बहुत दिन हुए , कुछ लिखा नहीं। असल में किसी चैनल विशेष पर प्रसारित होने वाले "सच का सामना" पर लिखना चाहती थी। लेकिन मैं लिखने का मन बनाऊं तब तक कई ब्लॉग्स पर इस कार्यक्रम के बारे में लिखा जा चुका था। फिर आज के परिवेश से जुड़े किसी अन्य मुद्दे पर लिखना चाहा तो ल्लिखने की इच्छा ही नहीं हुई। सच कहूं, तो आज के हालत पर कुछ लिखने मनही नहीं होता। मेरा मन तो है की बस पीछे पीछे और पीछे ही चला जाता है.......आँख बंद करती हूँ तो मन दौड कर पुराने समय में पहुँच जाता है...........याद आने लगते हैं फिल्मों के वो रोड शो....
मैं बहुत छोटी थी तब। लेकिन वे फिल्में जो उस वक्त रोड पर देखीं आज भी याद हैं। तब सूचना और प्रसारण विभाग और परिवार कल्याण विभाग की ओर से फिल्मों का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाता था।
श्री भानु प्रताप गौर, जिन्हें हम दादा कहते थे उस वक्त जिला न्यायाधीश थे। उनके और हमारे परिवार के बीच घरेलू सम्बन्ध हैं। दादा के दामाद सूचना विभाग में निदेशक जैसे पद पर थे। वे जब भी आते तो विभागीय बस से आते, जिसमें फ़िल्म का प्रोजेक्टर आदि भी होता। उनके आने का मतलब ही था फ़िल्म का प्रदर्शन। ये बस हमें शहर में दिखती और हम बल्लियों उछलने लगते। शाम को दादा का सन्देश आ जाता कि आज फ़िल्म दिखाई जायेगी, सपरिवार आ जायें। सपरिवार ही पहुंचते हम। मेरी मां को छोड्कर। डा. गौर ( दादा के बेटे) अंकल के घर के बाहर आगे ज़मीन में बैठने वालों की व्यवस्था होती और पीछे कुर्सियों पर बैठने वालों। की। अब चूंकि हम आमन्त्रित गण होते थे सो कुर्सियों पर तो बैठना ही था। ऐसे महत्वपूर्ण समय में मेरी निगाह केवल अपने उन साथियों पर होती जो उस वक्त नीचे ज़मीन में बैठे होते थे। वे भी बडी हसरत से मेरी ओर देखते कि शायद अपनी दोस्ती का लिहाज़ कर मैं उन्हें भी अपनी कुर्सी पर बिठा लूं शायद। लेकिन मैं तो उस वक्त उन पर एक घमन्ड भरी नज़र डालती थी, कि देखा! मैं कुर्सी पर बैठी हूं!
रोड शो के उस दौर में ही हमने उपकार , अछूत कन्या , चौथा पलना, धर्मयुद्ध, हकीकत, और बाद में प्रेम रोग जैसी फिल्में देखीं। बहुत छोटी थी लेकिन अछूत कन्या की नायिका देविकारानी से बेहद प्रभावित...(वैसे मैं सभी नायिकाओं से प्रभावित रहती थी) घर में आकर देविकारानी की तरह ’खेत की मूली...बाग कौ आम’ गाना...... दीदी के दुपट्टे को लपेट कर साडी बनाना.....और खुद को देविका रानी समझना। वैसे मैं जब भी कोई फ़िल्म देख कर आती(तब) तो खुद को उसी हीरोइन जैसा समझने लगती। मुझे लगता कि मैं बिल्कुल वैसी ही दिख रही हूं। मेरी चाल-ढाल भी वैसी ही हो जाती। मैं नवीं कक्षा में पढती थी तब तक ऐसी खुशफ़हमियां पाले रहती थी। मूर्ख तो मैं इतनी थी कि ग्यारवीं में पढती थी और तबतक सोचती थी कि ट्रक वाले कितने मूर्ख होते हैं, ट्रक के पीछे लिखते हैं’ horn-please'।
आज अपनी बेटी को ही देखती हूं तो सोचती हूं कि इसकी उम्र में मैं कितनी मासूम थी। केवल पढाई और बेवकूफ़ियां। पढाए तो आजके बच्चे कुछ ज़्यादा ही करते हैं लेकिन मासूमियत?
