बुधवार, 23 सितंबर 2009

गुज़रना ईद का....

ईद
मेरा बचपन जिस स्थान पर गुज़रा वह मध्य-प्रदेश का एक छोटा लेकिन सुंदर सा क़स्बा है-नौगाँव। कस्बा आबादी के लिहाज़ से लेकिन यह स्थान पूर्व में महत्वपूर्ण छावनी रह चुकी है। आज भी यहाँ पाँच हज़ार के आस-पास आर्मी है और अपने क्लाइमेट के कारण आर्मी अफसरों की आरामगाह है। लम्बी ड्यूटी के बाद अधिकारी यहीं आराम करने आते हैं। यहाँ का मिलिट्री इंजीनियरिंग कॉलेज बहुत माना हुआ कॉलेज है।

मगर मैं ये सब क्यों बता रही हूँ? मैं तो कुछ और कहने आई थी....हाँ तो मैं कह रही थी की हम जब नौगाँव पहुंचे तो हमारे यहाँ काम करने जो बाई आई उसका नाम चिंजी बाई था। बहुत हंसमुख और खूबसूरत। पाँच बच्चे थे उसके। चिंजीबाई की आदत थी की जब भी कोई त्यौहार निकल जाता तब लम्बी आह भर के कहती - " दीवाली-दीवाली-दीवाली, लो दीवाली निकल गई।" इसी तरह -" होली-होली होली लो होली निकल गई।"

पता नहीं क्यों आज जबकि ईद को निकले पाँच दिन हो गए हैं,बाई बहुत याद आ रही है। मन बार-बार ' "ईद -ईद-ईद लो ईद निकल गई" कह रहा है....कुछ उसी तरह आह भर के जैसे चिंजी बाई भरा करती थी। मेरी माँ दिल खोल कर देने वालों में हैं लेकिन हो सकता है की चिंजी बाई की हर त्यौहार पर अपेक्षाएं उससे भी ज़्यादा रहतीं हों, जिनके अधूरेपन का अहसास, उसकी उस लम्बी आह भरती निश्वास में रहता हो। क्योंकि इधर कई सालों से ईद पर ऐसा ही खाली पन मुझे घेरता है। और मन बहुत रोकने के बाद भी पीछे की ओर भाग रहा है.......

याद आ रहीं है वो तमाम ईदें, जिन पर हमने भी नए कपडे पहने थे...ईदी मिलने का इंतज़ार किया था.......मीठी सेंवई खाई थी..... और कभी सोचा भी नहीं था की ये त्यौहार मेरा नहीं है। शाम को हम पापा के साथ दबीर अली चाचा के घर सजे-धजे पूरे उत्साह के साथ जाते, सेंवई पर हाथ साफ़ करते और चाचा से ईदी ऐंठते। शम्मोबाजी से लड़ाई लड़ते और चच्ची से डांट खाते।

मेरी मम्मी जब पन्ना में बीटीआई की ट्रेनिंग कर रहीं थीं, तब वे एक मुस्लिम परिवार के यहां किरायेदार के रूप में रहीं वो परिवार भी ऐसा जिसने मेरी मां को हमेशा घर की बेटी के समान इज़्ज़त दी। इतना प्यार दिया जितना शायद मेरे सगे मामा ने भी न दिया हो। लम्बे समय तक हम जानते ही नहीं थे कि पन्ना वाले मामा जी हमारे सगे मामा नहीं हैं। चूंकि उनका नाम हमने कभी लिया नहीं और पूछने की कभी ज़रूरत समझी नहीं। वैसे भी वे हमारे मूर्ख-मासूमियत के दिन थे। किसी के नाम-काम से हमें कोई मतलब ही नहीं होता था। मां ने बताया ये तुम्हारे मामा-मामी हैं बस हमारे लिये ये सम्बोधन ही काफ़ी था।

रमज़ान के दौरान जब कभी मामी नौगांव आतीं तो मेरी मम्मी उनके लिये सहरी और इफ़्तार का बढिया इन्तज़ाम करतीं। साथ में खुद भी रोज़ा रहतीं। एक दिन मैने मामी को नमाज़ पढते देख पूछा- मामी आप मन्दिर नहीं जायेंगी? कमरे में ही पूजा कर लेंगीं? तो मेरी मामी ने बडे प्यार सेसमझाया था-’बेटा, भगवान का वास तो हर जगह है, वे तो इस कमरे में भी हैं तब मुझे मन्दिर जाने की क्या ज़रूरत है?" पता नहीं मेरे नन्हे मन पर इन शब्दों का क्या जादू हुआ कि आज भी मन्दिर जा कर या पूजा-घर में बैठ कर ही पूजा करने के प्रति मेरा लगाव हुआ ही नहीं।

