कल मेरे विद्यालय में बच्चों का परीक्षा-फल घोषित किया गया। कुछ बच्चों ने बहुत अच्छे अंक प्राप्त किए तो कुछ कक्षा में पीछे रह गए। ऐसा तो होता ही है। हर बच्चा बराबरी पर तो नहीं ही होता। नर्सरी कक्षाओं को छोड़ कर। अभिवावक भी इन परिणामों से संतुष्ट ही रहते हैं। लेकिन एक विद्यार्थी की माँ ने जो रवैया अपनाया उससे मैं आज भी व्यथित हूँ। अपने आप को रोक नहीं पाई, लिखने से। वैसे भी दिल का बोझ मैं लिखकर ही उतारती हूँ।
तो हुआ ये की कक्षा पाँच के इस विद्यार्थी की माँ ने जैसे ही देखा की उनका बच्चा कक्षा में चौथे स्थान पर है, उन्होंने शिक्षकों पर अनावश्यक दोषारोपण शुरू कर दिया। ये जाने बिना की उनके बेटे ने प्रश्न-पत्रों में क्या और कितनी गलतियाँ कीं हैं। बच्चे के सामने ही उनका आरोप था की उनके बेटे के साथ दुश्मनी निभाई गयी है, उसे जानबूझ कर चौथा स्थान दिया गया। ये अलग बात है, की उनका बेटा वैसे भी दूसरा या तीसरा स्थान ही प्राप्त करता था।
हो सकता है, की पूर्व के विद्यालयों में उनका अनुभव कुछ इसी प्रकार का रहा हो; लेकिन हर संस्था को एक ही निगाह से कैसे देखा जा सकता है? पिछले सत्र में ही ये बच्चा हमारी संस्था में आया और मैंने अनुभव किया कि उससे सम्बन्धित हर बात में इस बच्चे की माँ ने अनावश्यक हस्तक्षेप किया। हर बात में बेटे की गलती को नज़र अंदाज़ किया।
सवाल ये है कि यदि वे सी तरह अपने बेटे की हर ग़लत बात का पक्ष लेतीं रहेंगीं,तो उस बच्चे या उस जैसे बच्चों का का भविष्य क्या होगा?
मां-बाप अपने बच्चों की गलतियां नजर अन्दाज करके उनके नम्बर सबसे अच्छे चाहते हैं। इससे बच्चों का ही नुकसान होता है। विचारणीय पोस्ट्!
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