तमाम चैनल हैं न परिपक्व करने के लिये.
आज सच में बहुत दिनों बाद आप का लिखा हुआ कुछ पढने को मिला |
जवाब देंहटाएंएक बात है आप जब भी पुराने दिनों के बारे में लिखती है तो बहुत सी यादे ताज्ज़ा हो जाती है, इस के लिए आप को बहुत बहुत धन्यवाद | यूँ लगता है कोई मुझे खुद मेरे ही बीते कल से मिलवा रहा हो | आपके दूरदर्शन वाले पोस्ट का जिक्र जब दोस्तों के बीच किया तब सब ने उन दिनों को याद किया .............. "आया ... नहीं ... अब ... थोडा आया ज़रा दाहिने मोडो ... हाँ आ गया !!!"
बहुत बहुत शुभकामनाये |
यूँ ही लिखती रहिये |
सही ! बहुत् दिन बाद आपका लेख मिला पढ़ने को। अच्छा लगा! देविका रानी समझने वाली मजेदार लगी। नियमित लिखती रहें।
जवाब देंहटाएंsahi kaha aapne maasumiyat rahi nahi ab
जवाब देंहटाएंबड़ा अच्छा लगा आपका ये आलेख पढ़ते हुए ..अपना लड़कपन याद आ गया ..! आज वैसी मासूमियत नही रही,ये भी सच कहा!
जवाब देंहटाएं"आज अपनी बेटी को ही देखती हूं तो सोचती हूं कि इसकी उम्र में मैं कितनी मासूम थी। केवल पढाई और बेवकूफ़ियां। पढाई तो आज के बच्चे कुछ ज़्यादा ही करते हैं लेकिन मासूमियत?......"
जवाब देंहटाएंवन्दना जी।
एक अरसे बाद आपका लेख पढ़ने को मिला..
अपने पीछे प्रश्न-चिह्न छोड़ गये इस लेख को पढ़्रकर
मुझे यह स्वयं पर गुजरा हुआ ही लगा।
बधाई!
बढ़िया है !
जवाब देंहटाएंआज के बच्चे सैटेलाईट चैनेल जनरेशन हैं | जाहिर पहले के बच्चों से होशियार होंगे ही |
आज अपनी बेटी को ही देखती हूं तो सोचती हूं कि इसकी उम्र में मैं कितनी मासूम थी। केवल पढाई और बेवकूफ़ियां। पढाई तो आजके बच्चे कुछ ज़्यादा ही करते हैं लेकिन मासूमियत?
जवाब देंहटाएंतमाम चैनल हैं न परिपक्व करने के लिये.
आप के लेख ने पुराने दिनो की यादों को तरोताजा कर दिया. लेकिन मासूमियत? सही लिखा आपने,शायद हम अभिभावक गण भी कही न कही जिमेदार हॆं,इसके लिये
puraani cheejo ki khoobsurati aur uski us waqt kya ahmiyat rahi yah sirf aapke lekh hi darshate hai .baaki baate shivam ji ne kah di .bahut hi badhiya .aaj hi sonch rahi thi ki bahut dino se suna sa lag raha tha blog ,aaj rounak jaag gayi purani yaad liye .
जवाब देंहटाएंvaastav me puraani yaadein mauka dhoondti rehti hain...mauka mila nahi ki chhapaak se kood kr aankhon ke saamne aa jaati hain....
जवाब देंहटाएंachcha sansmaran
1)धन्यवाद शिवम जी. क्या करूं आज के माहौल में पुराने दिन बहुत शिद्दत से याद आने लगते हैं.
जवाब देंहटाएं2)अनूप जी, सचमुच मै इतनी ही मूर्ख थी.
३)धन्यवाद भाग्यश्री जी.
४)धन्यवाद क्षमा जी. इसी प्रकार स्नेह बनाये रखें.
५)जी हां शास्त्री जी, इस बार विलम्ब तो हुआ.
6)सच है अर्कजेश जी.
७)विक्रम जी,निश्चित रूप से हम अभिभावक भी ज़िम्मेदार हैं.
८)धन्यवाद ज्योति जी.