हमारे ये दोनों परिवार सुख-दुख में हमेशा साथ रहे और आज भी साथ हैं। मामा के परिवार की एक भी शादी हमने चूकने नही दी और हमारे यहां के हर समारोह में वे सपरिवार शामिल हुए । आज भी दोनों परिवार उतने ही घनिष्ठ रिश्तों में बंधे हैं। आज रिश्तों की अहमियत ही ख़त्म होती जा रही है। हमारे पड़ोसी भी "चाचा-चाची " होते थे , आज सगे चाचा भी "अंकल" हो गए हैं। मुझे बड़ा अटपटा लगता है जब कोई भी बच्चा बताता ही की उसके अंकल की शादी है या उसे लेने अंकल आयेंगे....आदि । कई बच्चों को तो मैं समझाइश भी दे चुकी हूँ कि वे अपने चाचा को अंकल न कहा करें। लेकिन अब अपने आप को रोक लेती हूँ। किसी दिन कोई कह न दे कि 'आप कौन होती हैं हमारे संबोधनों में संशोधन करने वालीं?'

बात ईद से शुरू की थी और रिश्तों पर ख़त्म हो रही है, मन भी कहाँ-कहाँ भटकता है!

तो बात ईद की कर रही थी तो आज ईद हो या दीवाली या कोई और त्यौहार, वो पहले वाली बात रही ही नहीं। त्योहारों को लेकर उत्साह जैसे ख़त्म होता जा रहा है। रस्म अदायगी सी करने लगे हैं लोग। कोई कहे की मंहगाई के कारण ऐसा हुआ हा तो मैं यह बात सिरे से खारिज करूंगी। जितनी मंहगाई है उतनी ही तनख्वाहें भी तो हैं। पहले की कीमतें कम लगतीं हैं तो वेतन कितना होता था? तब भी लोग इतने उत्साह के साथ हर त्यौहार का इंतज़ार क्यों करते थे? आज हमारे अपने मन उत्साहित नहीं हैं। शायद माहौल का असर हम पर भी पड़ने लगा है।

44 टिप्‍पणियां:

  1. सच कहा है आज के दौर में सब कुछ बहूत तेजी से बदल रहा है ........... रिश्ते नाते सब बदल गए हैं ........... त्योहारों पर ये बात सबसे ज्यादा कटोचती है मन को ............ आपका संस्मरण पढ़ कर कुछ उदासी छा जाती है मन में पर शयेद ये इंसान की तेज़ रफ़्तार का असर है जाने कब टूटेगा ..........

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  2. सब कुछ बदल रहा है। उदास कर देने वाला संस्मरण है आभार्

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  3. धन्यवाद दिगम्बर जी, निर्मला जी, शिवम जी, और अर्कजेश जी. इसी प्रकार स्नेह बनाये रखें.

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  4. आज रिश्तों-नातों में वो पहली जैसी कशिश नहीं रही, इसका एक कारण शायद अति-भौतिकवादिता है, तो दूसरी और भावनात्मक परिवेश टूट गया है।

    फिर से संवेदनाओं के जागृत करने का समय आ गया है ...

    सुंदर अभिव्यक्ति

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  5. ब्लांग पर बने रहे इसी शुभकामनाओं के साथ दशहरा की जय हो।

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  6. 'Bikhare sitarepe' tippaneeke liye tahe dilse shukriya..Dashhara bahut, bahut mubarak ho..
    dher sara sneh

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  7. सब समय का फेर है वंदना जी..आप सच कहती हैं अब दिखावा अधिक है और पहले जैसी बात नहीं है..रस्म अदायगी से रह गए हैं त्यौहार..

    -दशहरा और दुर्गा पूजा की शुभकामनाएं.

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  8. "आज ईद हो या दीवाली या कोई और त्यौहार, वो पहले वाली बात रही ही नहीं। त्योहारों को लेकर उत्साह जैसे ख़त्म होता जा रहा है। रस्म अदायगी सी करने लगे हैं लोग। कोई कहे की मंहगाई के कारण ऐसा हुआ हा तो मैं यह बात सिरे से खारिज करूंगी। जितनी मंहगाई है उतनी ही तनख्वाहें भी तो हैं। पहले की कीमतें कम लगतीं हैं तो वेतन कितना होता था? तब भी लोग इतने उत्साह के साथ हर त्यौहार का इंतज़ार क्यों करते थे? आज हमारे अपने मन उत्साहित नहीं हैं। शायद माहौल का असर हम पर भी पड़ने लगा है।"
    जितना बढ़िया संस्मरण, उतना ही सटीक उपसंहार.
    पूर्णतः सहमत.
    हार्दिक बधाई.
    चन्द्र मोहन गुप्त
    जयपुर
    www.cmgupta.blogspot.com

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  9. बड़ी ही खूबसूरती से आपने आज और कल की त्तास्वीरों को खीच कर सामने रख दिया ,सच कहा समय की दौड़ में सब कुछ छूट जाता है ,पहले की तरह कुछ नहीं होता ,धर्म एवं संस्कार दोनों की बातों को सुन्दरता के साथ पेश किया . बेहतरीन संस्मरण .dil ko chhoo gayi .

