ली.
मूल्य : २२५ रुपये
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सबसे पहले हरकीरत जी से क्षमायाचना सहित............पुस्तक मिले लगभग एक महीना हो रहा है, और मैं इतने विलम्ब से समीक्षा लिख रही हूँ :( बहाना वही घिसा-पिटा व्यस्तता का ,कोई नया बहाना मिला ही नहीं )
उम्मीद है हरकीरत जी क्षमा करेंगीं...
न कभी हीर ने
न कभी रांझे ने
अपने वक्त के कागज़ पर
अपना नाम लिखा था
फिर भी लोग आज तक
न हीर का नाम भूले
न रांझे का
बस दर्द महकने लगता है...इमरोज़ की इस नज़्म के साथ, गोया अमृता-इमरोज़ की दास्ताँ लिखी जा रही हो...गोया इमरोज़ का दर्द परवान चढ़ा हो... हरकीरत जी उन सौभाग्यशालियों में हैं, जिन्हें इमरोज़ साहब का स्नेह मिला है, उनकी नज्मों को तो यूं महकना ही था.
इमरोज़ साहब की इस नज़्म के तले हरकीरत जी ने पूरा दर्द का संसार ही रच डाला है. स्त्रियों का दर्द, प्रेयसी का दर्द, पत्नी का दर्द..... ख़ुशी का दर्द और आंसुओं का दर्द.... कभी मीठा, तो कभी कसैला.. लगा सचमुच कितने दर्द झेलती है औरत??? हर दर्द की टीस महसूस होने लगी..
"एक ख़त इमरोज़ जी के नाम" से शुरू होने वाली नज्मों का काफिला पृष्ठ दर पृष्ठ आगे बढ़ने लगा...
मौत की मुस्कराहट, फासलों की रातें से होते हुए निगाहें "टांक लेने दे उसे मोहब्बत के पैरहन पर इश्क का बटन "
पर अटक गयीं...कितनी खूबसूरती से हरकीरत जी ने सच बयां कर दिया-
रब्ब!
ये औरत को ब्याहने वाले लोग
क्यों देते चिन हैं उसे दीवारों में?
पढ़ते हुए धक् से रह गयी!! हाँ सही तो है!!! कितनी ही औरतों का सच है ये...
शब्द-यात्रा फिर शुरू होती है..लाशें, इससे पहले कि शब्द धुल जाएँ, सुन अमृता......., तलाक, शीरीं-फरहाद, से होती हुई निगाह फिर अटकती है "अस्पताल से" पर-
अल्लाह!
रात कफ़न लिए खड़ी है
और ऐसे में नव वर्ष
द्वार पर दस्तक दे रहा है...
चकित हूँ. नज्मों को आत्मसात करता दिल-दिमाग हरकीरत की लेखनी के आगे झुका जा रहा है.....
नज़्म "तुम भी जलाना इक शमा...." के परिचय में लिखती हैं-
"आज इमरोज़ जी का एक प्यारा सा ख़त नज़्म के रूप में मिला....हर बार एक ही आग्रह- कवि या लेखक कभी हकीर नहीं नहीं हुआ करते...और रख देते एक तड़पती रूह का नाम "हीर"....सोचती हूँ, उम्र भर की तलाश में एक यही नाम तो कम पाई हूँ..तो क्यों न हीर हो जाऊं! "
हीर हो जाऊं ??? तुम हीर ही हो हरकीरत....इतना दर्द तो बस हीर के अंतस में ही समाहित हो सकता है...बहुत खूबसूरती से इमरोज़ के दर्द को उकेरती हुई हरकीरत लिखती हैं-
इमरोज़
तेरे हाथों की छुअन
तेरी नज्मों की सतरों में
सांस ले रही है
और इन्हें छूकर मैंने
जी लिए हैं वे तमाम अहसास
जो बरसों तूने गुज़ारे थे
अपनी पीठ पर.
( आपको याद दिला दूँ, कि इमरोज़ के पीछे बैठ कर, उनकी पीठ पर भी अमृता, साहिर का ही नाम लिखा करतीं थीं)
पुस्तक में एक से बढ़कर एक नज्में हैं. और कशिश ऐसी, कि एक बार पढना शुरू करके, उसे बीच में नहीं छोड़ सकते आप. मैंने एक बैठक में ही पूरी किताब पढी!! किताब के अंत में इमरोज़ की इक नज़्म हीर के लिए है.-
मुहब्बत के रंग में डूबा
हर दिल, हीर भी है
और रांझा भी.
इस पुस्तक की जो खासियत है, वो ये कि सभी नज्मों के पहले उनके सृजन का दर्द बहुत खूबसूरती से बयान किया गया है. नज़्म के अंत में ब्लॉग पर आईं चुनिन्दा टिप्पणियों को भी स्थान मिला है, जिसकी वजह से पुस्तक की खूबसूरती तो बढी है, नया प्रयोग भी लोगों के सामने आया. पुस्तक का मूल्य २२५ रुपये है, जो ठीक ही है. सजिल्द पुस्तकों की कीमत पेपरबैक से अधिक होती ही है. कवर-पृष्ठ सुन्दर है, लेकिन एक कमी जो मुझे खटकी, वो ये कि लेखिका का नाम ऊपर है और पुस्तक का नीचे. मेरे ख़याल से पुस्तक का नाम ऊपर होना चाहिए था. पुस्तक की प्रिंटिंग बहुत अच्छी है. प्रूफ की गलतियाँ भी नहीं हैं, लिहाजा हिन्दीयुग्म और हरकीरत जी दोनों ही बधाई के पात्र हैं.
मेरी ओर से ईद का ये तोहफा कैसा लगा? बताएँगे न?