९)धन्यवाद गौरव जी.
वंदना जी आपकी मासूमियत तो अब भी बरकरार है ...रोड शो से आपने मुझे भी अपना जमाना याद दिला दिया ....मेरा बचपन तो चाय के बागानों के बीच बीता....वहाँ भी इसी तरह से फिल्में दिखाई जाती थी ....हम भी अपनी कुर्शियाँ पहले ही लगा कर बैठ जाते थे या कभी कभी पापा अपनी कार को ही साइड में लगा लेते ....वे दिन भी क्या दिन थे ....
जवाब देंहटाएंहाँ ये तो सच है टी.वी ने बच्चों को हमसे कहीं ज्यादा परिपक्व बना दिया है .....!!
मासूमियत और परिपक्वता की पेशकश पर काफी रोचक रहा यह लेख,
जवाब देंहटाएंअपनी गर्वोक्ति और मूरखता का अहसास भी आपने खुले मन से किया.
समझ देर में ही क्यों आती है, अहसास बाद में ही क्यों होता है, शायद यही भाग्य द्वारा संचालित कृत्य है..........
सफल लेख पर बधाई.
मासूमियत का अच्छा सवाल किया आपने... हमारी पीढी की उस मासूमियत को आज बेवकूफी का दर्जा प्राप्त है....
जवाब देंहटाएंवन्दना जी आज घर में मेरी बिटिया कोपल गणेश प्रतिमा स्थापना की तैयारी में लगी है और मै उसे अपने बचपन के किस्से सुना रहा था उसीमे ज़िक्र किया कि कैसे ये सिनेमा वाले गणेशोत्सव में अपना प्रोजेक्टर वगैरह लेकर आते थे और हम लोग ज़मीन पर बैठकर यही फिल्मे देखा करते थे । उन दिनों परिवार नियोजन वालों के पास देवानंद की एक फिल्म हुआ करती थी "एक के बाद एक " उसका नाम था । बहुत ही मार्मिक फिल्म थी लेकिन उसे देखकर मै उस उम्र मे ही देवानंद का फैन हो गया था । हम लोगों के बचपन और आज के बचपन मे फर्क तो होगा ही और यह हमारी और हमसे पहले वाली पीढी के फर्क से ज़्यादा है क्योंकि परिवर्तन विगत 10-20 सालो में तीव्र गति से हुए है । बहरहाल अच्छा लगा पढकर । बचपन को याद करना हमेशा बहुत ताकत देता है । -शरद कोकास, दुर्ग (छत्तीसगढ)
जवाब देंहटाएंvandna ji
जवाब देंहटाएंbhutdino bad lekin man ko chune vala aalekh ya khoo ham sbke bachpan ka prtinidhitv karti masum yade .
bhut acha lga pdhakar .teji se bdlte samajik prevesh me shayd hmare pas yhi meetha ateet hai .
*-सच्ची हरकीरत जी? खुश हो गये हम तो...
जवाब देंहटाएं*-मुमुक्ष जी, मैं सचमुच ही इतनी मूर्ख थी. अभी तो मेरी मूर्खता के और किस्से सुनाये नहीं हैं...
*-हां वल्लभ जी, आज के बच्चे कुछ इसी भाव से हंसते हैं हमारी बातें सुन कर.
गणेशोत्सव की हार्दिक शुभकामनायें. शरद जी मैं एक फ़िल्म "धर्मपुत्र" का ज़िक्र करना भूल गई. इस फ़िल्म में ही आशा भोंसले का गाया "सारे जहां से अच्छा.." गीत था, जो फ़िल्म की कास्टिन्ग के साथ चलता था. एक खूबसूरत, नाज़ुक सा हाथ एल्बम के पन्ने पलटता रहता था और ये गीत चलता रहता था. इसका ज़िक्र में इसलिये कर रही हूं कि उस गीत से ज़्यादा ध्यान मेरा उस खूबसूरत अंगूठी से सजे हाथ पर होता हा..(बेवकूफ़ी की एक और मिसाल!!).
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शोभना जी. अब नियमित पोस्ट प्रकाशित करूंगी.
जवाब देंहटाएंyou are an all rounder a true creative artist... your narration style is simple and effective at the same time...
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद रजत जी.