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  10. han teji se sab kuch badal rha hai .
    apsi sabndho me duriya badhti hi ja rhi jaise jaise dhan aana shuru hoga ahm sbke man me bhrta javega .

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  11. नवीन जी, शमा जी, मनोज जी,संतोष जी, क्षमा जी, अल्पना जी,चन्द्र मोहन जी, ज्योति जी, और शोभना जी, आप सबने अपना अमूल्य समय दिया, आभारी हूं.

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  12. मन बुझ सा गया!!

    फिर भी संस्मरण पढ़ना बहुत अच्छा लगा. यथार्थ यही तो है.

    आभार.

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  13. vandanaji,
    prakarti ka niyam hota he parivartan/ sab bad jaayega/ use badalnaa hi hoga/ ham bahut kuchh tyaag kar apane jeevan ko jeete he/ aour dekhiye jeevan ke kitane bahumoolya pal bhi to roz hi gujarte jaa rahe he/ sabkuchh smartiyo me shesh rah jaataa he aour jab ve shabd bante he to fir jee uthate he vo din/
    bahut achhe se likhi gai yaade he aapki/

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  14. सच में सब बदल गया है अब न आने वाले त्यौहार वह ख़ुशी से मनाये जाते हैं न वह चहल पहल दिखती है सब एक जैसे यूँ ही यादे बन कर रह गयी है ..उदास कर गया आपका यह संस्मरण .

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  15. मै नौकरी के अपने शुरुआती दिनो मे ऐसे ही एक मोहल्ले मे रहा । जब तक वहाँ रहे ईद के रोज़ कभी हमारे घर खाना नही पका और फिर रिश्ते ऐसे बने कि यह सिलसिला आज भी जारी है । मै इसे क्या बयान करूँ मेरी बिटिया अपने ब्लोग (http://nanhikopal.blogspot.com) नन्ही कोपल मे यही सब तो लिख रही है । आपसे निवेदन है कि उसे एक बार अवश्य देखें और उससे बात करें ।

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  16. achcha laga padh kar....


    तो बात ईद की कर रही थी तो आज ईद हो या दीवाली या कोई और त्यौहार, वो पहले वाली बात रही ही नहीं। त्योहारों को लेकर उत्साह जैसे ख़त्म होता जा रहा है। रस्म अदायगी सी करने लगे हैं लोग। कोई कहे की मंहगाई के कारण ऐसा हुआ हा तो मैं यह बात सिरे से खारिज करूंगी। जितनी मंहगाई है उतनी ही तनख्वाहें भी तो हैं। पहले की कीमतें कम लगतीं हैं तो वेतन कितना होता था? तब भी लोग इतने उत्साह के साथ हर त्यौहार का इंतज़ार क्यों करते थे? आज हमारे अपने मन उत्साहित नहीं हैं। शायद माहौल का असर हम पर भी पड़ने लगा है।

    waaqai....... mein maahual ka asar padne laga hai....... agreed ......

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  17. Hmmm sab kuchh nahi kewal ek chhez badal rahi h...HUM... aap khud ko badalne se rok lijiye...sab waisa hi rahega,...sundarसंस्मरण ...

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  18. कुछ तो मंहगाई का असर है वंदना जी त्योहार मनाने के लिए सौ बार सोचना पड़ता है ....और कुछ टी. वी नेट वर्क ने हमारा समय ले लिया है इस लिए शायद हम विमुख होते जा रहे हैं ......!!

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  19. याद आ रहीं है वो तमाम ईदें, जिन पर हमने भी नए कपडे पहने थे...ईदी मिलने का इंतज़ार किया था.......मीठी सेंवई खाई थी..... और कभी सोचा भी नहीं था की ये त्यौहार मेरा नहीं है। शाम को हम पापा के साथ दबीर अली चाचा के घर सजे-धजे पूरे उत्साह के साथ जाते, सेंवई पर हाथ साफ़ करते और चाचा से ईदी ऐंठते। शम्मोबाजी से लड़ाई लड़ते और चच्ची से डांट खाते।...vandana
    aapka ye lekhan bahut sarthak aur nizi hote hue bhi samay ki maang ke anusaar bahut prasangik hai bahut acha laga sahajaapka likhna ....wah

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  20. शरद जी हम अपने मामा अब्दुल करीम खान के घर हर शादी में गये हैं और तीन-तीन दिन पन्ना में रुके हैं.बहनों के द्वारा की जाने वाली रस्मों में मामी हमें सबसे आगे रखतीं हैं. बिटिया का ब्लौग ज़रूर देखूंगी.