जवाब देंहटाएंवन्दना जी ,
जवाब देंहटाएंआप की इस पोस्ट ने बहुत कुछ याद दिला दिया ,वो रिक्शे पर बैठा टिन का भोपा लिए उद्-घोषक का पूरे गले से चिल्ला कर प्रचार करना , रिक्शे के तीन ओर फिल्म के बड़े-बड़े पोस्टर बंधे होना यह था पहला दृश्य काळ ५२-५५ वर्षों पूर्व
दूसरा दृश्य फ्लैश बैक लगभग ५०-४८ वर्षों का है फर्क 'अब बैटरी का भोपा था , बीच - बीच में ऐनाउन्स के बाद उस फिल्म का गाना बजा देते थे पहले हाथ से चाभी भरने वाला ग्रामाँफोन था फिर बैटरी वाला आवा आदि आदि |
वैसे आप बड़ी jaldi बचपन की यादें दोहराने लगीं ,मेरा तो मानना है .......----
मुझसे कहते हो ,
जो बीत गया सो बीत गया ,
पर खुद किसी बहाने से ही ,
मस्त यादें कालेज की दोहराते हो ||
अभी तो यादें दोहराते हो कालेज की ,
क्यूँ की उम्र है अभी बयालीस की ,
आगे रह रह दोहराओगे यादें बचपन की ,
जब गुजरेगी उम्र पॉँच ऊपर पचपन की ||
क्या करूं भगवती जी, मुझे तो आज का माहौल बिल्कुल रास नहीं आ रहा. इसीलिये अभी से बीते दिन याद करने लगी.
जवाब देंहटाएंवंदना जी ,,आपका यह लेख भी भी पुरानी यादो में ले गया....बिलकुल ऐसा ही मैंने भी जिया है अमुमम ३६ से ४० वर्षीय सभी ब्लोगेर के साथ यह गुजरा होगा ....मुझे याद आ रहा है एक शरारती बच्चे ने परदे पर एक छोटा सा पत्थर मार कर एक गली में दौड़ लगा दी थी ...काफी हो हल्ला हुआ था ...हम तो परदे के कभी इस पार जाकर देखते थे कभी उस पार ..और जब हीरो राईट साइड से लेफ्ट साइड दीखता तो हैरान हो कर दीदी को जाकर बताते ..की उस तरफ से भी दीखता है...तब दीदी की डाट पड़ती ...क्यूंकि वो भी तो सुध बुध खो कर फिल्म का मजा लेती रहती ....और जब लाइट के सामने कोई आ जाता और उसका shadow दीखता तो एक पल को हंसी भी आती और थोडी देर में गुस्सा.....गोल्डन टाइम था वाकई ...आपके अगले लेख के इंतजार में .....
जवाब देंहटाएंखूब याद दिलाया अजय जी. कुछ शरारती बच्चे जो प्रोजेक्टर के पास बैठे होते थे वे बीच-बीच में हाथ उठाकर परदे पर अपनी मौजूदगी भी दर्ज़ करते रहते थे..
जवाब देंहटाएंमै बार बार आपको पढने आपके ब्लॉग पे आ जाती हूँ ...पहले पढ़ा हुआ भी , दोबारा पढने से उतनाही आनंद देता है !
जवाब देंहटाएंवंदनाजी ,
जवाब देंहटाएंकहने आयी ,कि , कल रात इस्मत जी से बात हुई .....बड़ा अच्छा लगा ...! आपका तहे दिलसे शुक्रिया !
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वन्दना जी
जवाब देंहटाएंहमें बीते दिनों की याद ताजा करा दी, इन्हीं गणेशोत्सव के दिनों में चूंकि इन्दौर शहर अपने कपड़ा मिलों की वजह से औधोगिक शहर रहा है और कपड़ा मिलों ने गणेशोत्सव को व्यापक स्वरूप प्रदान किया था।
बस अपने घर से बारदान (जूट का खाली बैग)लेकर बस निकल पड़ते थे और जहाँ जो फिल्म अच्छी लगी वहीं रुके और देखी। फिर सुबह स्कूल में साथियों से चर्चा क्या दिन थे और क्या मजा।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
aapne ek baar fir bachpan ke uss suneharay daur me pahuncha diya jiss say kabhi ham bhi aisay hii meethey anubhavo ka rishta jod chuke hein ...
जवाब देंहटाएंshukriya ...
vaवह आaपने तो हमे भी य्eाद दिलव दिया हम भी रोड शो देखा करते थे । सच मे वो भोला भाला बचपन खो गया है। हम तो आज भी उस बचपन को जीने की कामना करते हैं हमारे बच्चे तो शायद उसको सच भी ना माने बहुत बडिया आलेख है बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छे
जवाब देंहटाएंआज अपनी बेटी को ही देखती हूं तो सोचती हूं कि इसकी उम्र में मैं कितनी मासूम थी। केवल पढाई और बेवकूफ़ियां। पढाई तो आजके बच्चे कुछ ज़्यादा ही करते हैं लेकिन मासूमियत?
जवाब देंहटाएंaapki baat bikul sahi..
aaj ka pariwesh baccho ko sab kuch de raha hai 'masymiyat' ke alawa..
bahut accha lekh..
badhai..
" masumiyat nahi rahi hai aaj ke din me ..magar bahut accha laga lekh padhaker jaise koi mere bachapan ke din yaad dila raha hai ...."
जवाब देंहटाएं" dhanyawad aur fir jald se nayi post leker aaiyega aisi binati "
----- eksacchai {AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
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बहुत-बहुत धन्यवाद क्षमा जी, शमा जी, मुकेश जी,प्रमोद जी, निर्मला जी,विपिन जी, अदा जी, और "सच्चाई" जी
जवाब देंहटाएंदेर से आने के लिये माफी चाहुंगा पर यकिन मनिये पुराने दिनो कि याद दिला दी आपने .........यह बात भी सही है आज कल के बच्चे तो कुछ ज्यादा ही समझदार है .....यह बात भी सही है कि इसका एक मात्र स्रोत टी वी ही है.......बहुत बहुत सुक्रिया
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंहां देर से तो आये हैं आप.....चलिये हमने माफ़ किया.
जवाब देंहटाएंaapki post padi bahut achhi lagi apki khushfahmia bhi pyari thi...sach me truck wake bhi kitne murakh hai..truck ke peechhe likhte hai...
जवाब देंहटाएंआपकी चिंता जायज है।
जवाब देंहटाएंआपसे निवेदन है कि अपनी लेखनी को विराम न दिया करें।
( Treasurer-S. T. )
Masoomiyat sirf teen char saal ke bachcho mein hi rah gayi hai .....baki to T V per itne programme dekhker paripakva ho jate hai ki masoomiyat jane kahan chomanter ho jati hai ..... time time ki baat hai ...ye aaj ka time hai.....ye aaj ke bachche hai....ab masoom hai ya hoshiyaar....hamare desh ke karndhar hai
जवाब देंहटाएं० धन्यवाद राज जी.
जवाब देंहटाएं० अर्शिया जी मैं कोशिश करूंगी की नियमित लेखन-प्रकाशन करूं.
० धन्यवाद पूनम जी.
एक दौर ऐसा आयेगा
जवाब देंहटाएंजब चेहरा लोगों का
टीवी जैसा हो जाएगा!
[यह फूलिश लग सकता है]
----
जारी रहें.
आप हैं उल्टा तीर के लेखक / लेखिका? [उल्टा तीर] please visit: ultateer.blogspot.com
आपको धन्यवाद कहने आयी हूँ ..'एक सवाल तुम करो ' पे ( नीरज जी का आलेख) जो comment किया उसके लिए ...सच कहा है आपने ,लोकतंत्र में एकजुट ना हो ,तो हम कहीँ के नही रहेंगे ..,अलका जी , 10,000 bloggers की बात करती हैं , मेरे विचारसे 100 भी इकट्ठे हों तो बहुत बड़ी बात होगी ...
जवाब देंहटाएंhttp://shamasansmaran.blogspot.com
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*धन्यवाद अमित जी.
जवाब देंहटाएं*धन्यवाद कैसा शमा जी? बल्कि आपके इस अभियान के लिये हमें ही धन्यवाद कहना चाहिये.
accha laga aapka lekh padhkar. krupya prayaasrat rahein.