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  21. बहुत अच्छी बात आपने लिखी है, शायद हम लोग इतने व्यस्त हो गये हैं कि अब हमारे लिए त्यौहारों का सांस्कृतिक महत्व नहीं रहा।
    करवा चौथ की हार्दिक शुभकामनाएं।
    ----------
    बोटी-बोटी जिस्म नुचवाना कैसा लगता होगा?

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  22. "तो बात ईद की कर रही थी तो आज ईद हो या दीवाली या कोई और त्यौहार, वो पहले वाली बात रही ही नहीं। त्योहारों को लेकर उत्साह जैसे ख़त्म होता जा रहा है। रस्म अदायगी सी करने लगे हैं लोग।"

    वन्दना जी!
    बात सिर्फ त्योहारों तक ही सीमित होती तो ठीक था।
    अब ते सम्बन्धों में भी सिर्फ रस्म-अदायगी ही हो रही है।

    बहुत सटीक रहा आपका यह संस्मरण।
    बधाई!

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  23. तब भी लोग इतने उत्साह के साथ हर त्यौहार का इंतज़ार क्यों करते थे? आज हमारे अपने मन उत्साहित नहीं हैं। शायद माहौल का असर हम पर भी पड़ने लगा है।
    सच कहा आपने ,रिश्तो मे घटते मिठ।स का परिणाम भी हो सकता हॆ इस उत्साह हीनता का कारण

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  24. jindagi kabhi bhi ek jagah thahrati nahi bas chalati rahati hai bas yaden hai jise ham jiwan bhar sath liye firate hai..

    sundar sansmaran...badhayi..

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  25. कोई कहे की मंहगाई के कारण ऐसा हुआ हा तो मैं यह बात सिरे से खारिज करूंगी। जितनी मंहगाई है उतनी ही तनख्वाहें भी तो हैं।
    har saal ramnavmi ke bad aata hai dushhra ravan ka to kuchh nahin bigadata ram ki jeb kat jati hai..banvas kuchh aur bad jata hai.
    tyohar, sanskar,parmprayein ye sab peetal ke bartanon jaisei hoti hain. samay samay par inhein manja chamkaya na jaye to inka aakarshan feeka pad jatj hai. ye kam bhi sahitykar ke jimmey hona chahiye. jaisey ye dashhra hai. purney ravan ko jalaney ke sthan par nayee ravno ko kyon nahi jalana chahiye. jaisey mumbai bamkand ka kasab, ya pakistan. ya aisey hi desi videsi cehrey.

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  26. वंदना जी,आप ने बहुत ही सहजता से सामाजिक वदलाव में रिक्त होते रिश्तों पर उंगली रख दी है.त्योहारों में आपस दारी का सम्बन्ध महगाई से कतई नहीं होता है,आपसी प्रेम से होता है,आप को इस पवित्र संवेदना के लिए बधाई.

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  27. क्या करें इस वैश्वीकरण के चक्कर में हम अपना सब कुछ तो भुला बैठे हैं......क्या ईद क्या दीवाली ...........बस माल कल्चर तक सिमट कर रह गए हैं हम.....ऐसे में आपकी मर्म स्पर्शी रचना सुखद लगी बधाई स्वीकार करें.

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  28. vandana ji,
    aapka kahna bilkul sahi he. paisa kaaran nahi he valki ab hamari mansiktaa hi badal gai he.
    Rishte kis tarah nibhaaye jaate he aur jaane chaahiye yah yaad dilaane ke liye aapko bahut bahut dhanyvaad.
    Satyendra

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  29. vandana ,kitni badhaiyan den ,mujhe apna bachpan yaad aa gaya.har baar tum mubarakbaad khud le liya karo ham likhen ya na likhen.

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  30. वंदना जी, आपकी पुरानी पोस्ट पढने के क्रम में यहां भी आ पहुंचे...
    एक शेर सुनाएं-
    रस्म-तकल्लुफ़ बनकर रह गई अब तो यारो खाली ईद
    याद बहुत आती है मुझको अपने बचपन वाली ईद.

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  31. "हमारे पड़ोसी भी "चाचा-चाची " होते थे , आज सगे चाचा भी "अंकल" हो गए हैं।" सही कहा वंदना , आज के रिश्ते, खोखले हो गए हैं. रिश्तों में औपचारिकता ही रह गयी हैं, पहले जैसा प्रेम नहीं. यही कारण है की आज बच्चे त्यौहार भी अकेले मना लेना अधिक पसंद करते हैं..

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  32. nowgong ke bare me padkar achchha laga...yadon ki parchhaiyan kuchh is tarah ka prabhav chhodti hain ki lagta hi nahin ki ye yaden hain, yahi baat aapke shabd padkar yaaden bankar samne aani lagi..mera ghar mera nowgong.

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