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद आप का लिखा हुआ पढने को मिला,
जवाब देंहटाएंआप ने एकदम दुरुस्त फ़रमाया है,आप ने इसके साथ-साथ महत्वपूर्ण और सारगर्भित मुद्दा उठाया है....
ज़रा यहाँ भी निगाह डाले :- "बुरा भला" ने जागरण की ख़बर में अपनी जगह बनाई है |
जवाब देंहटाएंhttp://in.jagran.yahoo.com/news/national/politics/5_2_5767315.html
* धन्यवाद हरिनाथ जी.
जवाब देंहटाएं* धन्यवाद प्रसन्न जी.
वंदना जी, मेरी कवितायेँ कहीं संकलित नहीं हैं..अगर होता तो मैं जरूर भेजता...पर भविष्य में कभी गर ऐसा हुआ, तो आपको उसकी प्रति भेजना मेरे लिए सौभाग्य की बात होगी.
जवाब देंहटाएंbahut hi achcha lekha hai........ ek baat sahi kahi hai apne ki maasumiyat nahi rahi ab.......
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आने के लिए और टिपण्णी देने के लिए शुक्रिया! मेरे अन्य ब्लोगों पर भी आपका स्वागत है!
जवाब देंहटाएंमुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! बहुत बढ़िया लिखा है आपने! इस शानदार पोस्ट के लिए बधाई!
-कभी कभी बचपन की यादों में खो जाना बहुत अच्छा लगता है.aap ने अपने संस्मरण बांटे ..शुक्रिया..
जवाब देंहटाएं-यह भी कड़वा सच है की आज कल के बच्चे अपना बचपन किताबों और माता पिता की मह्त्वाकंषाओं में खो रहे हैं..
०-धन्यवाद महफ़ूज जी.
जवाब देंहटाएं०-धन्यवाद बबली जी.
०-धन्यवाद अल्पना जी.
तमाम चैनल हैं न परिपक्व करने के लिये.
जवाब देंहटाएंठीक कहा चैनल शायद (!) परिपक्व (?) करते है.
बहुत ही करीब से गुजरती है आपकी यह रचना. पुरानी बाते और -----
mam..... plz mera aaj ka lekh TATA ka sach zaroor dekhiyega........
जवाब देंहटाएंसमय बदल रहा है....बदलता ही जा रहा है... और यादें बन कर जेहन में जमा होता जा रहा है... जैसे यह आर्टिकल अभी-अभी इक याद बन कर जेहन के किसी खजाने के कौन से हिस्से में जाकर जमा हो गया है...सो मुझे भी नहीं नहीं पता....बीतते हुए समय के साथ हम सब खुद भी इक याद हो जाते हैं....हो जाते हैं ना....??!!
जवाब देंहटाएंवंदना जी आप का ब्लॉग पहली बार ही पढ़ा ,बहुत जानदार रचना की आपने ,आपको मेरी तरफ से बधाई
जवाब देंहटाएं०-धन्यवाद वर्मा जी.
जवाब देंहटाएं०- धन्यवाद कमलेश जी.
०-धन्यवाद भूतनाथ जी.
०-महफ़ूज़ जी हमने आपका आलेख पढ लिया है. लाजवाब है.
bahut sundar rachna hai.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद नवीन जी.
जवाब देंहटाएंआपका संस्मरण सुखद क्षणों तक ले गया ........ अपनी बेटियों से चर्चा की तो वे हैरान रह गईं..........आप लोग खुले में कैटल क्लास की तरह फिल्में देखते थे..........उन्हें क्या समझाया जाए......आपके लेखन में रवानगी है..लिखती रहिए.........आपके लिखे के साथ अपनी सच्चाई-सी जुडी नज़र आती है..
जवाब देंहटाएंवंदनाजी आप का मेरे ब्लॉग पर आना अच्छा लगा.बचपन के दिन भी क्या दिन थे, हम सभी बचपन की यादो से जुड़े हुए है.
जवाब देंहटाएंएक दौर ऐसा आयेगा
जवाब देंहटाएंजब चेहरा लोगों का
टीवी जैसा हो जाएगा!
बहुत ही अच्छी कविता लिखी है
आपने काबिलेतारीफ बेहतरीन
SANJAY KUMAR
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